कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में परम्परागत कुरुवंशियों का राज्य चला आ रहा था। उन्हीं में शान्तनु नाम के राजा हुए। उनकी ‘‘सबकी’’ नाम की रानी से पाराशर नाम का पुत्र हुआ। रत्नपुर नगर के ‘‘जन्हु’’ नामक विद्याधर राजा की ‘‘गंगा’’ नाम की कन्या थी। विद्याधर राजा ने पाराशर के साथ गंगा का विवाह कर दिया। इन दोनों के गांगेय—भीष्माचार्य नाम का पुत्र हुआ। जब गांगेय तरुण हुआ तब पाराशर राजा ने उसे युवराज पद दे दिया। किसी समय राजा पाराशर ने यमुना नदी के किनारे क्रीड़ा करते समय नाव में बैठी सुन्दर कन्या देखी और उस पर आसक्त होकर धीवर से उसकी याचना की किन्तु उस धीवर ने कहा कि आपके पुत्र गांगेय को राज्य पद मिलेगा तब मेरी कन्या का पुत्र उसके आश्रित रहेगा अत: मैं कन्या को नहीं दूँगा। राजा वापस घर आकर चितित रहने लगे। किसी तरह गांगेय को पिता की चिंता का पता चला। तब वे धीवर के पास जाकर बोले कि तुम अपनी कन्या को मेरे पिता को ब्याह दो, मैं वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री का पुत्र ही राज्य करेगा फिर भी धीवर ने कहा कि आपके पुत्र, पौत्र कब चैन लेने देंगे तब गांगेय ने उसी समय आजन्म ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया और धीवर को सन्तुष्ट कर दिया। धीवर ने कहा कि हे कुमार ! मैं किसी समय यमुना के किनारे गया और एक सुन्दर कन्या देखी। नि:सन्तान मैंने उस कन्या को उठा लिया उसी समय आकाशवाणी हुई कि ‘‘कल्याणमय रत्नपुर नगर के रत्नांगद राजा की रत्नावती रानी से यह कन्या उत्पन्न हुई है, उसके किसी विद्याधर शत्रु ने इस कन्या का हरण कर यहाँ छोड़ दिया है’’ इस प्रकार की वाणी सुनकर मैं उसे ले आया। गुणवती नाम रखा और पालन किया है। गांगेय उसकी कुलशुद्धि सुनकर प्रसन्न हो गये और पाराशर से उसका ब्याह हो गया। उसका दूसना नाम ‘‘योजनगन्धा’’ था क्योंकि उसके शरीर की सुगन्ध दूर तक फैलती थी। पाराशर की गुणवती रानी से ‘‘व्यास’’ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। व्यास की रानी सुभद्रा थी, इन दोनों से धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए।
हरिवंश परम्परा
चम्पापुरी के राजा सिंहकेतु की वंश परम्परा में हरिगिरि, हेमगिरि आदि अनेक राजा हुए। अनन्तर इस वंश में एक ‘यदु’ नाम के राजा हुए हैं। इसी परम्परा में शूर और वीर ये दो राजा हुए। शूर राजा शौरीपुर में राज्य करते थे और वीर राजा मथुरा में रहते थे। शूर राजा की रानी का नाम सुरसुन्दरी था। उसके अंधकवृष्टि नाम का पुत्र हुआ। अंधकवृष्टि की रानी का नाम भद्रा था। इन दोनों के समुद्रविजय, स्तमितसागर, हिमवान, विजय, अचल, धारण, पूरण, सुमुख, अभिनन्दन और वसुदेव ऐसे दशधर्म के सदृश दश पुत्र हुए तथा कुन्ती और माद्री नाम की दो पुत्रियाँ हुर्इं। इनमें से समुद्रविजय बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ के पिता थे और वसुदेव बलभद्र एवं श्रीकृष्ण के पिता थे अर्थात् नेमिनाथ और श्रीकृष्ण की ये कुन्ती और माद्री बुआ थीं। मथुरा नगरी में सुवीर (वीर) राजा रहता था उसकी पत्नी का नाम पद्मावती था। इन दोनों के भोजकवृष्टि नाम का पुत्र हुआ, तरुण होने पर इनका ब्याह हुआ, रानी का नाम सुमति था। इन दोनों के उग्रसेन, महासेन और देवसेन ये तीन पुत्र हुए और गांधारी नाम की कन्या हुई।
