राजसभा में बैठे हुए श्रीराम शत्रुघ्न से राज्य संभालने को कहते हैं किन्तु जब वह दीक्षा के भाव व्यक्त करता है तब अनंगलवण के पुत्र अनन्तलवण का राज्याभिषेक कर देते हैं। इसी बीच अर्हदास सेठ प्रवेश करते हैं। राम पूछते हैं – ‘‘भद्र! मुनि संघ में कुशल है ना?’’ ‘‘हे नाथ! आपके इस कष्ट से पृथ्वी तल पर मुनि भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं और आपके स्नेह से खिंचकर श्री सुव्रताचार्य गुरु स्वयं यहाँ पधारे हैं।’’ राम हर्ष से रोमांचित हो मुनि के समीप पहुँचते हैं उनकी प्रदक्षिणा देकर वंदना करते हैं, स्तुति पूजा करते हैं पुनः कहते हैं – ‘‘हे भगवन्! मुझे संसार समुद्र से पार करने वाली निर्ग्रंंथ दीक्षा प्रदान कीजिए।’’ गुरु की आज्ञा पाकर जब राम वस्त्रालंकार त्याग कर केशलोंच करते हैं, उस समय देवगण रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य करने लगते हैं। विभीषण, सुग्रीव आदि भी दीक्षा ले लेते हैं। उस समय कुछ अधिक सोलह हजार राजा मुनि हो जाते हैं और सत्ताईस हजार प्रमुख स्त्रियाँ ‘श्रीमती’ आर्यिका के पास साध्वी हो जाती हैं। गुरु की आज्ञा ले कर राम एकाकी विहार करते हुए वन में जाकर प्रतिमा योग धारण कर लेते हैं। रात्रि में ही उन्हें अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है। पाँच दिन के उपवास के बाद योगी श्रीराम पारणा के लिए नंदस्थली नगरी में आते हैं। उनके रूप सौन्दर्य को देखते ही लोग पागल के समान हो जाते हैं। शहर की गलियों में बेशुमार भीड़ हो जाती है। श्रावक-श्राविकायें पड़गाहन करने में तत्पर हो उच्च स्वर से बोलते हैं –
‘‘हे स्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। ‘‘हे मुनीन्द्र! जय हो, जय हो, यहाँ आइये, आइये, ठहरिये, ठहरिये।’’
महिलाएं तरह-तरह की वस्तुएं मँगाने लगती हैं – ‘‘अरी सखी! गन्ना ले आ’’ ‘‘अरी वह सुवर्ण की झारी लाओ।’’ ‘‘अरी चतुरे! खीर ले आ! अच्छा, मिश्री और ले आ।’’ इत्यादि प्रकार से इतना हल्ला हो जाता है कि हाथी घोड़े भी अपने-अपने बंधन को तोड़कर उपद्रव मचाते हुए इधर-उधर भागने लगते हैं। इतना कोलाहल देख राजा प्रतिनंदी अपने कर्मचारियों को भेजता है। वे आकर पड़गाहन करने वालों को तितर-बितर करके मुनि से कहते हैं – ‘‘प्रभो! राजा के यहाँ पधारिये, वहाँ उत्तम भोजन कीजिए।’’ मुनिराज अन्तराय समझकर वन में वापस चले जाते हैं और पुनः पाँच उपवास के बाद ऐसा वृत्तपरिसंख्यान लेते हैं कि – ‘‘यदि कोई वन में ही पड़गाहेगा तो आहार करूँगा अन्यथा नहीं।’’ अकस्मात् शत्रु द्वारा हरे जाने पर राजा प्रतिनंदी वन में ही रानी के साथ भोजन विधि करने को तैयार होते हैं कि सामने से श्रीराम मुनि को देखकर भक्ति से पड़गाहन करके नवधा भक्ति से आहार कराते हैं। देवों के द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि होने लगती है। राम को अक्षीण महानस ऋद्धि भी हो गई थी अतः उस दिन राजा के यहाँ अन्न अक्षय हो जाता है। श्रीरामचन्द्र महामुनि वन में ही आहार का नियम लेते रहते हैं। देवांगनाएं उनकी पूजा करती रहती हैं। कई एक वर्ष बाद श्रीराम कोटिशिला पर पहुँचकर रात्रि में प्रतिमायोग से स्थित हो ध्यान में लीन हो जाते हैं।