मगध देश में राजगृह नगर के पास विपुलाचल पर्वत पर श्री महावीर स्वामी का समवसरण आने का समाचार महाराज श्रेणिक ने वनपाल के मुख से सुना और हर्षित होकर महारानी चेलना के साथ सपरिवार वहाँ पहुँचे। बड़ी भक्ति-भाव से जयजयकार करके तीन प्रदक्षिणाएँ देकर श्री वीर प्रभु को त्रिबार नमोऽस्तु किया। बाद में बारह सभा में मनुष्यों के कोठे में बैठ गये। भगवान की दिव्य-ध्वनि श्री गौतम गणधर की वाणी द्वारा सुनकर राजा-रानी ने भक्तिभाव से आनन्दित होकर विनती की कि हे भगवन्! संसार में दम्पत्ति को अखण्ड सौभाग्य प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए? इस विषय में कोई एक कथा हमको सुनाइये। तब संघ के भट्टारक श्री विजयाभिनन्दन जी के मुख से वाणी निकली, वह कथा इस प्रकार है-प्राचीन काल में सौराष्ट्र देश में पारिभद्रपुरी नाम का एक नगर था। वहाँ का विकारमाप्ता नाम का तेजस्वी, महापराक्रमी, न्यायी और धर्म व प्रजावत्सल राजा था। उसके बहुत रानियाँ थीं। उनमें भूमि पूजा देवी पट्टरानी पतिव्रता, चतुर व कार्यकुशल थी और वह राजा को मंत्री की तरह सहायता देती थी। दोनों ने अपने राज्य में महती धर्म प्रभावना की। उनकी नगरी में श्रुणुयात नाम का एक दरिद्र व्यापारी था। उसकी पत्नी का नाम रुक्मावती था। उसकी जैनधर्म पर बहुत श्रद्धा भक्ति थी। पाप के डर से उससे कोई बुरे कार्य नहीं होते थे। घर में दरिद्रता के कारण वह दु:खी थी, इसलिए उसे किसी के पास जाकर बैठना बुरा लगता था और अपने घर में जो था उसी में संतुष्ट थी। अपनी बुरी स्थिति के कारण वह किसी से नहीं बोलती थी। अधिक संतान होने के कारण उनकी देख-भाल में उसका सारा दिन बीत जाता था। उनकी इच्छा पूर्ति व पालन-पोषण में असमर्थ थी। इस दु:ख से छुटकारा पाने की रात दिन उसे चिन्ता रहती थी। इससे उसका शरीर दुर्बल हो गया था। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ उसे कुछ समझ में नहीं आता था। एक दिन पड़ोसी स्त्री ने उसे आकर समझाया-देखो! आज भाग्य का दिन निकला है। गाँव के बाहर बगीचे में भट्टारक श्री विजयाभिनन्दन महाराज पधारे हैं, उनके दर्शनों के लिए गाँव के स्त्री व पुरुषों की भीड़ लग रही है। वे बहुत ज्ञानी हैं तथा भक्तों को हित का उपदेश देते हैं। सो अपन भी उनके दर्शनों का लाभ लेवें और इहलोक-परलोक के हित को साधकर सद्गfित प्राप्त कर लें। इसलिए मैं तुझे बुलाने आई हूँ। तेरी इच्छा हो तो मेरे साथ चल। यह सुनकर रुक्मावती को अत्यन्त हर्ष हुआ। चिन्तित मन में शांति हुई। घरेलू दु:खों से छूटने का मार्ग मिले और शांति-सुख की प्राप्ति हो, इस भावना से वह उस स्त्री के साथ जाने को निकली। वहाँ पहुँच कर देखा कि क्या चमत्कार है! दर्शनों की प्रतीक्षा में अपार जनसमुदाय श्री विजयाभिनन्दन महाराज के सामने जयजयकार कर रहा है। विमान से पुष्प वृष्टि हो रही है। यह दृश्य देखकर रुक्मावती का मन प्रफुल्लित हो गया। उसने भट्टारक जी को विनयपूर्वक सादर नमस्कार किया और श्राविकाओं की सभा में जाकर बैठी। भट्टारक