जिनेन्द्रदेव की वाणी ही प्रवचन का विषय है अत: कम से कम निम्नलिखित ग्रंथों का स्वाध्याय प्रवचनकर्त्ता को अवश्य ही होना चाहिए।
१. प्रथमानुयोग में-महापुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, पांडवपुराण, आराधनाकथाकोश, पुण्यास्रव-कथाकोश, बृहत्कथाकोश, जम्बूस्वामी चरित, धन्यकुमार चरित, महावीर चरित, श्रेणिक चरित आदि।
२. करणानुयोग में-जैन ज्योतिर्लोक, त्रिलोकभास्कर, जम्बूद्वीप, गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह आदि। यदि लब्धिसार, त्रिलोकसार, जम्बू़द्वीपपण्णत्ति, तिलोयपण्णत्ति, धवला, जयधवला, महाबंध आदि ग्रंथ भी पढ़ लेवें तो विशेषता ही रहेगी।
३. चरणानुयोग में-रत्नकरण्ड श्रावकाचार, वसुनंदि श्रावकाचार, उमास्वामी श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सागार-धर्मामृत, भावसंग्रह, आत्मानुशासन, पद्मनंदिपंचिंवशतिका आदि आवश्यक हैं। पुन: हो सके तो मुद्रित हुए सभी श्रावकाचार, मूलाचार, अनगार धर्मामृत, भगवती आराधना आदि भी पढ़ लेवें।
४. द्रव्यानुयोग में-द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, बृहद्द्रव्यसंग्रह, सर्वार्थसिद्धि, समाधिशतक, आलापपद्धति, नयचक्र, सप्तभंगीतरंगिणी, परमात्मप्रकाश, नियमसार, प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रंथों को क्रम से पढ़ना चाहिए।
इन ग्रंथों में से किसी भी ग्रंथ को प्रवचन का विषय बनाना चाहिए। जिस ग्रंथ पर प्रवचन करना है उसे पुन: एक बार आद्योपांत पढ़ लेना चाहिए। यदि अकस्मात् बीच में से किसी विषय पर बोलना है तो भी इन्हीं के आधार से कोई विषय लेना चाहिए। आचार्य कुंदकुंद के ग्रंथों का व उनके पूर्ववर्ती आचार्य गुणधर, यतिवृषभ, पुष्पदंत और भूतबली के ग्रंथों के भी प्रमाण उद्धृत करके बोलना चाहिए तथा कुंदकुंददेव के उत्तरवर्ती आचार्य उमास्वामी, समंतभद्र, अमृतचंद्रसूरि आदि के वचन भी प्रस्तुत करना चाहिए। चूँकि आर्षवाणी ही प्रवचन का विषय है।