”श्री गौतमस्वामी मध्यलोक के कृत्रिम—अकृत्रिम जिनिंबबों की वन्दना करते हैं—”
‘‘यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च। तानि सर्वाणि चैत्यानि वन्दे भूयांसि भूतये।।१८।।’’
अर्थ- इस तिर्यग्लोक में कृत्रिम और अकृत्रिम जितने प्रचुरतर प्रतिबिंब हैं उन सबको विभूति के लिए वंदन करता हूँ ।।१८।।
सुमेरु के १६, सुमेरु पर्वत की विदिशा में चार गजदन्त के ४, हिमवान आदि षट् कुलाचलों के ६, विदेह क्षेत्र में सोलह वक्षार पर्वतों के १६, विदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयार्ध के ३२, भरत, ऐरावत के विजयार्ध के २, देवकुरु और उत्तरकुरु में स्थित जम्बूवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष की शाखाओं के २, इस प्रकार १६ + ४ + ६ + १६ + ३२ + २ + २ = ७८ ऐसे जम्बूद्वीप के ७८ जिनचैत्यालय हैं।
जम्बूद्वीप के समान ही धातकीखण्ड एवं पुष्करार्ध में २-२ मेरु के निमित्त से सारी रचना दूनी-दूनी होने से चैत्यालय भी दूने-दूने हैं तथा धातकीखण्ड एवं पुष्करार्ध में २-२ इष्वाकार पर्वत पर २-२ चैत्यालय हैं। मानुषोत्तर पर्वत पर चारों दिशाओं के ४, नन्दीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में १३-१३ चैत्यालय होने से १३ x ४ = ५२, ग्यारहवें कुण्डलवर द्वीप के कुण्डलवर पर्वत पर चारों दिशाओं के ४, तेरहवें रुचकवर द्वीप के रुचकवर पर्वत पर चारों दिशाओं के ४, सब मिलकर ७८ + १५६ + १५६ + ४ + ४ + ५२ + ४ + ४ = ४५८ चैत्यालय होते हैं। इन मध्यलोक संबंधी ४५८ चैत्यालयों को एवं उनमें स्थित सर्व जिनप्रतिमाओें को मैं मन, वचन, काय से नमस्कार करता हूँ।
इस प्रकार प्रजाजनों के दीन वचन सुनकर जिनका हृदय दया से प्रेरित हो रहा है ऐसे भगवान आदिनाथ अपने मन में ऐसा विचार करने लगे।।१४२।। कि पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है।१४३।। वहाँ जिस प्रकार असि, मषी आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम-घर आदि की पृथक-पृथक रचना है उसी प्रकार यहाँ पर भी होनी चाहिए। इन्हीं उपायों से प्राणियों की आजीविका चल सकती है। इनकी आजीविका के लिए और कोई उपाय नहीं है।।१४४-१४५।। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर अब यह कर्मभूमि प्रकट हुई है इसलिए यहाँ प्रजा को असि, मषी आदि छह कर्मों के द्वारा ही आजीविका करना उचित है।।१४६।। इस प्रकार स्वामी वृषभदेव ने क्षण भर प्रजा के कल्याण करने वाली आजीविका का उपाय सोचकर उसे बार-बार आश्वासन दिया कि तुम भयभीत मत होओ।।१४७।। अथानन्तर भगवान् के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये।।।१४८।। शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न के समय तथा सूर्य आदि ग्रहों के अपने-अपने उच्च स्थानों में स्थित रहने और जगद्गुरु भगवान के हर एक प्रकार की अनुकूलता होने पर इन्द्र ने प्रथम ही मांगलिक कार्य किया और फिर उसी अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर की रचना की। इसके बाद पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी यथाक्रम से जिनमन्दिरों की रचना की।।१४९-१५०।। तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमा सहित गाँव तथा खेटों की रचना की थी।।१५१।। आदिपुराण पर्व—१६ पृ. ३५९/२।
