‘‘अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्य:। सर्वजगद्वंद्येभ्यो नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्य:।।४।।’’
अर्थ— अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी सर्वजगत् में वंद्य हैं। सर्वत्र—सर्वकालिक—त्रैकालिक इन सभी अनंतानंत पांचों परमेष्ठी को मेरा ‘नमोऽस्तु’ नमस्कार होवे।
घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया। चोत्तिसअदिसअजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति।।७१।। नियमसार प्राभृत पृ. १६६।
अन्वयार्थ— (घणघाइकम्मरहिया) जो घनघाति कर्मों से रहित (केवलणाणाइ—परमगुणसहिया) केवलज्ञानादि परमगुणों से सहित (चोत्तिसअदिसअजुत्ता) और चौंतीस अतिशयों से युक्त हैं, (एरिसा अरिहंता होंति) ऐसे अर्हंतदेव होते हैं।।७१।।
टीका— जो निबिड आत्मगुणों के घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों से रहित हैं, केवल—असहाय अथवा अनंत ज्ञान आदि सर्वोत्कृष्ट गुणों से सहित हैं और तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म के निमित्त से जन्म से दस अतिशय, घातिकर्म के क्षय से प्रगट हुए दस अतिशय और उसी समय देवों द्वारा कृत चौदह अतिशय, इन चौंतीस अतिशयों से युक्त हैं। अर्हंत जिनेश्वर ऐसे होते हैं। जो कोई महायोगी, भेद—अभेद इन दोनों रत्नत्रय के बल से वीतराग र्नििवकल्प समाधि का पुन:—पुन: अभ्यास करते हैं, वे क्षपक श्रेणी में आरोहण करने में समर्थ हुए त्रेसठ प्रकृतियों का निर्मूल नाश कर केवली हो जाते हैं। इन प्रकृतियों के नाश करने का क्रम दिखलाते हैं— असंयतसम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में से किसी एक में अनंतानुबंधी की चार और दर्शनमोह की तीन ऐसी सात प्रकृतियों का नाश कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं। यदि ये चरम शरीरी हैं, तो इनके नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु का अभाव बिना प्रयत्न के ही हो जाता है। वे ही परमानंद अमृतपान के इच्छुक महामुनि क्षपक श्रेणी में चढ़कर अपूर्वकरण गुणस्थान में अपूर्व परिणाम के बल से अपूर्व शक्ति का संचय करते हुए अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में स्थिर होकर छत्तीस प्रकृतियों का नाश कर देते हैं। उनके नाम बताते हैं—नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, स्त्यानगृद्धि, प्रचलाप्रचला, निद्रानिदा, उद्योत, आतप, एकेन्द्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया ये छत्तीस प्रकृतियाँ हैं। पुनः वे ही महामुनि सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में पहुँचकर बचे हुए एक संज्वलन लोभ को नष्ट कर देते हैंं। इस प्रकार वे मोहनीय कर्म का सर्वथा निर्मूलन करके आगे क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर वहाँ पर निद्रा, प्रचला, ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की चार और अंतराय की पाँच, ऐसी सोलह प्रकृतियों को समाप्त कर संपूर्ण पदार्थों के समूह को साक्षात् करने में समर्थ मेघ पटल के हटने पर प्रकट हुए सूर्य के समान, जाज्ज्वल्यमान ज्ञान की मूर्तिस्वरूप केवली हो जाते हैं। इस प्रकार ७ + ३ + ३६ + १ + १६ = ६३ प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं। तीर्थंकर महाप्रभु केवली भगवान् के चौंतीस अतिशय और आठ महाप्रातिहार्य होते हैं। उनके जन्मकाल