जैन परम्परा में तपश्चरण को कर्म-निर्जरा में प्रमुख कारण माना है, यही कारण है कि जैनसाधु एवं श्रावक विविध प्रकार के व्रतों का समय-समय पर अनुष्ठान करते हुए देखे जाते हैं। इन्हीं व्रतों में से महान फलदायी व्रत है-द्वादशकल्प व्रत अथवा मुष्टि तंदुल व्रत।
इस व्रत को गृहस्थ श्रावक-श्राविकाएं ही करते हैं। यह व्रत कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष से प्रारंभ करके एक वर्ष तक किया जाता है।
उदाहरणार्थ, कार्तिक शुक्ला एकम् से इस व्रत को प्रारंभ किया, प्रात:काल जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक तथा अर्हन्त भगवान या चौबीस तीर्थंकर भगवान की पूजा करें एवं एक पात्र में एक मुट्ठी चावल (तंदुल) निकाल दें, दिन में नियमपूर्वक दो या तीन बार भोजन कर सकते हैं पर रात्रि में चतुराहार का त्याग रखें, पुन: कार्तिक शुक्ला द्वितीया से चतुर्दशी तक पूर्वोक्त विधि से प्रतिदिन एक-एक मुट्ठी चावल निकालते हुए कुल १४ मुट्ठी चावल एकत्रित हो जायेगा। अब, कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को उपवास रखते हुए अभिषेक करें और पूजन में इन १४ मुट्ठी चावल का नैवेद्य-लाडू इत्यादि बनाकर भगवान के समक्ष चढ़ावें। पुन: मगसिर कृष्णा एकम् से मगसिर कृष्णा चतुर्दशी तक १४ मुट्ठी चावल निकालें तथा मगसिर कृष्णा अमावस्या को उपवास करके इस एकत्रित चावल का नैवेद्य बनाकर भगवान की पूजा में चढ़ावें। इस प्रकार प्रत्येक पक्ष में एक उपवास अर्थात् एक माह में दो उपवास करके इस व्रत को किया जाता है। प्रत्येक उपवास में निम्न मंत्र का जाप्य करें-‘‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं परब्रह्मणे अनंतानंतज्ञानशक्तये अर्हत्परमेष्ठिने यक्षयक्षी सहिताय नम: स्वाहा।’’ मात्र दो उपवास करने पर भी हजारों उपवास का फल प्रदान करने वाले इस व्रत को निम्न तालिका से आप आसानी से समझ सकते हैं-
उद्यापन विधि-एक वर्ष तक विधि अनुसार इस व्रत का परिपालन करके इसका उद्यापन किया जाता है, जिसमें यथाशक्ति अर्हन्त भगवान की प्रतिमा या चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ बनवाकर प्रतिष्ठा कराकर मंदिर जी में विराजमान करें। बारह प्रकार के उपकरण मंदिर जी में दान करें। अपनी शक्ति अनुसार ग्रंथ छपाकर भेंट करें। साधुगणों को पिच्छी-कमण्डलु-शास्त्र इत्यादि प्रदान करें एवं आर्यिकाओं को वस्त्र आदि देवें।यदि किसी पक्ष में एक तिथि बढ़ जाती है तो १५ मुट्ठी चावल एकत्रित हो जायेगा और यदि किसी पक्ष में एक तिथि घट जाती है तो चतुर्दशी को दो मुट्ठी चावल निकालना होगा।इस व्रत का अनुष्ठान करने वालों के व्यापार-धन-धान्य आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, अक्षय भण्डार भरता है, सब प्रकार से सुख-शांति-संपत्ति-सन्तति आदि की प्राप्ति होती है तथा परम्परा से स्वर्ग-मोक्ष के सुखों की प्राप्ति होती है।