माता रत्नमती की कुक्षि कुछ ऐसी विलक्षण थी कि जिसने भी उससे जन्म लिया, वह विशिष्ट हो गया। परमपूज्य ज्ञानमती माताजी के सहोदर भाई बाल ब्र. रवीन्द्र कुमार जी भी ऐसे ही अहोभाग्य व्यक्तियों में हैं, जिन्होंने जन्म से तो यह सौभाग्य ‘देव’ का प्राप्त किया ही, अपितु ‘पुरुषार्थ’ से भी दृढ़ मेहनत करके वह कर्मयोगी बन गये। सन् १९७० के दशक से मेरा उनका व्यक्तिगत संपर्क है।
हस्तिनापुर, टिकैतनगर, दिल्ली, कुण्डलपुर आदि अनेक स्थानों पर उनका व माताजी का सान्निध्य मिला और मेरा व्यक्तित्व तो पूज्य माताजी ने ही निखारा। युवा परिषद के कार्यक्रम में या जम्बूद्वीप के निर्माण की पहली र्इंट से लेकर अभी तक भाई रवीन्द्र जी ने जो पुरुषार्थ किया है, उसी का यह सुफल है कि पूज्य माताजी ने जो स्वप्न संजोये, वह शत प्रतिशत सफल होकर फलवान बन गये हैं। हमारे तीर्थ उचित संरक्षण के अभाव में विवादित हो गये या छिन गये।
श्रवणबेलगोला के विद्वत् सम्मेलन में मैंने कहा था अगर हर तीर्थ पर श्रवणबेलगोला जैसा भट्टारक पदासीन होता, तो शायद हमारे तीर्थों की यह दशा न होती। जम्बूद्वीप की सुरक्षा, संवर्धन के परिप्रेक्ष्य में ही इसे भी देखा जाना चाहिए। नवनियुक्ति स्वामी जी के कुशल मार्गदर्शन में माताजी की योजनाएँ और फलीभूत होंगी, ऐसी मैं कामना व प्रार्थना करता हूँ।
हम सब तो उनके रत्नत्रय की परिपूर्णता देखते हुए उन्हें मुनि श्री रवीन्द्रसागर जी के रूप में पूजना चाहते हैं और मुझे भी इसका शुभावसर मिले, यही मंगल भावनाएँ हैं। वह और अधिक तीर्थ, धर्म, संघ की सेवा कर अधिकाधिक पुण्य का संचय कर महाव्रती बनें, यही कामना उनके पदारोहण पर करते हुए अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त करता हूँ।