कुरुवंशी व्यास के पुत्र धृतराष्ट्र का विवाह भोजकवृष्टि की पुत्री गांधारी के साथ सम्पन्न हुआ। धृतराष्ट्र ने किसी समय पाण्डु के साथ कुन्ती का विवाह करने के लिए अंधकवृष्टि से कहा किन्तु कुन्ती के पिता ने पांडु को पांडु रोग के कारण कन्या नहीं दी। किसी समय वङ्कामाली नाम का विद्याधर हस्तिनापुर के वन में क्रीड़ा करने गया और उसकी अँगूठी वहीं गिर गई। इधर पांडु राजा भी उस वन में घूम रहे थे। उन्होंने वह अँगूठी देखी और उठा ली। जब विद्याधर वापस आकर खोजने लगा तब उसने वह अँगूठी उसे दिखाई और पूछा मित्र! इससे क्या काम होता है ? उत्तर में विद्याधर ने कहा-मित्र ! यह इच्छानुसार रूप बनाने वाली है। पांडु ने कहा-मित्र! एक दिन के लिए यह अँगूठी मेरे हाथ में रहने दो, उसने यह बात मान ली।
इधर पांडु कुन्ती के रूप पर आसक्त हो अदृश्य रूप से कुन्ती के महल में चला गया और उसे अपने वश में करके प्रतिदिन अदृश्य रूप से जाने लगा। पांडु के समागम से कुन्ती को गर्भ रह गया और पुत्र का जन्म हुआ। तब गुप्त रखते हुए भी प्रगट हो जाने से राजा अन्धकवृष्टि ने उस बालक को कुण्डल आदि से अलंकृत कर संदूकची में बन्द कर यमुना नदी में छोड़ दिया। चम्पापुर के भानु राजा को वह पेटी प्राप्त हुई, उन्होंने अपनी पत्नी राधा को पुत्र दे दिया। उस समय राधा ने कान खुजाया इसलिए भानु राजा ने पुत्र का नाम ‘‘कर्ण’’ रख दिया। अनन्तर राजा अन्धकवृष्टि ने पांडु राजा के साथ कुन्ती और माद्री दोनों पुत्रियों का सम्बन्ध कर दिया।
विवाह के कुछ दिन बाद कुन्ती ने क्रम से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ऐसे तीन पुत्रों को जन्म दिया। माद्री से नकुल और सहदेव ऐसे दो पुत्र हुए। ये पाँचों भाई पाँच पांडव कहलाने लगे। लोग कर्ण को कुन्ती के कान से उत्पन्न हुआ मानते हैं या सूर्य के सेवन से कुन्ती को कर्ण नाम का पुत्र हुआ ‘‘ऐसा कहते हैं’’ यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। पांडु के छोटे भाई विदुर का विवाह देवक राजा की कन्या कुमुदवती के साथ हुआ था।
धृतराष्ट्र और गांधारी के दुर्योधन आदि को लेकर क्रमश: सौ पुत्र उत्पन्न हुए जो कुरुवंशी होने से कौरव कहलाये। कौरव-पांडव के पिता धृतराष्ट्र और पाण्डु थे, इनके पिता व्यास थे। गांगेय इन व्यास के बड़े भाई होने से इन कौरव-पांडवों के पितामह थे। उन्होंने इन कौरव-पांडवों का रक्षण किया और यथोचित शिक्षण दिया। द्रोणाचार्य नामक किन्हीं द्विजश्रेष्ठ ने इन सब पुत्रों को धनुर्वेद विद्या सिखाई। इन सभी में से अर्जुन में विशेष विनय होने से गुरु की कृपा भी उस पर अधिक हो गई और विशेष योग्यता से अर्जुन ने गुरु से शब्दभेदी महाविद्या सीख ली।
किसी समय राजा पांडु ने वन में हरिणी से आसक्त एक हरिण को अपने बाण से मार दिया उस समय आकाश से ध्वनि हुई ‘‘राजन्’’। यदि वन में निरपराधी जन्तु को राजा ही मारेंगे तो उनका रक्षक कौन होगा ? इस वाणी को सुनकर राजा के मन में पश्चात्ताप के साथ ही वैराग्य उत्पन्न हो गया। अनन्तर उन्होंने सुव्रतमुनि के पास जाकर उपदेश सुना और मुनि के मुख से अपनी आयु तेरह दिन की समझकर धृतराष्ट्र आदि को अपने घर में यथोचित धर्मशिक्षा देकर सब परिग्रह का त्याग कर गंगा के किनारे गये। वहाँ आजन्म आहार का त्यागकर सल्लेखना से मरण किया और सौधर्म स्वर्ग में देव हो गये। रानी माद्री विरक्त होकर नकुल और सहदेव पुत्रों को कुन्ती को सौंपकर सल्लेखना से मरकर पहले स्वर्ग में उत्पन्न हुईं।
