कृतिकर्म विधि का सार अंगबाह्य के १४ भेदों में से ‘कृतिकर्म’ नाम का अंगबाह्य अनादि निधन है। अत: कृतिकर्मविधि पूर्वक वंदना आदि करना अनादि व्यवस्था है। इसमें णमोकार मंत्र व चत्तारिमंगल अनादि हैं। सामायिक दण्डक में ‘अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु’ जो पद है उस पर प्रकाश डाला है। प्रथम जंबूद्वीप, द्वितीय धातकीखंडद्वीप, तृतीय पुष्करद्वीप में बीचों बीच में मानुषोत्तर पर्वत हैं। इसमें इधर के आधे द्वीप तक कर्मभूमि है आगे मानुषोत्तर पर्वत से परे भोगभूमि है। अत: कर्मभूमि ढाईद्वीप तक ही हैं। ये जंबूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत व एक महाविदेह ऐसी तीन कर्मभूमि हैं। धातकीखंड में दो भरत, दो ऐरावत, दो महाविदेह ऐसी छह कर्मभूमियाँ हैं। इसी प्रकार पुष्करार्ध द्वीप में दो भरत, दो ऐरावत व दो महाविदेह ऐसी छह कर्मभूमियाँ हैं। ये ३ + ६ + ६ = १५ कर्मभूमियाँ हैं। इन्हीं में तीर्थंकर भगवान, सामान्य केवली भगवान, अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु ये पांच परमेष्ठी होते हैं, इनकी वंदना है पुन: ज्ञान दर्शन और चारित्र की वंदना है। इन पंचपरमेष्ठी व रत्नत्रय की कृतिकर्म विधिपूर्वक वंदना है। पुन: विधिवत् कायोत्सर्ग के बाद ‘‘थोस्सामि स्तव’’ में वर्तमानकालीन ऋषभदेव से महावीरस्वामी तक चौबीस तीर्थंकरों की वंदना है। प्रत्येक चतुर्थ कालों में भिन्न—भिन्न चौबीसी के नाम भिन्न भिन्न हो जावेंगे, यह ध्यान में रखना है तथा विदेह क्षेत्रों में चौबीस तीर्थंकर का नियम न होने से वहां पर सामान्यरूप से तीर्थंकर प्रभु की वंदना होती है ऐसा मूलाचार में आया है। यहाँ कृतिकर्म विधि में १२ आवर्त, ४ शिरोनति व २ प्रणाम यथास्थान किये जाते हैं। उस विधि को अच्छी तरह समझना व समझाना है।
इति श्रीगौतमस्वामीप्रणीत—श्रीगौतमगणधरवाण्यां गणिनीज्ञानमतीविरचित—अमृतर्विषणीटीकायां कृतिकर्मविधिनामा द्वितीयोऽध्याय: समाप्त: ।