ये जिनप्रतिमायें अधिकतम जिनमंदिरों में ही विराजमान रहती हैं अत: आगे नवमें देव की वन्दना करते हैं— श्री गौतमस्वामी जिनचैत्यालयों की वंदना करते हैं—
‘‘भुवनत्रयेऽपि भुवन—त्रयाधिपाभ्यच्र्य तीर्थकर्तृणाम्। वन्दे भवाग्निशान्त्यै, विभवानामालयालीस्ता:।।९।।’’
अर्थ— तीनों लोकों के इंद्रों से र्अिचत ऐसे तीर्थंकर भगवान जो कि भव—संसार के भ्रमण से रहित हैं, उनके जो आलयों का समूह—जिनालय हैं, ऐसे जिनमंदिर तीनों लोकों में भी जितने हैं उन सबकी मैं भवसंताप की शांति के लिये वन्दना करता हूूँ।।९।।
अकृत्रिम-अनादिनिधन-शाश्वत जिनमंदिर तीनों लोकों के असंख्यात हैं। उन मंदिरों की रचना कैसी है ? वे मंदिर बड़े से बड़े कितने बड़े हैं और छोटे से भी छोटे कितने छोटे हैं ? उत्कृष्ट मंदिर सौ योजन लंबे, पचास योजन चौड़े और पचहत्तर योजन ऊँचे हैं। मध्यम जिनालय पचास योजन लंबे, पचीस योजन चौड़े और ३७—१/२ योजन ऊँचे हैं। जघन्य मंदिर पचीस योजन लम्बे, १२—१/२ योजन चौड़े, १८— ३/४ योजन ऊँचे हैं। एक योजन में चार कोश, एक कोश में-दो मील होने से ये उत्कृष्ट मंदिर १०० यो., १०० ² ८ मील से गुणा करने से आठ सौ मील लंबे हैं, अर्थात् ८०० मील के किलोमीटर करने से बारह सौ अस्सी १२८० कि. मी. लंबे हैं। सुदर्शन मेरु आदि पाँचों मेरु के भद्रसाल, नंदनवन के मंदिर, नंदीश्वरद्वीप व वैमानिक देवों के मंदिर उत्कृष्ट प्रमाण वाले हैं। मेरु के सौमनसवन के, कुण्डलगिरि व रुचकगिरि, वक्षार, इष्वाकार मानुषोत्तरपर्वत और हिमवान आदि कुलाचलों के मंदिर मध्यम प्रमाण वाले हैं। पांडुकवन के मंदिर जघन्य प्रमाण वाले हैं। विजयार्ध पर्वत के मंदिर, जंबूवृक्ष व शाल्मलीवृक्ष के मंदिर एक कोश लंबे, १/२ कोश चौड़े व पौन कोश ऊँचे हैं।त्रिलोकसार पृ. ७४९ से ७६५ तक। प्रत्येक मंदिर के चारों तरफ तीन परकोटे हैं। प्रथम व द्वितीय परकोटे के अंतराल में चैत्यवृक्ष हैं। जिनके परिवार वृक्ष एक लाख, चालीस हजार एक सौ उन्नीस हैं। इन सभी वृक्षों की कटनी पर चारों दिशाओं में एक-एक जिनप्रतिमाएँ हैं। इन अकृत्रिम जिनमंदिरों को एवं उनमें—प्रत्येक में विराजमान १०८-१०८ जिनप्रतिमाओं को तथा मानस्तंभ, स्तूप व चैत्यवृक्षों में विराजमान जिनप्रतिमाओं को मेरा कोटि-कोटि नमन है। ==
अब त्रैलोक्यस्थित अकृत्रिम चैत्यालयों का सामान्य से व्यासादिक कहते हैं—
गाथार्थ— उत्कृष्ट आदि चैत्यालयों के आयाम के अर्ध भाग प्रमाण उनका व्यास है तथा आयाम और व्यास के योग का अर्ध भाग प्रमाण उन जिनालयों का उदय (ऊँचाई) है। द्वारों की ऊँचाई के अर्धभाग प्रमाण द्वारों का व्यास (चौड़ाई) है तथा बड़े द्वारों के व्यासादि से छोटे द्वारों का व्यासादिक अर्ध—अर्ध प्रमाण है।।९७८।।
