दिगम्बर साधु संयम की रक्षा हेतु शरीर की स्थिति के लिए दिन में एक बार छयालीस दोष-चौदह मल दोष और बत्तीस अंतरायों को टाल कर आगम के अनुकूल नवकोटि विशुद्धि आहार ग्रहण करते हैं । इसी को पिंडशुद्धि या आहारशुद्धि कहते हैं ।
छ्यालीस दोष दिगम्बर मुनि के आहार के छयालीस दोष माने हैं । ये साधु इन दोषों से अपने को दूर रखते हैं । उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, अप्रमाण, इंगाल, धूप और कारण, मुख्यरूप से आहार संबंधी ये आठ दोष माने गये हैं । १. दातार के निमित्त से जो आहार में दोष लगते हैं, वे उद्गम दोष कहलाते हैं । २. साधु के निमित्त से आहार में होने वाले दोष उत्पादन नाम वाले हैं । ३. आहार संबंधी दोष एषणा दोष है । ४. संयोग से होने वाला दोष संयोजना है । ५. प्रमाण से अधिक आहार लेना अप्रमाण दोष है । ६. लंपटता से आहार लेना इंगाल दोष है । ७. निन्दा करके आहार लेना धूम दोष है । ८. विरुद्ध कारणों से आहार लेना कारण दोष है । इनमें से उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४, ऐसे दोष हो जाते हैं । इन सबसे अतिरिक्त एक अध:कर्म दोष है, जो महादोष कहलाता है । इसमें कूटना , पीसना, रसोई करना, पानी भरना और बुहारी देना ऐसे पंचसूना नाम के आरंभ से षट्कायिक जीवों की विराधना होने से यह दोष गृहस्थाश्रित है । इसके करने वाले साधु उस साधु पद में नहीं माने जाते हैं ।
१. औद्देशिक – साधु, पाखंडी आदि के निमित से बना हुआ आहार ग्रहण करना उद्देश्य दोष है। २. अध्यधि – आहारार्थ साधुओं को आते देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला देना। ३. पूतिदोष – प्रासुक तथा अप्रासुक को मिश्र कर देना। ४. मिश्रदोष – असंयतों के साथ साधु को आहार देना। ५. स्थापित – अपने घर में या अन्यत्र कहीं स्थापित किया हुआ भोजन देना। ६. बलिदोष – यक्ष देवता आदि के लिए बने हुए में से अवशिष्ट को देना। ७. प्रावर्तित – काल की वृद्धि या हानि करके आहार देना। ८. प्राविष्करण – आहारार्थ साधु के आने पर खिड़की आदि खोलना या बर्तन आदि माँजना। ९. क्रीत – उसी समय वस्तु खरीदकर लाकर देना। १०. प्रामृष्य – ऋण लेकर आहार बनाना। ११. परिवर्त – शालि आदि देकर बदले में अन्य धान्य लेकर आहार बनाना। १२. अभिघट – पंक्तिबद्ध सात घर से अतिरिक्त अन्य स्थान से अन्नादि लाकर मुनि को देना। १३. उद्भिन्न – भाजन के ढक्कन आदि को खोलकर अर्थात् सील मुहर चपड़ी आदि हटाकर वस्तु निकालकर देना। १४. मालरोहण – निसैनी से चढ़कर वस्तु लाकर देना। १५. आछेद्य – राजा आदि के भय से आहार देना। १६. अनीशार्थं – अप्रधान दातारों से दिया हुआ आहार लेना। ये सोलह दोष श्रावक के आश्रित होते हैं, ज्ञात होने पर मुनि ऐसा आहार नहीं लेते हैं।
