जिस१ किसी ने मनुष्य जन्म प्राप्त करके यदि पल्य विधान नाम का व्रत किया है, वह भव्य है, यह बात निश्चित है। यह व्रत श्रवण मात्र से ही असंख्यात भवों के पापों का नाश कर देता है और तत्काल ही स्वर्गमोक्ष को भी देने वाला है। वृषभदेव भगवान ने पहले इस पल्य विधान का कथन किया है। उसी प्रकार वीर जिनेन्द्र के निकट में गौतम आदि महर्षियों ने भी इसे कहा है। इस विधान के पढ़ने से सहस्रगुणा फल होता है और इसका अनुष्ठान करने से उत्तम अनन्त केवलज्ञान प्राप्त होता है। इस व्रत के अनुषंगिक फल चक्रीपद और इन्द्रपद भी प्राप्त होते हैं किन्तु मुख्यरूप से इसका फल निर्मल तीर्थंकर पद प्राप्त करना ही है।’
वृहत्पल्य व्रत की तिथियाँ, व्रतों के नाम एवं माहात्म्य
फाल्गुन वदी ३, ८, १४ को उपवास करने से क्रमश: सोलह, सतरह, अठारह पल्य उपवास का फल होता है। ऐसे ही फाल्गुन सुदी ५, ११ को उपवास करना चाहिए। चैत्र कृष्णा ३, ८, ११, चैत्र सुदी १, ५, ८, ११, वैशाख वदी ३, ८, १४, वैशाख सुदी १, ५, ८, ११, ज्येष्ठ वदी ३, ८, १४, ज्येष्ठ सुदी ५, ८, १०, आषाढ़ वदी ८, १४, आषाढ़ सुदी १, ५, ८, १४, श्रावण वदी १, ५, ८, १४, श्रावण-सुदी ३, ५, ८, १४, भाद्रपद वदी ५, ८, १४, भाद्रपद सुदी ५, ११, १४, आश्विन वदी ५, ८, १४ इन उपर्युक्त तिथियों में उपवास करना। इस व्रत में छियासठ उपवास होते हैं। यह व्रत एक वर्ष में समाप्त होता है, बहुत ही उत्कृष्ट है। व्रत पूर्ण होने के बाद शक्ति के अनुसार उद्यापन करके पूर्ण करना चाहिए। व्रत के दिन पंचपरमेष्ठी की निम्नलिखित जाप्य करना चाहिए-
ॐ ह्रीं अर्हं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नम:।
तथा जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करके नित्यपूजन और पंचपरमेष्ठी की पूजन करना चाहिए।