विशेषार्थ— उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों का आयाम क्रम से १०० योजन, ५० योजन और २५ योजन प्रमाण है। इन्हींं जिनालयों का व्यास (चौड़ाई) आयाम के अर्ध भाग प्रमाण अर्थात् ५० योजन, २५ योजन और १२-१/२ योजन प्रमाण है तथा इनकी ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई के अर्धभाग प्रमाण अर्थात् (१०० + ५०) = १५० / २ = ७५ योजन, (५० + २५) = ७५ / २ = ३७.१/२ योजन और (२५ + १२-१/२) · ७५ / २ x २ = १८-३/४ योजन प्रमाण है। उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों के द्वारों की ऊँचाई क्रम से १६ योजन, ८ योजन और ४ योजन प्रमाण है तथा इन्हीं द्वारों की चौड़ाई, ऊँचाई के अर्धभाग प्रमाण अर्थात् ८ योजन, ४ योजन और २ योजन प्रमाण है। छोटे-छोटे द्वारों का उदय एवं व्यास बड़े द्वारों के उदय एवं व्यास से अर्ध—अर्ध प्रमाण है अर्थात् उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों में जो छोटे-छोटे दरवाजे हैं उनकी ऊँचाई क्रम से ८ योजन, ४ योजन और २ योजन है तथा उनका व्यास (चौड़ाई) ४ योजन, २ योजन और एक योजन प्रमाण है।। इस कहे हुए अर्थ को ही विशेष-दो गाथाओं द्वारा कहते हैं :—
गाथार्थ— उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य जिनालयों का व्यासादिक क्रम से आधा—आधा है। भद्रशाल वन, नन्दन वन, नन्दीश्वर द्वीप और वैमानिक देवों के विमानों में जो जिनालय हैं, ये उत्कृष्ट व्यासादिक प्रमाण वाले हैं तथा सौमनस वन, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, वक्षार, इष्वाकार, मानुषोत्तर पर्वत और कुलाचलों पर जो जिनालय हैं, उनका व्यासादिक मध्यम और पाण्डुक वन स्थित जो जिनालय हैं, उनका व्यासादिक जघन्य प्रमाण वाला है।।९७९-९८०।।
विशेषार्थ— उत्कृष्ट जिनालयों के व्यासादिक से मध्यम जिनालयों का व्यासादिक अर्धभाग प्रमाण है और मध्यम से जघन्य जिनालयों का व्यासादिक अर्धभाग प्रमाण है। भद्रशाल वन, नन्दन वन, नन्दीश्वर द्वीप और देवों के विमानगत जो जिनालय हैं, वे उत्कृष्ट प्रमाण वाले हैं। सौमनस वन, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, वक्षार, इष्वाकार, मानुषोत्तर पर्वत और कुलाचलों पर जो जिनालय हैं, वे मध्यम तथा पाण्डुक वनस्थ जिनालय जघन्य प्रमाण वाले हैं। इसके बाद उत्कृष्ट जिनालयों का आयाम, गाध (नींव) और द्वारों की ऊँचाई कहते हैं—
गाथार्थ— उत्कृष्ट जिनालयों का आयाम सौ योजन प्रमाण और गाध अर्ध योजन प्रमाण है। इनके द्वारों की ऊँचाई सोलह योजन प्रमाण है। उत्कृष्ट द्वारों के दोनों पार्श्व भागों में दो-दो छोटे द्वार हैं।।९८१।।
विशेषार्थ— उत्कृष्ट जिनालयों की लम्बाई १०० योजन और अवगाढ अर्ध योजन प्रमाण है। इन जिनालयों के उत्कृष्ट द्वारों की ऊँचाई १६ योजन प्रमाण है। उत्कृष्ट द्वारों के दोनों पार्श्व भागों में दो-दो छोटे दरवाजे हैं। उत्कृष्टादि विशेषण से रहित जिनालयों का आयाम कितना है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं—
गाथार्थ— विजयार्ध पर्वत, जम्बू और शाल्मली वृक्षों पर स्थित जिनालयों का आयाम एक कोस प्रमाण है तथा अवशेष जिनालयों (भवनवासियों के भवनों एवं व्यन्तरदेवों के आवासों में स्थित) का अपने-अपने योग्य आयामादिक का प्रमाण जिनेन्द्रदेव के द्वारा देखा हुआ है अर्थात् अनेक प्रकार का है अतः यहाँ कहा नहीं जा सकता ।।९८२।। ऊपर कहे हुए जिनालयों का परिवार सात गाथाओं द्वारा कहते हैं—
