‘वन्दे सुरतिरीटाग्रमणिच्छायाभिषेचनम्।
या: क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चा: सिद्धिलब्धये।।२१।।
अर्थ- जो देवों के मुकुट के अग्र भाग में लगी हुई मणियों की कान्ति से अभिषेक को चरणों द्वारा सेवन करती हैं अर्थात् जिनके चरणों में वैमानिक देव सिर झुकाते हैं उन वैमानिक देवों के विमान संबंधी प्रतिमाओं को मुक्ति की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ।।२१।।
मध्यलोक के ऊपर ७ राजू ऊँचा ऊर्ध्वलोक है। वस्तुत: मध्यलोक की नगण्य ऊँचाई (१ लाख ४० योजन) ऊर्ध्वलोक से ही ली गई है। ऊर्ध्वलोक में १६ स्वर्ग (८ जोड़े), ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश और ५ अनुत्तर विमान हैं। तथा सबसे ऊपर सिद्धशिला अवस्थित है।
१६ स्वर्गों के नाम- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत। बारह कल्प- सौधर्म-ईशान युगल के २ इन्द्र, सनत्कुमार-माहेन्द्र युगल के २ इन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल का १ इन्द्र, लांतव-कापिष्ठ युगल का १ इन्द्र, शुक्र-महाशुक्र युगल का १ इन्द्र, शतार-सहस्रार युगल का १ इन्द्र, आनत-प्राणत युगल के २ इन्द्र और आरण-अच्युत युगल के २ इन्द्र ऐसे १२ इन्द्र होते है। इनके स्थानों की ‘कल्प’ संज्ञा होने से १२ कल्प कहलाते हैं। कल्पातीत- बारह कल्प (१६ स्वर्ग) के ऊपर ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश और ५ अनुत्तर विमान हैं, इनमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि भेद न होने से ये कल्पातीत कहलाते हैं। यहाँ के सभी देव अहमिंद्र कहलाते हैं। नौ ग्रैवेयक– अधस्तन ३, मध्यम ३ और उपरिम ३ ऐसे नौ ग्रैवेयक हैं। अनुदिश- अर्चि, अर्चिमालिनी, वैर, वैरोचन ये चार दिशा मेें होने से श्रेणीबद्ध एवं सोम, सोमरूप, अंक और स्फटिक ये चार विदिशा में होने से प्रकीर्णक एवं मध्य में आदित्य नाम का विमान हैं, ऐसे ये ९ अनुदिश संज्ञक हैं। पाँच अनुत्तर– विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित ये चार विमान चार दिशा में एवं ‘सर्वार्थसिद्धि’ नाम का विमान मध्य में है। कल्प और कल्पातीतों के स्थान-मेरु तल से लेकर १-१/२ राजु में सौधर्म युगल, उसके ऊपर १ (१/२) राजु में सानत्कुमार युगल, आगे आधे-आधे राजु में ६ युगल हैं अत: १-१/२ + ११/२ = ३,१/२ x ६ = ३, ऐसे ६ राजु में ८ युगल हैं। इसके आगे १ राजु में ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला है। विमानों की संख्या- सौधर्म स्वर्ग में ३२०००००, ईशान में २८०००००, सानत्कुमार में १२०००००, माहेन्द्र में ८०००००, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल में ४०००००, लांतव-कापिष्ठ में ५०००००, शुक्र-महाशुक्र में ४००००, शतार-सहस्रार युगल में ६०००, आनत-प्राणत, आरण और अच्युत ऐसे चार कल्पों में ७००, तीन अधोग्रैवेयक में १११, तीन मध्यग्रैवेयक में १०७, तीन ऊध्र्व ग्रैवेयक में ९१, अनुदिश में ९ और पाँच अनुत्तर में ५ ऐसे सब मिलाकर ३२००००० + २८००००० + १२००००० + ८००००० + ४००००० + ५०००० + ४०००० + ६०००० + ७०० + १०७ + ९१ + ९ + ५ = ८४९७०२३ विमान हैं और एक-एक विमान में १-१ जिनमंदिर होने से इतने ही मंदिर हो जाते हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओं को मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार होवे। विमानों के भेद- इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक ऐसे ३ भेद हैं। जो मध्य में है, वह इन्द्रक कहलाता है। दिशाओं के विमान श्रेणीबद्ध और अन्तराल संंबंधी विमान प्रकीर्णक कहलाते हैं। तीन लोक के कुल अकृत्रिम जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमाएँ- अधोलोक में (भवनवासी देवों के) ७ करोड़ ७२ लाख अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, मध्यलोक में ४५८ तथा ऊर्ध्वलोक में ८४ लाख ९७ हजार २३ जिनमंदिर हैं, इस प्रकार तीनों लोकों में ८ करोड़ ५६ लाख ९७ हजार ४८१ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। प्रत्येक मंदिर में १०८ जिनप्रतिमाएँ होने से तीन लोकों की कुल अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ ९२५ करोड़ ५३ लाख २७ हजार ९४८ हैं। साथ ही व्यंतर एवं ज्योतिर्वासी देवों के असंख्यात भवनों में असंख्यात जिनमंदिर हैं तथा सबमें १०८—१०८ जिनप्रतिमाएँ होने से असंख्यात जिनप्रतिमाएँ हैं। मैं मन, वचन, काय से इन सभी जिनमंदिरों एवं जिनप्रतिमाओं को नमस्कार करती हूँ। इनके अतिरिक्त मध्यलोक के संख्यात कृत्रिम जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमाओं को भी मेरा नमस्कार हो।