णोइंदियआवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा।
सा जस्स सो दु सण्णी, इदरो सेिंसदिअवबोहो।।१५९।।
नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमस्तज्जबोधनं संज्ञा।
सा यस्य स तु संज्ञी इतर: शेषेन्द्रियावबोध:।।१५९।।
अर्थ — नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा जिसके हो उसको संज्ञी कहते हैं और जिनके यह संज्ञा न हो किन्तु केवल यथासम्भव इंद्रियजन्य ज्ञान हो उनको असंज्ञी कहते हैं।
भावार्थ —जीव दो प्रकार के होते हैं — एक संज्ञी दूसरे असंज्ञी । संज्ञा शब्द से मुख्यतया तीन अर्थ लिये जाते हैं।
१. नाम निक्षेप, जो कि व्यवहार के लिय किसी का रख दिया जाता है। जैसे—ऋषभ, भरत, बाहुबली, अर्ककीर्ति, महावीर आदि।
२. आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की इच्छा।
३. धारणात्मक या ऊहापोहरूप विचारात्मक ज्ञान विशेष। प्रकृत में यह अंतिम अर्थ ही विवक्षित है। यह दो प्रकार का हुआ करता है—लब्धिरूप और उपयोगरूप। प्रतिपक्षी नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त विशुद्धि को लब्धि और अपने विषय में प्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं। जिनके यह लब्धि या उपयोग रूप मन—ज्ञान विशेष पाया जाय उनको संज्ञी कहते हैैं और जिनके यह मन न हो उनको असंज्ञी कहते हैं। इन असंज्ञी जीवों के मानस ज्ञान नहीं होता, यथासंभव इंद्रियजन्य ज्ञान ही होता है।
सिक्खाकिरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेण।
जो जीवो सो सण्णी, तव्विवरीओ असण्णी दु।।१६०।।
शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही मनोऽवलम्बेन।
यो जीव: स संज्ञी तद्विपरीतोऽसंज्ञी तु।।१६०।।
अर्थ—हित का ग्रहण और अहित का त्याग जिसके द्वारा किया जा सके उसको शिक्षा कहते हैं। इच्छापूर्वक हाथ पैर के चलाने को क्रिया कहते हैं। वचन अथवा चाबुक आदि के द्वारा बताए हुए कर्तव्य को उपदेश कहते हैं और श्लोक आदि के पाठ को आलाप कहते हैं।
जो जीव इन शिक्षादिक को मन के अवलम्बन से ग्रहण—धारण करता है उसको संज्ञी कहते हैं और जिन जीवों में यह लक्षण घटित न हो उनको असंज्ञी समझना चाहिए।
मीमंसदि जो पुव्वं, कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च।
सिक्खदि णामेणेदि य, समणो अमणो य विवरीदो।।१६१।।
मीमांसति य: पूर्वं कार्यमकार्यं च तत्त्वमितरच्च।
शिक्षते नाम्ना एति च समना: अमनाश्च विपरीत:।।१६१।।
अर्थ—जो जीव प्रवृत्ति करने के पहले अपने कर्तव्य और अकर्तव्य का विचार करे तथा तत्व और अतत्व का स्वरूप समझ सके और उसका जो नाम रखा गया हो उस नाम के द्वारा बुलाने पर आ सके, उन्मुख हो अथवा उत्तर दे सके उसको समनस्क या संज्ञी जीव कहते हैं और इससे जो विपरीत है उसको अमनस्क या असंज्ञी कहते हैं।
जीव दो प्रकार के होते हैं—संज्ञी और असंज्ञी।
संज्ञी—नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम या उससे उत्पन्न ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। वह जिसके हो वह संज्ञी कहलाता है अर्थात् मन सहित जीव संज्ञी हैंं। ये शिक्षा, उपदेश, संकेत ग्रहण कर सकते हैं।
असंज्ञी—मन रहित जीव असंज्ञी कहलाते हैं। ये शिक्षा, उपदेश आदि नहीं समझ सकते। हित में प्रवृत्ति और अहित से हटना भी नहीं समझ सकते हैं।
सम्पूर्ण देव, नारकी, मनुष्य और मन सहित पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी हैं। शेष एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सभी जीव असंज्ञी हैं। ये अनंत संसारी जीव असंज्ञी हैं।
तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव और सिद्ध जीव संज्ञी, असंज्ञी अवस्था से रहित आत्मज्ञान से परिपूर्ण केवलज्ञानी हैं।