रत्नजटित सिंहासन पर लव-कुश विराजमान हैं। नारद प्रवेश करते हैं, देखते ही दोनों वीर उठकर खड़े होकर विनय सहित घुटने टेक कर उन्हें नमस्कार कर उच्च आसन प्रदान करते हैं। प्रसन्न मुद्रा में स्थित नारद कहते हैं – ‘‘राजा राम और लक्ष्मण का जैसा वैभव है सर्वथा वैसा ही वैभव आप दोनों को शीघ्र ही प्राप्त हो।’’ वे वीर पूछते हैं – ‘‘भगवन् ! ये राम-लक्ष्मण कौन हैं? वे किस कुल में उत्पन्न हुए हैं?’’ आश्चर्यमय मुद्रा को करते हुए कुछ क्षण स्तब्ध रहकर नारद कहते हैं – ‘‘अहो! मनुष्य भुजाओं से मेरु को उठा सकता है, समुद्र को तैर सकता है किन्तु इन दोनों के गुणों का वर्णन नहीं कर सकता है। यह सारा संसार अनंतकाल तक अनंत जिह्वाओं के द्वारा भी उनके गुणों को कहने में समर्थ नहीं है। फिर भी मैं उसका नाममात्र ही तुम्हें बता देता हूँ। सुनो, अयोध्या के इक्ष्वाकुवंश के चन्द्रमा दशरथ के पुत्र श्री राम और लक्ष्मण हैं। …दशरथ की दीक्षा के बाद भरत का राज्याभिषेक होता है और राम-लक्ष्मण, सीता वन को चले जाते हैं। वहाँ रावण सीता को हर ले जाता है पुनः रामचन्द्र, हनुमान, सुग्रीव आदि के साथ रावण को मार कर सीता वापस ले आते हैं। अयोध्या मेंआकर पुनः राज्य-संचालन करते हैं। श्रीराम के पास सुदर्शन चक्र है तथा और भी अनेक रत्न हैं जिन सबकी एक-एक हजार देव सदा रक्षा करते रहते हैंं। उन्होंने प्रजा के हित के लिए सीता का परित्याग कर दिया है ऐसे राम को इस संसार में भला कौन नहीं जानता है?’’ यह सब सुनकर अंकुश पूछता है – ‘‘हे ऋषे! राम ने सीता किस कारण छोड़ी सो तो कहो, मैं जानना चाहता हूँ।’’