से ही नित्य उनके शरीर में १. पसीना नहीं आता, २. मल-मूत्र नहीं रहता , ३. दूध के समान रक्त रहता है ४. वज्रवृषभ-नाराचसंहनन ५. समचतुरस्रसंस्थान ६. अतिशय सुन्दर रूप ७. नवचंपक के समान सुगंधि ८. शरीर में १००८ लक्षण ९. अनंतबलवीर्य और १०. हितमितमधुर वचनालाप, ये दश अतिशय होते हैं। पुनः घातिकर्म के क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने पर १. चारों दिशाओं में सौ-सौ योजन तक सुभिक्षता २. आकाश में गमन ३. जीवघात का अभाव ४. भोजन का अभाव ५. उपसर्ग का अभाव ६. चारों तरफ मुख का दिखना ७.छायारहितता ८. निमेषरहित दृष्टि ९. सर्वविद्या की ईश्वरता १०. नख-केशों का न बढ़ना और ११. अठारह महाभाषा, सात सौ लघुभाषा तथा अन्य संज्ञी जीवों का समस्त अक्षर और अनक्षर भाषारूप दिव्यध्वनि का खिरना, ये ग्यारह अतिशय होते हैं। पुनः तीर्थंंकर प्रभु के माहात्म्य से १. संख्यात योजन पर्यंत बिना समय के भी सर्व ऋतु के फल-फूलों का फलना २. कांटे, धूलि आदि को दूर करते हुए सुखदायी पवन का चलना ३. जन्मजातविरोधी जीवों में भी परस्पर में मैत्री भाव का होना ४. दर्पण तल के समान भूमि का स्वच्छ एवं रत्नमयी होना ५. इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार द्वारा गंधोदक की वर्षा का होना ६. फल के भार से झुके हुए शालिधान आदि के खेतों का हो जाना ७. सर्वजनों को आनंद का होना ८. शीतल मंद सुगंध हवा ९. कुएँ, तालाब आदि का स्वच्छ जल से भर जाना १०. धुआँ, उल्कापात आदि से रहित आकाश का निर्मल होना ११. सर्व प्राणियों में रोग, बाधा आदि का नहीं होना १२. यक्षेंद्रों के मस्तक पर चार दिव्य धर्मचक्रों का होना १३. भगवान् के चरण रखने के स्थान आदि में दिव्य सुगंधित सुवर्ण कमलों का होना, ये तेरह अतिशय देवकृत होते हैं।
धादिक्खएण जादा एक्कारस अदिसया महच्छरिया।
एदे तित्थयराणं केवलणाणम्मि उप्पण्णे।।९०६।। तिलोयपण्णत्ति, अ. ४।
तिलोयपण्णत्ति, अ. ४ पृ. २६४ में केवलज्ञान के ग्यारह और देवोपनीत तेरह अतिशय माने हैं। पुन: १. अशोक वृक्ष २. देवों द्वारा पुष्पवृष्टि ३. दिव्यध्वनि ४. चामर ५. सिंहासन ६. भामंडल ७. दुन्दुभि बाजे और ८. छत्रत्रय, ये आठ महाप्रातिहार्य जिनेंद्रदेव के होते हैं। पुनश्च अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन चार अनंत चतुष्टयों से सहित अरहंत भगवान के छ्यालीस गुण माने हैं।
णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा। लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति।।७२।।
अन्वयार्थ- (णट्ठट्ठकम्मबंधा) जिन्होंने आठ कर्मों के बंध का नाश कर दिया है, (अट्ठमहागुणसमण्णिया) जो आठ महागुणों से समन्वित हैं। (परमालोयग्गठिदा णिच्चा) परम हैं, लोकाग्र पर स्थित हैं और नित्य हैं, (एरिसा ते सिद्धा होंति) ऐसे वे सिद्ध भगवान् होते हैं।।७२।।
टीका- जिन्होंने व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम के परमशुक्ल ध्यान के बल से आठों कर्मों के संश्लेष संबंध को भस्मसात् कर दिया है, ऐसे वे कर्ममल कलंक से रहित सिद्ध भगवान् आठ कर्मों के क्षय से प्रकट हुए सम्यक्त्व आदि आठ महागुणों से सहित हैं। उन गुणों के नाम कहते हैं- सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध ये आठ गुण सिद्धों के होते हैं। उसी को स्पष्ट करते हैं- मोहनीय कर्म के सर्वथा प्रलय हो जाने से सम्यक्त्व गुण प्रकट हो जाता है। ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय हो जाने से ज्ञान, दर्शनावरण के संपूर्ण नाश से दर्शन, अन्तराय के पूर्णतया विनाश से वीर्य, नाम कर्म के संपूर्ण विलय से सूक्ष्मत्व, आयुकर्म के विनाश से अवगाहनत्व, गोत्र कर्म के विघात से अगुरुलघुत्व और वेदनीय के अभाव से अव्याबाध-सिद्धों में ये आठ गुण प्रधानरूप से माने गये हैं क्योंकि आर्ष ग्रंथों में तो इनके अनंतानंत गुण कहे गये हैं। पुनः वे सिद्ध कैसे हैं ? परम-तीनों भुवन में जो सर्वोत्कृष्ट हैं अथवा जिनके परा-उत्कृष्ट, मा-लक्ष्मी-अनंतज्ञान, दर्शन आदि अनंतगुण स्वरूप विद्यमान हैं, वे परम हैं। यदि ऐसे सिद्ध भगवान् हैं तो वे कहाँ विराजमान हैं? लोकाकाश के अग्रभाग-शिखर पर अर्थात् तनुवातवलय में विराजमान हैं। पुनः क्या वे कभी इस संसार में कदाचित् अवतार लेंगे? नहीं, क्यों ? क्योंकि वे नित्य हैं, शाश्वत हैं, वहाँ से कभी च्युत नहीं होंगे अथवा अगुरुलघु गुण के निमित्त से षड्गुण हानि वृद्धि के वश से, उत्पाद-व्ययरूप से परिणमन करते हुए भी ध्रुव होने से अविनश्वर हैंं। शाश्वत काल तक वहीं पर विराजमान हैं और रहेंगे। इन लक्षणों से सहित सिद्ध परमेष्ठी होते हैं। इनके जानने से क्या प्रयोजन है ? इनको जानकर उनके परम गुणों में अनुराग करते हुए उनकी आराधना करनी चाहिए क्योंकि उनकी आराधना से कर्ममल से कलंकित अपनी आत्मा की सिद्धि होगी।
पंचाचारसमग्गा पंंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा। धीरा गुणगंभीरा आइरिया एरिसा होंति।।७३।।
अन्वयार्थ- (पंचाचारसमग्गा) जो पाँच आचार से परिपूर्ण हैं, (पंचिंदियदंति-दप्पणिद्दलणा) पाँच इन्द्रियरूपी हाथी के दर्प का दलन करने वाले हैं, (धीरागुणगंभीरा) धीर हैं, गुणों से गंभीर हैं, (एरिसा आइरिया होंति) ऐसे आचार्य होते हैं। टीका- जो पाँच आचार से परिपूर्ण हैं, पाँचों इन्द्रियरूपी हाथी का गर्वदलन करने वाले-चूर्ण करने वाले होने से जितेन्द्रिय हैं, उपसर्ग-परीषह के आ जाने पर धैर्य गुणों से सहित होने से धीर हैं और अमित गुणों से सहित हैं। उसी को कहते हैं-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तप आचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों का जो स्वयं आचरण करते हैं और अन्य शिष्यों को आचरण कराते हैं, वे आचार्य हैं। मूलाचार में कहा भी है- जो सदा आचारवित् हैं, सदा आचारों का आचरण करते हैं और आचरण करवाते हैं, इसीलिए वे आचार्य कहलाते हैं। जो सदा आचार के ज्ञाता हैं, सदा गणधरदेवादि द्वारा आचरित आचार का पालन करते हैं और उन्हीं पाँच आचारों का अन्य शिष्यों से आचरण कराते हैं, इसी कारण वे आचार्य कहलाते हैं। जो पंचेन्द्रिय संबंधी विषयों को छोड़कर पूर्ण वैराग्यशाली हैं, इष्ट या अनिष्ट विषयों में समभावी हैं, धैर्य, उत्साह आदि गुणों से सहित हैं, शिष्यों का संग्रह करने में, उनके ऊपर अनुग्रह करने में और उनका निग्रह करने में कुशल हैं, दीक्षा, शिक्षा, प्रायश्चित्त आदि देने वाले हैं, मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इनका समूह वही हुआ चतुर्विध संघ, उसके नायक हैं, आचारवत्त्व, आधारवत्त्व आदि छत्तीस गुणों से सहित हैं और जिनमुद्रा को धारण करने वाले हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं।
शंका- पुत्र, मित्र, धन, महल आदि सर्व परिग्रह छोड़कर शिष्यादि परिग्रहों का संग्रह करने वाले भी वे सूरि निष्परिग्रही कैसे हैं ?