जी ने उपदेश प्रारंभ किया। उसे सुनकर वह इतनी गद्गद व प्रसन्न हुई कि अपने बाल बच्चों, घरबार व संसार को भूल गई। भट्टारक जी ने अपनी अमृतवाणी से सात तत्त्वों का निरूपण किया। जीव तत्त्व का महत्त्व समझाया, अनादि संसार के सुख दु:ख का वर्णन किया और जीवों के हित का मार्ग बतलाया। उन्होंने अखण्ड सौभाग्य बढ़ाने वाली व अत्यन्त सुख देने वाली संपत् शुक्रवार व्रत की क्रिया बतलाई। वह क्रिया रुक्मावती ने ध्यानपूर्वक सुनी। वह क्रिया इस प्रकार है-
संपत् शुक्रवार व्रत विधि-श्रावण महीने में प्रत्येक शुक्रवार को उपवास अथवा एकासना करें, शक्ति अनुसार पूजा सामग्री साथ लेकर श्री जिनमंदिर में जाकर दर्शन स्तुति, स्तोत्रादि द्वारा भगवान की पूजा भक्ति करें और धरणेन्द्र- पद्मावती सहित श्री १००८ पार्श्वनाथ भगवान का पंचामृत अभिषेक पूजा करके श्री पद्मावती देवी की मूर्ति को दूसरे एक ऊँचे आसन पर विराजमान करें। नाना प्रकार के वस्त्रालंकारों से उनका शृँगार करें। दीप, धूप, फूलों के हार, केला के खम्भ इत्यादि साधनों से मंडप सजावे। हल्दी, कुमकुम, भीगे हुए चने आदि लेकर पंचोपचार पूजा करें। बाद में श्री पद्मावती महादेवी को मणिमंगल सूत्र आदि आभूषण पहनावे। बाद में आटे के दो दीपक सहित जयमाला बोलकर तीन प्रदक्षिणाएं देकर पूर्णार्घ्य चढ़ावें। फिर महादेवी की मंगल आरती करके शांति भक्तिपूर्वक विसर्जन करें। बाद में ध्यानपूर्वक शुक्रवार की व्रत कथा सुनें। श्री पद्मावती देवी के सहस्रनाम के प्रत्येक बीजाक्षर मंत्रों को बोलते हुए एक-एक चुटकी कुमकुम या लवंग पुष्प चढ़ावें, प्रत्येक शतक में अर्घ्य चढ़ावें, गंधोदक सिंचन करें और ‘‘ॐ आं क्रों ह्रीं ऐं क्लीं ह्र सौं श्री पद्मावतीदेव्यै नम: मम सर्व-विघ्नोपशांतिं कुरु-कुरु स्वाहा:’’ अथवा-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं श्री पद्मावतीदेव्यै नम: मम ईप्सितं कुरु कुरु स्वाहा। इस मंत्र का लाल कनेर के फूलों से जाप्य करें। यदि कनेर के फूल उपलब्ध न हों तो गुलाब आदि के पुष्पों से जाप करें। आखिरी शुक्रवार को ऊपर कही हुई सारी क्रिया परिपूर्ण करके श्री पद्मावती माता को साड़ी पहनावें, षोडशालंकार से शृँगार करावें और नीचे लिखी सामग्री लेकर गोद भरें-पाँच हरी चूड़ियाँ, पाँच हल्दी की गाँठ, पाँच खोपरा, पाँच चोपड़े, पाँच नींबू, पाँच केले, पाँच छुहारे, पाँच मखाना, पताशा आदि इस प्रमाण लेकर उत्तम नारियल तथा चोली का वस्त्र लेकर गहूँ या चावल से पाँच सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा गोद भरावें। गोद भरते समय अग्रिम श्लोक पढ़ें-
जय स्फटिक रूपद भामिनी, श्री पद्मावती अघहारिणी।
धरणेन्द्रराज कुलयक्षिणी, दीर्घ आयुरारोग्य रक्षिणी।।
उसके बाद अपने कुटुम्बीजनों को भीगे चने, हल्दी, कुमकुम, मखाना, पताशा, गुड़, खोपरा, पान, सुपारी इत्यादि गोद का प्रसाद बोलकर बांटे। एकत्रित सौभाग्यवती स्त्रियों को हल्दी कुमकुम लगावें। बाद में जयजयकार करके मंगल गीत गाजे-बाजे के साथ घर वापस आवें। इस प्रकार पाँच वर्ष पर्यन्त यह व्रत विधिपूर्ण होने पर बाद में उद्यापन करें।
