प्रथम अधिकार
गाथा नं. १
प्रश्न-मंगलाचरण में किसे नमस्कार किया है?
उत्तर-मंगलाचरण में जिनवरों में श्रेष्ठ तीर्थंकर भगवान को नमस्कार किया है।
प्रश्न-जिनवर किन्हें कहते हैं ?
उत्तर-कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले जिन, जिनवर अथवा जिनेन्द्र देव कहलाते हैं।
प्रश्न-तीर्थंकर किन्हें कहते हैं ?
उत्तर-धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं।
प्रश्न-द्रव्य कितने हैं?
उत्तर-मुख्यरूप से द्रव्य के दो भेद हैं-१. जीव द्रव्य २. अजीव द्रव्य।
प्रश्न-जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसमें चेतना गुण पाया जाता है, उसे जीव कहते हैं। जैसे-मनुष्य, पशु-पक्षी, देव, नारकी आदि।
प्रश्न-अजीव किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसमें ज्ञान-दर्शन चेतना नहीं हो, वह अजीव है। अजीव के पाँच भेद हैं-(१) पुद्गल द्रव्य (२) धर्मद्रव्य (३) अधर्म द्रव्य (४) आकाशद्रव्य (५) कालद्रव्य।
प्रश्न-तीर्थंकर भगवान कितने इन्द्रों से वंदनीय होते हैं?
उत्तर-तीर्थंकर भगवान सौ इन्द्रों से वंदनीय होते हैं”
प्रश्न-सौ इन्द्र कौन-कौन से हैं?
उत्तर-भवणालय चालीसा, विंतरदेवाण होंति बत्तीसा। कप्पामर चउवीसा, चन्दो सूरो णरो तिरिओ।। भवनवासियों के ४० इन्द्र, व्यन्तरों के ३२, कल्पवासियों के २४, ज्योतिषियों के २-चन्द्र और सूर्य, मनुष्यों का १-चक्रवर्ती तथा पशुओं का १-सिंह। ये कुल (४०+३२+२४+२+१+१) १०० इन्द्र होते हैं।
जीव द्रव्य के नव अधिकार गाथा नं. २
प्रश्न-जीव के नौ अधिकारों के नाम कौन-कौन से हैं?
उत्तर-१. जीवत्व २. उपयोगमयत्व ३. अमूर्तिकत्व ४. कर्तृत्व ५. स्वदेहपरिमाणत्व ६. भोक्तृत्व ७. संसारित्व ८. सिद्धत्व ९. ऊर्ध्वगमनत्व।
प्रश्न-आत्मा का ऊध्र्वगमन स्वभाव क्यों कहा गया है ?
उत्तर-कोई ऐसा मानता है कि आत्मा जिस स्थान से मुक्त होता है-उसी स्थान पर रह जाता है। इसलिए उस सिद्धान्त का निराकरण करने के लिए जीव ऊध्र्वगमन करता है, ऐसा कहा गया है।
प्रश्न-अन्य ग्रंथों में जीव को उपयोगमय माना है और इस ग्रंथ में जीव के नौ अधिकार हैं, यह भेद क्यों किया है ?
उत्तर-यद्यपि उपयोगमय जीव का लक्षण ही वास्तविक है, तथापि शिष्यों को विशेषरूप से समझाने के लिए नौ अधिकार कहे हैं।
जीवत्व का लक्षण (गाथा नं. ३)
प्रश्न-व्यवहारनय किसे कहते हैं?
उत्तर-वस्तु के अशुद्ध स्वरूप को ग्रहण करने वाले ज्ञान को व्यवहारनय कहते हैं।
प्रश्न-व्यवहारनय से जीव का लक्षण बताइये?
उत्तर-जिसमें तीनों कालों में चार प्राण पाये जाते हैं, व्यवहारनय से वह जीव है।
प्रश्न-चार प्राण कौन से हैं ?
उत्तर-इन्द्रिय, बल, आयु और स्वासोच्छ्वास।
प्रश्न-निश्चयनय किसे कहते हैं?
उत्तर-वस्तु के शुद्ध स्वरूप का कथन करने वाले नय को निश्चयनय कहते हैं।
प्रश्न-निश्चयनय से जीव का लक्षण बताइये?
उत्तर-जिसमें चेतना पायी जाती है, निश्चयनय से वह जीव है।
प्रश्न-एकेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-एकेन्द्रिय जीव के चार प्राण होते हैं-स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास।
प्रश्न-द्वीन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-१. स्पर्शन इन्द्रिय २. रसना इन्द्रिय ३. वचनबल ४. कायबल ५. आयु ६. श्वासोच्छ्वास ये कुल ६ प्राण द्वीन्द्रिय जीव के होते हैं।
प्रश्न-तीन इन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-तीन इन्द्रिय जीव के सात प्राण होते हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास।
प्रश्न-चार इन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु ये चार इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास इस प्रकार कुल ८ प्राण चार इन्द्रिय जीव के होते हैं।
प्रश्न-असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं।
उत्तर-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये कुल ९ प्राण असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के होते हैं।
प्रश्न-संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के दस प्राण होते हैं-पाँचों इन्द्रियाँ, तीनों बल, आयु और श्वासोच्छ्वास।
प्रश्न-एक मात्र चेतना प्राण किनके होता है?
उत्तर-सिद्ध भगवान के दस प्राणों में से कोई भी प्राण नहीं है। उनको मात्र एक चेतना प्राण माना है।
उपयोग का वर्णन (गाथा नं. ४)
प्रश्न-उपयोग किसे कहते हैं?
उत्तर-चैतन्यानुविधायी आत्मा के परिणाम को उपयोग कहते हैं।
प्रश्न-दर्शनोपयोग किसे कहते हैं?
उत्तर-जो वस्तु के सामान्य अंश को ग्रहण करे उसे दर्शनोपयोग कहते हैं।
प्रश्न-ज्ञानोपयोग किसे कहते हैं?
उत्तर-जो वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करे उसे ज्ञानोपयोग कहते हैं।
प्रश्न-चक्षुदर्शनोपयोग किसे कहते हैं?
उत्तर-चक्षु इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले ज्ञान के पहले जो वस्तु का सामान्य प्रतिभास होता है, उसे चक्षुदर्शनोपयोग कहते हैं।
प्रश्न-अचक्षुदर्शनोपयोग किसे कहते हैं?
उत्तर-चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र तथा मन से होने वाले ज्ञान के पहले जो वस्तु का सामान्य आभास होता है उसे अचक्षुदर्शनोपयोग कहते हैं।
प्रश्न-अवधिदर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-अवधिज्ञान के पहले जो वस्तु का सामान्य आभास होता है उसे अवधिदर्शन कहते हैं।
प्रश्न-केवलदर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-केवलज्ञान के साथ होने वाले दर्शन को केवलदर्शन कहते हैं।
ज्ञानोपयोग के भेद (गाथा नं. ५)
प्रश्न-मिथ्याज्ञान कितने होते हैं?
उत्तर-मिथ्या ज्ञान तीन हैं-१. कुमति २. कुश्रुत ३. कुअवधि।
प्रश्न-सम्यक्ज्ञान कितने होते हैं?
उत्तर-सम्यक्ज्ञान पाँच हैं-१. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मन:पर्ययज्ञान ५. केवलज्ञान।
प्रश्न-मतिज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है।
प्रश्न-श्रुतज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-मतिज्ञान पूर्वक होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है।
प्रश्न-अवधिज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक जो रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है वह अवधिज्ञान है।
प्रश्न-मन:पर्ययज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जो दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है, उसे मन: पर्ययज्ञान कहते हैं।
प्रश्न-केवलज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को एकसाथ जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं।
प्रश्न-प्रत्यक्षज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना सिर्फ आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है।
प्रश्न-परोक्षज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-इन्द्रिय और आलोक आदि की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे परोक्षज्ञान कहते हैं।
प्रश्न-प्रत्यक्ष ज्ञान कौन-कौन से हैं?
