द्वारिका नगरी की रचना— इधर जमाई और भाई आदि के वध से जरासंध ने समस्त यादवों को नष्ट करने का मन में पक्का विचार कर लिया था तब उसने अपरिमित सेना को साथ लेकर यादवों की ओर प्रयाण कर दिया। उस समय गुप्तचरों द्वारा यादवों को इस बात का पता चल गया। राजा समुद्रविजय आदि आपस में विचार करने लगे— तीनों खण्डों में इस जरासंध की आज्ञा अन्य किसी के द्वारा खंडित नहीं हुई है। यह अत्यन्त उग्र है और इसका शासन भी उग्र है। यह चक्ररत्न का स्वामी है। प्रतिनारायण अर्धचक्री है। इसने हम लोगों का भी कभी अपकार नहीं किया है किन्तु अब जमाई कंस और भाई अपराजित आदि के वध से कुपित होकर चढ़ाई करके आ रहा है। यह इतना अहंकारी है कि हम लोगों के दैव और पुरुषार्थ संबंधी सामथ्र्य को देखते हुये भी नहीं देख रहा है। कृष्ण का पुण्य और बलराम का पौरुष बाल्यकाल से ही प्रकट दिख रहा है। इंद्रों के आसन को कंपित कर देने वाले नेमिनाथ तीर्थंकर यद्यपि इस समय बालक हैं फिर भी उनका प्रभुत्व तीनों जगत् में प्रकट हो रहा है। अहो ! सौधर्म इंद्र इनका किंकर है, समस्त लोकपाल इनकी रक्षा में व्यग्र हैं।
भला तीर्थंकर के कुल का कौन अपकार कर सकता है ? यह राजा जरासंध प्रतिनारायण है और इसके मारने वाले ये नौवें बलभद्र बलदेव तथा नौवें नारायण कृष्ण ही हैं। यह निश्चित है फिर भी अभी हम लोग कुछ दिन और शांति धारण करें, इस समय हम लोग पश्चिम दिशा का आश्रय लेकर चुपचाप बैठें क्योंकि ऐसा करने से कार्य की सिद्धि नि:सन्देह होगी। इस प्रकार परस्पर में मंत्रणा कर इन लोगों ने अपने कटक में यह सूचना कर दी। तभी मथुरा, शौर्यपुर, वीर्यपुर के राजा, प्रजा, सामंत आदि सभी एक साथ प्रस्थान करने चल पड़े। उस समय अपरिमित धन से युक्त अठारह करोड़ यादव शौर्यपुर से बाहर निकले थे। वे क्रम से विंध्याचल के समीप पहुँचे थे। ‘‘मार्ग में पीछे-पीछे जरासंध आ रहा है।’’ यह सुनकर अत्यधिक उत्साह से भरे हुए यादव युद्ध की इच्छा करते हुए उनकी प्रतीक्षा करने लगे। उन दोनों सेनाओं में थोड़ा ही अन्तर देखकर समय और भाग्य के नियोग से अर्धभरतक्षेत्र में निवास करने वाली देवियों ने अपने दिव्य सामथ्र्य से विक्रिया करके बहुत सी चितायें रच दीं और शत्रुओं को यह दिखा दिया कि यादव लोग अग्नि की ज्वाला में भस्म हो गये। इधर रोती हुई बुढ़िया से जरासंध ने पूछा, तब उसने यही समझाया कि जरासंध के प्रताप से व्याकुल होकर ये यादवगण अग्नि में भस्म हो चुके हैं। उन राजाओं की वंश परम्परा से चली आई मैं दासी हूँ। ऐसा देवियों ने मायाजाल रचकर जरासंध को युद्ध से पराङ्मुख कर दिया। इधर समुद्रविजय आदि दशों भाई, श्रीकृष्ण, तीर्थंकर नेमिकुमार आदि समुद्र के निकट पहुँचकर उसकी शोभा देखने लगे।
इसके बाद एक दिन स्थान प्राप्त करने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने बलदेव के साथ तीन उपवास ग्रहण कर डाभ की शय्या पर बैठकर मंत्र का ध्यान किया। तब सौधर्म इंद्र की आज्ञा से गौतम नामक शक्तिशाली देव ने आकर समुद्र को शीघ्र ही दूर हटा दिया। अनन्तर श्रीकृष्ण के पुण्य और श्री नेमिनाथ की सातिशय भक्ति से कुबेर ने वहाँ आकर शीघ्र ही ‘द्वारिका’ नाम की उत्तम पुरी की रचना कर दी। यह नगरी बारह योजन (९६ मील) लम्बी और नौ योजन (७२ मील) चौड़ी थी, यह वङ्कामय कोट तथा समुद्ररूपी परिखा से घिरी हुई थी। इस नगरी में ऊँचे-ऊँचे जिनमंदिर शोभायमान हो रहे थे। नगरी में यथायोग्य स्थान पर समुद्रविजय आदि के महल बने हुये थे। उन महलों के बीच में अठारह खंडों से युक्त श्रीकृष्ण का सर्वतोभद्र नाम का महल सुशोभित हो रहा था। वापिका तथा बगीचा आदि से विभूषित बलदेव के महल के आगे सभामंडप था जो कि इंद्र के सभाभवन के समान ही था। तभी कुबेर ने श्रीकृष्ण के लिये मुकुट, हार, कौस्तुभमणि, दो पीतवस्त्र, लोक में अत्यन्त दुर्लभ नक्षत्रमाला आदि आभूषण, कुमुद्वती नाम की गदा, शक्ति, नन्दक नाम का खड्ग, शाङ्र्ग नाम का धनुष, दो तरकश, वङ्कामय बाण, सब प्रकार के शस्त्रों से युक्त एवं गरुड़ की ध्वजा से सहित दिव्य रथ, चमर और श्वेत छत्र प्रदान किये।
