चैत्यभक्ति अपरनाम जयति भगवान् महास्तोत्र भगवान महावीर स्वामी का साक्षात् दर्शन कर श्री गौतमस्वामी भक्ति में गद्गद् हो ‘जयति भगवान्’ शब्द का उच्चारण करके प्रभु के चरणों की वन्दना करते हुय कहते हैं—‘‘हेमाम्भोजप्रचार— विजृंभितौ’’ हे भगवन् ! आपके चरण कमलों के नीचे देवगण स्वर्णमयी दिव्य कमलों की रचना करते जाते हैं। इस विशेषण से केवलज्ञानी प्रभु के श्रीविहार का वैभव प्रर्दिशत किया है। भगवान का श्रीविहार आकाश में अधर—पृथ्वी से पांच सौ धनुष—दो हजार हाथ ऊपर होता है। भगवान के श्रीचरणों के नीचे १२५ कमलों की रचना करते रहते हैं फिर भी भगवान उन पर भी चार अंगुल अधर ही पैर रखते हैं। यह प्रभु की गमन—विहार क्रिया स्वभाव से ही होती है न कि इच्छा से, क्योंकि प्रभु के मोहनीय कर्म का अभाव—विनाश हो जाने से उनका विहार व दिव्यध्वनि में बोलना, समवसरण में बैठना आदि क्रियायें स्वभाव से ही होती हैं। द्वितीय चरण में—‘‘अमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ।’’ हे भगवन् ! आपके श्रीचरणों में समस्त इंद्रगण मुकुट झुकाकर—चरणों में मस्तक रखकर नमस्कार करते हैं उस समय उनके मुकुटों में लगी हुई रत्नों की किरणें प्रभु के चरणों का स्पर्श करती हैं। इस विशेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि—प्रभु के चरणों को तीनों लोकों के सभी इन्द्र—सौ इंद्र असंख्य देवपरिवारों के साथ नमस्कार करते हैं। भगवान के चरण कमल तीनों लोकों के जीवों से वंदनीय है। तृतीय चरण में व चतुर्थ चरण में— ‘‘कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता: परस्परवैरिण:। विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु:।।१।।’’ कलुषितमना मान से उन्मत्त हुये, जन्मजात, परस्पर में वैरी ऐसे मनुष्य व पशुगण सभी आपके चरणों का आश्रय लेकर वैरभाव को छोड़कर आपस में विश्वास को—परमप्रीति को प्राप्त कर लेते हैं। इस विशेषण से भगवान के समवसरण का माहात्म्य प्रगट किया गया है। भगवान के समवसरण में बारह सभाओं में असंख्य देव, देवियां व संख्यातों मनुष्य तथा तिर्यंच सभी परस्पर के वैरभाव को छोड़कर परमप्रीति को प्राप्त कर भगवान का दिव्य उपदेशामृत पान करते हैं। इसी हेतु से जैनशासन में िंसह और गाय एक घाट पानी पीते हुये दिखाये जाते हैं। अनंतर श्री गौतमस्वामी ने चौथे काव्य से लेकर १० तक छह काव्यों में नवदेवों का वर्णन किया है— अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच महापुरुष—पांच परमेष्ठी हैं। पुनश्च—जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय ये चार श्री गौतमस्वामी द्वारा नमस्कार किये गये हैं। पुन: ११ वें पद्य से लेकर १५ वें पद्य तक अकृत्रिम और कृत्रिम जिनप्रतिमाओं की वंदना की है। अनंतर तीनों लोकों के समस्त अकृत्रिम व कृत्रिम जिनमंदिर व जिनप्रतिमाओं की वन्दना की है। इसमें चारों प्रकार के देवों के यहाँ जो तीनों लोकों में जिनमंदिर व जिनप्रतिमायें हैं, उन सभी की वन्दना के साथ—साथ मध्यलोक के कृत्रिम व अकृत्रिम जिनचैत्यों की वंदना की है अर्थात् अधोलोक के भवनवासी देवों के जिनचैत्यों की, मध्यलोक के कृत्रिम—अकृत्रिम