उत्तर-अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। इनमें भी अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एक देश प्रत्यक्ष कहलाते हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष कहलाता है।
उभयनय से उपयोग का लक्षण (गाथा नं. ६)
प्रश्न-शुद्ध निश्चयनय किसे कहते हैं?
उत्तर-वस्तु के शुद्धस्वरूप का कथन करने की प्रक्रिया को शुद्ध निश्चयनय कहते हैं।
प्रश्न-शुद्ध निश्चयनय से जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसमें शुद्ध दर्शन और ज्ञान पाया जाता है, शुद्ध निश्चयनय से वह जीव है।
प्रश्न-व्यवहारनय से (सामान्य) जीव का लक्षण क्या है?
उत्तर-व्यवहारनय से आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन जीव का लक्षण है।
प्रश्न-सामान्य किसको कहते हैं ?
उत्तर-जिसमें संसारी, मुक्त, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय आदि जीवों की विवक्षा न हो, उसको सामान्य जीव कहते हैं।
जीव अमूर्तिक है (गाथा नं. ७)
प्रश्न-मूर्तिक किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण पाया जाता है उसे मूर्तिक कहते हैं।
प्रश्न-अमूर्तिक किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं पाये जाते हैं, उसे अमूर्तिक कहते हैं।
प्रश्न-जीव मूर्तिक है या अमूर्तिक?
उत्तर-जीव मूर्तिक भी है और अमूर्तिक भी है।
प्रश्न-जीव मूर्तिक किस अपेक्षा से है?
उत्तर-संसारी जीव व्यवहारनय से मूर्तिक है। क्योंकि यह अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ है। कर्म पुद्गल है और पुद्गल मूर्तिक है। मूर्तिक के साथ रहने से अमूर्तिक आत्मा भी मूर्तिक कहा जाता है।
प्रश्न-जीव अमूर्तिक किस अपेक्षा से है?
उत्तर-निश्चयनय से जीव अमूर्तिक है, क्योंकि उसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं पाये जाते हैं।
प्रश्न-स्पर्श के कितने भेद हैं?
उत्तर-स्पर्श आठ प्रकार का होता है-रूखा, चिकना, ठंडा, गरम, हल्का, भारी, कड़ा (कठोर), नरम (मुलायम)।
प्रश्न-रस के कितने भेद हैं?
उत्तर-रस के पाँच भेद हैं-खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा और कषायला।
प्रश्न-गंध के कितने भेद हैं?
उत्तर-गंध दो प्रकार की होती है-सुगंध और दुर्गंध।
प्रश्न-वर्ण के कितने भेद हैं?
उत्तर-वर्ण पाँच प्रकार के होते हैं-काला, पीला, नीला, लाल और सफेद।
प्रश्न-हम सभी की आत्मा मूर्तिक है या अमूर्तिक है ?
उत्तर-हमारी आत्मा मूर्तिक है, क्योंकि हम अभी कर्म से बद्ध संसारी जीव हैं।
प्रश्न-सिद्ध भगवान की आत्मा वैâसी है?
उत्तर-सिद्ध भगवान अमूर्तिक हैं क्योंकि पुद्गल-कर्मबंध से सर्वथा रहित (छूट गये) हैं।
जीव कर्ता है (गाथा नं. ८)
प्रश्न-पुद्गल कर्म कौन-कौन से हैं?
उत्तर-ज्ञानावरण, दर्शनावरणादि आठ द्रव्य कर्म और छ: पर्याप्ति और तीन शरीर-ये नौ नोकर्म पुद्गल कर्म कहलाते हैं।
प्रश्न-भाव कर्म कौन से हैं?
उत्तर-राग, द्वेष, मोह आदि भावकर्म हैं।
प्रश्न-जीव के शुद्ध भाव कौन से हैं?
उत्तर-केवलज्ञान और केवलदर्शन जीव के शुद्धभाव हैं।
प्रश्न-कर्ता किसको कहते हैं ?
उत्तर-क्रिया या कार्य को करने वाले को कत्र्ता कहते हैं।
प्रश्न-नोकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-तीन शरीर और छह पर्याप्ति के योग्य पुद्गल वर्गणा को नोकर्म कहते हैं।
प्रश्न-जीव व्यवहार नय से किसका कत्र्ता है ?
उत्तर-व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का, नोकर्म का तथा घट-पटादिक का कर्ता है।
प्रश्न-अशुद्ध व शुद्ध निश्चयनय से किसका कर्ता है ?
उत्तर-अशुद्ध निश्चयनय से रागद्वेष आदि भाव कर्मों का कर्ता है, शुद्ध निश्चयनय से अपने शुद्ध चेतन भावों का कर्ता है, सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से कर्ता-कर्म-क्रिया का भेद ही नहीं है-तीनों एक हैं।
प्रश्न-राग-द्वेषादि को अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा के क्यों कहते हैं ?
उत्तर-कर्मोपाधि से राग-द्वेष उत्पन्न होता है इसलिए अशुद्ध है। जिस समय राग-द्वेष होते हैं, उस समय अग्नि से तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होकर होते हैं। राग-द्वेष आदि विकारों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आत्मा से भिन्न नहीं रहता है अत: निश्चय है। इन दोनों से मिलकर अशुद्ध निश्चयनय शब्द की निष्पत्ति हुई है।
प्रश्न-जीव को घट-पट आदि का कत्र्ता क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-व्यवहारनय से लौकिक दृष्टि से निमित्त-नैमित्तिक संबंध से जीव को घट-पट आदि का कत्र्ता कहा जाता है, क्योंकि घट-पट की निष्पत्ति में जीव का योग (मन-वचन-काय) उपयोग (ज्ञान) निमित्त है। निश्चयनय से पुद्गल की परिणति पुद्गल में है और आत्मा की परिणति आत्मा में है अत: आत्मा घट-पट आदि का कत्र्ता नहीं है। जैसे निश्चयनय से पुद्गल पिण्डरूप उपादान कारण से उत्पन्न घट व्यवहार में कुंभकारकृत कहलाता है, क्योंकि उसमें कुंभकार निमित्त है, उसी प्रकार अपने उपादान से कर्मरूप परिणाम निमित्त होते हैं, अत: निमित्त की अपेक्षा से जीव कर्मों का कत्र्ता और तज्जन्य कर्मों का अनुभव करने वाला होने से भोक्ता भी कहलाता है।
जीव भोक्ता है (गाथा नं. ९)
प्रश्न-आत्मा सुख-दु:ख का भोगने वाला किस अपेक्षा से है?
उत्तर-व्यवहारनय की अपेक्षा से।
प्रश्न-शुद्ध ज्ञान और शुद्ध दर्शन कौन से हैं?
उत्तर-केवलज्ञान और केवलदर्शन शुद्ध ज्ञान-दर्शन हैं। इन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन अथवा क्षायिकज्ञान-क्षायिकदर्शन भी कहते हैं।
प्रश्न-शुद्ध ज्ञान-दर्शन किस जीव के पाये जाते हैं?
उत्तर-अरहंत-केवली भगवान व सिद्धों में शुद्ध ज्ञान-दर्शन पाया जाता है।
प्रश्न-आत्मा शुद्ध ज्ञान-दर्शन का भोगने वाला किस नय की अपेक्षा से है?
