‘‘कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता: परस्परवैरिण:। विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशष्वसु:।।१।।’’
अर्थ— कलुष हृदय वाले, मान से ग्रसित ऐसे परस्पर में जन्मजात वैर रखने वाले पशुगण एवं परस्पर में शत्रुता को प्राप्त ऐसे मनुष्य भी आपके चरणों का आश्रय लेकर कलुष—वैरभाव रहित होकर परस्पर में विश्वास को—प्रीति को प्राप्त हो रहे हैं। इसी बात को श्रीसमन्तभद्रस्वामी ने कहा है—
नयसत्त्वर्तव: सर्वे गव्यन्ये चाप्यसंगता।स्तुतिविद्या,
नय, सत्व—प्राणी और ऋतुएँ ये तीनों जैन शासन में परस्पर विरोधी होते हुए विरोध को छोड़कर मैत्रीभाव को प्राप्त कर लेते हैं। जैनधर्म के अनुसार द्रव्र्यािथक नय कहता है—आत्मा नित्य है, जन्म—मरण से रहित है, पर्यार्यािथक नय कहता है कि—आत्मा अनित्य है, जन्म—मरण के निमित्त से देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी आदि पर्यायों को धारण करता है। कथंचित्—अपेक्षा से ये दोनों बातें सही हैं आत्मा नित्य भी है क्योंकि अनादिकाल से अनन्त काल तक विद्यमान है। पर्यायों की अपेक्षा अनित्य भी है क्योंकि मनुष्य को छोड़कर देव में जन्म लेता है इत्यादि। ऐसे ही परस्पर विरोधी प्राणी भी महामुनियों का और तीर्थंकर भगवन्तों का आश्रय लेकर परस्पर के वैर को छोड़कर प्रीति को प्राप्त हो जाते हैं।
सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतम्। मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशा केकिकांता भुजंगीम्।।
वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति।। ‘श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनां क्षीणमोहम्।।
हरिणी सिंह के बच्चे को पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है, गाय व्याघ्र के बालक को, बिल्ली हंस के बच्चे को एवं मयूरनी प्रेम के वश में सर्प के बच्चे को प्यार करने लगती है। जन्म से ही वैर को धारण करने वाले ऐसे क्रूर पशु भी वैर, अभिमान आदि को छोड़ देते हैं। कब ? जबकि ये परमसाम्य को प्राप्त क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषों से रहित ऐसे महायोगियों का आश्रय ले लेते हैं। इसी प्रकार इन तीर्थंकर भगवंतों के समवसरण के प्रभाव से कितने ही कोसों तक छहों ऋतुओं के फल—फूल एक साथ आ जाते हैं।