वसुदेव का देशाटन— राजा समुद्रविजय ने अपने आठों भाइयों का विवाह कर दिया था, मात्र वसुदेव अविवाहित थे। कामदेव के रूप से सुन्दर वसुदेव बालक्रीड़ा से युक्त हो शौर्यपुर नगरी में इच्छानुसार क्रीड़ा किया करते थे। तब कुमार वसुदेव को देखने की इच्छा से नगर की स्त्रियों की बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। उस समय स्त्रियाँ घर के काम-काज तो क्या बालकों को भी अव्यवस्थित छोड़कर भाग निकलती थीं। तब मात्सर्य बुद्धि वाले कुछ लोग राजा समुद्रविजय के पास आकर बोले-हे नाथ ! हम लोगों को अभयदान देकर हमारी प्रार्थना सुनिये। आपके राज्य में हम लोग सब प्रकार से सुखी हैं किन्तु जब कुमार वसुदेव शहर में घूमने निकलते हैं तब अच्छे-अच्छे घरानों की स्त्रियाँ भी पागल सी हो जाती हैं, कोई बालक को दूध पिलाते हुए उसे छोड़कर ही बाहर आ जाती है, कोई पैरों के नूपुर गले में डालकर और गले का हार पैरों में लपेटकर भागती है। यद्यपि कुमार का हृदय निवकार है, अति स्वच्छ है, फिर भी महिलाओं की इस उद्विग्नता के बारे में आपको कुछ उपाय सोचना ही होगा। राजा समुद्रविजय ने उन्हें सान्त्वना देकर विदाकर, अच्छी तरह सोचकर उपाय निकाला और जब वसुदेव ने आकर उन्हें प्रणाम किया तब वे उन्हें गोद में बिठाकर बड़े प्यार से बोले-वत्स ! तुम उद्यान में और शहर में क्रीड़ा करके थक गये हो, देखो! तुम्हारे मुख की कांति भी फीकी पड़ गई है। ……… अब आज से तुम बाहर न भ्रमण कर हमारे अंत:पुर के बगीचे में ही क्रीड़ा करो, देखो! वहाँ कृत्रिम पर्वत, नदियाँ, सरोवर, पुष्पवाटिका आदि अनेक मनोहर स्थल हैं। इस प्रकार समझा-बुझाकर महाराज कुमार वसुदेव का हाथ पकड़कर उन्हें अपने महल में ले आए। साथ ही स्नान आदि करके भोजन किया। युवराज वसुदेव भी तब से महारानी शिवादेवी के बगीचों में नाट्य-संगीत आदि विनोदों से अपने मित्रों के साथ क्रीड़ा करने लगे। एक दिन कुब्जा दासी महारानी शिवादेवी के लिये विलेपन लेकर जा रही थी सो कुमार ने उसे तंग कर उससे वह छीन लिया। इससे रुष्ट होकर कुब्जा ने कहा-कुमार! ऐसी ही चेष्टाओं से तो तुम इस बंधनागार को प्राप्त हुए हो, तब वसुदेव ने आश्चर्य से पूछा-कुब्जे! तेरे कहने का क्या तात्पर्य है ? तब उसने राजा के अंतरंग सलाह की सारी बात बता दी। कुमार यह सुनकर कुछ खिन्न हो मंत्र सिद्धि का बहाना कर एक नौकर को साथ लेकर घर से तथा नगर से दूर श्मशान में चले गये। वहाँ रात्रि में दूर से एक मुर्दे को जलाकर जोर से बोले-हे नगरवासी जनों! और महाराजा समुद्रविजय! आप सब सुखपूर्वक रहो, मैं श्मशान में अग्नि में प्रवेश कर गया हूँ। ऐसा कहकर अन्य दिशा में चले गये। किंकर ने कुमार के जल जाने की बात समझकर घर आकर महाराज से निवेदन कर दी। इस घटना से दु:खी हो ये लोग श्मशान में आये और भाई के वस्त्रालंकार आदि यत्र-तत्र देखकर ‘युवराज वसुदेव ने आत्मघात कर लिया है’’ ऐसा समझकर बहुत ही रुदन करने लगे। इधर वसुदेव ब्राह्मण का वेश रखकर विजयखेट आदि नगरों में भ्रमण करने लगे। इस भ्रमण काल में उन्होंने अनेक कन्याओं के साथ विवाह किये हैं। स्वयंवर में वीणा वादन में जीतकर गंधर्वसेना के साथ विवाह किया है। इस प्रवासकाल में अनेक राजाओं ने इन्हें अपनी कन्या देकर बहुत कुछ आदर-सत्कार किया है।
एक समय कुमार वसुदेव ने अपने कला कौशल द्वारा अरिष्टपुर नामक नगर में राजा रुधिर की कन्या रोहिणी के स्वयंवरमण्डप में जाकर उसका वरण किया और दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करने लगे। किसी समय रोहिणी अपने पति वसुदेव के साथ कोमल शय्या पर शयन कर रही थी। तब उन्होंने रात्रि के पिछले प्रहर में चार शुभ स्वप्न देखे-सफेद हाथी, समुद्र, पूर्ण चन्द्र और मुख में प्रवेश करता हुआ सफेद सिंह। प्रात:काल पतिदेव से स्वप्नों का फल ज्ञात हुआ कि तुम्हें शीघ्र ही अद्वितीय वीर पुत्र प्राप्त होगा। फलस्वरूप नौ माह पूर्ण होने पर रोहिणी ने शुभ नक्षत्रों में सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया। जिसका नाम रखा गया ‘राम’, इन्हीं को आगे चलकर ‘बलराम’ के नाम से जाना गया है। ये बलराम श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे। रोहिणी के पति राजा वसुदेव अन्य अनेक श्रेष्ठ राजपुत्रों को शस्त्र विद्या का उपदेश देने हेतु सूर्यपुर नगर में रहने लगे। किसी दिन कुमार वसुदेव धर्नुिवद्या में प्रवीण अपनेकंसआदि शिष्यों के साथ राजा जरासन्ध को देखने की इच्छा से राजगृह नगर गए, वहाँ जरासन्ध ने घोषणा कर रखी थी कि मेरे शत्रुसिंहपुर के राजासिंहरथ को बन्दी बनाकर जो मेरे सामने लावेगा, उस परमवीर को मैं अपनी जीवद्यशा नाम की पुत्री तथा इच्छित राज्य सर्मिपत करूँगा। वसुदेव इस घोषणा को सुनकर कंस के साथ युद्धस्थल में पहुँच गए, उसी समयकंसने गुरु की आज्ञा से उछल कर शत्रु को बाँध लिया।कंसकी चतुराई से प्रसन्न होकर वसुदेव ने उससे कहा कि वत्स! वर माँग।कंसने उत्तर दिया कि हे आर्य ! अभी वर धरोहर में रखिए, समय पड़ने पर माँग लूँगा। वसुदेव ने शत्रु को ले जाकर राजा जरासन्ध को दे दिया। राजा जरासन्ध प्रसन्न होकर वसुदेव से बोले कि तुम मेरी पुत्री जीवद्यशा के साथ विवाह करो। इसके उत्तर में वसुदेव ने कह दिया कि शत्रु कोकंसने पकड़ा है, मैंने नहीं।
राजा ने उसे तुरन्त अपनी कन्या नहीं दे दी बल्कि सबसे पहले उन्होंनेकंसकी जाति पूछी। कंस ने कहा कि हे राजन् ! मेरी माता मंजोदरी कौशाम्बी में रहती है और मदिरा बनाने का कार्य करती है। कंस की आकृति देखकर जरासन्ध को विश्वास नहीं हुआ कि यह मदिरा बनाने वाली का पुत्र है अत: उन्होंने आदमी भेजकर शीघ्र की कौशाम्बी से मंजोदरी को बुलवाया। मंजोदरी कुछ समझ गई थी अत: साथ में एक मंजूषा एवंकंसके नाम की मुद्रिका लेकर वहाँ जा पहुँची। राजा ने उससेकंसका परिचय पूछा तो वह कहने लगी— हे राजन् ! मैंने यमुना के प्रवाह में इसे मंजूषा के अन्दर पाया था मुझे इस शिशु पर दया आई अत: मैंने हजारों उलाहने सुनकर भी इसका पालन-पोषण किया है। मैं इसकी माता नहीं हूँ, यह लीजिये मंजूषा जिसमें मैंने इसे पाया था। राजा ने मंजूषा खोली तो उसमेंकंसके नाम की मुद्रिका दिखी। जरासन्ध उसे लेकर बांचने लगा। उसमें लिखा था— यह मथुरा के राजा उग्रसेन और रानी पद्मावती का पुत्र है, जब यह गर्भ में स्थित था तभी से अत्यन्त उग्र था। इसकी उग्रता से भयभीत होकर ही इसे छोड़ा गया है, यह जीवित रहे तथा इसके कर्म ही इसकी रक्षा करें। मुद्रिका को पढ़कर राजा समझ गए कि यह तो मेरा भानजा है अत: उसने र्हिषत होकर अपनी कन्या जीवद्यशा के साथ उसका विवाह कर दिया।
कंस अपने पूर्व भव में वशिष्ठ नाम के महातपस्वी दिगम्बर मुनिराज थे। एक बार वे विहार करते हुए मथुरा आए तब राजा तथा प्रजा ने उनकी खूब पूजा की। वे मुनिराज एक मास के उपवास का नियम लेकर तपस्या कर रहे थे। सारी प्रजा उन्हें पारणा कराने की इच्छुक थी परन्तु राजा उग्रसेन ने सारे नगरवासियों से याचना की कि मासोपवासी मुनिराज को पारणा मैं ही कराऊँगा और इसी भावना से उसने मथुरा में रहने वाले सब श्रावकों को आहार देने से रोक दिया। मुनिराज तीन बार एक—एक मास का उपवास करके पारणा के लिये शहर में आए किन्तु राजकाज में संलग्न राजा तीनों बार आहार देना ही भूल गया। अन्त में मुनिराज श्रम से पीड़ित हो वन में जाकर विश्राम करने लगे। उन्हें वापस जाते देखकर किसी नगरनिवासी ने कहा कि बड़े दु:ख की बात है कि राजा स्वयं मुनि को आहार देता नहीं है तथा दूसरों को मना कर रखा है। यह बात सुनकर मुनिराज को राजा के प्रति एकदम क्रोध आ गया अत: उन्होंने निदान किया कि मैं इस राजा उग्रसेन का पुत्र होकर इसका बदला चुकाऊँ। निदान के कारण वे मुनिपद से भ्रष्ट हो मिथ्यादृष्टि बन गए और उसी समय मरकर राजा उग्रसेन की रानी पद्मावती के गर्भ में आ गए। जबकंसका जीव पद्मावती के गर्भ में था तब वह सूखकर कांटा हुई जा रही थी। एक दिन उग्रसेन ने उससे कहा—प्रिये ! तुम्हारा दोहला क्या है ? मुझे बताओ तुम इतनी