कुंडलिया छंद
(१)
स्वामी रवीन्द्रकीर्ति का हो रहा मंगल गान।
जैन धर्म की बन गये, अजब निराली शान।।
अजब निराली शान, पताका सब दिशि छाई।
बड़े प्रेम से कहते तुमको, सब जन भाई।।
गणिनी ज्ञानमती माता ने दिया आशीष अनोखा।
जगह-जगह सम्मान हो रहा स्वामी रवीन्द्र कीर्ति का।।
(२)
बाल ब्रह्मचारी रहे, कर्मयोगी आप।
गणिनी ज्ञानमति मात के, पूरे कार्य कलाप।।
पूरे कार्य कलाप, जैसे थे बजरंगी।
राम संग थे वे, आप मात के संगी।।
गुरु भक्ति प्रेम आज्ञा, उसी में लीन रहे।
किया धर्म जय घोष, बाल ब्रह्मचारी रहे।।
(३)
जैसी आज्ञा मात की, करें तुरंत वो काज।
खुश रहता है आप से, अपना धर्म समाज।।
अपना धर्म समाज, विकास चहुँमुखी जो कीना।
तीर्थंकर की जन्मभूमियों का विकास कर दीना।।
ग्रंथ तीन सौ रचे मात ने, महिमा है ज्ञान की।
किये प्रकाशित आप, जैसी आज्ञा मात की।।
(४)
देश विदेश में कर रहे, जा कर धर्म प्रचार।
मांगीतुंगी क्षेत्र पर, आदि जिन साकार।।
आदि जिन साकार, एक सौ आठ फुट ऊँची।
मूर्ती बन रही विश्व में, सबसे ऊँची।।
तन मन धन से सभी जैन जन काम कर रहे।
स्वामी जी टी.वी. के माध्यम से प्रचार कर रहे।।