राजा मधुसुन्दर का वह दिव्य शूलरत्न यद्यपि अमोघ था फिर भी शत्रुघ्न के पास वह निष्फल हो गया, उसका तेज छूट गया और वह अपनी विधि से च्युत हो गया। तब वह (उसका अधिष्ठाता देव) खेद, शोक और लज्जा कोधारण करता हुआ अपने स्वामी असुरों के अधिपति चमरेन्द्र के पास गया। शूलरत्न के द्वारा मधु के मरण का समाचार सुनकर चमरेन्द्र को बहुत ही दुःख हुआ। वह बार-बार मधु के सौहार्द का स्मरण करने लगा। तदनंतर वह पाताल लोक से निकलकर मथुरा जाने को उद्यत हुआ। तभी गरुड़कुमार देवों के स्वामी वेणुधारी इन्द्र ने इसे रोकने का प्रयास किया। किन्तु यह नहीं माना और मथुरा में पहुँच गया। वहाँ चरमेन्द्र ने देखा कि मथुरा की प्रजा शत्रुघ्न के आदेश से बहुत बड़ा उत्सव मना रही है तब वह विचार करने लगा – ‘‘ये मथुरा के लोग कितने कृतघ्न हैं कि जो दुःख – शोक के अवसर पर भी हर्ष मना रहे हैं। जिसने हमारे स्नेही राजा मधु को मारा है मैं उसके निवास स्वरूप इस समस्त देश को नष्ट कर दूँगा।’’ इत्यादि प्रकार से क्रोध से प्रेरित हो उस चमरेन्द्र ने मथुरा के लोगों पर दुःसह उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। जो जिस स्थान पर सोये थे बैठे थे वे महारोग (महामारी) के प्रकोप से दीर्घ निद्रा को प्राप्त हो गये – मरने लगे। इस महामारी उपसर्ग को देखकर कुल देवता की प्रेरणा से राजा शत्रुघ्न अपनी सेना के साथ अयोध्या वापस आ गये। विजय को प्राप्त कर आते हुए शूरवीर शत्रुघ्न का श्री राम- लक्ष्मण ने हर्षित हो अभिनंदन किया।