उत्तर-निश्चयनय की अपेक्षा से।
प्रश्न-भोक्ता किसे कहते हैं ?
उत्तर-वस्तुओं को भोगने वाला, अनुभव करने वाला भोक्ता कहलाता है।
प्रश्न-सुख किसको कहते हैं ?
उत्तर-साता कर्म के उदय से उत्पन्न आल्हादरूप परिणाम को सुख कहते हैं।
प्रश्न-दु:ख किसको कहते हैं ?
उत्तर-असाता कर्म के उदय से उत्पन्न खेदरूप परिणाम को दु:ख कहते हैं।
विशेष-यह आत्मा निज शुद्ध आत्मीय ज्ञान से उत्पन्न परमार्थिक सुखामृतपान से शून्य हो उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से पंचेन्द्रियजन्य इष्ट-अनिष्ट विषयों से उत्पन्न सुख-दु:ख का भोक्ता है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से साता-असातारूप कर्म फल का भोक्ता है। अशुद्ध निश्चयनय से हर्ष-विषादरूप सुख-दु:ख परिणामों को भोक्ता है। शुद्ध निश्चयनय से निश्चयरत्नत्रय से उत्पन्न अविनाशी आनन्दामृत का भोक्ता है।
जीव स्वदेह बराबर है (गाथा नं. १०)
प्रश्न-जीव छोटे-बड़े शरीर के बराबर प्रमाण को धारण करने वाला वैâसे है?
उत्तर-जीव में संकोच-विस्तार गुण स्वभाव से पाया जाता है। इसलिए व्यवहारनय की अपेक्षा से वह अपने द्वारा कर्मोदय से प्राप्त शरीर के आकार प्रमाण को धारण करता है।
प्रश्न-इस बात को किस उदाहरण से समझा जा सकता है?
उत्तर-जिस प्रकार एक दीपक को यदि छोटे कमरे में रखा जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा और यदि वही दीपक किसी बड़े कमरे में रख दिया जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा। ठीक उसी प्रकार एक जीव जब चींटी के रूप में जन्म लेता है तो वह उसके शरीर में समा जाता है और जब वही जीव हाथी के रूप में जन्म लेता है तो उसके शरीर में समा जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जीव छोटे शरीर में पहुँचने पर उसके बराबर और बड़े शरीर में पहुँचने पर उस बड़े शरीर के बराबर हो जाता है। इसी दृष्टि से जीव को व्यवहारनय से अणुगुरु-देह प्रमाण वाला बतलाया है। समुद्घात में ऐसा नहीं होता है।
प्रश्न-समुद्घात के समय ऐसा क्यों नहीं होता?
उत्तर-इसका कारण यह है कि समुद्घात के समय जीव शरीर के बाहर फैल जाता है।
प्रश्न-जीव असंख्यातप्रदेशी किस नय की अपेक्षा से है?
उत्तर-जीव निश्चयनय की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी होता है।
प्रश्न-समुद्घात किसे कहते हैं?
उत्तर-मूल शरीर से संबंध छोड़े बिना आत्मप्रदेशों का तैजस व कार्मण शरीर के साथ बाहर फैल जाना समुद्घात कहलाता है।
प्रश्न-समुद्घात कितने प्रकार का होता है?
उत्तर-समुद्घात सात प्रकार का होता है-१-वेदना समुद्घात, २-कषायसमुद्घात, ३-विक्रिया-समुद्घात, ४-मारणांतिक समुद्घात, ५-तैजस समुद्घात, ६-आहारक समुद्घात और ७-केवली समुद्घात।
प्रश्न-वेदना समुद्घात किसे कहते हैं ?
उत्तर-तीव्र वेदना (पीड़ा) के अनुभव से मूल शरीर का त्याग न करके आत्मा के प्रदेशों का शरीर से बाहर जाना, वेदना समुद्घात है।
प्रश्न-कषाय समुद्घात किसे कहते हैं ?
उत्तर-तीव्र क्रोधादिक कषायों के उदय से मूल अर्थात् धारण किये हुए शरीर को न छोड़कर जो आत्मा के प्रदेश दूसरे को मारने के लिए शरीर के बाहर जाते हैं, उसको कषाय समुद्घात कहते हैं।
प्रश्न-विक्रिया समुद्घात किसे कहते हैं ?
उत्तर-किसी प्रकार की विक्रिया (कामादिजनित विकार) उत्पन्न करने या कराने के अर्थ मूलशरीर को न त्यागकर जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है, उसको विक्रिया समुद्घात कहते हैं, अथवा देवों के मूल शरीर को न छोड़कर अन्यत्र गमनागमन होता है, वह वैक्रियिक समुद्घात है।
प्रश्न-मारणान्तिक समुद्घात किसे कहते हैं ?
उत्तर-मरणान्त समय में मूल शरीर को न त्याग करके, जहाँ कहीं इस आत्मा ने आयु बांधा है (अग्रिम जन्मस्थान) का स्पर्श करने के लिए जो प्रदेशों का शरीर से बाह्य गमन करना मारणान्तिक समुद्धात है।
प्रश्न-तैजस समुद्घात किसे कहते हैं ?
उत्तर-संसार को रोग या दुर्भिक्ष आदि से दु:खी देखकर संयमी महामुनि के दया उत्पन्न होने पर उनकी तपस्या के प्रभाव से मूल शरीर को न छोड़कर उनके दाहिने कंधे से पुरुष के आकार का सफेद पुतला निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर उस रोगादि को दूर कर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जाता है, वह शुभ तैजस समुद्घात कहलाता है। अनिष्टकारक कारण देखकर संयमी महामुनि के मन में क्रोध होने पर उनके बाँये कंधे से पुरुषाकार और सिंदूर के रंग का पुतला निकलकर जिस पर क्रोध हो उसे बांई प्रदक्षिणा से भस्म कर उस मुनि को भी भस्म कर देता है, वह अशुभ तैजस समुद्घात है।
प्रश्न-आहारक समुद्घात किसे कहते हैं ?
उत्तर-छठवें गुणस्थान के किसी ऋद्धिधारी मुनि के तत्व में शंका होने पर तपोबल से मूल शरीर को न छोड़कर मस्तक से एक हाथ बराबर पुरुषाकार, सफेद स्फटिक के समान पुतला निकलकर केवली, श्रुतकेवली के चरण मूल में जाकर अपनी शंका दूर कर अन्तर्मुहूर्त में अपने स्थान में प्रवेश करता है, उसे आहारक समुद्घात कहते हैं।
प्रश्न-केवली समुद्घात किसे कहते हैं ?
उत्तर-केवलज्ञान के होने पर मूल शरीर को न छोड़कर दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रिया द्वारा केवली की आत्मा के प्रदेशों का पैâलना, केवली समुद्घात है।
जीव संसारी है (गाथा नं. ११)
प्रश्न-संसारी जीवों के कितने भेद हैं?
उत्तर-संसारी जीवों के २ भेद हैं-१-स्थावर, २-त्रस।
प्रश्न-स्थावर जीव के कितने भेद हैं?
उत्तर-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीव ये स्थावर के पाँच भेद हैं।
प्रश्न-त्रस जीव कौन से हैं?
उत्तर-दो इंद्रिय से पाँच इंद्रिय तक के जीव त्रस हैं।
प्रश्न-शंख, चींटी, मक्खी, मनुष्य आदि कितने इंद्रिय वाले जीव हैं?