गाथार्थ— समस्त जिनभवनों के चार गोपुर द्वारों से संयुक्त मणिमय तीन कोट हैं। प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तम्भ और नव-नव स्तूप हैं। उन कोटों के अन्तरालों में क्रम से वन, ध्वजा और चैत्यभूमि हैं।।९८३।।
विशेषार्थ— समस्त जिनभवनों के चारों ओर चार गोपुर द्वारों से संयुक्त मणिमय तीन कोट हैं। प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तम्भ और नव-नव स्तूप हैं। बाहर से प्रारम्भ कर प्रथम और द्वितीय कोट के अन्तराल में वन हैं। द्वितीय और तृतीय कोट के अन्तराल में ध्वजाएँ तथा तृतीय कोट के बीच चैत्यभूमि है।
गाथार्थ—उन समस्त जिन भवनों में प्रत्येक में एक सौ आठ गर्भगृह हैं तथा जिनभवनों के मध्य में रत्नों के स्तम्भों से युक्त स्वर्णमय एक-एक मण्डप है जिसकी लम्बाई ८ योजन, चौड़ाई दो योजन और ऊँचाई चार योजन प्रमाण है।
गाथार्थ— उन गर्भगृहों के मध्य में िंसहासनादि से सहित तथा विशेष नीले केश, सुन्दर वज्रमय दाँत, मूँगा सदृश ओंठ तथा नवीन कोंपल की शोभा को धारण करने वाले हैं हाथ और पैर के तलभाग जिनके दश ताल प्रमाण लक्षणों से भरी हुईं, देख रही हों मानों, बोल ही रहीं हों मानों और आदिनाथ भगवान् के बराबर है (५०० धनुष) ऊँचाई जिनकी, ऐसी रत्नमय एक सौ आठ प्रतिमाएँ हैं।।९८५-९८६।।
विशेषार्थ— उन १०८ गर्भगृहों के मध्य में सिंहासनादि से सहित रत्नमय १०८—१०८ प्रतिमाएँ हैं। जिनके विशेष नीले केश, सुन्दर वङ्कामय दाँत, मूँगा सदृश ओंठ तथा नवीन कोंपल की शोभा को धारण करने वाले हाथ पैर के तल भाग हैं, जो दश ताल प्रमाण लक्षण से भरी हुई हैं। जो देखती हुई के सदृश, बोलती हुई के सदृश एवं आदिनाथ भगवान के सदृश ५०० धनुष ऊँची हैं। वे प्रतिमाएँ कैसी हैं ? गाथार्थ— वे जिन प्रतिमाएँ, चमरधारी नागकुमारों के बत्तीस युगलों और यक्षों के बत्तीस युगलों सहित, पृथक-पृथक एक-एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति से भली प्रकार शोभायमान होती हैं। उन जिन प्रतिमाओं के पार्श्व भाग में श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाण्ह यक्ष और सानत्कुमार यक्ष के रूप अर्थात् प्रतिमाएँ हैं तथा अष्टमङ्गल द्रव्य भी होते हैं। झारी, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोना ये आठ मंगल द्रव्य हैं, ये प्रत्येक मंगल द्रव्य १०८—१०८ प्रमाण होते हैं।।९८७-९८८-९८९।।
विशेषार्थ—वे जिन प्रतिमाएँ चौंसठ चमरों से वीज्यमान हैं अर्थात् हाथों में हैं चमर जिनके ऐसे नागकुमार के ३२ युगलों और यक्षों के ३२ युगलों से सहित हैं, पृथक्-पृथक् एक-एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति से भली प्रकार शोभायमान होती हैं। उन प्रतिमाओं के पार्श्वभाग में श्री (लक्ष्मी) देवी, श्रुत (सरस्वती) देवी, सर्वाह्व यक्ष और सानत्कुमार यक्ष की प्रतिमाएँ तथा अष्टमंगल द्रव्य हैं। झारी, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोना, ये आठ मङ्गल द्रव्य हैं, ये प्रत्येक मंगल द्रव्य एक सौ आठ, एक सौ आठ प्रमाण होते हैं। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में भी कहा है—