१. धात्री दोष – धाय के समान बालकों को भूषित करना, खिलाना, पिलाना आदि करना जिससे दातार प्रसन्न होकर अच्छा आहार देवें, यह मुनि के लिए धात्री दोष है । २. दूत दोष – दूत के समान किसी का समाचार अन्य ग्रामादि में पहुँचाकर आहार लेना । ३. निमित्त दोष – स्वर, व्यंजन आदि निमित्त ज्ञान से श्रावकों को हानि लाभ बताकर खुश करके आहार लेना । ४. आजीवदोष – अपनी जाति कुल या कला योग्यता आदि बता कर दातार को अपनी तरफ आकर्षित कर आहार लेना आजीवक दोष है । ५. वनीपक दोष – किसी ने पूछा कि पशु, पक्षी, दीन ब्राह्मण आदि को भोजन देने से पुण्य है या नहीं ? हाँ पुण्य है, ऐसा दातार के अनुकूल वचन बोलकर यदि मुनि आहार लेवें तो वनीपक दोष है । ६. चिकित्सा दोष – औषधि आदि बताकर दातार को खुश कर आहार लेना । ७. क्रोध दोष – क्रोध करके आहार उत्पादन कराकर ग्रहण करना। ८. मान दोष – मान करके आहार उत्पादन करा कर लेना । ९. माया दोष – कुटिल भाव से आहार उत्पादन करा कर लेना । १०. लोभ दोष – लोभाकांक्षा दिखाकर आहार करा कर लेना । ११. पूर्वसंस्तुति दोष – पहले दातार की प्रशंसा करके आहार उत्पादन करा कर लेना । १२. पश्चात् स्तुतिदोष – आहार के बाद दातार की प्रशंसा करना। १३. विद्या दोष – दातार को विद्या का प्रलोभन देकर आहार लेना । १४. मंत्रदोष – मंत्र का माहात्म्य बताकर आहार ग्रहण करना। श्रावकों को शांति आदि के लिए मंत्र देना दोष नहीं है किन्तु आहार के स्वार्थ से बताकर उनसे इच्छित आहार ग्रहण करना सो दोष है । १५. चूर्ण दोष – सुगंधित चूर्ण आदि के प्रयोग बताकर आहार लेना । १६. मूलकर्मदोष – अवश को वश करने आदि के उपाय बताकर आहार लेना । ये सभी दोष मुनि के आश्रित होते हैं इसलिए ये उत्पादन दोष कहलाते हैं । मुनि इन दोषों से अपने को अलग रखते हैं ।
१. शंकित – यह आहार अध:कर्म से उत्पन्न हुआ है क्या ? अथवा यह भक्ष्य है या अभक्ष्य ? इत्यादि शंका करके आहार लेना। २. भ्रक्षित – घी, तेल आदि के चिकने हाथ से या चिकने चम्मच आदि से दिया हुआ आहार लेना। ३. निक्षिप्त – सचित्त पृथ्वी, जल आदि से संबंधित आहार लेना। ४. पिहित – प्रासुक या अप्रासुक ऐसे बड़े से ढक्कन आदि को हटा कर दिया हुआ आहार लेना। ५. संव्यवहरण – जल्दी से वस्त्र, पात्रादि खींचकर बिना विचारे या बिना सावधानी के दिया हुआ आहार लेना। ६. दायक – आहार के योग्य, मद्यपायी, नपुंसक, विशाचग्रस्त, अथवा सूतक-पातक आदि से सहित दातारों से आहार लेना। ७. उन्मिश्र – अप्रासुक वस्तु संमिश्रित आहार लेना। ८. अपरिणत – अग्न्यादि से अपरिपक्व आहार पान आदि लेना। ९. लिप्त – पानी या गीले गेरु आदि से लिप्त ऐसे हाथों से दिया हुआ आहार लेना। १०. छोटित – हाथ की अंजुलि से बहुत कुछ नीचे गिराते हुए आहार लेना। ये दश दोष मुनियों के भोजन से संबंध रखते हैं। मुनि दोषों से अपने को सदैव बचाते रहते हैं। १. संयोजना दोष – आहारादि के पदार्थों का मिश्रण कर देना, ठंढे जल आदि में उष्ण भात आदि मिला देना, अन्य भी प्रकृति विरुद्ध वस्तु का मिश्रण करना, संयोजना दोष है। २. अप्रमाण दोष – उदर के दो भाग रोटी आदि से पूर्ण करना होता है, एक भाग रस, दूध, पानी आदि से भरना होता है और एक भाग खाली रखना होता है। यह आहार का प्रमाण