कमजोर क्यों होती जा रही हो ? तब पद्मावती ने बड़े दु:खपूर्वक बताया कि हे नाथ ! गर्भ के दोष से मुझे अत्यन्त अशोभन दोहला हुआ है, मेरी इच्छा है कि मैं आपका पेट फाड़कर आपका खून पीऊँ। किन्तु इसमें माता का क्या दोष? जैसा पुण्यकर्मी या पापकर्मी बालक गर्भ में आता है उसी के अनुसार माता को दोहला होता है। चूँकि वह बालक गर्भ से ही अत्यन्त रौद्र था इसलिए रानी पद्मावती ने पुत्र जन्म के बाद भय से उसे काँसे की मंजूषा में बन्द कर एकान्त में यमुना प्रवाह में छुड़वा दिया। इधर जबकंसको यह सब मालूम हुआ तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने विवाह के बाद पहले जो जरासन्ध से मथुरा का राज्य माँग लिया और जरासंध ने दे भी दिया। वे अर्धचक्री तो थे ही, तीन खण्ड की पृथ्वी पर उनका शासन था। बस फिर क्या था,कंसको तो पिता से बदला लेने का स्वर्ण अवसर मिल गया। वह जीवद्यशा पत्नी को साथ लेकर मथुरा आ गया। निर्दयी तो वह स्वभाव से ही था, वहाँ जाकर उसने पिता उग्रसेन के साथ युद्ध ठान दिया तथा उसे बाँधकर नगर के मुख्य द्वार के ऊपर कैद कर दिया और स्वयं राजिंसहासन का अधिकारी बन गया।
अब वह व्रूर स्वभावीकंसअपने ढंग से राज्यसंचालन करने लगा था किन्तु वह अपने गुरू वसुदेव के उपकार को भूला नहीं था अत: एक दिन वह वसुदेव को आग्रहपूर्वक मथुरा ले आया। उसने वसुदेव को गुरुदक्षिणास्वरूप अपनी प्रिय बहन देवकी की शादी उनके साथ कर दी। वसुदेव भी समस्त कुटुम्बियों के अतिशय स्नेहवश अपनी धर्मपत्नी देवकी के साथ अभी मथुरा में ही रह रहे थे कि एक दिन— कंस के बड़े भाई जो अतिमुक्तक नाम के मुनिराज बन गए थे, वे आहार के लिए राजमहल आ गए। तबकंसकी पत्नी जीवद्यशा ने उन्हें नमस्कार किया और हँसती हुई क्रीड़ाभाव से कोई वस्त्र दिखाकर कहने लगी कि हे देवर ! यह आपकी बहन देवकी का आनन्द वस्त्र है, इसे देखिए। संसार से विरक्त मुनिराज अपने अवधिज्ञान से भविष्य जानकर मौन को तोड़कर बोले—अहो ! तू इस प्रकार क्यों आनंदित हो रही है। बेटी ! यह निश्चित समझ कि इस देवती के गर्भ से जो पुत्र होगा वह तेरे पति और पिता को मारने वाला होगा। यह ऐसी ही होनहार है, इसे कोई टाल नहीं सकता। मुनि के वचन सुनकर जीवद्यशा काँप उठी, उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे। वह उसी समय मुनिराज को छोड़ पति के पास गई और सारा समाचार सुनाकर बोली—हे आर्य ! ‘‘दिगम्बर मुनि के वचन सत्य ही निकलते हैं’’ इसका कुछ उपाय सोचिये। कंस ने तुरन्त ही कुछ चिन्तन किया और वसुदेव के पास पहुँच गया तथा उसके चरणों में नम्रीभूत होकर पूर्व की धरोहर रूप जो वर था, माँगने लगा। वसुदेव का हृदय बिल्कुल निश्छल था अत: उन्होंनेकंससे इच्छित वर माँगने को कहा। तबकंसने कहा— ‘‘प्रत्येक प्रसूति के समय बहन देवकी का निवास मेरे घर में ही हो।’’ वसुदेव ने हाँ कर दी। भाई के घर बहन को कोई आपत्ति आ सकती है, यह शंका भी कभी वसुदेव को नहीं हो सकती थी। जैन पुराण यही बतलाते हैं कि वसुदेव और देवकी कारागृह में नहींकंसके घर में रहते थे। पीछे जब वसुदेव को इस बात का ज्ञान हुआ तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ, वे सोचने लगे कि यह कैसा विधि का विधान है ? वसुदेवकुमार देवकी के साथ आम्रवन के मध्य विराजमान चारणऋद्धिधारी अतिमुक्तक मुनिराज के पास गये और उन्हें नमस्कार कर समीप में बैठ गये। अनंतर उन्होंने मुनिराज से इस संदर्भ में प्रश्न किया— गुरुदेव ! मेरा पुत्र इस पापीकंसका घात करने वाला कैसे होगा ? यह मैं जानना चाहता हूँ सो कृपा कर कहिए तथा मेरे कितने पुत्र होंगे ? वे वैâसे जीवित रहेंगे ? इत्यादि। मुनिराज ने कुछ भव-भवान्तर बताये जिनका हरिवंशपुराण में विस्तृत वर्णन है। अन्त में उन्होंने बताया कि— देवकी का सातवाँ पुत्र शंख, चक्र, गदा तथा खड्ग आदि उत्तम चिन्हों को धारण करने वाला होगा और वहकंसआदि शत्रुओं को मारकर समस्त पृथ्वी का पालन करेगा। शेष छहों पुत्र चरमशरीरी होंगे। उनकी अपमृत्यु