उद्यापन विधि इस प्रकार है-पाँच कोणों पर कुम्भों की स्थापना करें, पाँच कलश स्थापित करें, पंचवर्णी रेशमी सूत बांधकर पाँचों कोणे तैयार करें। चारों दिशाओं में केले के खम्भ खड़े करें। खम्भों के पास दीपकों की रोशनी तथा हांडी, गोला, झाड़ आदि से सजावट करें, आटे के दीपक से आरती करें, चंवर ढुरावें, कुमकुम मिश्रित अक्षत एवं फूलों की वृष्टि करें। श्री पद्मावती देवी का विधान करें। पाँच पकवान के पाँच नैवेद्य अर्पण करें। पद्मावती देवी के समक्ष फूल और फूलों पर कुमकुम रख कर और मोती रखकर चढ़ावें और सौभाग्यवती स्त्रियों को देवें। पाँच-पाँच मंगल वस्तुएं श्री जिनमंदिर में चढ़ावें। आर्यिका को आहारदान तथा वस्त्रदान देवें। पाँच दम्पत्ति को इच्छित भोजन करावें। यदि इस प्रकार से उद्यापन करने की शक्ति न हो तो दुगुणा व्रत करें। इस व्रत का फल कहते हैं-
माँ, बाप, बहिन, भाई, ननद, देवर, जेठानी, सास, ससुर सबके आशीर्वाद से जीकर पति परमेश्वर का आखिर तक अच्छा सहवास मिले। सुसंतान सहित सुखी संसार बने, आनन्द से समय बीते, धन संतान की वृद्धि, लक्ष्मी की प्राप्ति, आरोग्यता, दीर्घायु एवं भूतपिशाचादि का नाश इत्यादि सुखों की प्राप्ति होकर चारों तरफ कीर्ति पैâलती है। इस व्रत की महिमा अपरम्पार है। श्री जिनधर्म पर श्रद्धा भक्ति रखें। जीवन पर्यन्त श्री पद्मावती माता की यथायोग्य सेवा नियमित रूप से करते रहने से अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
स्त्रियों के लिए कुमारी अवस्था में आत्म कुमकुम (हल्दी) और यौवनावस्था में संपत् कुमकुम (कुमकुम) निश्चय से दुर्गति निवारक हैंं। परन्तु इस जन्म में भी-
‘‘कज्जलं कुमकुमं काचं कबरी कर्णशेखरम्।
एवं पंच प्रकीर्त्यानि ककाराणि पुरन्घ्रीणाम्।।’’
अर्थात् काजल, कुमकुम, काँच, केश व कर्णफूल ये पति-पुत्रवती (सौभाग्यवती) स्त्री के पाँच ककार कहे गये हैं। सौभाग्यवती कहलाने वाली महाभाग्यवती को ऊपर कहे पाँच ककारों को जीवन के आखिर तक प्राप्ति होकर अखण्ड सौभाग्यवती कहलाकर बड़े गौरव से उसका आयुपर्यन्त यश पैâलता है। आत्म कुमकुम और संपत् कुमकुम इन व्रतों के महत्व का वर्णन श्री धरणेन्द्र देवराज की चंचल जिव्हा द्वारा भी किया जाना अति कठिन है, यह महाकल्याणकारी है। बरसाती तुच्छ नदी प्रवाह के समान क्षणभंगुर जीवन को निस्सार समझकर संसार बढ़ाना मूर्खपने है। इस भवसागर से पार होने के लिए विचारशील को यह व्रत करणीयभूत है इसलिए महिलागण इस व्रत को पालन करने में दृढ़ बनें, अबला की तरह अति कोमल न होवें। स्त्री जन्म को इसी भव में सार्थक कर लेवें, क्योंकि अगला जन्म उच्च कुल में ही होगा, ऐसा निश्चित नहीं कहा जा सकता। इसीलिए नर से नारायण बनने का यही उत्तम साधन है इसलिए जागरूक होकर उत्साह व प्रसन्नता से व्रत धारण करें, उससे दु:ख में सुख की प्राप्ति होगी। इस प्रकार रुक्मावती ने उन भट्टारक जी के मुख से व्रत का माहात्म्य, विधि और फल सुनकर अपनी दरिद्रता की बिना परवाह किये महाराज के पास व्रत लेने का मन में निश्चय किया। उसने भट्टारक जी को नमोऽस्तु करके अपने भाव व्यक्त किये। उन्होंने पंचपरमेष्ठी की साक्षी से उसको व्रत दिया। रुक्मावती महाराज से व्रत लेकर घर गई और शक्य सामग्री से व्रत शुरू किया।