है, इसका अतिक्रमण करके आहार लेना अप्रमाण दोष है। ३. अंगार दोष – जिह्वा इंद्रिय की लंपटता से भोजन ग्रहण करना। ४. धूमदोष – भोज्य वस्तु आदि की मन में निंदा करते हुए आहार ग्रहण करना। इस प्रकार से उद्गम के १६ उत्पादन के १६ एषणा के १० और संयोजना आदि सब मिलाकर ४६ दोष होते हैं। जो पहले आठ दोषों में १ कारण दोष था वह इनसे अलग है। अब उसको बतलाते हैं- ‘‘छह कारणों से आहार ग्रहण करते हुए भी मुनि धर्म का पालन करते हैं और छह कारणों से ही आहार को छोड़ते हुए भी वे मुनि चारित्र का पालन करते हैं।’’
‘‘क्षुधा की वेदना मिटाने के लिए अपनी और अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करने के लिए सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं के पालन के लिए संयम पालन के लिए अपने दश प्राणों की चिंता अर्थात् प्राणों की रक्षा के लिए दश धर्म आदि के चिंतन के लिए मुनि आहार ग्रहण करते हुए भी धर्म का पालन करते हैं।’’ अर्थात् यदि मैं भोजन नहीं करूँगा, तो क्षुधा वेदना धर्मध्यान को नष्ट कर देगी, स्व अथवा अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करने की शक्ति नहीं रहेगी, सामायिकादि आवश्यक क्रियाएँ निर्विघ्नतया नहीं हो सवेंगी, षट्कायिक जीवों की रक्षा रूप संयम नहीं निभेगा, अपने इंद्रिय, बल आयु प्राणों की रक्षा के बिना रत्नत्रय की सिद्धि नहीं निभेगा, अपने इंदिय्र, बल आयु प्राणों की रक्षा के बिना रत्नत्रय की सिद्धि नहीं होगी और आहार के बिना दश धर्मादि का पालन भी वैसे होगा ? यही सोचकर साधु आहार ग्रहण करते हैं।
आकस्मिक व्याधि के आ जाने पर भयंकर उपसर्ग के आ जाने पर ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा हेतु जीवन दया हेतु अनशन आदि तप करने के लिए सन्यास काल के उपस्थित होने पर मुनि आहार का त्याग कर देते हैं।’’ दिगम्बर मुनि बल और आयु की वृद्धि के लिए, स्वाद के लिए, शरीर की पुष्टि या शरीर के तेज के लिए आहार ग्रहण नहीं करते हैं प्रत्युत् ज्ञान की वृद्धि, संयम की वृद्धि और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं। ये मुनि नवकोटि से विशुद्ध, ब्यालीस दोषों से रहित, संयोजना दोष से शून्य, प्रमाण सहित और विधिवत्-नवधा भक्ति से प्रदत्त, अंगार धूम दोष से भी हीन, छह कारण संयुक्त, क्रम विशुद्ध और प्राणयात्रा या मोक्ष यात्रा के लिए भी साधन मात्र तथा चौदह मल दोषरहित ऐसा आहार ग्रहण करते हैं। श्रावकों के द्वारा आहार बनाने में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति नहीं करना और कृत, कारित या अनुमोदना भी नहीं करना, इस प्रकार से मन, वचन, काय को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणित करने पर ३²३·९ नव भेद हो जाते हैं। नवकोटि से रहित आहार ‘नवकोटिविशुद्धि’ कहलाता है। श्री कुन्दकुन्ददेव ने इसी बात को स्पष्ट किया है। यथा- ‘‘उद्गम, उत्पादन और एषणा के १६±१६±१०·४२ भेद होते हैं। संयोजना, अंगार धूम दोषों से रहित तथा प्रमाण युक्त आहार होना चाहिए। उपर्युक्त छह कारणों से सहित हो, उत्क्रम से हीन हो तथा मोक्षयात्रा के लिए साधनमात्र है।’’ श्रावको के श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और सत्त्व शक्ति ये सात गुण हैं तथा पड़गाहन करना, उच्चासन देना, चरण प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मन शुद्धि, वचन शुद्धि और काय की शुद्धि कहना और आहार की शुद्धि कहना, यह नवधा भक्ति है। इन सप्तगुणसहित, नवधाभक्तिपूर्वक दिया गया आहार विधिवत् कहलाता है। ऐसे विधिवत् दिये गये आहार को वे मुनि ग्रहण करते हैं तथा चौदह मल दोष रहित आहार लेते हैं।
आहार में नख, बाल, हड्डी, मांस, पीप, रक्त, चर्म, द्वीन्द्रिय आदि जीवों का कलेवर, कण२, कुंड, बीज, कंद, मूल और फल। इनमें से कोई महामल हैं, कोई अल्पमल हैं, कोई महादोष हैं और कोई अल्पदोष है। रुधिर, मांस, अस्थिर, चर्म और पीप ये महादोष हैं, आहार में इनके दीखने पर आहार छोड़कर प्रायश्चित्त भी लिया जाता है। द्वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों का शरीर-मृतक लट, चिंवटी, मक्खी आदि तथा बाल के आहार में आ जाने पर आहार का त्याग कर दिया जाता है। नख के आ जाने पर आहार छोड़कर गुरु से किंचित् प्रायश्चित्त भी लेना होता है। कण, कुण्ड, बीज, कंद, फल और मूल के आहार में आ जाने पर यदि उनको निकालना शक्य है, तो निकालकर आहार कर सकते हैं अन्यथा आहार का त्याग करना होता है। सिद्ध भक्ति कर लेने के बाद यदि अपने शरीर में रक्त, पीप बहने लगे अथवा दातार के शरीर में बहने लगे, तो आहार छोड़ देना होता है। मांस के देखने पर भी उस दिन आहार का त्याग कर दिया जाता है। द्रव्य से प्रासुक आहार भी यदि मुनि के लिए बनाया गया हे, तो वह अशुद्ध है। इसलिए ज्ञात कर ऐसा आहार मुनि नहीं लेते हैं। ‘‘जैसे मत्स्य के लिए किये गये मादक जल से मत्स्य ही मदोन्मत्त होते हैं किन्तु मेंढक नहीं, वैसे ही पर के लिए बनाये हुए आहार में प्रवृत्त हुए मुनि उस दोष से आप लिप्त नहीं होते हैं। अर्थात् गृहस्थ अपना कर्तव्य समझकर शुद्ध भोजन बनाकर साधु को आहार देते हैं तब मुनि अपने रत्नत्रय की सिद्धि कर लेते हैं और श्रावक दान के फल स्वर्ग मोक्ष को सिद्ध कर लेते हैं। यदि आहार शुद्ध है फिर भी यदि साधु अपने लिए बना हुआ समझ कर उसे ग्रहण करता है, तो वह दोषी है और यदि कृत, कारित आदि दोष रहित आहार लेने के इच्छुक साधु को अध:कर्मयुक्त-सदोष भी आहार मिलता है, किन्तु उसे वह साधु बुद्धि से ग्रहण कर रहा है, तो वह साधु शुद्ध है।’’ अन्यत्र भी कहा है-यदि मुनि मन, वचन, काय से शुद्ध होकर तथा आलस को छोड़कर शुद्ध आहार को ढूंढ़ता है, तो फिर कहीं पर अध:कर्म होने पर भी वह साधु शुद्ध ही कहा जाता है। शुद्ध आहार को ढूँढ़ने से अध:कर्म से उत्पन्न हुआ अन्न भी उस साधु के कर्मबंध करने वाला नहीं है।’’