सिरिसुददेवीणतहासव्वाण्हसणक्कुमार जक्खाणं। रुवाणिं पत्तेक्कं पडि वररयणाइरइदाणिं।।१८८१।।
(चतुर्थ अधिकार)
अर्थ— प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह व सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ रहती हैं।।१८८१।। अब गर्भगृह से बाह्य का स्वरूप चार गाथाओं द्वारा कहते हैं— गाथार्थ— मणि और स्वर्ण के पुष्पों से सुशोभित देवच्छन्द के पूर्व में आगे जिनमन्दिर है, उसके मध्य में चाँदी और स्वर्ण के बत्तीस हजार घड़े हैं। महाद्वार के दोनों पार्श्व भागों में चौबीस हजार धूपघट हैं तथा उस महाद्वार के दोनों बाह्य पार्श्वभागों में आठ हजार मणिमय मालाएँ हैं। उन मणिमय मालाओं के मध्य में चौबीस हजार स्वर्णमय मालाएँ हैं तथा मुखमण्डप में स्वर्णमय सोलह हजार कलश, सोलह हजार मालाएँ और सोलह हजार धूपघट हैं तथा उसी मुखमण्डप का मध्य भाग मोती और मणियों से बनी हुईं मधुर झण झण शब्द करने वाली छोटी-छोटी किंकिणियों से युक्त नाना प्रकार के घन्टा जालों की रचना से शोभायमान हैं।।।९९०-९९३।।
विशेषार्थ— मणि और स्वर्ण के पुष्पों से सुशोभित जो देवच्छन्द है, उसके पूर्व में आगे जिनमन्दिर का मध्य चाँदी और स्वर्ण के बत्तीस हजार घड़ों से युक्त है। मन्दिर के महाद्वार के दोनों पार्श्व भागों में २४००० धूपघट हैं तथा उसी महाद्वार के दोनों बाह्य पार्श्व भागों में ८००० मणिमय मालाएँ हैं और उन्हीं मणिमय मालाओं के मध्य में २४००० स्वर्णमय मालाएँ हैं तथा उस महाद्वार के आगे मुखमण्डप का मध्य भाग, मोती एवं मणियों से बनी हुई मधुर झन-झन शब्द करने वाली छोटी-छोटी किंकिणियों से संयुक्त नाना प्रकार के घंटाओं के समूह की रचना से शोभायमान है। उस मन्दिर के छोटे द्वारों का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ— जिनमन्दिर के दक्षिणोत्तर पार्श्व भागों में छोटे-छोटे द्वार हैं। उनकी मालादिक का प्रमाण महाद्वार के प्रमाण से अर्धभाग प्रमाण है। उस मन्दिर के पृष्ठभाग में आठ हजार मणिमय मालाएँ और २४००० स्वर्णमय मालाएँ हैं।।९९४।। ऊपरि कथित मुखमण्डपादिकों का व्यास आदि तथा उनके आगे स्थित रचना का स्वरूप पन्द्रह गाथाओं द्वारा कहते हैं—
गाथार्थ— जिनमन्दिर के आगे जिनमन्दिर सदृश ही व्यास एवं आयाम वाला और १६ योजन ऊँचा मुखमण्डप है। उस मुखमण्डप के आगे चौकोर प्रेक्षण मण्डप है, जिसका व्यास सौ योजन और ऊँचाई साधिक सोलह योजन है। उस प्रेक्षण मण्डप के आगे दो योजन ऊँचा, अस्सी योजन चौड़ा, चौकोर और स्वर्णमय पीठ है। उस पीठ के मध्य में चार के घन (६४ योजन) प्रमाण चौड़ा और सोलह योजन ऊँचा, चौकोर मणिमय आस्थान मण्डप है। उसके आगे चालीस योजन ऊँचे स्तूप का मणिमय पीठ है। जो चार द्वारों और बारह पद्मवेदियों से संयुक्त है। उस पीठ के मध्य में तीन मेखलाओं—कटनियों से सहित, चार के घन प्रमाण अर्थात् ६४ योजन लम्बा, ६४ योजन चौड़ा और ६४ योजन ऊँचा, बहुरत्नों से रचित और जिनबिम्ब से उपचित स्तूप है। नवों स्तूपों का स्वरूप इसी क्रम से है। उस स्तूप के आगे हजार योजन लम्बा, हजार योजन चौड़ा बारह वेदियों से संयुक्त स्वर्णमय पीठ है। उस पीठ के ऊपर मणिमय तीन कोटों से संयुक्त सिद्धार्थ और चैत्य नाम के दो वृक्ष हैं। उन वृक्षों के स्कन्ध ४ योजन लम्बे और एक योजन चौड़े हैं। बारह योजन लम्बी चार महाशाखाएँ एवं अनेक छोटी शाखाएँ हैं। उन वृक्षों का उपरिम भाग बारह योजन चौड़ा है। वे वृक्ष नाना प्रकार के पत्र, फूल और फलों से सहित हैं। उनके परिवार वृक्षों की संख्या पद्मद्रह के मुख्य कमल के परिवार कमलों के प्रमाण से पाँच अधिक है।।९९५ से १००१ तक।। (सप्तक)
