अन्यूनमनतिरित्तं, याथातथ्यं बिना च विपरीतात्।
नि:सदेहं वेद, यदाहुस्तजज्ञानमागमिन:।।४२।।
जो न्यून अधिक विपरीतपने से रहित वस्तु में श्रद्धा हो।
जैसा का तैसा ज्ञान करे नहिं उसमें संशय रखता हो।।
गणधर अरू श्रुतकेवलियों ने है सम्यग्ज्ञान कहा इसको।
दर्शन बिन ज्ञान न हो सम्यक् इसलिए कहा पहले उसको।।
जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को, न्यूनता रहित, अधिकता से रहित विपरीतता रहित और संशय रहित ज्यों की त्यों जानता है। उसी का नाम सम्यग्ज्ञान है। इसे ही वेद कहते हैं और इसके चार भेद माने गये हैं। अर्थात् प्रथमननुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग नाम से ये प्रसिद्ध हैं।।४२।।
प्रथमानुयोग-मर्था-ख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम्।
बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोध: समीचीन:।।४३।।
पहला आगम प्रथमानुयोग युगपुरुषों का चारित्र कहे।
परमार्थ प्ररूपक होने से इसको ही चरित पुराण कहें।।
इसके पढ़ने से पुण्य तथा बोधि की प्राप्ति होती है।
और मरण समाधी पूर्वक होकर मोक्ष निधि मिल जाती है।।
जो धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को, किसी एक महापुरुष के चरित को त्रेसठ शलाका पुरुषों के पुराण को कहता है। पुण्य रूप है, रत्नत्रय मय बोधि और समाधि का खजाना है, उस समीचीन ज्ञान को प्रथमानुयोग कहते हैं।।४३।।
लोकालोक-चिभत्ते-र्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च।
आदर्शमिव तथामति-रवैति करणानुयोगं च।।४४।।
जो लोकालोक विभाग कहे और कहे काल परिवर्तन को।
वह आगम है करणानुयोग जो कहे चतुर्गति दु:खों को।।
जैस दर्पण वस्तु को निज में यथा, तथा है दिखलाता।
वैसे ही यह करणानुयोग सबका वर्णन है बतलाता।।
जो लोक अलोक के विभाग को, छह काल के परिवर्तन को चारों गतियों के परिभ्रमण को और संसार के पांच परावर्तन को कहते है। तीन लोक का सम्पूर्ण चित्र दर्पण के समान झलकाता है। उस शास्त्र को करणानुयोग कहते हैं।।४४।।
गृहमेध्यनगाराणां, चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्।
चरणानुयोगसमयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति।।४५।।
सागार और अनगारों के चारित्र का जो वर्णन करता।
कैसे हो चारित्रोत्पत्ति वृद्धि रक्षा मुनियों की यह कहता।।
वह आगम है चरणानुयोग ऐसा ऋषियों का कहना है।
चरणानुयोग मय हो करके ही मुक्ति बल्लभा वरना है।।
जो श्रावक और मुनि के आचरण रूप चारित्र का वर्णन करता है। उनके चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि, और रक्षा के साधनों को बतलाता है वह चरणानुयोग शास्त्र है। यही मोक्ष महल में चढ़ने वालों को चरण (पग) रखने के लिए सीढ़ी के समान है।।४५।।
जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च।
द्रव्यानुयोगदीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते।।४६।।
जो जीवाजीव सुतत्वों को अरूपुण्य पाप के वर्णन को।
श्रुतविद्या के अनुकूल कहे जो बंध मोक्ष के कारण को।।
द्रव्यानुयोग रूपी दीपक इन सबका, ज्ञान कराता है।
यह चतुरनुयोग जिनागम ही भवबंधन से छुड़वाता है।
जो जीव—अजीव तत्वों का पुण्य—पाप को, आस्रव, संवर, बंध और मोक्ष इन सभी तत्वों को सही—सही समझाता है। वह दीपक के सदृश द्रव्यों को प्रगट दिखलाने वाला द्रव्यानुयोग है। यह श्रुतज्ञान के प्रकाश में निज और पर का भान कराने वाला है।।४६।।
इति द्वितीय परिच्छेद