सूर्योदय से तीन घड़ी बाद और सूर्यास्त होने के तीन घड़ी पहले तक आहार३ का समय है। ‘‘आहार काल में भी आहार का समय उत्कृष्ट एक मुहूर्त (४८ मिनट) मध्यम दो मुहूर्त और जघन्य तीन मुहूर्त प्रमाण तक है| मध्यान्ह काल में दो घड़ी बाकी रहने पर प्रयत्नपूर्वक स्वाध्याय समाप्त कर, देव वंदना करके वे मुनि भिक्षा का समय जानकर पिच्छी, कमण्डलु लेकर शरीर की स्थिति हेतु आहारार्थ अपने आश्रम से निकलते हैं। मार्ग में संसार शरीर भोगों से विरक्ति का चिंतन करते हुए ईर्यापथ शुद्धि से धीरे-धीरे गमन करते हैंं। वे किसी से बात न करते हुए मौनपूर्वक चलते हैं। श्रावक द्वारा पड़गाहन हो जाने पर वे खड़े हो जाते हैं तब श्रावक उन्हें अपने घर ले जाकर नवधाभक्ति करता है। अनंतर मुनि अपने पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर खड़े होकर अपने दोनों करपात्रों को छिद्र रहित बना लेते हैं। अनंतर सिद्ध भक्ति करके क्षुधा वेदना को दूर करने के लिए वे प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। आहार में पाँच प्रकार की वृत्ति ‘‘गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्निप्रशमन, भ्रमणाहार, भ्रामरीवृत्ति और श्वभ्रपूरण, इन पाँच प्रकार की वृत्ति रखकर मुनि आहार ग्रहण करते हैं१।’’ जैसे गाय को घास देने वाली स्त्री चाहे सुन्दर हो या असुन्दर, वह गाय स्त्री की सुन्दरता अथवा वस्त्राभूषणों को न देखकर मात्र अपनी घास पर दृष्टि रखती है। वैसे ही मुनि भी अन्न, रस, स्वादिष्ट व्यंजन आदि की इच्छा न रखते हुए दाता के द्वारा प्रदत्त प्रासुुक आहार ग्रहण कर लेते हैं यह गौ के आचरणवत् गोचर या गोचरी वृत्ति कहलाती है। जैसे कोई वैश्य रत्नों से भरी गाड़ी के पहियों की धुरी में थोड़ी सी चिकनाई (ओंगन) लगाकर अपने इष्ट देश में ले जाता है। वैसे ही मुनिराज भी गुणरत्नों से भरी इुई शरीररूपी गाड़ी को ओंगन के समान थोड़ा सा आहार देकर आत्मा को मोक्षनगर तक पहुँचा देते हैं। इनको अक्षभ्रक्षणवृत्ति कहते हैं। जैसे कोई वैश्य रत्नादि से भरे भांडागार में अग्नि के लग जाने पर शीघ्र ही किसी भी जल से उसे बुझा देता है। वैसे ही साधु भी सम्यग्दर्शन आदि रत्नों की रक्षा हेतु उदर में बढ़ी हुई क्षुधारूपी अग्नि के प्रशमन हेतु सरस वा नीरस वैâसा भी आहार ग्रहण कर लेते हैं। इसे उदराग्निप्रशमन वृत्ति कहते हैं। जैसे भ्रमर अपनी नासिका द्वारा कमलगंध को ग्रहण करते समय कमल को विंâचिन्मात्र भी बाधा नहीं पहुँचाता है। वैसे ही मुनिराज भी दाता के द्वारा दिये गये आहार को ग्रहण करते समय उन्हें किंचित् भी पीड़ित नहीं करते हैं। इसको भ्रामरीवृत्ति कहते हैं। इस प्रकार से आहार ग्रहण करते हुए यदि बत्तीस अंतरायों में से कोई भी अन्तराय या आ जाये, तो वह आहार छोड़ देते हैं। जो दाता और पात्र दानों के मध्य में विघ्न आता है, वह अन्तराय कहलाता है।