नहीं होगी, अत: हे वसुदेव ! तुम चिन्ता का त्याग करो। तुम्हारे छह पुत्र तो तीन बार में युगलिया रूप में जन्म लेंगे और वे अत्यन्त पराक्रमी होंगे। इन्द्र का आज्ञाकारी हारी (नैगम) नामक देव उन पुत्रों के उत्पन्न होते ही अलका नाम की सेठानी के पास पहुँचा देगा, वहीं वे यौवन को प्राप्त करेंगे। उन पुत्रों में बड़ा पुत्र नृपदत्त, दूसरा देवपाल, तीसरा अनीकदत्त, चौथा अनीकपाल, पाँचवाँ शत्रुघ्न और छठा जितशत्रु नाम से प्रसिद्ध होगा। तुम्हारे ये सभी पुत्र समान रूप के धारक होंगे। ये सभी कुमार हरिवंश के चन्द्रमा, तीन जगत् के गुरु तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान की शिष्यता को प्राप्त कर मोक्ष जावेंगे। हे देवकी ! तुम्हारे गर्भ से जो सातवाँ पुत्र होगा, वह अत्यन्त वीर होगा तथा इस भरतक्षेत्र में नौवाँ नारायण होगा। वसुदेव और देवकी मुनिराज के मुखारविन्द से सारा वृतान्त सुनकर र्हिषत हुए और भाग्य पर विश्वास करके जीवन के भावी क्षणों का इन्तजार करने लगे।
देवकी और वसुदेव अबकंसके यहाँ तो रहने ही लगे थे, जब देवकी के गर्भ से प्रथम बार युगल पुत्रों ने जन्म लिया तुरन्त नैगमदेव उन दोनों पुत्रों को उठाकर सुभद्रिल नगर के सेठ सुदृष्टि की स्त्री अलका के यहाँ पहुँचा आया तथा उसी समय अलका सेठानी के भी युगलिया पुत्र हुए थे जो कि दुर्भाग्यवश उत्पन्न होते ही मर गए थे, उन दोनों मृत पुत्रों को लाकर देवकी के प्रसूतिगृह में रख आया। देवों के द्वारा किया जाने वाला कार्य बस मिनटों में हो गया, किसी को पता भी न लगा। ज्यों हीकंसको ज्ञात हुआ कि देवकी ने दो पुत्रों को जन्म दिया है, वह निर्दयतापूर्वक प्रसूतिगृह से मृतक पुत्रों को ही घसीट लाया और उन्हें शिला तल पर पछाड़ दिया। इसके पश्चात् देवकी ने दो बार दो-दो पुत्रों को और जन्म दिया, वे भी अलका सेठानी के पास पहुँचाए गए और अलका के मृतक पुत्रों को यहाँ लाया गया, उन्हेंकंसने पछाड़ कर मार दिया। यह तो सब पूर्व जन्म के पुण्य की बात है जिनकी देवता आकर रक्षा करते हैं।कंसअपने बचाव का उपाय कर रहा था लेकिन भला विधि का विधान कौन टाल सकता है ? बस एक दिन जब उसका असली शत्रु पृथ्वीतल पर आने ही वाला था।
देवकी अपने शयनकक्ष में सुखनिद्रा में मग्न थी तभी रात्रि के अन्तिम प्रहर में उसने सात स्वप्न देखे। पहले स्वप्न में उसने अन्धकार को नष्ट करने वाला उगता हुआ सूर्य देखा, दूसरे स्वप्न में पूर्ण चन्द्रमा, तीसरे में लक्ष्मी, चौथे में आकाश से नीचे उतरता हुआ विमान, पाँचवें स्वप्न में बड़ी-बड़ी ज्वाला वाली अग्नि देखी तथा छठे स्वप्न में ऊँचे आकाश में रत्नों की किरणों से युक्त देवों की ध्वजा देखी और सातवें स्वप्न में अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एकसिंह देखा, तभी देवकी विस्मयपूर्वक उठ बैठी। नित्य क्रियाओं से निवृत्त हो उसने पतिदेव से अपने स्वप्न बतलाए। वसुदेव ने समझ लिया कि अब देवकी के गर्भ में श्रीकृष्ण नारायण का अवतार हो चुका है, देवकी भी स्वप्नों का फल जानकर अतिशय प्रसन्न हुई। इधरकंसदेवकी के सातवें पुत्र की ही प्रतीक्षा कर रहा था अत: बहन के गर्भ की रक्षा करता हुआ पूरी निगरानी रखता था किन्तु वह पुत्र तो अजेय था अत: उसने तो समय से पूर्व सातवें मास में ही जन्म ले लिया। उसके जन्म लेते ही सारे प्रसूतिगृह में प्रकाश भर गया। उस समय सात दिनों से घनघोर वर्षा हो रही थी फिर भी उत्पन्न होते ही बालक को रोहिणी पुत्र बलराम ने उठा लिया और पिता वसुदेव ने ऊपर छाता तान दिया एवं रात्रि के समय ही दोनों शीघ्र ही घर से बाहर निकल पड़े। उस समय समस्त नगरवासी सो रहे थे तथाकंसके सुभट भी गहरी नींद में निमग्न थे इसलिए कोई भी उन्हें देख नहीं सका। गोपुरद्वार पर आए तो किवाड़ बन्द थे परन्तु श्रीकृष्ण के चरणयुगल का स्पर्श होते ही उनमें निकलने योग्य सन्धि हो गई जिससे सब बाहर निकल आये। यमुना नदी के किनारे पहुँचते ही श्रीकृष्ण के प्रभाव से उसका प्रबल प्रवाह एकदम