समाधान- आपने सत्य कहा है, फिर भी वह मुमुक्षु जीवों का संग्रह है, न कि परिग्रह। श्रीकुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार महाप्राभृत ग्रंथ में कहा भी है-दर्शन ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण और उनका पोषण तथा जिनेन्द्र पूजा का उपदेश यह सब सरागी संयमी मुनियों की चर्या है। इसी गाथा को तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा है कि-जो रत्नत्रय की आराधना और शिक्षा में तत्पर ऐसे शिष्यों को स्वीकार करते हैं और उनके ही भोजन, शयन आदि की चिंता करते हुए उन्हीं का पोषण करते हैं, इस प्रकार की सभी चर्या धर्मानुरागचारित्र सहित सरागी आचार्य परमेष्ठी की होती है।
प्रश्न- ऐसे आचार्य परमेष्ठी को जानकर क्या करना चाहिए ?
उत्तर- इनको जानकर परमादर से इनका आश्रय लेना चाहिए। इससे रत्नत्रय की सिद्धि और समाधि की प्राप्ति होवेगी।।७३।।
रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। णिक्कंखभावसहिया, उवज्झाया एरिसा होंति।।७४।।
अन्वयार्थ- (रयणत्तयसंजुत्ता) जो रत्नत्रय से संयुक्त हैं, (जिणकहियपयत्थदेसया सूरा) जिनदेव कथित पदार्थों के उपदेशक हैं, शूरवीर हैं, (णिक्वंâखभावसहिया) और कांक्षा रहित भावों से सहित हैं, (एरिसा उवज्झाया होंति) ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं।।७४।।
टीका- जो रत्नत्रय से सहित हैं, सर्वज्ञदेव द्वारा उपदिष्ट जीव-अजीव आदि पदार्थों का उपदेश देने वाले हैं, शूर हैं और इन्द्रिय भोगों की आकांक्षा से रहित, इहलोक-परलोक संबंधी सांसारिक सुखों की अभिलाषा से रहित अथवा ख्याति, लाभ, पूजादि भावना से रहित हैं, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं। इसी को कहते हैं-जो सकलचारित्र के धारी, अर्हंतमुद्रा से समन्वित, निग्र्रंथ दिगम्बर मुनि हैं, ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का स्वयं अध्ययन करते हैं तथा अन्य मुमुक्षु मुनियों को अध्ययन कराते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रंथों के पठन-पाठन की मुख्यता से इनके ये पच्चीस मूलगुण कहे गये हैं अथवा उस काल के समस्त श्रुत में पारंगत भी उपाध्याय होते हैं। धवला टीका में कहा है- ‘‘चतुर्दश पूर्वरूप विद्यास्थान के व्याख्यान करने वाले अथवा तात्कालिक प्रवचन ग्रन्थों के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं।धवला पुस्तक—१ पृ. ५१। ये उपाध्याय परमेष्ठी पाँच महाव्रत आदि तेरह प्रकार के चारित्र और अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हुए, शिष्यों को पढ़ाते हुए और उपदेश देते हुए भी शिष्यों का संग्रह तथा अनुग्रह नहीं करते हैं।’’
प्रश्न- ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी को जानकर क्या करना चाहिए ?
उत्तर- संसार समुद्र से तिरने के लिए उपायभूत इन गुरुओं की शरण लेकर इनसे जिनागम का अध्ययन करते हुए तुम्हें केवलज्ञान के बीज ऐसे भावश्रुुत को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।।७४।।
वावारविप्पमुक्का, चउव्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा, साहू एदेरिसा होंति।।७५।।
श्री कुन्दकुन्ददेव अपनी आत्मसिद्धि के साधक ऐसे साधु परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं-
अन्वयार्थ- (वावारविप्पमुक्का) जो व्यापार से रहित, (चउव्विहाराहणासयारत्ता) चारों प्रकार की आराधना में सदा तत्पर (णिग्गंथा णिम्मोहा) परिग्रह ग्रंथिरहित और मोहरहित हैं, (एदेरिसा साहू होंति) इस प्रकार के साधु होते हैं।।७५।।
टीका- जो मन-वचन-काय की अशुभ चेष्टारूप व्यापार से अथवा सर्व अशुभ व्यापार से रहित हैं, जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधनाओं में सदा अनुरागयुक्त हैं, जो दशविध बाह्य और चौदह प्रकार के अंतरंग ऐसे चौबीस प्रकार की ग्रंथि-परिग्रह से रहित होने से निग्र्रंथ हैं और दर्शनमोह तथा चारित्रमोह से रहित होने से निर्मोही हैं, ऐसे गुरु साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। उसे ही कहते हैं-जो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य स्वरूप अपनी शुद्धात्मा का साधन करते हैं, वे साधु होते हैं। ये पाँच महाव्रत आदि अट्ठाईस मूलगुणोें से सहित हैं, बारह प्रकार के तप और बाईस प्रकार के परीषहजय इन चौंतीस उत्तरगुणों का पालन करते हैं, आतापन, वृक्षमूल और अभ्रावकाश आदि योग को धारण करने वाले हैं अथवा और भी अनेक प्रकार के योग धारण करने में कुशल हैं अथवा चौरासी लाख पर्यंत उत्तरगुणों में यथाशक्ति उत्तरगुणों को धारण करते हैं वे साधु परमेष्ठी होते हैं।
शंका- जिनको अपनी आत्मा की उपलब्धि स्वरूप सिद्धि हो चुकी है, ऐसे अर्हंत और सिद्ध नमस्कार के योग्य हैं, न कि आचार्य आदि, क्योंकि इनमें स्वात्मसिद्धि का अभाव होने से उनमें देवपने का अभाव है। समाधान- ऐसा नहीं कहना, शंका- क्यों ?
