देवों की सभा लगी हुई है। सौधर्म इन्द्र अपने सिंहासन पर आरूढ़ हैं। अर्हंतदेव की भक्ति का उपदेश दे रहे हैं। उपदेश के अनन्तर इन्द्र चिंता निमग्न हो सोच रहे हैं – ‘‘अहो! यहाँ की आयु पूर्ण कर मैं मनुष्य पर्याय कब प्राप्त करूँगा? तप के द्वारा कर्मों को नष्ट कर जिनदेव की गति को कब प्राप्त करूँगा?’’ यह सुन एक देव बोलता है – ‘‘जब तक यह जी व स्वर्ग में रहता है तभी तक उसके ऐसे भाव होते हैं किन्तु जब मनुष्य पर्याय को पा ले ते हैं तो भोगों में निमग्न हो सब कुछ भूल जाते हैं। यदि विश्वास नहीं है तो ब्रह्मलोक से च्युत हुए श्री रामचन्द्र को क्यों नहीं देख लेते?’’ तब इन्द्र कहते हैं – ‘‘सच में सभी बंधनों में स्नेह का बंधन अत्यन्त दृढ़ है। जो हाथ-पैरों से बँधा है वह तो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है किन्तु स्नेह बंधन से बँधा हुआ प्राणी मोक्ष नहीं प्राण देकर भी उनका कार्य करना चाहता है और पलभर भी जिसके दूर होने पर राम बेचैन हो उठते हैं। अहो! उन दोनों का स्नेह अपूर्व ही है।’’ सभा विसर्जित हो जाती है। रत्नचूल और मृगचूल नाम के दो देव इन दोनों के स्नेह की परीक्षा के लिए अयोध्या आ जाते हैं। राम के भवन में दिव्य माया से रुदन मचा देते हैं और विक्रिया से बनाये हुए मंत्री पुरोहित आदि को लक्ष्मण के पास भेज देते हैंं वे वहाँ पहुँच कर कहते हैं – ‘‘हे नाथ! राम की मृत्यु हो गई।’’