शांत हो गया और नदी ने दो भागों में विभक्त होकर रास्ता दे दिया जिससे वे लोग शीघ्र ही वृन्दावन पहुँच गए। वहाँ गाँव के बाहर इनका अति विश्वस्त नन्दगोप अपनी यशोदा स्त्री के साथ रहता था। नन्दगोप के घर पहुँचकर दोनों ने उस पुत्र को नन्द के हाथों में सौंपकर सारा वृतान्त बताते हुए कहा कि आप इसे अपना पुत्र समझकर पालन-पोषण करें और यह रहस्य किसी के सामने प्रगट न हो सके इस बात का ध्यान रखें। यहाँ भी देखो, उसी समय यशोदा ने एक पुत्री को जन्म दिया था, उसे लेकर बलराम और वसुदेव शीघ्र ही वापस आ गए। प्रात:काल ज्ञात हुआ कि देवकी ने कन्या को जन्म दिया है तब उसकंसका क्रोध कुछ कम हो गया था किन्तु दीर्घदर्शी होने के कारण उसने विचार किया कि कदाचित् इसका पति मेरा शत्रु हो सकता है, इस शंका से आकुलित होकर उसने कन्या को उठाकर उसे मसलकर नाक चपटी कर दी। इस प्रकारकंसने जब जान लिया कि देवकी के अब सन्तान होनी बन्द हो गयी है तब वह सन्तुष्ट होकर राज्यकाज में निमग्न हो गया। इधर नन्द के आँगन में श्रीकृष्ण की मनोहर बाल लीलाओं से मानो स्वर्ग ही धरती पर उतर आया था। कृष्ण कन्हैया ज्यों-ज्यों बड़े हो रहे थे उनके शरीर में शंख, चक्र आदि चिन्ह स्पष्ट होते जा रहे थे।
इधर किसी दिनकंसके एक हितैषी निमित्तज्ञानी ने उससे कहा कि हे राजन् ! यहाँ कहीं किसी नगर अथवा वन में तुम्हारा शत्रु बढ़ रहा है, उसकी खोज करनी चाहिए। तभीकंसने अपने पूर्व भव में सिद्ध की गई देवियों का स्मरण किया, तत्क्षण ही वे प्रगट हो गर्इं औरकंससे कहने लगीं—आज्ञा दीजिए।कंसने कहा कि हमारा कोई वैरी गुप्त रूप से कहीं बढ़ रहा है सो तुम लोग शीघ्र ही उसका पता लगाकर उसे मार डालो। कंस की बात को स्वीकृत कर वे देवियाँ जाकर शत्रु की खोज करने लगीं। उन्हें शीघ्र ही कृष्ण के बारे में ज्ञात हो गया और वे आकर अपना-अपना काम करने में लग गर्इं। उनमें से एक देवी भयंकर पक्षी का रूप बनाकर बालक कृष्ण के ऊपर चोंच से प्रहार करने लगी तो कृष्ण ने उसकी चोंच इतनी जोर से दबाई कि वह डरकर भाग गई। दूसरी देवी पूतना राक्षसी बनकर अपने विषयुक्त स्तन उन्हें पिलाने लगी परन्तु कृष्ण ने इसका स्तन इतनी जोर से चूसा कि वह बेचारी चिल्लाने लगी और शीघ्र पलायित हो गई। आखिर तो श्रीकृष्ण नारायण थे। वे सब पिशाचिनी उन्हें कैसे मार सकती थीं ? जब यशोदा माता ने अपने कन्हैया के पास अधिक उपद्रव देखा तो उन्होंने एक दिन कृष्ण का पैर कसकर खम्भे से बाँध दिया, उस समय दो देवियाँ जमल और अर्जुन वृक्ष का रूप रखकर उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगीं परन्तु कृष्ण ने उस दशा में भी दोनों देवियों को मार भगाया। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल में ही बड़े-बड़े शत्रुओं को जीतकर अपना पराक्रम दिखाया था।
एक बारकंसके द्वारा भेजी गई एक देवी ने पाषाणमयी तीव्र वर्षा से कृष्ण को मारना चाहा परन्तु वे उस वर्षा से रंचमात्र भी घबराए नहीं प्रत्युत व्याकुल हुए कुल की रक्षा करने के लिये उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से गोवर्धन पर्वत को बहुत ऊँचा उठा लिया और उसके नीचे सबकी रक्षा की।
कृष्ण की इन लोकोत्तर चेष्टाओं का जब बलभद्र को पता चला तब उन्होंने माता देवकी के सामने इसका वर्णन किया। देवकी माता उपवास के बहाने पुत्र को देखने के लिए बलभद्र के साथ ब्रज में आर्इं। यह समाचार जानते ही नंदगोपाल ने पत्नी यशोदा के साथ आगे आकर अपनी स्वामिनी को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया, पुन: पुत्र कृष्ण को लाकर माता के चरणों में प्रणाम कराया। उस बालक के वस्त्र पीले थे सिर पर मोर पंख की कलगी लगी हुई थी और कंठी, कर्णाभरण, कड़े, मुकुट आदि अलंकारों से सुन्दर दिख रहा था। माता देवकी उस पुत्र का स्पर्श करते हुए एकटक उसे देखती रहीं, पुन: बोलीं— ‘‘हे यशस्विनि यशोदे ! ऐसे पुत्र को पाकर उसका लाड-प्यार करते हुए तेरा वन में रहना भी प्रशंसनीय है किन्तु पृथ्वी का राज्य पाकर भी पुत्र के बिना भला क्या सुख है ?…………’’ तब यशोदा ने कहा—हे स्वामिनी ! आपका कहना सर्वथा सत्य है। मेरे मन को अत्यधिक आनंदित करने वाला यह आपका दास आपके प्रिय आशीर्वाद से चिरंजीव रहे, यही प्रार्थना है। इसी बीच पुत्र के स्नेह से देवकी के स्तनों से दूध झरने लगा। तब कुशलबुद्धि बलदेव ने ‘कहीं भेद न खुल जाय’ इस भय से दूध के भरे हुए घड़े को लेकर माता के ऊपर उड़ेल कर अभिषेक कर दिया। अनंतर माता के साथ अपनी मथुरा नगरी को वापस आ गये।