उत्तर-शंख-दो इंद्रिय जीव (स्पर्शन-रसना)। चींटी-तीन इंद्रिय जीव (स्पर्शन, रसना, घ्राण)। मक्खी-चार इंद्रिय जीव (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु)। मनुष्य, नारकी, देव, हाथी, घोड़ा आदि पंचेन्द्रिय जीव हैं।
प्रश्न-जीव स्थावर या त्रस जीवों में किस कर्म के उदय से पैदा होता है?
उत्तर-स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर जीवों में उत्पन्न होता है तथा त्रस नामकर्म के उदय से त्रस जीवों में उत्पन्न होता है।
चौदह जीव समास (गाथा नं. १२)
प्रश्न—पंचेन्द्रिय जीव के कितने भेद होते हैं?
उत्तर—दो भेद होते हैं—संज्ञी और असंज्ञी।
प्रश्न—मनसहित एवं मनरहित जीव कौन से हैं?
उत्तर—पंचेन्द्रिय जीव मनरहित भी होते हैं व मनसहित भी होते हैं किन्तु एकेन्द्रिय से चारइंद्रिय तक सभी जीव मनरहित होते हैं।
प्रश्न—एकेन्द्रिय जीव के कितने भेद हैं?
उत्तर—दो भेद हैं-बादर और सूक्ष्म।
प्रश्न—बादर जीव किन्हें कहते हैं?
उत्तर—जो स्वयं भी दूसरों से रुकते हैं और दूसरों को भी रोकते हैं उनको बादर जीव कहते हैं।
प्रश्न—सूक्ष्म जीव किन्हें कहते हैं?
उत्तर—जो दूसरों को नहीं रोकते हैं तथा दूसरों से रुकते भी नहीं हैं उन्हें सूक्ष्म जीव कहते हैं।
प्रश्न—पर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं?
उत्तर—जिन जीवों की आहारादि पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाये उन्हें पर्याप्तक जीव कहते हैं।
प्रश्न—अपर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं?
उत्तर—जिन जीवों की आहार आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं उन्हें अपर्याप्तक जीव कहते हैं।
प्रश्न—पर्याप्ति किसे कहते हैं?
उत्तर—गृहीत आहारवर्गणा को खल-रस-भाग आदि रूप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं।
प्रश्न—पर्याप्तियों के कितने भेद हैं?
उत्तर—पर्याप्ति के ६ भेद हैं—१. आहार, २.शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. श्वासोच्छ्वास, ५. भाषा, ६. मन।
प्रश्न—किस जीव की कितनी पर्याप्तियाँ हैं?
उत्तर—एकेन्द्रिय जीव के ४ पर्याप्तियाँ-आहार, शरीर, इंद्रिय और श्वासोच्छ्वास होती हैं। विकलत्रय जीव व असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मन पर्याप्ति को छोड़कर पाँच होती हैं तथा सैनी पंचेन्द्रिय जीव के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न—जीव समास किसे कहते हैं?
उत्तर—जिनके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकार की जाति जानी जाय उन धर्मों को अनेक पदार्थों का संग्रह करने वाले होने से जीव-समास कहते हैं।
प्रश्न—चौदह जीवसमास कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर— एकेन्द्रिय सूक्ष्म, बादर ·२ दो इन्द्रिय ·१ तीन इन्द्रिय·१ चार इन्द्रिय·१ पंचेन्द्रिय असैनी·१ पंचेन्द्रिय सैनी ·१ ·७ ये सात प्रकार के जीव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं अत: ७²२·१४ जीव समास होते हैं।
संसारी जीव का स्वरूप (गाथा नं. १३)
प्रश्न—किस नय की अपेक्षा से जीव चौदह प्रकार के होते हैं?
उत्तर—व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान वाले होने से चौदह प्रकार के होते हैं।
प्रश्न—किस नय की अपेक्षा से जीव शुद्ध माना जाता है ?
उत्तर—शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से।
प्रश्न—मार्गणा के कितने भेद हैं? नाम बताइये।
उत्तर—मार्गणाएँ चौदह होती हैं—१. गति मार्गणा २. इंद्रिय मार्गणा ३. कायमार्गणा ४. योगमार्गणा ५. वेदमार्गणा ६. कषायमार्गणा ७. ज्ञानमार्गणा ८. संयममार्गणा ९. दर्शनमार्गणा १०. लेश्यामार्गणा ११. भव्यत्वमार्गणा १२. सम्यक्त्व मार्गणा १३. संज्ञित्व मार्गणा १४. आहार मार्गणा।
प्रश्न—मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर—जिन धर्मविशेषों के द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाए उन्हें मार्गणा कहते हैं।
प्रश्न—गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर—मोह और योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के गुणों को गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न—गुणस्थान कितने होते हैं?
उत्तर—चौदह गुणस्थान होते हैं—१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसाम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली, १४. अयोगकेवली।
प्रश्न-मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-मिथ्यात्व कर्म के उदय से तत्त्वार्थ के विषय में जो अश्रद्धान उत्पन्न होता है अथवा विपरीत श्रद्धान होता है, उसको मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-सासादन गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो सम्यक्त्व की विराधना-आसादना सहित है, उसे सासादन कहते हैं, जो प्राणी सम्यक्त्वरूपी प्रासाद से गिरा हुआ है और जिसने मिथ्यात्व की भूमि का स्पर्श नहीं किया है, सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व इन दोनों के मध्य की जो अवस्था है, उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्व रूप परिणाम न होकर मिश्ररूप परिणाम होते हैं। उसे सम्यग्मिथ्यात्व गुण स्थान कहते हैं।
प्रश्न-अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो इन्द्रियों के विषय से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है, अर्थात् सम्यक्त्व सहित और व्रत रहित परिणाम को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-देशविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-सम्यक्त्व और देशचारित्र सहित परिणाम को देशविरत गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-प्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-महाव्रतों सहित सम्पूर्ण मूलगुणों और शील के भेदों से युक्त होते हुए व्यक्त एवं अव्यक्त दोनों प्रकार के प्रमाद सहित परिणाम को प्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-अप्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रमादरहित महाव्रतों के पालन सहित परिणाम को अप्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-अपूर्वकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-यहाँ करण का अभिप्राय अध्यवसाय, परिणाम या विचार है, अभूतपूर्व अध्यवसायों का उत्पन्न होना अपूर्वकरण गुणस्थान है।
प्रश्न-अनिवृत्तिकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जहाँ एक समय में सदृशपरिणाम रहते हैं, उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-समस्त कषायों को नष्ट कर केवल लोभ का अतिशय सूक्ष्म अंश जहाँ शेष रह जाता है, उसे सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-उपशांतमोह गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-कषायों के पूर्ण उपशमसहित परिणामों को उपशांतमोह गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-क्षीणकषाय गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-कषायों के सर्वथा क्षय हो जाने को क्षीणकषाय गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-सयोगकेवली गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-योग की प्रवृत्ति सहित केवलज्ञानरूप परिणामों को सयोग केवली गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-अयोगकेवली गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर-पूर्णत: योग की प्रवृत्ति रहित केवलज्ञान की अवस्था को अयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न—शुद्धनय से संसारी जीव के कितने गुणस्थान और मार्गणा होती हैं?
उत्तर—शुद्ध निश्चयनय से संसारी जीव के गुणस्थान भी नहीं और मार्गणा भी नहीं होती हैं।
प्रश्न—क्या सिद्ध भगवान के गुणस्थान और मार्गणाएँ होती हैं?
उत्तर—सिद्ध भगवान गुणस्थान और मार्गणाओं से रहित गुणस्थानातीत व मार्गणातीत होते हैं।
सिद्ध और ऊध्र्वगमन का स्वरूप (गाथा नं. १४)
प्रश्न-आठ कर्म कौन से हैं?
