यों तो समुन्दर में बेशक कुछ भी कमी नहीं। लाखों मोती हैं मगर इस आब का मोती नहीं।।
गेरुआ रंग की कोपीन और खण्ड वस्त्र (चादर) में लिपटे स्वस्थ-सुडौल शरीर, सौम्य-सस्मित मुखाकृति, धर्मस्नेह से भरी आँखों, मुदृ-मधुर वाणी और निष्कपट व्यवहार के धनी पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज की यही छवि हमारे दिल में रची-बसी है। भले ही उनकी भौतिक काया अब हमारे सामने नहीं है, परन्तु उनकी यश:काया तो सदैव भक्तजनों की स्मृतियों में अमिट रूप से अंकित रहेगी।
जम्बूद्वीप-रचना (हस्तिनापुर), नंद्यावर्त महल (कुण्डलपुर-नालंदा), ऋषभदेव तपस्थली (प्रयाग) एवं भगवान पुष्पदंतनाथ दि. जैन मंदिर (काकंदी, गोरखपुर) की नव्य-भव्य संरचनाओं की स्वजदृष्टा और सूत्रधार पूज्य बड़ी और छोटी माताजी के दायें और बायें हाथ के रूप में कर्मयोगी भाई जी एवं पूज्य क्षुल्लक जी का नाम सम्पूर्ण जैन जगत में बड़े आदर के साथ लिया जाता रहा है। दोनों माताजी किसी भवन के गुम्बद पर स्थापित स्वर्ण कलश एवं स्वर्ण ध्वजा के समान हैं।
पूज्य क्षुल्लक जी को उस भवन के सामने स्थित कीर्तिस्तंभ कहा जा सकता है। उनके सेवा-समर्पण की भावना को देखकर किसी शायर की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
उस बोरियानशी का दिल से मुरीद हूँ। जिसके रियादे जुहद में बूएरिया न हो।।
अर्थात् चटाई पर बैठे उस साधक पर मैं दिल से फिदा हूँ, जिसके व्रत और त्याग में बनावट की गंध नहीं है। वह उस बीते हुए ‘कल’ की तरह थे, जिसने अपने को मिटाकर आने वाले ‘कल’ की नींव रखी है। वह एक अनन्य सेवाव्रती थे। उनकी नि:स्पृह कर्मनिष्ठा के प्रति हम अपनी विनम्र विनयांजलि समर्पित करते हैं।
भाई जी नहीं, अब हैं वह स्वामी जी कर्मयोगी भाई रवीन्द्र जी को हम एक कुशल संगठक, समन्वयक और स्थापत्य शिल्पशास्त्री के रूप में जानते हैं। आज हम उन्हें श्रावक की तप-साधना के दसवें सोपान (अनुमति त्याग प्रतिमा) की ऊँचाई पर अवस्थित देखकर आनन्दित हो रहे हैं। उनकी इस आध्यात्मिक प्रोन्नति (प्रमोशन) को देखकर किसे गौरवान्वित नहीं हो रही होगी! वर्षों पूर्व प्रथम दर्शन प्रतिमा को अंगीकार कर जिन्होंने संसार, शरीर और भोगों के प्रति उदासीन होकर आत्महित के मार्ग पर अपने कदम बढ़ाए थे, आज वह पूर्णत: गृहत्यागी होकर संघ की शरण में आ गए हैं।
यद्यपि घर तो पहले ही छूट चुका था, पर अब नाते-रिश्तों की डोर का अन्तिम सिरा भी टूट चुका है। स्वामी जी की नई पर्याय के साथ ही समस्त गृहकार्यों (खेती, व्यापार, विवाहादि) के सन्दर्भ में किसी परिजन या पुरजन को अब न तो वह कोई सलाह ही देंगे और न ऐसे कार्यों की अनुमोदना ही करेंगे। संघ में रहते हुए अब वह अपनी पूरी क्षमता और शक्ति पूज्य गणिनी माताजी के सपनों को साकार करने में लगा सवेंगे। पूज्य क्षुल्लक जी का स्थान अब भाई जी को मिला है।
जो दायित्व क्षुल्लक जी निभाते थे, वह अब भाई जी (नहीं, नहीं, स्वामी जी) निभायेंगे। केवल थोड़ा सा अन्तर होगा और वह यह कि भाई जी के हाथों में अभी पीछी नहीं होगी, पर पीछी न होने से वह उनसे पीछे भी नहीं रहेंगे। ट्रेण्ड तो वह है ही, वह दूना काम करेंगे और डबल ड्यूटी देंगे। किसी शायर ने ठीक ही कहा है-
बोल बदलता नहीं है कभी तबले का। केवल वादक की उँगलियाँ बदलती हैं।।
उत्कृष्ट श्रावक के पद पर प्रतिष्ठत ब्र. रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी को हमारी विनम्र वंदना। हमें यह पक्का विश्वास है कि उनमें बबूल के जंगल को बागे गुलाब कर देने की कुब्बत है। इत्यलम्।