इधर श्रीकृष्ण बढ़ते-बढ़ते किशोर अवस्था में आ गये थे। बलदेव प्रतिदिन वहाँ आकर उन्हें अनेक कला और शिक्षा दिया करते थे। यहाँ ग्वाल कन्यायें कृष्ण के साथ खेला करती थीं। कुछ युवावस्था को प्राप्त श्रीकृष्ण उन गोपकन्याओं को उत्तम रासों द्वारा क्रीड़ा कराया करते थे। उन गोप युवतियों के हाथ की अँगुलियों से स्पर्श करते हुए वे पूर्णतया निवकार रहते थे, सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों में परस्त्रियों के प्रति विकार भाव नहीं आता है।’’
कृष्ण की अलौकिक चेष्टाएँ सुनकर एक बारकंसस्वयं उसे खोजने के लिये गोकुल में आया किन्तु माता ने किसी युक्ति से उसे ब्रज को भेज दिया तबकंसवापस मथुरा लौट आया। उसी समयकंसके यहाँसिंहवाहिनी नागशय्या, अजितंजय नाम का धनुष और पांचजन्य नाम का शंख ये तीन अद्भुत वस्तुयें प्रगट हुर्इं।कंसके ज्योतिषी ने बताया कि ‘‘जो कोई नागशय्या पर चढ़कर धनुष पर डोरी चढ़ा दे और पांचजन्य शंख को फूक दे वही तुम्हारा शत्रु है।’’ अत: ज्योतिषी के कहे अनुसारकंसराजा ने नगर में यह घोषणा करा दी कि— ‘‘जो पुरुष यहाँ आकर नागशय्या पर चढ़कर धनुष को चढ़ाकर शंख फूकेगा वह पराक्रमी पुरुष राजा द्वारा अलभ्य लाभ को प्राप्त करेगा।’’ कंस की घोषणा सुनकर अनेक राजा वहाँ आये किन्तु सभी लज्जित हो वापस चले गये। इधरकंसकी पत्नी जीवद्यशा का भाई भानु उधर गोकुल आया हुआ था। वहाँ कृष्ण के अद्भुत पराक्रम को सुनकर वह उन्हें अपने साथ मथुरा ले आया।
इधर श्रीकृष्ण उस नागशय्या के स्थान पर पहुँचे और सहज ही उस पर चढ़कर धनुष को चढ़ाया, पुन: पांचजन्य शंख फूक दिया। इस महान् आश्चर्य को करते हुए देखकर लोगों ने जोरों से शब्द किया कि ‘अहो ! यह कोई पराक्रमी पुरुष है।’’ उसी क्षण बलदेव ने कृष्ण को बहुत लोगों के साथ ब्रज भेज दिया पुन: यह महाकार्य किसने किया ? इसका पता ही नहीं लग पाया। यद्यपिकंसने समझ लिया था कि मेरा शत्रु उत्पन्न हो चुका है और बढ़ रहा है फिर भी वह उसके मारने में अनेक उपाय सोचा ही करता था।
कंस ने गोकुल के गोपों के लिये यमुना के एक हृद—सरोवर से कमल लाने के लिये कहलाया। तब सब गोप व्याकुल हो उठे क्योंकि हृद में प्रवेश करना अत्यन्त दुर्गम था वहाँ पर विषम साँप लहलहा रहे थे। श्रीकृष्ण अनायास ही उस हृद में घुस गये तब वहाँ एक महाभयंकर नाग, जिसकी फण पर मणियाँ शोभायमान हो रही थीं, कुपित होकर कृष्ण के सामने आया। अग्नि के तिलंगों को उगलते हुए उस काले-काले ‘कालिया’ नाम के नाग से श्रीकृष्ण क्रीड़ा करने लगे। कुछ ही देर में उसे मर्दन कर डाला तथा भुजाओं से उसे ताड़ित कर मार डाला। अनंतर बड़े-बड़े कमल तोड़ने लगे। तभी तट के किनारे वृक्षों पर चढ़े हुए गोप बालक जय-जयकार करने लगे। देदीप्यमान पीले वस्त्रों को धारण किये हुए श्रीकृष्ण जैसे ही सरोवर से बाहर निकले कि बलभद्र ने दोनों भुजाओं से उनका गाढ़ आिंलगन कर छाती से चिपका लिया। पीतांबरधारी नीलकमल के समान श्याम सलोने श्रीकृष्ण और पीताम्बरधारी गौरवर्ण वाले बलभद्र का वह प्रेम से मिलन बड़ा ही सुन्दर दिख रहा था। उन कमलों को देकर बलदेव ने गोपों कोकंसके दरबार में मथुरा नगरी भेज दिया।