विशेषार्थ— जिनमन्दिर के आगे जिनमन्दिर के ही सदृश १०० योजन लम्बा, ५० योजन चौड़ा और १६ योजन ऊँचा मुखमण्डप है। उस मुखमण्डप के आगे चौकोर प्रेक्षण मण्डप है। जो १०० योजन चौड़ा, १०० योजन लम्बा और साधिक १६ योजन ऊँचा है। उस प्रेक्षण मण्डप के आगे ८० योजन लम्बा, ८० योजन चौड़ा और दो योजन ऊँचा (चौकोर) स्वर्णमय पीठ है। चबूतरे का नाम पीठ है। उस पीठ के मध्य में चौकोर, मणिमय, ६४ योजन लम्बा, चौड़ा और १६ योजन ऊँचा आस्थान मण्डप है। सभामण्डप का नाम आस्थान मण्डप है। इस आस्थान मण्डप के आगे ४० योजन ऊँचे स्तूप का मणिमय पीठ है। वह पीठ चार गोपुरद्वारों एवं बारह पद्म वेदियों से सहित है। उस पीठ के मध्य में तीन मेखलाओं अर्थात् कटनी से सहित ६४ योजन लम्बा, चौड़ा और १६ योजन ऊँचा आस्थान मण्डप है। सभामण्डप का नाम आस्थान मण्डप है। इस आस्थान मण्डप के आगे ४० योजन ऊँचे स्तूप का मणिमय पीठ है। वह पीठ चार गोपुरद्वारों एवं बारह पद्म वेदियों से सहित है। उस पीठ के मध्य में तीन मेखलाओं अर्थात् कटनी से सहित ६४ योजन लम्बा, ६४ योजन चौड़ा और ६४ योजन ऊँचा, बहुरत्नों से रचित और जिनबिम्ब से उपचित स्तूप है। इसी प्रकार के नव स्तूप हैं अर्थात् नव ही स्तूपों के स्वरूपों का वर्णन इसी स्तूप सदृश है। इन स्तूपों के ऊपर जिनबिम्ब विराजमान हैं। इस स्तूप के आगे अर्थात् चारों ओर १००० योजन लम्बा, १००० योजन चौड़ा बारह वेदियों से संयुक्त स्वर्णमय पीठ है। उस पीठ के ऊपर सिद्धार्थ और चैत्य नाम के दो वृक्ष हैं। जिन वृक्षों का स्कन्ध ४ योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा है। जिनके चार-चार महाशाखाओं की लम्बाई १२ योजन प्रमाण है। इनमें छोटी शाखाएँ अनेक हैं। इनका उपरिम भाग अर्थात् शिखर १२ योजन चौड़ा है। ये वृक्ष नाना प्रकार के पत्र, पुष्प और फलों से सहित हैं। इनके परिवार वृक्षों की संख्या पद्मद्रह के मुख्य कमल के परिवार कमलों के प्रमाण से ५ अधिक हैं अर्थात् एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस हैं।
गाथार्थ— चारों दिशाओं में उन वृक्षों के मूल में जो पीठ अवस्थित हैं उन पर चार सिद्ध प्रतिमाएँ और चार अरहन्त प्रतिमाएँ विराजमान हैं। उन प्रतिमाओं के आगे पीठ हैं जिनमें नाना प्रकार के वर्णन से युक्त महाध्वजाएँ स्थित हैं।।१००२।।
विशेषार्थ— चारों दिशाओं में स्थित सिद्धार्थवृक्ष की पीठ-कटनी पर सिद्ध प्रतिमाएँ और चैत्यवृक्ष की पीठ-कटनी पर अरहन्त प्रतिमाएँ विराजमान हैं। उन प्रतिमाओं के आगे पीठ हैं जिनमें नाना प्रकार के वर्णन से युक्त महाध्वजाएँ स्थित हैं।
शंका— सिद्ध प्रतिमा और अरहन्त प्रतिमा में क्या अन्तर है ?