उसी गाँव में रुक्मावती का गुरुदेव नाम का भाई रहता था। वह बड़ा धनाढ्य था। उसने अपने पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के निमित्त गाँव के सारे नागरिकों को एक सप्ताह पर्यन्त इच्छित भोजन कराकर संतुष्ट करने के भाव से घर-घर निमंत्रण दिया। मगर अपनी बहिन को निमंत्रण मात्र भी नहीं भेजा, क्योंकि वह दरिद्रा थी, अगर वह आयेगी तो देखकर लोक में निंदा होगी, यह सोचकर उसे याद तक नहीं किया। गाँव के छोटे-बड़े सब लोग खा-पीकर ताव देकर डकार लेते हुए उसी के दरवाजे के सामने से जाने लगे तब उसको एक प्रकार का आश्चर्य हुआ और सोचने लगी कि मैं और मेरा भाई एक ही हाड़, माँस, रक्त, िंपड के होते हुए देखो उसने सब लोगों को संतुष्ट किया है, मैंने उसका ऐसा क्या बिगाड़ किया है? फिर सोचा शायद कामकाज की धांधली में भूल हो गई होगी। इसलिए बेकार उस पर रोष करके मुझे मेरे सोने जैसे भाई को दोष देना ठीक नहीं। निमंत्रण नहीं भेजा तो क्या हुआ? भाई ही का तो घर है, जाने में क्या हरज है। ऐसा विचार करके वह बाल-बच्चों सहित जीमने गई। बच्चों को सामने लेकर स्त्रियों की पंगत में बैठ गई। थोड़ी देर बाद उसवâा भाई कौन आया, कौन रहा, यह जानने के लिए वहाँ घूम रहा था, उसका ध्यान अपनी बहिन की तरफ गया तो पास आया और गुस्से से बोला, ‘‘बहिन तू आज यहाँ वैâसे आई? तेरी गरीबी के कारण ही तो मैंने तुझे जानबूझकर नहीं बुलाया, तेरे पास न अच्छे कपड़े हैं न गहने। तुझे ऐसी दरिद्र देखकर लोग मुझ पर हसेंगे। इसलिए आज तो आई सो आई मगर कल मत आना, समझी! बहिन बेचारी लज्जित होकर नीची गर्दन कर खा-पीकर बच्चों को लेकर घर गई। दूसरे दिन भी बच्चे कहने लगे-माँ! अपन आज भी मामा के यहाँ खाने को जायेंगे, यह सुनकर माँ के पेट में खलबची मची। उसने बच्चों को बहुत डांटा मगर वे माने नहीं, उनके हठ के कारण फिर मन में विचार किया कि वैâसा भी हो अपना भाई ही तो है, बोला तो क्या हुआ, अपनी गरीबी है तो सुनना ही पड़ेगा, मगर आज का निर्वाह तो होगा। ऐसा सोचकर दूसरे दिन भी बच्चों को लेकर भाई के घर गई और खाने को बैठी। कल की तरह आज भी भाई की सवारी पंगत में आने पर उसने उसे देखा और बोला-‘‘बहिन तू वैâसी भिखारिन है? कल तुझे मना किया था तो भी आज फिर सुअरी जैसी बच्चों को लेकर आ गई? तुझे शर्म वैâसे नहीं आई? आज आई तो आई अगर कल फिर आई तो हाथ पकड़कर निकाल दूँगा।’’ उस बेचारी ने चुपचाप यह सुन लिया और खाने के बाद उठकर अपने घर चली गई। तीसरे दिन भी इसी प्रकार हुआ तब भाई को खूब गुस्सा आया और उसने उसको धक्का देकर बाहर निकाल दिया। तब उसे बहुत दु:ख हुआ, घर जाकर बहुत फूट-फूटकर रोई। उसके मन में विचार आया कि कौन जन्म में कौन-सा घोर पाप किया जिससे इस जन्म में मुझे घोर दरिद्रता की मार पड़ रही है। सच है अनन्त जन्मों के पाप की राशि इस दरिद्रता का मुख्य कारण है। इसकी अपेक्षा तो मुझे नरक के दु:खों से भुन जाना ही अच्छा होता, अब यह यम-यातना सही नहीं जाती, इससे तो मरण अच्छा। क्योंकि वह तो एक बार ही भुगतना पड़ता है परन्तु दरिद्रता का दु:ख जीवन पर्यन्त भोगना पड़ेगा। धिक्कार है मेरे इस जीने को! हे देवी पद्मावती! हे अम्बिका माता! तू ही मेरी सहायता कर माँ! मुझे जगत में किसी का आधार नहीं, तू तो आसरा दे माता! इस प्रकार करुण क्रन्दन करके वह खूब रोई, रोते-रोते उसे नींद आ गई। नींद में उसे स्वप्न आया। उसके रोने की ध्वनि पद्मावती देवी के कानों पर जा टकराई, महादेवी तत्काल मुकुट, कुण्डल, हार जवाहरात आदि पहनकर एक हाथ में धर्मचक्र लिए जगमगाती पोशाक पहने उसके पास आकर खड़ी हो गई और कहने लगी कि ‘‘हे महाभागे! तू दु:खी होना नहीं, बिल्कुल घबराना नहीं, तू जो आचरण कर रही है उस संपत् शुक्रवार व्रत को मैं अच्छी तरह जानती हूँ। आज तुझे दरिद्रता संबंधी महान दु:ख हुआ है तथापि तेरे कष्ट अत्यन्त तेज से युक्त हैं, कारण-
कष्टाधीन ही दैवचि, देवाधीन सुकृतफल तदाधीव।
सुज्ञावाक्याचरिता भुक्ति मुक्ति मिले तदाधीन।।
कष्टाधीन दैवयोग है। दैवाधीन ही पुण्य का फल है। इसलिए महान पुरुषों के द्वारा कथित मार्ग पर चलना चाहिए उसके आधीन संसार के भोग व मुक्ति है।
‘‘तू ध्यान दे और एक निष्ठापन से श्री जिन परमात्मा का चिन्तन कर उससे तेरा कल्याण होगा।’’ ऐसा कहकर वह देवी अदृश्य हो गई। रुक्मावती ने नींद से जागकर देखा तो वहाँ कोई नहीं दिखा। यह क्या चमत्कार है? कह कर वह उठ बैठी, मगर उसका मस्तक शून्य हो गया, उसे कुछ भी नहीं सूझा तो फिर वह श्री जिनमंदिर में जाकर शान्त चित्त से श्री पद्मावती महादेवी का मुख कमल देखने लगी। तब उसे वह मूर्ति हँसती हुई दिखाई दी। उस वक्त रुक्मावती दोनों हाथ जोड़कर विनती करने लगी कि ‘‘हे देवी! महामाते! अम्बिका! पद्मावती माता! मैं अनाथ हूँ, मैंने तुम्हारी शरण को पाया है, मुझ गरीब की रक्षा करो, मुझे सन्मार्ग पर लगावो। तुम्हारी लड़की घोर संकट में है। इस जगत में मेरा कोई रक्षक नहीं रहा। भाई-भाई कहती हुई अब कहाँ जाउँâ, मैंने तुम्हें ही अपने मन में धारण किया है।’’
इस प्रकार कहते-कहते आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली और बहुत देर तक प्रार्थना व भक्ति करने के बाद उसे भान हुआ कि घर में बच्चे भूख से व्याकुल होंगे, सोचकर ध्यान से उठी और घर को चली। घर आकर क्या देखती है कि उसे अपने बच्चे कामदेव के अवतार के समान दिख रहे हैं। घर में धन-धान्य की भरमार होने लग गई है। हर काम में यशवृद्धि हो रही है। जगह-जगह वैभव पैâलता जा रहा है और सामने नवीन हवेली बनकर तैयार है। घर में लक्ष्मी की बाढ़ सी आई हुई है कि शायद श्रावण मास में बहने वाली नदी का प्रवाह भी उससे कम ही होगा। यहाँ-तहाँ आनन्द ही आनन्द है। सच देखा जाये तो जहाँ उसे दो वक्त खाने की भी मारामार