उत्तर-१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र ८. अंतराय।
प्रश्न-ज्ञानावरण किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से जीव के ज्ञान होने में प्रतिबंध हो, जैसे बादलों का समूह सूर्य को आच्छादित कर देता है।
प्रश्न-दर्शनावरण किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से आत्मा के दर्शनगुण में प्रतिबंध होता है। जैसे-राजा के दरबार में जाते हुए पुरुष को द्वारपाल रोकता है।
प्रश्न-वेदनीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से जीव को सुख-दु:ख का अनुभव होता है। जैसे-तलवार की धार पर लगे शहद के चाटने के समान।
प्रश्न-मोहनीय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से आत्मा के श्रद्धान या चारित्र गुण का घात होता है, यह प्राणी को विवेक शून्य बना देता है। जैसे-मदिरा।
प्रश्न-आयु कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से जीव नरकादि गतियों में बेड़ी की तरह बंधा हुआ या रुका रहता है, वह आयु कर्म है।
प्रश्न-नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो नाना आकार, प्रकार वाले शरीर की रचना करता है। जैसे-चित्रकार विभिन्न रंग संजो-संजोकर अपनी तूलिका की सहायता से चित्र बनाता है।
प्रश्न-गोत्र कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो जीव को नीच और ऊँच कुल में उत्पन्न करता है, वह गोत्र कर्म कहलाता है। जैसे-कुम्हार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है।
प्रश्न-अंतराय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो दानादि में विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है। जैसे-अभीष्ट की प्राप्ति में बाधा देने वाला भंडारी।
प्रश्न-आठ गुण कौन से हैं?
उत्तर-१. अनंतज्ञान २. अनंतदर्शन ३. अनंतसुख ४. अनंतवीर्य ५. अव्याबाध ६. अवगाहनत्व ७. सूक्ष्मत्व और ८. अगुरुलघुत्व-ये सिद्धों के आठ गुण हैं।
प्रश्न-किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रकट होता है?
उत्तर-ज्ञानावरण कर्म के नाश से अनंतज्ञान गुण प्रकट होता है। दर्शनावरण कर्म के नाश से अनंतदर्शन गुण प्रकट होता है। मोहनीय कर्म के नाश से अनंतसुख गुण प्रकट होता है। अंतराय कर्म के नाश से अनंतवीर्य गुण प्रकट होता है। वेदनीय कर्म के नाश से अव्याबाध गुण प्रकट होता है। आयु कर्म के नाश से अवगाहनत्व गुण प्रकट होता है। नाम कर्म के नाश से सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होता है। और गोत्र कर्म के नाश होने से अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है।
प्रश्न-उत्पाद किसे कहते हैं?
उत्तर-द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं।
प्रश्न-व्यय किसे कहते हैं?
उत्तर-द्रव्य की पूर्व पर्याय के नाश को व्यय कहते हैं।
प्रश्न-ध्रौव्य किसे कहते हैं?
उत्तर-द्रव्य की नित्यता को ध्रौव्य कहते हैं। जैसे-सिद्धजीवों में-संसारी पर्याय का नाश व्यय है। सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति उत्पाद है और जीव द्रव्य ध्रौव्य है। इसी प्रकार पुद्गल में-स्वर्ण के कुण्डल पर्याय का नाश व्यय है। चूड़ी पर्याय की उत्पत्ति उत्पाद है एवं दोनों अवस्था में स्वर्णपना ध्रौव्य है।
प्रश्न-सिद्धगति में जाते समय जीव ऊध्र्वगमन क्यों करता है ?
उत्तर-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध इन चारों बंध के छूट जाने से मुक्त जीव स्वभाव से ऊध्र्व गमन ही करता है।
प्रश्न-संसारी जीव भी ऊध्र्व गमन करता है क्या ?
उत्तर-यद्यपि संसारी जीव भी ऊध्र्वगमन कर सकता है, करता भी है-परन्तु कर्मबंध सहित होने से विदिशाओं को छोड़कर आकाश के प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार चार दिशा में, अधो (नीचे) और ऊपर गमन करता है और कर्म रहित आत्मा ऊध्र्वगमन ही करती है।
प्रश्न-आत्मा को णिक्कम्मा (निष्कर्मा) क्यों कहते हैं ?
उत्तर-सदाशिव मत वाले जीव को सदा कर्म रहित मानते हैं-उनका निराकरण करने के लिए ‘णिक्कम्मा’ निष्कर्मा कहा गया है, क्योंकि संसारी जीव कर्म सहित है, वह कर्म नाशकर सिद्ध अवस्था प्राप्त करता है।
प्रश्न-सिद्धों में आठ गुण क्योें कहा है ?
उत्तर-नैयायिक और वैशेषिक सिद्धान्त वाले सिद्ध अवस्था में बुद्धि, सुख, दु:ख, धर्म आदि सर्व गुणों का विनाश मानते हैं अत: आचार्यों ने कहा है कि सिद्ध आत्मा, कर्म रहित होकर भी केवल ज्ञानादि आठ गुण सहित हैं।
अजीव द्रव्य और उनमें मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्य (गाथा नं. १५)
प्रश्न-मूर्तिक किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये गुण पाये जायें, उसे मूर्तिक कहते हैं।
प्रश्न-अमूर्तिक किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये गुण नहीं पाये जाते हैं, उसे अमूर्तिक कहते हैं।
प्रश्न-परमाणु में रूपादि बीस गुणों में से कितने गुण पाये जाते हैं?
उत्तर-परमाणु में एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श पाये जाते हैं।
प्रश्न-अजीव द्रव्य कौन-कौन से हैं?
उत्तर-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये पाँच द्रव्य अजीव द्रव्य हैं।
प्रश्न-अमूर्तिक कितने हैं? मूर्तिक द्रव्य कितने हैं?
उत्तर-जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये अमूर्तिक द्रव्य हैं और पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है।
प्रश्न-पुद्गल किसे कहते हैं ?
उत्तर-पूरण-गलन स्वभाव वाला द्रव्य पुद्गल कहलाता है-या जिसमें वर्ण (रंग) गंध, स्पर्श, रस पाए जाते हैं, जो इन्द्रियों के गोचर हैं, उसे पुद्गल कहते हैं। दृश्यमान अखिल जगत पुद्गल है।
प्रश्न-जीव सर्वथा अमूत्र्तिक है क्या ?
उत्तर-त्रिकाल ध्रुवस्वभाव की अपेक्षा निश्चयनय से जीव अमूत्र्तिक है और अनादिकाल से मूत्र्तिक कर्मों से बंधा हुआ है, अत: व्यवहारनय से मूत्र्तिक है। इसलिए कथंचित् मूत्र्तिक है और कथंचित् अमूत्र्तिक है।
पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यंजन पर्यायें (गाथा नं. १६)
प्रश्न-शब्द किसे कहते हैं ?
उत्तर-द्रव्य कर्ण (कान) इन्द्रिय के आधार से भाव कर्णेन्द्रिय के द्वारा जो ध्वनि सुनी जाती है, उसे शब्द कहते हैं।
प्रश्न-शब्द के भेद बताइये?
उत्तर-शब्द के दो भेद हैं—१-भाषारूप और २-अभाषारूप।
प्रश्न-बन्ध पर्याय के भेद बताइये?
उत्तर-बन्ध पुद्गल पर्याय के २ भेद हैं—१-वैस्रसिक और २-प्रायोगिक।
प्रश्न-सूक्ष्मता के कितने भेद है?
