श्री रामचन्द्र अपने सिंहासन पर आरूढ़ हैं। सुग्रीव, हनुमान, विभीषण आदि आकर नमस्कार कर निवेदन करते हैं – ‘‘प्रभो! सीता अन्य देश में स्थित है उसे यहाँ लाने की आज्ञा दीजिए।’’ रामचन्द्र गर्म निःश्वास लेकर कहते हैं – ‘‘बंधुओं! यद्यपि मैं उसके विशुद्ध शील को जानता हूँ फिर भी लोकापवाद से त्यक्त हुई सीता का मुख मैं कैसे देख सकूँगा? हाँ, यदि वह अपने सतीत्व का विश्वास जनता को करा सके तो आप ला सकते हैं।’’ राम की आज्ञा पाते ही हनुमान आदि पुंडरीकपुर पहुँचकर सीता के महल में प्रवेश करते हैं। पुष्पांजलि बिखेर कर सीता को प्रणाम कर वार्तालाप करते हैं। सीता रो पड़ती हैं और कहती हैं – ‘‘दुर्जनों के वचन रूपी दावानल से जले हुए मेरे अंग इस समय क्षीरसागर के जल से भी शांत नहीं हो रहे हैं।’’ ‘‘हे मनस्विनि! हे भगवति! आप शोक छोड़ो और मन को प्रकृतिस्थ करो। हम लोगों ने ऐसा कह रखा है कि भरत क्षेत्र में जो भी सीता की निंदा करे उसे मार डाला जाये और जो सीता के गुणों का कीर्तन करे उसके घर रत्न वर्षा की जाये। हे दे वि! कृषक भी धान्य राशि में आपकी स्थापना करते हैं उनका कहना है कि इससे धान्य अधिक पैदा होता है।’’ पुनः हनुमान कहते हैं – ‘‘हे वैदेहि! यह पुष्पक विमान श्रीराम ने भेजा है अतः अब पति की आज्ञा का पालन करो, उठो और शीघ्र ही अयोध्या चलो।’’ सीता, भाई, पुत्र और पुत्रवधू सहित अयोध्या के लिए प्रस्थान कर देती हैं।