साथ ही बलदेव के लिये दो नील वस्त्र, माला, मुकुट, गदा, हल, मूसल, धनुष बाणों से युक्त दो तरकश, दिव्य रथ और छत्र आदि दिये। समुद्रविजय आदि राजाओं का भी कुबेर ने वस्त्राभरण आदि देकर खूब सम्मान किया। श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की भी कुबेर ने उत्तमोत्तम वस्तुओं को भेंट कर पूजा की। उस समय शुभ मुहूर्त में ‘‘आप सब लोग इस नगरी में प्रवेश करें।’’ ऐसा कहकर और पूर्णभद्र नामक यक्ष को संदेश देकर कुबेर क्षण भर में अंर्तिहत हो गया। यादवों के समूह ने समुद्र के तट पर श्रीकृष्ण और बलदेव का अभिषेक कर र्हिषत हो उनकी जय-जयकार करके चतुरंग सेना के साथ उस द्वारिकापुरी में बड़े वैभव से प्रवेश किया। कुबेर की आज्ञा से यक्षों ने इस नगरी के समस्त भवनों में साढ़े तीन दिन तक अटूट धन-धान्यादि की वर्षा की थी। वहाँ पर द्वारिकानाथ श्रीकृष्ण का अनेक राजाओं की हजारों कन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। वहाँ प्रतिदिन समस्त यादव एवं बलभद्र और नारायण श्रीकृष्ण के आनन्द को बढ़ाते हुए नेमिकुमार तीर्थंकर बाल्यकाल को व्यतीत कर यौवन अवस्था में आ गये थे।
कुंडिनपुर के राजा भीष्म की पुत्री का नाम रुक्मिणी था और बड़े पुत्र का नाम रुक्मी था। एक बार नारद ऋषि वहाँ आये। अंत:पुर में पहुँचे तथा रुक्मिणी के द्वारा नमस्कार करने पर ‘‘द्वारिका के स्वामी तुम्हारे पति हों।’’ ऐसा आशीर्वाद दिया, उस समय कन्या के द्वारा पूछे जाने पर नारद ने द्वारिका के वैभव का वर्णन करके श्रीकृष्ण के रूप गुणों की खूब प्रशंसा की। पुन: आकाशमार्ग से द्वारिका आकर नारदजी ने श्रीकृष्ण को भी रुक्मिणी में अनुरक्त कर दिया। इधर रुक्मिणी की बुआ ने भी एक दिन रुक्मिणी को एकांत में ले जाकर कहा-हे बाले ! तू मेरे वचन सुन! किसी समय अवधिज्ञानी अतिमुक्तक मुनि ने यहाँ पर तुझे देखकर यह कहा था कि यह लक्ष्मी के समान कन्या रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पट्टरानी होगी। कृष्ण की सोलह हजार रानियों में यह प्रभुत्व को प्राप्त करेगी, परन्तु पुत्री ! चिंता का विषय यह है कि तेरा रुक्मी तुझे शिशुपाल राजकुमार को देने का निर्णय ले रहा है। उस समय रुक्मिणी की बुआ ने पुत्री के परामर्श से किसी विश्वासपात्र पुरुष के हाथ से एक पत्र श्रीकृष्ण के पास द्वारिकापुरी भेज दिया। उसमें स्पष्ट लिख दिया कि ‘‘हे माधव ! आप माघ शुक्ला अष्टमी के दिन आकर इसका हरण कर लें क्योंकि इसके पिता आदि बांधवगण इसे शिशुपाल राजकुमार को देना निश्चित कर चुके हैं और मुनि के वचनानुसार इस समय यह आपकी ही वल्लभा है, आपको न पाकर यह प्राण त्याग कर देगी………।’’ इधर कन्यादान की तैयारी में राजा भीष्म के कहे अनुसार शिशुपाल कुंडिनपुर आ चुका था। उधर श्रीकृष्ण भी बलदेव के साथ ही गुप्त रूप से वहाँ उद्यान में पहुँच गये। रुक्मिणी भी अपनी बुआ के साथ वहाँ उद्यान में नागदेव की पूजा के बहाने पहुँच गई थी।
वहाँ पर श्रीकृष्ण से यथायोग्य परिचय और वार्तालाप के अनंतर श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को अपने रथ पर बिठा लिया, पुन: श्रीकृष्ण ने भीष्म, रुक्मी और शिशुपाल को रुक्मिणी हरण का समाचार देकर अपना रथ आगे बढ़ाया और जोरों से पाञ्चजन्य शंख फूक दिया। समाचार पाते ही रुक्मी, शिशुपाल आदि युद्ध के लिये आ गये। तब रुक्मिणी के विशेष निवेदन से श्रीकृष्ण ने रुक्मी को नहीं मारना स्वीकार कर युद्ध शुरू कर दिया। उस युद्ध में श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का मस्तक अपने बाणों से अलग कर दिया। इसके विषय में ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि शिशुपाल के जन्मकाल से ही तीन नेत्र थे। एक निमित्तज्ञानी ने बताया था कि जिसके देखने पर इसका तीसरा नेत्र विलीन हो जाये उसी के द्वारा इसका मरण होगा तब इसकी माता यह निर्णय लेते हुए इसे जब श्रीकृष्ण के सामने लाई कि इसका तीसरा नेत्र विलीन हो गया था। माता के द्वारा अतीव अनुनय-विनय से पुत्र की भिक्षा की याचना करने पर श्रीकृष्ण ने कहा था-‘‘मात: ! मैं इसके सौ अपराध तक क्षमा कर दूँगा।’’ अब इसके सौ अपराध पूर्ण हो चुके थे अत: श्रीकृष्ण ने उसे मार डाला था।