समाधान— अरहन्त प्रतिमा अष्टप्रातिहार्य संयुक्त ही होती हैं किन्तु सिद्ध प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य रहित होती हैं।। यथा— १. वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ के तृतीय परिच्छेद में—
प्रातिहार्याष्टकोपेतं, सम्पूर्णावयवं शुभम्। भावरूपानुविद्धाङ्गं, कारयेद् बिम्बमर्हतां।।६९।।
प्रातिहार्र्यैिवना शुद्धं, सिद्धं बिम्बमपीदृशः। सूरीणां पाठकानां च, साधूनाम् च यथागमम्।।७०।।
अर्थ :—अष्टप्रातिहार्यों से युक्त, सम्पूर्ण अवयवों से सुन्दर तथा जिनका सन्निवेष (आकृति) भाव के अनुरूप है ऐसे अरहन्त बिम्ब का निर्माण करें।।६९।। सिद्ध प्रतिमा शुद्ध एवं प्रातिहार्य से रहित होती हैं। आगमानुसार आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं की प्रतिमाओं का भी निर्माण करें।।७०।। २. जयसेन प्रतिष्ठापाठ के बिम्बनिर्माण प्रकरण में भी कहा है कि—
सल्लक्षणं भावविवृद्ध—हेतुकं, सम्पूर्ण—शुद्धावयवं दिगम्बरं।
सत्प्रातिहाय्र्र्यैिनजचिन्हभासुरं, संकारये बिम्बमथार्हतः शुभम् ।।१८०।।
सिद्धेश्वराणां प्रतिमाऽपियोज्या, तत्प्रातिहार्यादि विना तथैव।
आचार्य—सत्पाठक—साधु—सिद्ध , क्षेत्रादिकानामपि भाववृद्ध्यै।।१८१।।
अर्थ :— प्रशस्त हैं लक्षण जिनके, जो भावों की विशुद्धि में कारण हैं, निर्दोष सर्व अवयवों से सहित, नग्न दिगम्बर, सुन्दर प्रातिहार्य एवं स्वकीय चिह्न से समन्वित हैं ऐसे मनोहर अरहन्त बिम्ब का निर्माण करावें। उसी प्रकार भावों की विशुद्धि के लिए प्रातिहार्य बिना सिद्धों की (आगमानुसार) आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं की भी प्रतिमाओं का निर्माण करावें। सिद्धक्षेत्र आदि की आकृतियों की भी स्थापना करें।।१८०,१८१।। ३. श्री आशाधर प्रतिष्ठासारोद्धार के प्रथम अध्याय में भी कहा है कि :—
शान्तप्रसन्नमध्यस्थ, नासाग्रस्था—विकार—दृक्।
सम्पूर्णभावरूपानु, विहाङ्ग—लक्षणान्वितम्।।६३।।
रौद्रादिदोष— निर्मुक्तं, प्रातिहार्याज्र्यक्षयुक्।
निर्माप्य विधिना पीठे, जिनबिम्बं निवेशयेत्।।६४।।
अर्थ— शान्त, प्रसन्न, मध्यस्थ, नासाग्र और अविकार दृष्टि, सम्पूर्ण भावानुरूप, स्वकीय लक्षण से समन्वित, रौद्रादि (क्रूर आदि) दृष्टि से रहित, प्रातिहार्य तथा यक्ष—यक्षणी सहित जिनबिम्ब का निर्माण कराकर विधिपूर्वक वेदिका में विराजमान करें।। ६३, ६४।।
गाथार्थ—उन ध्वजाओं के स्वर्णमय स्तम्भ सोलह योजन ऊँचे और एक कोश चौड़े हैं। उन स्वर्ण स्तम्भों के अग्रभाग रत्नमय एवं मनुष्यों के नेत्र और मन को सुन्दर लगने वाले बहुत से नाना प्रकार के ध्वजारूप वस्त्रों एवं तीन छत्रों से शोभायमान हैं। उस ध्वजापीठ के आगे जिनमन्दिर हैं, जिनकी चारों दिशाओं में नाना प्रकार के फूलों से एवं मणिमय और स्वर्णमय वेदियों से संयुक्त, सौ योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और दश योजन गहरे चार द्रह हैं। इन द्रहों के आगे जो वीथी (मार्ग) हैं उनके दोनों पार्श्व भागों में देवों के क्रीड़ा करने के मणिमय दो प्रासाद हैं, जिनकी ऊँचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन है। इन प्रासादों के आगे तोरण हैं। वे तोरण मणिमय स्तम्भों के अग्र भाग में स्थित, मोतीमाल और घन्टाओं के समूह से युक्त तथा जिनबिम्बों के समूह से रमणीक हैं। उनकी ऊँचाई पचास योजन और चौड़ाई पच्चीस योजन प्रमाण है। उस तोरण के आगे स्फटिकमय प्रथम कोट है। उस कोट द्वार के दोनों पार्श्व भागों में कोट के भीतर सौ योजन ऊँचे और ऊँचाई के अर्धभाग प्रमाण अर्थात् ५० योजन चौड़े रत्ननिर्मापित दो मन्दिर हैं। पूर्वद्वार में मण्डपादिक का जो प्रमाण कहा था उसका अर्ध प्रमाण दक्षिणोत्तर द्वारों में ग्रहण करना चाहिए। वे दोनों मन्दिर वन्दना मण्डप, अभिषेक मण्डप, नर्तन, संगीत और अवलोकन मण्डपों से तथा क्रीड़ागृह, गुणनगृह (शास्त्राभ्यास आदि का स्थान) और विशाल एवं उत्कृष्ट पट्टशाला से संयुक्त हैं।।१००३ से १००९।।
विशेषार्थ— उन ध्वजाओं के स्वर्णमय स्तम्भ १६ योजन ऊँचे और एक कोश चौड़े हैं। उन ध्वजाओं के स्वर्णमय स्तम्भों के अग्रभाग रत्नमय एवं मनुष्यों के मन और नेत्रों को रमणीक लगने वाले तथा नाना प्रकार के ध्वजारूप वस्त्रों से युक्त बहुत सी ध्वजाओं और तीन छत्रों से शोभायमान हैं। सम्पूर्ण ध्वजाएँ रत्नमय हैं अर्थात् पुद्गल का ही परिणमन वस्त्ररूप हुआ है। उस ध्वजा पीठ के आगे जिनमन्दिर हैं, जिनकी चारों दिशाओं में विविध प्रकार के फूलों से एवं मणिमय और स्वर्णमय वेदियों से संयुक्त, सौ योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े ओर दश योजन गहरे चार द्रह हैं। इन द्रहों के आगे जो मार्ग हैं, उनके दोनों पार्श्व भागों में देवों के क्रीड़ा करने के मणिमय दो प्रासाद हैं जिनकी ऊँचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन है। इन प्रासादों के आगे तोरण हैं, जो मणिमय स्तम्भों के अग्रभाग में स्थित, मोतीमाल और घण्टाओं के समूह से युक्त एवं जिनबिम्बों के समूह से रमणीक है। उनकी ऊँचाई ५० योजन और चौड़ाई २५ योजन प्रमाण है। उन तोरणों के आगे स्फटिकमय प्रथम कोट है। उस कोट द्वार के दोनों पार्श्व भागों में कोट के भीतर १०० योजन ऊँचे और ५० योजन चौड़े रत्ननिर्मापित दो मन्दिर हैं। पूर्वद्वार में मण्डपादिक का जो प्रमाण कहा था उसका अर्ध प्रमाण दक्षिण और उत्तर द्वारों में ग्रहण करना चाहिए। वे दोनों मन्दिर वन्दना मण्डप, अभिषेक मण्डप, नर्तन मण्डप, संगीत मण्डप और अवलोकन मण्डपों से तथा क्रीड़ागृह, गुणनगृह (शास्त्राभ्यास आदि का स्थान) और विशाल एवं उत्कृष्ट पट्टशाला (चित्राम आदि दिखाने का स्थान) से संयुक्त हैं। अब प्रथम और द्वितीय कोटों के अन्तराल का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ— प्रत्येक जिनमन्दिर की चारों दिशाओं में सिंह, हाथी, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र के आकार की १०८—१०८ ध्वजाएँ हैं तथा इन १०८—१०८ मुख्य ध्वजाओं में प्रत्येक की १०८—१०८ छोटी ध्वजाएँ हैं।।१०१०।।