उत्तर-जो सूर्य के निमित्त से उष्ण प्रकाश होता है उसे आतप कहते हैं।
प्रश्न-उद्योत किसे कहते हैं?
उत्तर-चंद्रकांतमणि और जुगनू आदि के निमित्त से जो प्रकाश होता है उसे उद्योत कहते हैं।
प्रश्न-शब्द आदि पुद्गल की पर्याय स्वभाव पर्याय है कि विभाव पर्याय?
उत्तर-शब्दादि विभाव पर्याय हैं, क्योंकि ये स्कंध के संयोग से उत्पन्न होती हैं, शुद्ध परमाणु से नहीं।
धर्म द्रव्य का स्वरूप (गाथा नं. १७)
प्रश्न-धर्मद्रव्य का लक्षण बताओ?
उत्तर-जो जीव और पुद्गलों को चलने में सहकारी होते हैं उसे धर्मद्रव्य कहते हैं।
प्रश्न-यह धर्मद्रव्य दिखता क्यों नहीं है?
उत्तर-क्योंकि धर्मद्रव्य अमूर्तिक होता है।
प्रश्न-फिर यह धर्मद्रव्य चलने में निमित्त वैâसे बनता है?
उत्तर-यह नहीं दिखते हुए भी उदासीनरूप से जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी होता है। इसके बिना जीव-पुद्गल का गमन नहीं हो सकता है।
प्रश्न-निमित्त कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-दो प्रकार के—१-प्रेरक निमित्त, २-उदासीन निमित्त।
प्रश्न-धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के लिए कौन-सा निमित्त है?
उत्तर-धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी उदासीन निमित्त है क्योंकि यह बलपूर्वक किसी को चलाता नहीं है। हाँ , कोई चलता है तो सहायक होता है।
प्रश्न-धर्मद्रव्य कहाँ पाया जाता है?
उत्तर-सम्पूर्ण लोकाकाश में धर्मद्रव्य पाया जाता है। धर्म द्रव्य की सहायता बिना जीव पुद्गल का चलना-फिरना, एक स्थान से दूसरे स्थान जाना आदि सारी क्रियाएँ नहीं बन सकती हैं।
अधर्म द्रव्य का स्वरूप (गाथा नं. १८)
प्रश्न-अधर्म द्रव्य किसे कहते हैं?
उत्तर-जो जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहायक होता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं।
प्रश्न-धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य दोनों कहाँ रहते हैं?
उत्तर-ये दोनों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं।
प्रश्न-अधर्म द्रव्य मूत्र्तिक है या अमूत्र्तिक ?
उत्तर-अधर्म द्रव्य अमूर्तिक है-मूर्तिक नहीं। प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्य में समान शक्ति है-या न्यूनाधिक ? उत्तर-दोनों में समान
शक्ति है। दोनों में समान शक्ति होते हुए भी परस्पर एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं।
आकाश द्रव्य का स्वरूप (गाथा नं. १९)
प्रश्न-आकाश द्रव्य किसे कहते हैं?
उत्तर-जीवादि पाँच द्रव्यों को रहने के लिए जो अवकाश-स्थान दे, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं।
प्रश्न-आकाश द्रव्य का कार्य क्या है?
उत्तर-अवकाश देना आकाश द्रव्य का कार्य है।
प्रश्न-आकाश द्रव्य जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने में कौन सा निमित्त है प्रेरक या उदासीन ?
उत्तर-आकाश अवकाश देने में उदासीन निमित्त है। जैसे धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल को चलाने में और अधर्म द्रव्य ठहराने में और कालद्रव्य द्रव्यों को परिणमन कराने में उदासीन कारण है। जैसे सिद्ध निश्चयनय से अपने प्रदेशों में रहते हैं-उसी प्रकार निश्चयनय से सभी द्रव्य अपने में ही रहते हैं-व्यवहार नय से लोकाकाश में रहते हैं, ऐसा कहा जाता है।
प्रश्न-धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं, फिर एक-दूसरे को क्यों नहीं रोकते ?
उत्तर-ये तीनों द्रव्य अमूत्र्तिक हैं। अनादिकाल से लोकाकाश में रहते हैं अमूत्र्तिक होने से एक-दूसरे का व्याघात (रुकावट) नहीं करते हैं।
प्रश्न-पुद्गल द्रव्य से क्या होता है ?
उत्तर-पुद्गल द्रव्य के कारण ही जीव के शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास कर्म आदि की रचना होती है। सुख, दु:ख, जीवन, मरण आदि भी पुद्गलकृत हैं।
लोकाकाश-अलोकाकाश का स्वरूप (गाथा नं. २०)
प्रश्न-लोकाकाश किसे कहते हैं?
उत्तर-जीव और अजीव द्रव्य जितने आकाश में पाये जायें उतने आकाश को लोकाकाश कहते हैं।
प्रश्न-अलोकाकाश किसे कहते हैं?
उत्तर-लोक के बाहर केवल आकाश ही आकाश है। जहाँ अन्य द्रव्यों का निवास नहीं है, इस खाली पड़े हुए आकाश को अलोकाकाश कहते हैं।
प्रश्न-लोकाकाश बड़ा है या अलोकाकाश?
उत्तर-अलोकाकाश बड़ा है। अलोकाकाश का अनन्तवाँ भाग लोकाकाश है।
प्रश्न-इतने छोटे लोकाकाश में अनन्त जीव, जीवों से भी अनन्तगुणे पुद्गल और असंख्यात कालपरमाणु कैसे समा सकते हैं?
उत्तर-लोकाकाश अलोकाकाश से छोटा होने पर भी उसमें अवगाहन शक्ति बहुत बड़ी है। इसीलिए उसमें सभी द्रव्य समाये हुए हैं। उदाहरण के लिए-जिस कमरे में एक दीपक का प्रकाश हो रहा है, उसी में अन्य सैकड़ों दीपक रख दिये जायें तो उनका प्रकाश भी पहले वाले दीपक में समा जाता है। आकाश एक अर्मूितक द्रव्य है।
उसमें अवगाहन करने वाले सभी द्रव्य मूर्तिक और स्थूल होते तथा आकाश स्वयं भी मूर्तिक होता तो लोकाकाश में इतने द्रव्यों का अवगाहन नहीं होता। परन्तु लोकाकाश में निवास करने वाले अनन्त जीव अमूर्तिक हैं, पुद्गलों में भी कुछ सूक्ष्म हैं और का कुछ बादर हैंलाणु, धर्म, अधर्म द्रव्य अमूर्तिक ही हैं अत: आकाश में सभी द्रव्य समाये हुए हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता है। उत्तर–सूक्ष्मता दो प्रकार की होती है—१-अन्त्य और २-आपेक्षिक। प्रश्न-स्थौल्य किसे कहते है? उसके भेद बताइये। उत्तर-स्थूलता को स्थौल्य कहते हैं। यह भी दो प्रकार का है—१-अन्त्य और २-आपेक्षिक।
प्रश्न-संस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-आकृति को संस्थान कहते हैं। त्रिकोण, चतुष्कोण आदि आकार संस्थान हैं।
प्रश्न-भेद किसे कहते हैं?
उत्तर-वस्तु को अलग-अलग चूर्णादि करना भेद है।
प्रश्न-तम किसे कहते हैं?
उत्तर-जिससे दृष्टि में प्रतिबंध होता है और जो प्रकाश का विरोधी-अंधकार है वह तम कहलाता है।
प्रश्न-छाया किसे कहते हैं?
उत्तर-प्रकाश को रोकने वाले पदार्थों के निमित्त से जो पैदा होती है वह छाया कहलाती है। अर्थात् किसी की परछाई को छाया कहते हैं। प्रश्न-आतप किसे कहते हैं?