कंस ने जब कालिया नाग का मर्दन सुना और खिले हुए कमल सामने रखे हुए देखे तब वह दूसरों के गुणों को नहीं सहन करने वाला उग्र स्वभावीकंसदीर्घ उच्छ्वास भरने लगा। अनंतर शीघ्र ही उसने यह आज्ञा दी कि— ‘‘नंदगोप के पुत्र आदि को लेकर समस्त गोप यहाँ मल्लयुद्ध के लिये अविलंब तैयार हो जावें।’’ ऐसी घोषणा करकेकंसने अनेक बड़े-बड़े मल्लों को बुलवा लिया। स्थिर बुद्धि के धारक वसुदेव ने अपने पुत्रों के साथ सलाह करके शौर्यपुर से अपने समुद्रविजय आदि नौ भाइयों को मथुरा आने के लिये खबर भेज दी। समाचार पाते ही ये समुद्रविजय आदि सभी भाई अपनी विशाल सेना के साथ यहाँ आ गये। तब वसुदेव ने कहा ये भाई बहुत दिन बाद मेरे से मिलने आ रहे हैं अत:कंसने भी उनका अच्छा सम्मान किया। इधर मल्लयुद्ध में आने के पहले बलदेव श्रीकृष्ण को साथ लाने के लिये गोकुल गये हुए थे। वहाँ विलम्ब करती हुई यशोदा से कहा— ‘‘जल्दी स्नान कर, क्यों इस तरह देर कर रही है ?’’ इसके पहले कभी बलभद्र ने यशोदा से ऐसे कड़े शब्द नहीं कहे थे अत: उनकी आँखों से आँसू निकल आये। श्रीकृष्ण को यह सब सहन नहीं हुआ तब वे उदासचित्त हो गये। इधर यशोदा जल्दी से स्नान कर भोजन बनाने लगी। उधर ये दोनों स्नान करने के लिये नदी पर चले गये। एकान्त में बलदेव ने श्रीकृष्ण से पूछा—‘‘आज तुम्हारा मुख म्लान क्यों हो गया है ? तुम्हारे मन में कुछ संताप दिख रहा है। हे भाई ! शीघ्र ही कहो क्या बात है ? तब कृष्ण ने कहा— ‘‘हे आर्य ! आप विद्वानों में श्रेष्ठ विद्वान हैं। हे पूज्य! आप सबको उपदेश देते हैं पुन: आज आपने मेरी माता यशोदा को कठोर शब्दों से क्यों दु:खी किया ?……..’’ इन वचनों को सुनते ही बलदेव ने अपनी दोनों भुजाओं से श्रीकृष्ण का गाढ़ अंलगन कर लिया। हर्ष से उनका शरीर रोमांचित हो गया। उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह चली जो मानो उनके हृदय की स्वच्छता को ही सूचित कर रही थी। उन्होंने बड़े प्रेम से कहा— ‘‘हे भाई ! सुनो, किसी समय अहंकार के वशीभूत हो अर्धचक्री राजा जरासंध की पुत्री औरकंसकी पत्नी जीवद्यशा के समक्ष अतिमुक्तक मुनि ने कहा था कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्रों में से एक पुत्र तेरे पति और पिता का वध करेगा अत: व्रूरहृदयीकंसने देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुये छह पुत्रों को अपनी जान में तो मार ही डाला है, फिर तुम प्रसव के समय के पहले ही उत्पन्न हो गये। तब तुम्हें पिता ने और मैंने गोकुल में लाकर यशोदा के यहाँ रखा था। बाल्यकाल से लेकर आज तक वहकंसतुम्हें मारने के नाना उपाय कर चुका है और आज भी यह मल्लयुद्ध मात्र तुम्हारे मारने के लिये ही रचा गया है।’’ इस प्रकार आज पहली बार श्रीकृष्ण ने सुना कि—‘‘मैं हरिवंश में जन्मा हूँ, मेरे पिता वसुदेव और माता देवकी हैं, ये मेरे प्यारे भाई बलदेव हैं।’’ इत्यादि सुनते ही हर्षातिरेक से उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा। तब जन्मजात हितबुद्धि से उन दोनों भाइयों के हृदय परस्पर में विशेष ही मिल गये। तत्पश्चात् दोनों भाई नदी में स्नान कर गोपों के साथ घर आ गये। माता यशोदा के हाथ से परोसा हुआ भोजन किया पुन: वस्त्राभरणों से अलंकृत हो अपने मन मेंकंसके मारने का दृढ़ निश्चय कर वहाँ से निकले। मथुरा के पास पहुँचते हीकंसके द्वारा भेजे गये कुछ असुर, दुष्ट नाग, घोड़े, गधे आदि सामने आये किन्तु कृष्ण ने सभी को मार भगाया। नगर में प्रवेश करते हुए शत्रु की आज्ञा से उन दोनों पर बड़े-बड़े हाथी छोड़ दिये गये। जिन्हें इन दोनों ने लीलामात्र में पकड़ करके मार डाला।
वहाँ मथुरा पहुँचकर ये दोनों मल्लयुद्ध की भूमि में प्रविष्ट हुये। बलदेव ने इशारे से श्रीकृष्ण को अपने पूरे परिवार का, राजा समुद्रविजय आदि ताऊ, वसुदेव पिता का परिचय करा दिया, साथ ही दुष्टकंसको भी दिखा दिया। मल्लयुद्ध प्रारम्भ हुआ।कंसकी आज्ञा से प्रसिद्ध चाणूरमल्ल श्रीकृष्ण के सामने आया। उसके साथ कुश्ती करते हुये, जो शरीर में श्रीकृष्ण से दूना था, उसे अपने वक्षस्थल में लगाकर श्रीकृष्ण ने अपनी भुजाओं से इतनी जोर से दबाया कि उसके शरीर से रुधिर की धारा बह चली और वह उसी क्षण निष्प्राण हो गया। उधर बलभद्र ने मुष्टिक नामक मल्ल को पछाड़कर प्राणरहित कर दिया। इस अखाड़े में तो क्या, उस समय आधे भरतक्षेत्र के तीनों खण्ड़ों में इन दोनों भाइयों के समान कोई भी अधिक बलशाली नहीं था। इन श्रीकृष्ण और बलदेव में एक हजारसिंह और हाथियों का बल था।