आत्मशुद्धि से भरे सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने कहा कि यदि आप हम लोगों को कोई कार्य नहीं देते हैं तो हम भोजन भी नहीं करते हैं।।१०५।। पुत्रों का निवेदन सुनकर राजा कुछ चिन्ता में पड़ गये। वे सोचने लगे कि इन्हें कौन सा कार्य दिया जावे। अकस्मात् उन्हें याद आ गई कि अभी धर्म का एक कार्य बाकी है। उन्होंने हर्षित होकर आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर महारत्नों से अरहन्तदेव के चौबीस मन्दिर बनवाये हैं, तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गङ्गा नदी को उन मन्दिरों की परिखा बना दो।’ उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया।।१०६-१०८।। उत्तरपुराण पर्व ४८, पृ. १०।
उस सुलोचना ने श्री जिनेन्द्रदेव की अनेक प्रकार की रत्नमयी बहुत सी प्रतिमाएँ बनवाई थीं और उनके सब उपकरण भी सुवर्ण ही के बनवाये थे। प्रतिष्ठा तथा तत्सम्बन्धी अभिषेक हो जाने के बाद वह उन प्रतिमाओं की महापूजा करती थी, अर्थपूर्ण स्तुतियों के द्वारा श्री अर्हंन्तदेव की भक्तिपूर्वक स्तुति करती थी, पात्र दान देती थी, महामुनियों का सम्मान करती थी, धर्म सुनती थी तथा धर्म को सुनकर आप्त, आगम और पदार्थों का बार-बार चिन्तवन करती हुई सम्यग्दर्शन की शुद्धता को प्राप्त करती थी। अथानन्तर-फाल्गुन महीने की अष्टान्हिका में उसने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्रदेव की आष्टाह्रिकी पूजा की, विधिपूर्वक प्रतिमाओं की पूजा की, उपवास किया और वह कृशांगी पूजा के शेषाक्षत देने के लिए िंसहासन पर बैठे हुए राजा अकम्पन के पास गयी। राजा ने भी उठकर और हाथ जोड़कर उसके दिए हुए शेषाक्षत लेकर स्वयं अपने मस्तक पर रखे तथा यह कहकर कन्या को विदा किया कि हे पुत्रि, तू उपवास से खिन्न हो रही है अब घर जा, यह तेरे पारणा का समय है।।१७३,१७९।। आदिपुराण पर्व ४३, पृ. ३६८, ३६९।
अथानन्तर एक दिन विनय से जिसका शरीर झुक रहा था, ऐसा दशानन आकाश में बहुत ऊँचे चढ़कर अपने दादा सुमाली से आश्चर्यचकित हो पूछता है कि हे पूज्य! इधर इस पर्वत के शिखर पर सरोवर तो नहीं है पर कमलों का वन लहलहा रहा है सो इस महाआश्चर्य को आप देखें।।२७२-२७३।। यहाँ पृथ्वीतल पर पड़े रंग-बिरंगे बड़े-बड़े मेघ निश्चल होकर कैसे खड़े हैं ?।।२७४।। तब सुमाली ने ‘नमः सिद्धेभ्यः’ कहकर दशानन से कहा कि हे वत्स! न तो ये कमल हैं और न मेघ ही हैं।।२७५।। किन्तु सफेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं ऐसे-ऐसे ये जिनमन्दिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं।।२७६।। ये सब मन्दिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुए हैं। हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षण-भर में अपने हृदय को पवित्र कर।।२७७।। पृथिवी, पर्वत, नदियों के समागम स्थान, नगर तथा गाँव आदि में जो नाना रंग के ऊँचे-ऊँचे जिनालय शोभित हो रहे हैं वे सब उसी के बनवाये हैं।।३९९।। उदार हृदय को धारण करने वाले हरिषेण ने चिरकाल तक राज्य कर दीक्षा ले ली और परम तपश्चरण कर तीन लोक का शिखर अर्थात् सिद्धालय प्राप्त कर लिया।।४००।। पद्मपुराण पर्व—८, पृ. १८७, १८८, १८९।
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन्! उस वंशगिरि पर जगत के चन्द्रस्वरूप राम ने जिनेन्द्र भगवान की हजारों प्रतिमाएँ बनवायीं थीं।।२७।। तथा जिनमें महामजबूत खम्भे लगवाये थे, जिनकी चौड़ाई तथा ऊँचाई योग्य थी, जो झरोखे, महलों तथा छपरी आदि की रचना से शोभित थे, जिनके बड़े-बड़े द्वार तोरणों से युक्त थे, जिनमें अनेक शालाएँ निर्मित थीं, जो परिखा से सहित थे, सफेद और सुन्दर पताकाओं से युक्त थे, बड़े-बड़े घण्टाओं के शब्द से व्याप्त थे, जिनमें मृदंग, बाँसुरी और मुरज का संगीतमय उत्तम शब्द फैल रहा था, जो झाँझों, नगाड़ों, शंखों और भेरियों के शब्द से अत्यन्त शब्दायमान थे और जिनमें सदा समस्त सुन्दर वस्तुओं के द्वारा महोत्सव होते रहते थे ऐसे राम के बनवाये जिनमन्दिरों की पंक्तियां उस पर्वत पर जहाँ-तहाँ सुशोभित हो रही थीं।।