किसी समय धृतराष्ट्र राजा ने वन में मुनिराज से धर्म श्रवण कर प्रश्न किया-भगवन्! इस कौरव राज्य के भोक्ता मेरे पुत्र दुर्योधन होंगे या पांडु पुत्र ? उत्तर में सुव्रत मुनि ने कहा-राजन् ! राज्य के निमित्त से तेरे पुत्र दुर्योधन आदि और पांडवों के बीच महायुद्ध होगा। उसमें तेरे पुत्र मारे जायेंगे और पांडव राज्य में प्रतिष्ठित होंगे। यह सुनकर चिन्तित हुए धृतराष्ट्र हस्तिनापुर वापस आये और गांगेय को बुलाकर अपना अभिप्राय प्रकट कर उनके तथा द्रोणाचार्य के समक्ष अपने पुत्रों व पांडवों को राज्य समर्पण कर दिया। अनन्तर अपनी माता सुभद्रा के साथ वन में जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
अनन्तर किसी समय श्री गांगेय ने आपस में कौरव-पांडवों का कुछ विरोध देखकर वैर नष्ट करने के लिए युक्ति से आधा-आधा राज्य विभक्त कर कौरव और पांडवों को दे दिया। स्वभावत: कौरव हृदय में दुष्ट और वाणी में मिष्ट थे। वे क्रोध से पांडवों के प्राण लेने की इच्छा रखते थे। क्रीड़ाओं में अनेक बार कौरवों ने भीम को मारने का प्रयत्न किया किन्तु वे पुण्योदय से भीम का कुछ भी न बिगाड़ सके प्रत्युत स्वयं ही अपमानित होते रहे। यहाँ तक कि उन्होंने एक बार भीम को भोजन में विष भी दिला दिया किन्तु दैवयोग से उसके लिए वह महाविष भी अमृततुल्य हो गया।
किसी समय गुरु द्रोणाचार्य कौरव-पांडवों को साथ लेकर वन में गये, वहाँ उन्होंने उन्नत शाखा पर बैठे हुए काक को देखकर कहा कि जो इस काक को दक्षिण आँख को लक्ष्य कर बेधित करेगा वह धनुर्धरों में श्रेष्ठ समझा जायेगा, सब असमर्थ रहे, अन्त में अर्जुन ने अपनी जंघा को हस्त से ताड़ित किया, उसे सुनकर जैसे ही कौवे ने नीचे देखा वैसे ही अर्जुन ने बाण से उसकी दाहिनी आँख को बेध दिया तब अर्जुन की खूब प्रशंसा हुई।
किसी समय वन में अर्जुन ने एक कुत्ते को देखा उसका मुख बाणप्रहार से संरुद्ध था। उसे देख अर्जुन ने सोचा यह शब्दबेधी धर्नुिवद्या गुरु ने मुझे ही दी है, इसका जानकार यहाँ और कौन है ? खोजते-खोजते एक भील मिला, उससे वार्तालाप होने से उसने कहा-मेरे गुरु द्रोणाचार्य हैं, मैंने उन्हीं से यह विद्या सीखी है। अर्जुन के आश्चर्य का पार नहीं रहा, तब भील ने वन में बनाये हुए स्तूप के पास जाकर अर्जुन को दिखाया और कहा मेरे गुरु ये ही हैं, मैंने इन्हीं में द्रोणाचार्य की कल्पना कर रखी है। मैं इसी स्तूप को गुरु मानकर उपासना करके शब्दबेधी धर्नुिवद्या में निपुण हुआ हूँ। अर्जुन ने हस्तिनापुर वापस आकर गुरु से सारी बात बता दी और कहा कि वह पापी भील निरपराध जन्तुओं को मारकर पाप कर्म कर रहा है, आपको इसे रोकना चाहिये। द्रोणाचार्य अर्जुन के साथ वहाँ गये और उस भील ने उन्हें साक्षात् द्रोणाचार्य जानकर साष्टांग नमस्कार किया, बहुत ही भक्ति प्रदर्शित की तब द्रोणाचार्य ने कहा-‘‘मैं एक वस्तु तुमसे माँगूं, तुम दोगे ?’’, उत्तर में उसने सहर्ष स्वीकार किया तब गुरु ने कहा-‘‘दाहिने हाथ का अंगूठा मुझे दे दो।’’ उस भील ने उसी समय अंगूठा काटकर दे दिया। अब वह बाण चलाने में असमर्थ हो गया और जीविंहसा से बच गया।
कौरव और पाण्डव आधा-आधा राज्य भोगते हुए प्रतिदिन सभा में आकर एकत्र होकर बैठते थे। दुष्ट कौरव अब स्पष्ट बोलने लगे थे कि ‘‘हम सौ हैं और वे पाँच ही हैं परन्तु आधा-आधा राज्य हम दोनों को मिला है, यह अन्याय हुआ है। वास्तव में इस राज्य में एक सौ पाँच विभाग करके उत्तम साम्राज्य का उपभोग हम लोग करेंगे। कभी—कभी भीम, अर्जुन आदि क्षुभित हो उठते थे तो अतिशय धर्मप्रिय युधिष्ठिर इन लोगों को शान्त कर लेते थे।