१. काक – आहार को जाते समय या आहार लेते समय यदि कौवा आदि वीट कर देवे, तो काक नाम का अन्तराय है। २. अमेध्य – अपवित्र विष्ठा आदि से पैर लिप्त हो जावे। ३. छर्दि – वमन हो जावे। ४. रोधन – आहार के जाते समय कोई रोक देवे। ५. रक्तस्राव – अपने शरीर से या अन्य के शरीर से चार अंगुल पर्यंत रुधिर बहुत हुआ दीखे। ६. अश्रुपात – दु:ख से अपने या पर के अश्रु गिरने लगे। ७. जान्वध: परामर्श – यदि मुनि जंघा के नीचे के भाग का स्पर्श कर लें। ८. जानूपरिव्यतिक्रम – यदि मुनि जंघा के ऊपर का व्यतिक्रम कर लें अर्थात् जंघा से ऊँची सीढ़ी पर-इतनी ऊँची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़ें, तो जानूपरिव्यतिक्रम अंतराय है। ९. नाभ्योनिर्गमन – यदि नाभि से नीचे शिर करते आहारार्थ जाना पड़े। १०. प्रत्याख्यात सेवन – जिस वस्तु का देव या गुरु के पास त्याग किया है, वह खाने में आ जाये। ११. जंतुवध – कोई जीव अपने सामने किसी जीव का वध कर देवे। १२. काकादि पिंडहरण – कौवा आदि हाथ से ग्रास का अपहरण कर लें। १३. ग्रासपतन – आहार करते समय मुनि के हाथ से ग्रास प्रमाण आहार गिर जावे। १४. पाणौ जंतुवध – आहार करते समय कोई मच्छर, मक्खी आदि जन्तु हाथ में मर जावे। १५. मांसादि दर्शन – मांस, मद्य या मरे हुए का कलेवर देख लेने से अन्तराय है। १६. पादांतर जीव – यदि आहार लेते समय पैर के नीचे से पंचेन्द्रिय जीव चूहा आदि निकल जाये। १७. देवाद्युपसर्ग – आहार लेते समय, देव, मनुष्य या तिर्यंच आदि उपसर्ग कर देवें। १८. भाजनसंपात – दाता के हाथ से कोई बर्तन गिर जाये। १९. उच्चार – यदि आहार के समय मल विसर्जित हो जावे। २०. प्रस्रवण – यदि आहार के समय मूत्र विसर्जन हो जावे। २१. अभोज्य गृह प्रवेश – यदि आहार के समय चांडालादि के घर में प्रवेश हो जावे। २२. पतन – आहार करते समय मूर्धा आदि गिर जाने पर। २३. उपवेशन – आहार करते समय बैठ जाने पर। २४. सर्दश – कुत्ते बिल्ली आदि के काट लेने पर। २५. भूमिस्पर्श – सिद्ध भक्ति के अनन्तर हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाने पर। २६. निष्ठीवन – आहार करते समय कफ, थूक आदि निकलने पर। २७. वस्तुग्रहण – आहार करते समय हाथ से कुछ वस्तु उठा लेने पर। २८. उदर कृमिनिर्गमन – आहार करते समय उदर से कृमि आदि निकलने पर। २९. अदत्तग्रहण – नहीं दी हुई किंचित् वस्तु ग्रहण कर लेने पर। ३०. प्रहार – अपने ऊपर या किसी के ऊपर शत्रु द्वारा शस्त्रादि का प्रहार होने पर। ३१. ग्रामदाह – ग्राम आदि में उसी समय आग लग जाने पर। ३२. पादेन किंचिद्ग्रहण – पाद से किंचित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर। इन उपर्युक्त कारणों से आहार छोड़ देने का नाम ही अन्तराय है। इसी प्रकार से इन बत्तीस के अतिरिक्त चांडालादि स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधर्मिक-संन्यासपतन, राज्य में किसी प्रधान का मरण आदि प्रसंगों से भी अन्तराय होता है। अन्तराय के अनन्तर साधु आहार छोड़कर मुख शुद्धि कर आ जाते हैं। मन में वे किंचित् भी खेद या विषाद को न करते हुए ‘‘लाभादलाभो वरं’’ लाभ की अपेक्षा अलाभ में अधिक कर्मनिर्जरा होती है, ऐसा चिंतन करते हुए, वैराग्य भावना को वृद्धिंगत करते रहते हैं।