२८,३१।। उन मन्दिरों में सब लोगों के द्वारा नमस्कृत तथा सब प्रकार के लक्षणों से युक्त पंचवर्ण की जिनप्रतिमाएँ सुशोभित थीं।।३२।। इधर जिसकी मेखलाएँ शोभा से सम्पन्न थीं तथा जिसके शिखर अनेक धातुओं से युक्त थे ऐसा यह ऊँचा उत्तम पर्वत दिशाओं के समूह को लिप्त करने वाली जिनमन्दिरों की पंक्ति से अतिशय सुशोभित होता था।।४४।। चूँकि उस पर्वत पर रामचन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान के उत्तमोत्तम मन्दिर बनवाये थे इसलिए उसका वंशाद्रि नाम नष्ट हो गया और सूर्य के समान प्रभा को धारण करने वाला वह पर्वत ‘रामगिरि’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।।४५।।पद्मपुराण पर्व—४० पृ. १९६ से १९८ तक।
आराधना कथाकोष में करकण्डु राजा की कथा में १००८ खम्भों वाले जिनमंदिर का वर्णन आया है— रास्ते में तेरपुर के पास राजा करकण्डु का पड़ाव पड़ा। इसी समय कुछ भीलों ने आकर नम्र मस्तक से इनसे प्रार्थना की -राजाधिराज, हमारे तेरपुर से दो-कोस दूरी पर एक पर्वत है। उस पर एक छोटा सा धाराशिव नाम का गाँव बसा हुआ है। इस गाँव में एक बहुत बड़ा ही सुन्दर और भव्य जिनमन्दिर बना हुआ है। उसमें विशेषता यह है कि उसमें कोई एक हजार खम्भे हैं। वह बड़ा सुन्दर है। उसे आप देखने को चलें।>ref>आराधना कथाकोष हिन्दी—पृ. ४८४, ४८५ तक। ===
गौतम स्वामी कहते हैं कि वह सुर और असुरों द्वारा वन्दित बीसवें मुनिसुव्रत भगवान का महाभ्युदयकारी समय था। उस समय लम्बे-चौड़े समस्त भरत क्षेत्र में यह पृथ्वी अर्हन्तभगवान की पवित्र प्रतिमाओं से अलंकृत थी।।९-१०।। देश के अधिपति राजाओं तथा गाँवों का उपभोग करने वाले सेठों के द्वारा जगह-जगह देदीप्यमान जिनमन्दिर खड़े किये गये थे।।११।। वे मन्दिर, समीचीन धर्म के पक्ष की रक्षा करने में निपुण, कल्याणकारी, भक्तियुक्त शासनदेवों से अधिष्ठित थे।।१२।। देशवासी लोग सदा वैभव के साथ जिनमें अभिषेक तथा पूजन करते थे और भव्य जीव सदा जिनकी आराधना करते थे, ऐसे वे जिनालय स्वर्ग के विमानों के समान सुशोभित होते थे।।१३।। हे राजन्! उस समय पर्वत—पर्वत पर, अतिशय सुन्दर गाँव-गाँव में वन-वन में, पत्तन—पत्तन में, महल—महल में, नगर—नगर में, संगम—संगम में तथा मनोहर और सुन्दर चौराहे—चौराहे पर महाशोभा से युक्त जिनमन्दिर बने हए थे।।१४-१५।। वे मन्दिर शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान कान्ति से युक्त थे, संगीत की ध्वनि से मनोहर थे, तथा नाना वादित्रों के शब्द से उनमें क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान शब्द हो रहे थे।।१६।। वे मन्दिर तीनों संध्याओं में वन्दना के लिए उद्यत साधुओं के समूह से व्याप्त रहते थे, गम्भीर थे, नाना आचार्यों से सहित थे और विविध प्रकार के पुष्पों के उपहार से सुशोभित थे।।१७।। परम विभूति से युक्त थे, नाना रङ्ग के मणियों की कान्ति से जगमगा रहे थे, अत्यन्त विस्तृत थे, ऊँचे थे और बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से सहित थे।।१८।। उन मन्दिरों में सुवर्ण, चाँदी आदि की बनी छत्रत्रय चमरादि परिवार से सहित पाँच वर्ण की जिनप्रतिमाएँ अत्यन्त सुशोभित थीं।।१९।। विद्याधरों के नगर में स्थान-स्थान पर बने हुए अत्यन्त सुन्दर जिनमन्दिरों के शिखरों से विजयार्ध पर्वत उत्कृष्ट हो रहा था।।२०।। इस प्रकार यह समस्त संसार बाग बगीचों से सुशोभित, नाना रत्नमयी, शुभ और सुन्दर जिनमन्दिरों से व्याप्त हुआ अत्यधिक सुशोभित था।।