समाधान- क्योंकि रत्नत्रय को ही देवत्व कहा है और वह रत्नत्रय इनमें भी विद्यमान है, इसलिए आचार्य, उपाध्याय, साधुओं में भी देवत्व की हानि नहीं है। धवला टीका में कहा भी हैधवला पुस्तक—१ पृ. ५१।- तीन रत्न ही देव हैं, इनके अपने भेद से अनंतभेद हो जाते हैं, इन रत्नत्रय से सहित जीव भी देव हैं। अगर ऐसा नहीं मानोगे तो सभी अशेष जीवों में भी देवपने की आपत्ति आ जायेगी, इसलिए आचार्य आदि भी देव हैं, क्योंकि उनमें भी रत्नत्रय का अस्तित्व समान है। शंका- संपूर्ण रत्नत्रय ही देव हैं, न कि एकदेश रत्नत्रय ? समाधान- यदि रत्नत्रय के एकदेश में देवत्व का अभाव मानोगे तो समस्त रत्नत्रय में भी देवत्व का अभाव ही रहेगा।
शंका- आचार्य आदि में स्थित जो रत्नत्रय हैं, वे सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने वाले नहीं हैं क्योंकि वे एकदेश रत्नत्रय हैं ?
समाधान- ऐसा नहीं कहना, अग्निसमूह का कार्य है पलाल के ढेर को जला देना, सो वह कार्य उसके एक कण-चिनगारी में भी पाया जाता है। इसलिए आचार्य आदि भी देव हैं, यह बात निश्चित हुई।
शंका- पंच परमेष्ठी में पूज्यता है, यह बात तो मैंने समझ ली, किन्तु सर्वकर्म मल से रहित सिद्धों के पहले अर्हंतों को नमस्कार कैसे किया है ?
समाधान- ऐसा नहीं कहना, सिद्ध भगवान् सभी की अपेक्षा गुणों में अधिक हैं, यह ज्ञान भी अर्हंत के उपदेश से ही होता है अथवा आप्त, आगम और पदार्थों का ज्ञान भी अर्हंत के उपदेश से ही होता है, इसलिए अर्हंत के प्रसादस्वरूप उनके उपकार की अपेक्षा से उनको पहले नमस्कार करना दोषप्रद नहीं है।
शंका- सम्यग्दृष्टि जीवों को यह पक्षपात क्यों है ?
समाधान- यह पक्षपात दोष का हेतु नहीं है प्रत्युत गुण का ही हेतु है। आचारसार ग्रंथ में कहा भी है- ‘‘गुणों में जो पक्षपात है, वह प्रमोद कहलाता है।’’ धवला टीका में भी इसी का समर्थन देखा जाता है- ‘‘शुभपक्ष के वर्तन में किया गया पक्षपात दोष के लिए नहीं है, क्योंकि वह मोक्ष का हेतु है। जहाँ अद्वैत-अभेद प्रधान है वहाँ द्वैत गौण हो जाता है, ऐसे अद्वैत प्रधान में द्वैतनिमित्तक पक्षपात नहीं बन सकता अथवा आप्त की श्रद्धा में आप्त, आगम और पदार्थविषयक श्रद्धा की अधिकता हेतु है, ऐसा बतलाने के लिए ही अर्हंतों को आदि में नमस्कार किया है।