विशेषार्थ— प्रत्येक जिनमन्दिर की चारों दिशाओं में सिंह, हाथी, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र के चिह्नों से चिह्नित १०८—१०८ मुख्य ध्वजाएँ हैं तथा इन १०८—१०८ मुख्य ध्वजाओं में प्रत्येक की १०८—१०८ ही छोटी ध्वजाएँ हैं। प्रथम और द्वितीय कोट के बीच के अन्तराल में ध्वजाएँ हैं। प्रत्येक जिनमन्दिर की एक दिशा में सिंह चिन्हांकित ध्वजाएँ १०८, हाथी चिन्हांकित १०८, इसी प्रकार वृषभादि चिन्हांकित भी १०८—१०८ मुख्य ध्वजाएँ हैं अर्थात् मन्दिर की एक दिशा में िंसह आदि दश प्रकार के चिह्नों को धारण करने वाली (१०८ x १०) = १०८० मुख्य ध्वजाएँ हैं। एक दिशा में १०८० हैं, अतः चार दिशाओं में (१०८०x४) = ४३२० मुख्य ध्वजाएँ हुईं। एक मुख्य ध्वजा की छोटी परिवार ध्वजाएँ १०८ हैं अतः ४३२० मुख्य ध्वजाओं की (४३२० x १०८) = ४६६५६० परिवार ध्वजाओं का प्रमाण है और एक मन्दिर सम्बन्धी सम्पूर्ण ध्वजाओं का प्रमाण (४६६५६०+४३२०) = ४७०८८० हैं। ये ध्वजाएँ प्रथम और द्वितीय कोट के अन्तराल में हैं। अब द्वितीय कोट और तृतीय (बाह्य) कोट के अन्तराल का स्वरूप तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं—
गाथार्थ— द्वितीय और तृतीय कोट के अन्तराल में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र के चार वन हैं। उन वनों में भोजनाङ्गादि दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं, जो स्वर्णमय फूलों से सुशोभित, मरकत मणिमय नाना प्रकार के पत्रों से सहित, वैडूर्य रत्नमय फलों से युक्त और विद्रुम मूँगामय डालियों से संयुक्त हैं। उन चारों वनों के मध्य में तीन कोट और तीन पीठ से संयुक्त तथा मणिमय डाली, पत्र, पुष्प और फलों से युक्त चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं। उन चैत्यवृक्षों के मूल की चारों दिशाओं में पल्यज्रसन और प्रातिहार्यों से युक्त जिनबिम्ब विराजमान हैं।।।१०११-१०१३।।
विशेषार्थ— दूसरे और तीसरे कोट के अन्तराल में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र के चार वन हैं। उन वनों में स्वर्णमय पूâलों से सुशोभित, मरकत मणिमय नाना प्रकार के पत्रों से सहित, वैडूर्यरत्नमय फलों से युक्त और विद्रुम मूँगामय डालियों से संयुक्त भोजनाङ्गादि दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। उन चारों वनों के मध्य में तीन कोट एवं तीन पीठ से संयुक्त तथा मणिमय डाली, पत्र, पुष्प और फलों से युक्त चार चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं। उन चैत्यवृक्षों के मूल की चारों दिशाओं में पल्यज्रसन एवं छत्र, चमरादि प्रातिहार्यों से युक्त जिनबिम्ब विराजमान हैं। नन्दादि वापियों और मानस्तम्भों का विशेष स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ— नन्दादि सोलह वापिकाएँ तीन कोटों से संयुक्त हैं तथा वन की भूमि के निकट चतुर्थ वीथी के मध्य में तीन पीठों युक्त जिनप्रतिमा से अधिष्ठित हैं, ऊध्र्व (अग्र) भाग जिनका तथा जो धर्मरूपी वैभव से युक्त हैं ऐसे मानस्तम्भ शोभायमान होते हैं।।१०१४।।
विशेषार्थ— पूर्वोक्त नन्दादि सोलह वापिकाएँ तीन कोटों से संयुक्त शोभायमान होती हैं और उन्हीं वनों की भूमि के निकट चतुर्थ वीथी के मध्य में, तीन पीठों से युक्त उपरिम भाग पर जिनप्रतिमा से अधिष्ठित तथा धर्मरूपी वैभव से युक्त मानस्तम्भ शोभायमान होते हैं।