किसी समय हस्तिनापुर में कपटी दुर्योधन ने लाख का एक दिव्य भवन बनवाया और पितामह से कहा कि एक साथ रहने से अशांति होती है अत: पाण्डव को उस गृह में भेज दो। सरल परिणामी गांगेय ने उन्हें भेज दिया। पाँचों पाण्डव निष्कपट वृत्ति से माता कुन्ती के साथ वहाँ लाक्षागृह में रहने लगे। दयालु विदुर ने (चाचा ने) यह कपट जान लिया और युधिष्ठिर आदि को आदेश दिया कि पता नहीं वह लाख का मकान क्यों बनवाया है ? तुम्हें इन दुर्योधन आदि पर विश्वास नहीं करना चाहिए। अनन्तर वे वन में चले गये, वहाँ स्थिर-चित्त कर बहुत देर तक उपाय सोचा और लाक्षागृह से वन तक एक सुरंग खुदवा दी। फिर वह गूढ़ सुरंग ढक दी। विदुर राजा ने स्वयं भी वह सुरंग नहीं देखी और पाण्डवों को भी सूचना नहीं दी थी। किसी समय रात्रि में दुर्योधन ने किसी दुष्ट ब्राह्मण से उस भवन में आग लगवा दी। वहाँ सोते हुए पाण्डव जाग गये। चारों तरफ आग की लपटों को देख किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो गये। महामंत्र का जाप करने लगे, इतने में इधर-उधर घूमते हुए उन्हें ढकी हुई सुरंग मिल गई और पुण्योदय से वह माता सहित सुरंग से बाहर आ गये। श्मशान से छह मुर्दे लाकर उसमें डालकर वे लोग अन्यत्र चले गये। प्रात:काल दुर्योधन ने कपट से रोना-धोना प्रारम्भ किया किन्तु गांगेय आदि ने कह दिया कि बस ! यह तुम्हारी ही कूटनीति है। इस घटना से प्रजा भी दुर्योधन आदि से ग्लानि करने लगी। अपने भानजों का लाक्षागृह दाह से मरण सुनकर समुद्रविजय, वसुदेव आदि दुर्योधन पर बहुत कुपित होते हुए युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गये किन्तु किसी विद्वान ने उन्हें उस समय रोक दिया।
उधर पाण्डव वन में से जाते हुए गंगा नदी के किनारे पहुँचे और उसे पार करने के लिए नाव में जा बैठे। नाव चलकर सहसा नदी के बीच में रुक गई। मल्लाह से पूछने पर उन्हें मालूम हुआ कि यहाँ तुण्डिका नामक जलदेवी रहती है जो नरबलि चाहती है, इससे सब चिंतित हो गये। आपस में बहुत कुछ परामर्श करने के बाद अन्त में ‘‘भीम’’ नदी में कूद पड़े और युद्ध में तुण्डिका को परास्त कर अथाह जल में तैरते हुए किनारे जा पहुँचे। तत्पश्चात् वे ब्राह्मण वेश में चलकर कौशिकपुरी पहुँचे, वहाँ पर वर्ण राजा के द्वारा आदर-सत्कार आदि को प्राप्त हुए। आगे अनेकों देशों में परिभ्रमण करते हुए इन लोगों के साथ अनेकों कन्याओं के पाणिग्रहण भी हो गये।
चलते-चलते वे पाण्डव श्रुतपुर नगर में गये, वहाँ उन्होंने जिनमंदिर में अनेक जिनप्रतिमाओं का पूजन किया। रात्रि में एक वैश्य के घर में ठहर गये, इतने में ही वैश्य की पत्नी रोने लगी। कुन्ती के प्रश्न करने पर वैश्य पत्नी ने कहा कि इस नगर का ‘‘बक’’ नाम का राजा है, वह मांसाहारी होने से अब तो मनुष्य का मांस खाने लगा है। जब नगर के बालक बहुत कम हो गये तक रसोइये से सारा भेद खुल जाने से प्रजाजनों ने मिलकर राजा को नगर से निकाल दिया और लोगों ने ऐसी व्यवस्था बनाई कि प्रतिदिन एक घर से एक मनुष्य दिया जाये। आज बारह वर्ष हो गये हैं वह राजा राक्षस के समान भयंकर हो गया है, आज मेरे पुत्र की बारी है और मेरा एक ही पुत्र है, ऐसा कहकर वह रोने लगी। इस घटना को सुनकर भीम ने बकराज के पास जाकर अपनी बाहुओं से उसके साथ भयंकर युद्ध करके बक राजा को समाप्त कर दिया। तब सारे समाज ने भीम का जय-जयकार किया। अनेकों धर्मउत्सव हुए, ये पाण्डव वर्षाकाल व्यतीत कर यहाँ से निकल गये।