कालद्रव्य का स्वरूप (गाथा नं. २१)
प्रश्न-परिणाम किसे कहते हैं?
उत्तर-समस्त द्रव्यों के स्थूल परिवर्तन को परिणाम-परिणमन कहते हैं।
प्रश्न-कालद्रव्य अन्य द्रव्यों के परिणमन में कौन सा निमित्त है?
उत्तर-उदासीन निमित्त है।
प्रश्न-वर्तना किसे कहते हैं?
उत्तर-समस्त द्रव्यों में सूक्ष्म परिवर्तन को वर्तना कहते हैं। जैसे-कपड़ा, मकान, वस्त्रादि में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, मनुष्य, स्त्री-पुरुष आदि के वर्षों की गणना यह काल द्रव्य का ही परिवर्तन समझना चाहिए।
प्रश्न-क्रिया किसे कहते हैं ?
उत्तर-देशान्तर में संचलनरूप या परिस्पन्दन (हलन-चलन) आदि को क्रिया कहते हैं।
प्रश्न-परत्वापरत्व किसे कहते हैं ?
उत्तर-कालकृत छोटे-बड़े के व्यवहार को परत्वापरत्व कहते हैं-जैसे यह इससे दो महीना छोटा है और यह इससे दो महीना बड़ा है आदि व्यवहार परत्वापरत्व है।
प्रश्न-निश्चयकाल किसे कहते हैं ?
उत्तर-कर्तना को ही निश्चयकाल कहते हैं।
प्रश्न-व्यवहारकाल किसे कहते हैं ?
उत्तर-क्रिया परिणाम, परत्वापरत्व आदि को व्यवहार काल कहते हैं तथा समय, आवलि, घटिका आदि व्यवहार भी व्यवहारकाल है।
प्रश्न-काल के अस्तित्व को क्यों स्वीकार किया जाता है ?
उत्तर-काल के अभाव में किसी को ज्येष्ठ, किसी को कनिष्ठ, नया, पुराना किस आधार पर कह सकते हैं, अत: लोकव्यवहार में काल को स्वीकार करना आवश्यक है। सारा विश्व, कालसत्ता पर ही क्षण-क्षण में परिवत्र्तित होता रहता है। वस्तुएँ देखते-देखते नवीन से पुरातन और जीर्ण-शीर्ण हो जाती हैं। सुगन्ध, दुर्गन्ध में परिवर्तित हो जाती है, यह काल का ही प्रभाव है।
काल द्रव्य की संख्या (गाथा नं. २२)
प्रश्न-कालाणु असंख्यात हैं, इसका प्रमाण क्या है?
उत्तर-लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात होते हैं अत: उन पर स्थित कालाणु भी असंख्यात होते हैं।
प्रश्न-लोकाकाश में काल द्रव्य वैâसे स्थित रहते हैं?
उत्तर-लोकाकाश असंख्यप्रदेशी है। एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु रत्नराशि के समान स्थित रहते हैं।
प्रश्न-काल द्रव्य बहुप्रदेशी है या नहीं ?
उत्तर-प्रत्येक कालाणु स्वतंत्र द्रव्य है-एक समय दूसरे समय के साथ मिलता नहीं, अत: कालाणु बहुप्रदेशी नहीं है।
प्रश्न-समय किसे कहते हैं ?
उत्तर-आकाश के एक प्रदेश से एक पुद्गल परमाणु मंद गति से दूसरे आकाश प्रदेश पर और तीव्र गति से चौदह राजू प्रमाण गमन करता है, उतने काल को समय कहते हैं।
द्रव्य और अस्तिकाय के भेद (गाथा नं. २३)
प्रश्न-कालद्रव्य को अस्तिकाय क्यों नहीं कहा है?
उत्तर-कालद्रव्य के केवल एक ही प्रदेश होता है (कालद्रव्य एकप्रदेशी है) इसलिए उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है।
प्रश्न-पुद्गल का एक परमाणु भी एकप्रदेशी होता है, तो उसे अस्तिकाय क्यों कहा है?
उत्तर-कालाणु सदा एक प्रदेश वाला ही रहता है किन्तु पुद्गल परमाणु में विशेषता यह पाई जाती है कि वह एक प्रदेश वाला होकर भी स्कंधरूप में परिणत होते ही नाना प्रदेश (संख्यात, असंख्यात, अनन्त) वाला हो जाता है। कालाणु में बहुप्रदेशीपने की योग्यता ही नहीं है। किन्तु परमाणु में वह योग्यता है इसलिए परमाणु को अस्तिकाय कहा गया है।
प्रश्न-कालाणु में बहुप्रदेशी होने की योग्यता क्यों नहीं है?
उत्तर-कालाणु पुद्गल के अणुओं के समान नहीं हो सकते हैं। पुद्गल परमाणु में रूप, रस आदि पाये जाते हैं इसलिए वह मूर्तिक है, स्कंध बन जाता है। परन्तु कालाणु अमूर्तिक है, स्पर्श,रसादि गुणों से रहित है अत: उसमें बहुप्रदेशीपना बन नहीं पाता अर्थात् उसमें स्कंध बनने की योग्यता ही नहीं पाई जाती है।
प्रश्न-पुद्गल के कितने भेद हैं ?
उत्तर-अणु और स्कंध के भेद से पुद्गल दो प्रकार का है।
प्रश्न-स्कंध किसको कहते हैं ?
उत्तर-दो आदि अणुओं के संबंध को स्कंध कहते हैं।
प्रश्न-हमारी आँखों से दिखने वाले पदार्थ अणु हैं कि स्कंध ?
उत्तर-हमारी आँखों से दिखने वाले सारे पदार्थ स्कंध हैं, क्योंकि अणु आँखों का विषय नहीं है।
प्रश्न-अणु की उत्पत्ति कैसे होती है ?
उत्तर-अणु की उत्पत्ति भेद से होती है।
प्रश्न-स्कंध की उत्पत्ति वैâसे होती है ?
उत्तर-स्कंध की उत्पत्ति भेद और संघात से होती है। जैसे एक सेर वस्तु में आधा सेर मिला देने से (संघात कर देने से) डेढ़ सेर का स्कंध उत्पन्न हो जाता है, वैसे ही सेर आदि में से कुछ घटा देने पर स्कंध उत्पन्न होता है।
अस्तिकाय का स्वरूप और नाम की सार्थकता (गाथा नं. २४)
प्रश्न-अस्ति किसे कहते हैं?
उत्तर-जो सदा विद्यमान रहे, जिसका कभी नाश नहीं हो, वह ‘अस्ति’ कहलाता है।
प्रश्न-‘अस्ति’ द्रव्य कितने हैं?
उत्तर-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छहों द्रव्य ‘अस्ति’ रूप हैं।
प्रश्न-‘काय’ किसे कहते हैं?
उत्तर-जो शरीर के समान बहुप्रदेशी हो उसे काय कहते हैं।
प्रश्न-‘काय’ संज्ञा सहित द्रव्य कितने हैं?
उत्तर-‘काल’ द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य कायसंज्ञा वाले होते हैं और काल एक प्रदेशी ही रहता है।
प्रश्न-अस्तिकाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जो अस्तिरूप भी हो तथा काय के गुण से समन्वित भी हो, वह अस्तिकाय है।
प्रश्न-अस्तिकाय कितने हैं?
उत्तर-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय हैं।
प्रश्न-कालद्रव्य अस्तिकाय क्यों नहीं है?