थी वहाँ अब नये-नये पकवान की थालियाँ भरी दिखने लगी हैं। अनेक प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्त हैं। सब तरह से घर भरपूर है, उसकी कीर्ति दूर-दूर तक पैâल गई है। यह कीर्ति सुनकर उसका भाई गुरुदेव आश्चर्य चकित हो गया। अपनी बहिन का आदर सत्कार करना चाहिए ऐसा विचार कर वह स्वयं अपनी बहिन के घर आया और बहन से बोला-‘‘बड़ी बहन! तुम कल मेरे घर खाने को आना। ना नहीं करना, तुम आओगी तब ही मैं खाना खाऊँगा, नहीं तो मैं भी खाना खाऊँगा नहीं, समझीं।’’ बहिन ने सोचा, चलो अपना भाई बड़े सम्मान्ा से बुलाता है, अब हम श्रीमंत हुए तो एक साथ गर्व नहीं करना चाहिए। इसका इस समय अपमान करना ठीक नहीं। सिर्फ इसको अपने किए हुए का पश्चाताप होवे और सन्मार्ग प्रवर्तक होकर अहंकार छोड़े, ऐसा विचार कर वह अच्छे-अच्छे गहने तथा बढ़िया ओढ़नी पहन उत्तम शृँगार करके सम्मान से भाई के घर गई। भाई बड़ी आस्था से राह देख रहा था, उसके आने के साथ उसे पाँव धोने को गर्म जल दिया, पाँव पोंछने को रुमाल दिया। थाली परोसने पर दोनों बहन-भाई बड़े प्रेम से पास-पास खाने को बैठे। बैठे हुए पाटे पर उसने बदन पर से ओढ़नी उतारकर रख दी, भाई ने समझा गर्मी लगती होगी बाद में उसने शरीर पर से गहने निकालकर रखे, भाई ने सोचा अपनी कोमल बहिन को बोझा लगता होगा सो खाना खाने के वक्त तक के लिए निकाला है। परन्तु उसकी बहिन ने पहला चावल का ग्रास उठाया और ओढ़नी पर रखा। जलेबी उठाई और मोती के कंगन पर रखी। पूरण पोली उठाई और हार पर रखी, भाजी उठाई और कंठी पर रखी। लाडू उठाया और भुजबंध पर रखा। यह देखकर भाई ने पूछा-बड़ी बहन! तुम यह क्या कर रही हो? तो बहिन ने शान्त मुद्रा से कहा मैं जो करती हूँ वह ठीक है, जिनको तुमने खाने को बुलाया है उनको मैं खाना दे रही हूँ। उसकी कुछ समझ में नहीं आया, फिर उसने विनती की कि बहिन अब तो तुम खाना खावो। तब बहिन ने कहा कि हे भाई साहब! आज खाना मेरा नहीं है, इस लक्ष्मी बहन का है। मेरा खाना मैं पहले ही खा चुकी हूँ। ऐसा सुनते ही भाई के मन में पश्चाताप हुआ। उसने बहन के पाँव पकड़े और बीती हुई गलती की क्षमा मांगी। बहिन भी उस समय बहुत दु:खी हुई और दोनों आपस में गले मिले और बाद में दोनों आनंद से खाने को बैठे, मन में जो शल्य था उसे निकाल दिया। जिनकी कृपा के प्रसाद से अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई उन पद्मावती माताजी की दोनों कुल के छोटे बड़े सभी कुटुम्बीजन सेवा करने लगे और अपनी अगणित सम्पत्ति का उपयोग अनेक व्रत उद्यापन, चतुर्विध संघ को दान, जिनमंदिर जीर्णोद्धार, जिनवाणी प्रचार, सिद्धक्षेत्र यात्रा आदि धर्म कार्यों में करने लगे। सहस्रनाम मंत्र का क्रम से कुमकुम अर्चन करने लगे। इन सब परिणामों को देखकर वहाँ के राजा ने भी भक्ति में दृढ़ होकर जिनधर्म की खूब ठाठबाट से प्रभावना की। बाद में थोड़े ही समय में सर्व कुटुम्बीजनों ने राजा सहित जिन दीक्षा धारण कर घोर तप किया और वे चतुर्गति का नाशकर अन्त में मोक्ष गये।