जिनमंदिर व प्रतिमाओं की तथा मध्यलोक में ही व्यंतर व ज्योतिषी देवों के जिनिंबबों की पुनश्च वैमानिक देव—ऊध्र्वलोक के सभी जिनमंदिरों की वंदना करके यह स्पष्ट किया है कि—जिनप्रतिमाओं की वन्दना से केवल पुण्यास्रव होता है इतना ही नहीं है प्रत्युत—‘‘चैत्यानां संर्कीित: सर्वास्रवनिरोधिनी’’ यह जिनप्रतिमाओं की स्तुति संपूर्ण आस्रव को रोकने वाली अर्थात् पूर्ण संवर कराने वाली होवे है। यह संपूर्ण चर्तुिनकाय देवों के व मध्यलोक के चैत्य— चैत्यालयों की वंदना—पद्य १६ से २२ तक ७ पद्यों में बहुत ही सुंदर है। अनंतर काव्य २३ से ३० तक ८ काव्यों में अर्हंतदेव को महानद—महातीर्थ बनाकर उसमें स्नान की बात कही है तथा स्वयं श्रीगौतमस्वामी ने कहा है कि हे प्रभो ! मैं इस महातीर्थ में स्नान हेतु उतरा हूँ मेरे भी समस्त दुरित—पापों को व कर्मों को दूर कीजिये। यह प्रकरण बहुत रोचक है। पुनश्च काव्य ३१ से ३५ तक ५ काव्यों में भगवान की वीतराग मुद्रा का बहुत ही विशेष वर्णन किया है। अनंतर अंचलिका में संपूर्ण कृत्रिम—अकृत्रिम जिनचैत्य, चैत्यालयों की वंदना की है। भावार्थ—इस प्रकार संक्षेप में इस चैत्यभक्ति में नवदेवों की वन्दना, कृत्रिम—अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की विशेष वन्दना व अर्हंतरूपी महातीर्थ में अवगाहन—स्नान की बातें कही गई हैं। संक्षेप से समय के अनुसार इनका विवेचन करना चाहिए। तीन लोक के अकृत्रिम जिनमंदिर अधोलोक में खरभाग—पंकभाग में भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख (७,७२०००००) जिनमंदिर हैं। मध्यलोक में जंबूद्वीप आदि से रुचकवर नाम के तेरहवें द्वीप तक चार सौ अट्ठावन (४५८) जिनमंदिर हैं। ऊध्र्वलोक में सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि अनुत्तर तक चौरासी लाख, सत्तानवे हजार, तेईस (८४,९७,०२३) जिनमंदिर हैं। इन तीनों लोकों के जिनमंदिरों की संख्या आठ करोड़, छप्पन लाख, सत्तानवे हजार, चार सौ इक्यासी है। (८,५६,९७,४८१) हैं। प्रत्येक अकृत्रिम जिनमंदिर में १०८ प्रतिमायें होती हैं, अत:—८,५६,९७,४८१ ² १०८ · ९२५,५३,२७,९४८ जिनप्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे। व्यंतर देवों के भवन अधोलोक में असंख्यातों हैं व मध्यलोक में भवनपुर, आवास भी असंख्यातों हैं। सभी में जिनमंदिर हैं। ज्योतिर्वासी सूर्य, चंद्रमा आदि भी मध्यलोक में असंख्यात द्वीप—समुद्रों तक अंसख्यातों हैं। इन सभी में अकृत्रिम जिनमंदिर भी असंख्यातों हैं उनमें १०८—१०८ प्रतिमायें भी असंख्यातों हैं। इसी प्रकार मध्यलोक में भवनवासी देवों के भवनपुर, आवास भी असंख्यातों हैं। इन सभी के अकृत्रिम जिनमंदिर, जिनप्रतिमाओं को नमस्कार होवे। मध्यलोक में ढाई द्वीप तक देव, मनुष्य आदि द्वारा बनवाये गये अतीत, वर्तमान व भविष्यत् काल की अपेक्षा अनंतों हो जाते हैं। अत:—
—दोहा—
त्रैकालिक कृत्रिम सभी, जिनप्रतिमा जिनधाम।
कहे अनंतानंत ही, तिन्हें अनंत प्रणाम।।१।।
इति श्रीगौतमस्वामीप्रणीत—श्रीगौतमगणधरवाण्यां गणिनीज्ञानमती- विरचित—अमृतर्विषणीटीकायां मंगलाचरणसमन्वित—चैत्यभक्तिनामा प्रथमोऽध्याय: समाप्त: ।