उत्तर-काल द्रव्य अस्तिरूप तो है किन्तु काय का लक्षण उसमें घटित नहीं होता है इसलिए वह अस्तिकाय नहीं माना जाता है।
द्रव्यों की प्रदेश संख्या (गाथा नं. २५)
प्रश्न-जीव असंख्यात प्रदेशी वैâसे माना गया है?
उत्तर-केवली समुद्घात के समय जीव सारे लोकाकाश में फैल सकता है और लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश है। अत: जीव असंख्यात प्रदेशी कहा गया है।
प्रश्न-धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य को असंख्यात प्रदेशी क्यों कहा है?
उत्तर-धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य भी तिल में तेल के समान सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं अत: ये दोनों द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी कहे गये हैं।
प्रश्न-आकाश द्रव्य को अनन्त प्रदेशी क्यों माना है?
उत्तर-लोक और अलोक दोनों में व्याप्त होने से आकाश की कोई सीमा नहीं है अत: वह अनन्त कहा गया है।
प्रश्न-पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी ये तीनों प्रकार कैसे हैं?
उत्तर-संख्यात पुद्गल परमाणु का पिण्ड होने से वह संख्यात प्रदेशी है। असंख्यात परमाणुओें का पिण्ड होने से उसे असंख्यात प्रदेशी कहते हैं और अनन्त परमाणुओं का पिण्ड होने से वे अनन्त प्रदेशी होते हैं।
प्रश्न-काल द्रव्य को एक प्रदेशी क्यों कहा है?
उत्तर-काल के अणु रत्नों की राशि के समान एक-एक अलग रहते हैं क्योंकि एक साथ मिलकर पुद्गल के समान पिण्ड होने की शक्ति काल में नहीं है इसलिए काल एक प्रदेशी कहा गया है और वह कायवान नहीं है।
प्रश्न-समुद्घात किसे कहते हैं?
उत्तर-मूल शरीर को छोड़कर आत्मा के प्रदेशों का शरीर के बाहर निकलने का नाम समुद्घात है।
प्रश्न-समुद्घात के कितने भेद हैं?
उत्तर-समुद्घात के सात भेद हैं-वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली।
प्रश्न-वेदना समुद्घात किसे कहते हैं?
उत्तर-तीव्र वेदना से मूल शरीर को न छोड़कर आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना समुद्घात कहलाता है।
प्रश्न-कषाय समुद्घात का लक्षण क्या है?
उत्तर-तीव्र कषाय से आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना कषाय समुद्घात है।
प्रश्न-वैक्रियिक समुद्घात क्या होता है?
उत्तर-अनेक रूप बनाने के लिए आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना वैक्रियिक समुद्घात कहलाता है।
प्रश्न-मारणान्तिक समुद्घात किसे कहते हैं?
उत्तर-शरीर में रहते हुए भी आगे के जन्मस्थान के स्पर्श हेतु प्रदेशों का बाहर जाना मारणांतिक समुद्घात कहा गया है।
प्रश्न-तैजस समुद्घात का क्या कार्य होता है?
उत्तर-रोगादि से दु:खी देख संयमी मुनि के दया के उत्पन्न होने पर मुनि के दाहिने कंधे से जो पुतला निकलकर रोगादि को नष्ट कर दे वह शुभ तैजस है। क्रोधादि के निमित्त से संयमी मुनि के बाएँ कंधे से पुतला निकलकर उस देश को भस्म करके मुनि को भी भस्म कर दे वह अशुभ तैजस समुद्घात कहलाता है। प्रश्न-आहारक समुद्घात किसके होता है? उत्तर-ऋद्धिधारी मुनि के किसी विषय में सूक्ष्म शंका आदि होने पर मस्तक से जो पुतला निकलकर केवली के पादमूल में जाकर वापस आ जावे और समाधान हो जावे वह आहारक समुद्घात है।
प्रश्न-केवली समुद्घात का लक्षण बताएँ?
उत्तर-केवली भगवान के आयु की स्थिति अन्तर्मुहूर्त रहने पर और नाम, कर्मादि की स्थिति अधिक होने पर बराबर करने के लिए दण्ड कपाट प्रतर और लोकपूरण क्रिया का होना केवली समुद्घात है।
पुद्गल का परमाणु अस्तिकाय है (गाथा नं. २६)
प्रश्न-परमाणु किसको कहते हैं?
उत्तर-जिसका दूसरा टुकड़ा न हो ऐसे अविभागी पुद्गल की अन्तिम अवस्था को परमाणु कहते हैं।
प्रश्न-एक प्रदेशी परमाणु बहु प्रदेशी कैसे कहा जाता है?
उत्तर-यद्यपि पुद्गल एक प्रदेशी है-तथापि नाना प्रकार के दो अणु आदि स्कंध- रूप बहुत प्रदेशी का कारण होने से पुद्गल को उपचार से बहुप्रदेशी कहा है।
प्रश्न-उपचार किसे कहते हैं?
उत्तर-किसी वस्तु को किसी निमित्त स्वभाव से भिन्नरूप कहना उपचार कहलाता है। जैसे-शुद्ध पुद्गल परमाणु स्वभाव से एकप्रदेशी है किन्तु अन्य के (पुद्गलों के) संयोग से वह (संख्यात, असंख्यात, अनंत) बहुप्रदेशी कहलाता है।
प्रश्न-जैसे परमाणु का परस्पर बंध होता है, वैसे कालाणु का क्यों नहीं होता ?
उत्तर-जिस प्रकार पुद्गल परमाणु में परस्पर बंध का कारण स्निग्धत्व- रुक्षत्व है। वैसे-कालाणु में परस्पर बंध का कारण स्निग्ध और रुक्षत्व नहीं है अत: कालाणु में परस्पर बंध नहीं होता।
प्रश्न-परमाणु किसको कहते हैं ?
उत्तर-जिसका दूसरा टुकड़ा न हो, ऐसे निर्विभाग पुद्गल की अन्तिम अवस्था को परमाणु कहते हैं।
प्रदेश का लक्षण और उसकी योग्यता (गाथा नं. २७)
प्रश्न-प्रदेश किसको कहते हैं?
उत्तर-जितने आकाश क्षेत्र को परमाणु रोकता है-उतने आकाश क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं।
प्रश्न-असंख्यातप्रदेशी लोक में अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल कैसे रहते हैं?
उत्तर-यह आकाश द्रव्य में रहने वाले अवगाहन गुण का प्रभाव है। एक निगोदिया जीव के शरीर में सिद्धराशि से अनन्त गुणे जीव समाये हुए हैं। इसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव और उनसे भी अनन्त गुणे पुद्गल समाये हुए हैं।
प्रश्न-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों की संख्या बताइये?
उत्तर-जीव-अनन्तानन्त हैं। पुद्गल-जीव द्रव्य से अनन्तगुणे पुद्गल हैं। धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य-एक-एक हैं। आकाश-एक अखण्ड द्रव्य है। छ: द्रव्यों के निवास की अपेक्षा इसके दो भेद हैं-१. लोकाकाश, २. अलोकाकाश। कालद्रव्य-असंख्यात हैं।
प्रश्न-जीव और पुद्गल के संयोग से होने वाली पर्याय कौन-कौन हैं ?
उत्तर-जीव और पुद्गल की संयोगज पर्याय है आस्रव और बंध।
प्रश्न-जीव और पुद्गल वियोगज पर्याय कौन सी है ?
उत्तर-जीव और पुद्गल के वियोग से उत्पन्न होने वाली पर्याय है-मोक्ष। प्रश्न-उन दोनों की विभागज पर्याय कौन सी है ? उत्तर-जीव और पुद्गल की विभागज पर्याय है संवर और निर्जरा।