उदयावण्णसरीरोदयेण तद्देहवयणचित्ताणं।
णोकम्मवग्गणाणं, गहणं आहारयं णाम।।१६२।।
उदयापन्नशरीरोदयेन तद्देहवचनचित्तानाम्।
नोकर्मवर्गणानां ग्रहणमाहारकं नाम।।१६२।।
अर्थ—शरीरनामा नामकर्म के उदय से देह—औदारिक, वैक्रियक, आहारक इनमें से यथासंभव किसी भी शरीर तथा वचन और द्रव्य मनरूप बनने के योग्य नोकर्मवर्गणाओं का जो ग्रहण होता है उसको आहार कहते हैं।
विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घदो अजोगी य।
सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारया जीवा।।१६३।।
विग्रहगतिमापन्ना: केवलिन: समुद्घाता अयोगिनश्च।
सिद्धाश्च अनाहारा: शेषा आहारका जीवा:।।१६३।।
अर्थ—विग्रहगति को प्राप्त होने वाले चारों गति संबंधी जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करने वाले सयोगिकेवली, अयोगिकेवली, समस्त सिद्ध इतने जीव तो अनाहारक होते हैं और इनको छोड़कर शेष सभी जीव आहारक जीव हैं।
वेयणकसायवेगुव्वियो य मरणंतियो समुग्घादो।
तेजाहारो छट्ठो, सत्तमओ केवलीणं तु।।१६४।।
वेदनाकषायवैगुर्विकाश्च मारणान्तिक: समुद्घात:।
तेज आहार: षष्ठ: सप्तम: केवलिनां तु।।१६४।।
अर्थ—समुद्घात के सात भेद हैं—वेदना, कषाय, वैक्रियक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक, केवली। इनका स्वरूप लेश्यामार्गणा के क्षेत्राधिकार में कहा जा चुका है, इसलिये यहाँ पर नहीं कहा है।
मूलसरीरमछंडिय, उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स।
णिग्गमणं देहादो, होदि समुग्घादणामं तु।।१६५।।
मूलशरीरमत्यक्त्वा उत्तरदेहस्य जीवपिण्डस्य।
निर्गमनं देहाद् भवति समुद्घातनाम तु।।१६५।।
अर्थ—मूल शरीर को न छोड़कर तैजस, कार्मण रूप उत्तर देह के साथ जीव प्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं।
जीव के दो भेद हैं—आहारक और अनाहारक।
शरीर नामकर्म के उदय से औदारिक आदि किसी शरीर के योग्य तथा वचन, मन के योग्य वर्गणाओं का यथासम्भव ग्रहण होना आहार है उसको ग्रहण करने वाला जीव आहारक है। इसके विपरीत अर्थात् नोकर्म वर्गणाओं को ग्रहण न करने वाले जीव अनाहारक हैं।
अनाहारक जीव—विग्रहगति वाले जीव, केवली समुद्घात में प्रतर और लोकपूरण समुद्घात वाले सयोगिकेवली जीव तथा अयोगिकेवली और सभी सिद्ध अनाहारक होते हैं।
आहारक जीव—उपर्युक्त अनाहारक से अतिरिक्त शेष सभी जीव आहारक होते हैं।
आहारक के छह भेद हैं—कवलाहार, कर्माहार, नोकर्माहार, लेपाहार, ओज आहार और मानसिक आहार।
ग्रास उठाकर खाना कवलाहार है। यह सभी मनुष्य और तिर्यंच आदि में होता है। आठ कर्मयोग्य वर्गणाओं का ग्रहण करना कर्माहार है, यह विग्रहगति में भी होता है। शरीर और पर्याप्ति के योग्य नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण करना नोकर्माहार है यह केवली भगवान के भी होता है, उनके भी शरीर के योग्य वर्गणायें आ रही हैं वे आहारक हैं। फिर भी वे कवलाहार नहीं करते हैं। जो लेप से पोषण होता है वह लेपाहार है, यह वृक्षों में पाया जाता है। जो शरीर की गर्मी से पोषण करता है वह ओजाहार है जैसे—मुर्गी अण्डे को सेकर गर्मी देती है। देवों के मन में इच्छा होते की कंठ से अमृत झर कर तृप्ति हो जाती है यह मानसिक आहार है। देव लोग बलि या माँस भक्षण अथवा सुरापान आदि नहीं करते हैं।
अनाहारक का उत्कृष्ट काल तीन समय और जघन्यकाल एक समय है। आहारक का जघन्यकाल तीन समय कम श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट काल सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
आहारक मार्गणा को समझकर कवलाहार के त्यागपूर्वक उपवास, तपश्चरण करते हुए कर्म-नोकर्माहार से रहित अनाहारक सिद्ध पद प्राप्त करना चाहिए।