श्री गौतमस्वामी ने जिनागम की वन्दना की है—
‘‘मिथ्याज्ञान—तमोवृत—लोकैकज्योतिरमितगमयोगि। सांगोपांगमजेयं, जैनं वचनं सदा वन्दे।।७।।’’
अर्थ— मिथ्याज्ञानरूपी अंधकार से व्याप्त इस लोक—संसार में एक अद्वितीय ज्योतिस्वरूप, अनुपम, द्वादशांग और अंगबाह्यरूप अजेय जैनवचन—जिनआगम की मैं सदा वन्दना करता हूँ। मंगलाचरण में पाँच ज्ञानों के विवेचन में श्रुतज्ञान में इन द्वादशांग व अंगबाह्य का वर्णन संक्षेप में आ चुका है। आज वर्तमान उपलब्ध पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत जितना भी ‘जैन वाङ्मय’ हैं—जितने दिगंबर जैन ग्रंथ हैं वे सभी जिनागम हैं।