दोनों प्रधान मल्लों की मृत्यु देखते ही अत्यधिक व्रुद्ध होकरकंसहाथ में पैनी तलवार लेकर आगे बढ़ा। उसके मैदान में बढ़ते ही अखाड़े में उपस्थित जनसमूह का जोरदार कोलाहल हो गया किन्तु बिना घबड़ाये ही श्रीकृष्ण ने सामने आते हुये शत्रु के हाथ से तलवार छीन ली और मजबूती से उसके बाल पकड़कर उसे क्रोधवश पृथ्वी पर पटक दिया। पुन: उसके पैरों को खींचकर उसे पत्थर पर पछाड़ कर मार डाला और हँसकर बोले—‘‘इसके योग्य यही दण्ड उचित था।’’ कंस का वध देखकर उसकी सेना क्षुभित हो आगे बढ़ती देखकर बलदेव ने क्रोध से मंच का एक खंभा उखाड़ कर गर्व से सब ओर प्रहार करते हुये इस सारी सेना को क्षण भर में खदेड़ दिया। इधरकंसके पक्ष में नियुक्त जरासंध की सेना भी यद्यपि क्षुभित हुई थी फिर भी यादव राजाओं को एक साथ उठकर खड़े हुये देखकर वह समस्त सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गई।
अनंतर श्रीकृष्ण बड़े भाई के साथ रथ पर सवार हो अपने पिता वसुदेव के घर गये। समुद्रविजय आदि राजाओं को नमस्कार कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। चिरकाल के वियोग से संतप्त माता देवकी और पिता वसुदेव के चरणों में प्रणाम किया। माता-पिता ने उस समय पुत्र श्रीकृष्ण को छाती से लगाकर जो सुख प्राप्त किया था वह अनिर्वचनीय था। पुन: बहन ने (यशोदा की पुत्री ने) भाई को प्राप्त कर परम हर्ष का अनुभव किया। सभी परिवार के लोगों ने प्रथम बार श्रीकृष्ण का मुख देखा था अत: उस समय जो आनन्द का अनुभव हुआ था वह शब्दों के अगोचर था।
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण मुख्य फाटक पर बन्दी किये गये राजा उग्रसेन के पास पहुँचे, उनकी बेड़ियाँ काटकर उन्हें बंधनमुक्त कर दिया। उस समय चारों ओर से मथुरा में श्रीकृष्ण के जय-जयकारों की ध्वनि से सारा आकाशमण्डल मुखरित हो उठा था। इसके बाद यादवों की आज्ञा से श्रीकृष्ण ने उग्रसेन को पुन: मथुरा का राजा बना दिया और सभी यादव राजा सुखपूर्वक रहने लगे। श्रीकृष्ण भी अपने माता-पिता के मन को संतुष्ट करते हुये वहीं रहने लगे।
विद्याधरों के राजा सुकेतु ने श्रीकृष्ण की प्रशंसा सुनकर उन्हें भावी नारायण निश्चित कर उनके लिये अपनी पुत्री सत्यभामा दे दी। अन्य अनेक राजाओं ने भी अपनी-अपनी पुत्रियों का विवाह श्रीकृष्ण के साथ करके अपनी कन्याओं के भाग्य के साथ-साथ अपने भाग्य को भी सराहा।
कंस के मरने के बाद पति के वियोग से विह्वल हुई पुत्री जीवद्यशा अपने पिता प्रतिनारायण महाराजा जरासंध के पास पहुँची और बिलख-बिलख कर रोने लगी। पुत्री के शोक से दु:खी हुए जरासंध ने कुपित होकर अपने पुत्र कालयवन को युद्ध के लिये भेज दिया। वह विशाल सेना के साथ आकर यादवों के साथ सत्रह बार युद्ध करके अंत में मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब राजा जरासंध ने अपने भाई अपराजित को भेजा। इसने भी वीर यादवों के साथ तीन सौ छियालीस बार युद्ध किया और अन्त में श्रीकृष्ण के बाणों से मारा गया।
श्रीकृष्ण की एक हजार वर्ष की आयु थी, दश धनुष की ऊँचाई थी, नीलकमल के समान उनके शरीर का सुन्दर वर्ण था। चक्ररत्न, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दण्ड और नन्दक नाम का खड्ग उनके ये सात रत्न थे, इन सभी रत्नों की देवगण रक्षा करते थे। रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, सुसीमा, लक्ष्मणा, गांधारी, गौरी और पद्मावती ये आठ पट्टरानियाँ थीं। बलदेव के रत्नमाला, गदा, हल अैर मूसल ये चार रत्न थे तथा इनके आठ हजार रानियाँ थीं। इस यदुवंश के परिवार में सब मिलाकर महाप्रतापी तथा कामदेव के समान सुन्दर ऐसे साढ़े तीन करोड़ कुमार क्रीड़ा के प्रेमी हो निरन्तर प्रजा के मन को अनुरंजित किया करते थे।