२१।। इन्द्र के नगर के समान वह लज्र भी भीतर और बाहर बने हुए पापापहारी जिनमन्दिरों से अत्यन्त मनोहर थी।।२२।। जिस पर सब लोगों के नेत्र लग रहे थे, जो अन्य महलों की पंक्ति से घिरा था, नाना रत्नों से निर्मित था और चैत्यालयों से सुशोभित था, ऐसे दशानन के घर में सुवर्णमयी हजारों खम्भों से सुशोभित, विस्तृत, मध्य में स्थित, देदीप्यमान और अतिशय उँâचा वह शान्ति जिनालय था जिसमें शान्ति जिनेन्द्र विराजमान थे।।२६।। पद्मपुराण भाग—३ पृ. ९ से ११ तक।
अथानंतर समागमरूपी सूर्य से जिसका मुखकमल खिल उठा था ऐसी सीता का हाथ अपने हाथ से पकड़ श्रीराम उठे और इच्छानुकूल चलने वाले ऐरावत के समान हाथी पर बैठाकर स्वयं उस पर आरूढ़ हुए। महातेजस्वी तथा सम्पूर्ण कान्ति को धारण करने वाले श्रीराम हिलते हुए घंटों से मनोहर हाथीरूपी मेघ पर सीतारूपी रोहिणी के साथ बैठे हुए चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे।।१-३।। जिनकी बुद्धि स्थिर थी, जो अत्यधिक उन्नत प्रीति को धारण कर रहे थे, बहुत भारी जनसमूह जिनके साथ था, जो चारों ओर से बहुत बड़ी सम्पदा से घिरे थे, बड़े-बड़े अनुरागी विद्याधरों से अनुगत, उत्तम कान्तियुक्त चक्रपाणि लक्ष्मण से जो सहित थे तथा अतिशय निपुण थे ऐसे श्रीराम, सूर्य के विमान समान जो रावण का भवन था उसमें जाकर प्रविष्ट हुए।।४-६।। वहाँ उन्होंने भवन के मध्य में स्थित श्रीशान्तिनाथ भगवान का परम सुन्दर मन्दिर देखा। वह मन्दिर योग्य विस्तार और ऊँचाई से सहित था, स्वर्ण के हजार खम्भों से निर्मित था, विशाल कान्ति का धारक था, उसकी दीवालों के प्रदेश नाना प्रकार के रत्नों से युक्त थे, वह मन को आनन्द देने वाला था, विदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित मेरुपर्वत के समान था, क्षीर समुद्र के फेनपटल के समान कान्तिवाला था, नेत्रों को बाँधने वाला था, रुणझुण करने वाली किन्किणियों के समूह एवं बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से सुशोभित था, मनोज्ञरूप से युक्त था तथा उसका वर्णन करना अशक्य था।।७-१०।।
पद्मपुराण भाग—३ पृ. ९३-९४।
अथानन्तर हाथी से उतरकर, जिनका रत्नों के अर्घ आदि से सत्कार किया गया था ऐसे सीता सहित राम लक्ष्मण ने विभीषण के सुन्दर भवन में प्रवेश किया।।६२।। विभीषण के विशाल भवन के मध्य में श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र का वह मन्दिर था जो रत्नमयी तोरणों से सहित था, स्वर्ण के समान देदीप्यमान था, समीप में स्थित महलों के समूह से मनोहर था, शेष नामक पर्वत के मध्य में स्थित था, प्रेम की उपमा को प्राप्त था, स्वर्णमयी हजार खम्भों से युक्त था, उत्तम देदीप्यमान था, योग्य लम्बाई और विस्तार से सहित था, नाना मणियों के समूह से शोभित था, चन्द्रमा के समान चमकती हुई नाना प्रकार की वल्लभियों से युक्त था, झरोखों के समीप लटकती हुई मोतियों की जाली से सुशोभित था, अनेक अद्भुत रचनाओं से युक्त प्रतिसर आदि विविध प्रदेशों से सुन्दर था, और पाप को नष्ट करने वाला था।।६३-६७।। इस प्रकार के उस मन्दिर में श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र की पद्मराग मणि र्नििमत वह अनुपम प्रतिमा विराजमान थी, जो अपनी प्रभा से मणिमय भूमि में कमल-समूह की शोभा प्रकट कर रही थी। सब लोग उस प्रतिमा की स्तुति वन्दना कर यथायोग्य बैठ गये।।६८-६९।। तदनन्तर विद्याधर राजा, हृदय में राम और लक्ष्मण को धारण करते हुए जहाँ जिसके लिए जो स्थान बनाया गया था वहाँ यथायोग्य रीति से चले गये।।७०।।
पद्मपुराण भाग—३ पृ. ९७।