बाह्य और अभ्यंतर निमित्तों से आत्मा को प्राप्त करके अपने उपादान के बल से ही मेरी आत्मा शुद्ध होवे।
वर्तमान में मोक्षमार्ग की चर्चा के संदर्भ में यह ‘निमित्त’ भी कुछ लोगों के लिए विवाद का विषय बन गया है। वास्तव में निमित्त, हेतु, साधन और कारण ये पर्यायवाची ही हैं।
सर्वप्रथम सम्यक्त्व के उद्देश्यों का स्पष्टीकरण करके यद्यपि निमित्त पर अच्छी तरह से प्रकाश डाला गया है फिर भी यहाँ पर सामान्यतया मोक्ष के लिए या अन्य किसी भी प्रसंग के लिए निमित्त जो कार्य करता है उस पर प्रकाश डाला जा रहा है।
यह नियम है कि प्रत्येक कार्य बाह्य और अन्तः दोनों पहलुओं की अपेक्षाएँ रखता है और जब बाह्य निमित्त की प्रमुखता होती है, तब उसी से कार्य हुआ कहा जाता है। यहाँ भी वही अभिप्राय समझ लेना चाहिए कि निमित्त मिलने पर कार्य हो, न भी हो, परन्तु कार्य की सिद्धि बिना निमित्त के नहीं होती।
सहकारी कारण को निमित्त कहते हैं। अन्तर्ज्ञान कारण को उपादान कहते हैं अथवा जो स्वयं कार्यरूप परिणत हो जाए, उसे उपादान कहते हैं। जैसे- सम्यकत्व की उत्पत्ति में बाह्य कारण जिनबिम्बदर्शन हुआ और अन्तर्यामी कारण दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम हुआ एवं सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र ये आत्मा के गुण हैं अत: आत्मा सम्यकत्वरूप से परिणत हुआ है। यहाँ पर आत्मा उपादान है तथा बाह्य और अभ्यंतर दोनों निमित्त कारण हैं।
परन्तु कहीं-कहीं पर अन्तरात्मा हेतु को ही ‘उपादान’ नाम दे देते हैं, जैसे- पुरुषार्थ को निमित्त कारण दैव को उपादान समझ लेना आवश्यक है।
प्रत्येक कार्य बाह्य और आंतरिक प्रोफाइल से ही होते हैं, वे उभय के बिना नहीं।
श्री सामन्तीभद्र स्वामी ने कहा है-
बाह्येतरोपधिसमाग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगत: स्वभाव:१।।
हे प्रभु ! घट आदि कार्य में यह जो बाह्य और आभ्यन्तर अनुकूल की होती है, वह आपके मत में जीवदि द्रव्यगत स्वभाव ही होती है।
शुभ-अशुभ कर्म अथवा बाह्य और आभ्यंतर दोनों कारणों से उत्पन्न होने वाला कार्य ही वह लिंग-ज्ञानपक है, ऐसी यह भवितव्यता-होनहार किसी भी तरह की टाली नहीं जा सकती है।
बाह्य एवं अन्तर्राष्ट्रीय कारण अथवा निमित्त-उपादान कारण से ही समस्त कार्य की सिद्धि होती है।
प्रथम सम्यकत्व की उत्पत्ति के लिए जो कारण कहे गए हैं वे बाह्य कारण हैं। यद्यपि निसर्गज सम्यकत्व में बाह्य गुरु के उपदेश रूपी उद्देश्य की अपेक्षा नहीं है। फिर भी ‘जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शन’ ये दो कारण माने हुए हैं। वीरसेन स्वामी ने तो कहा था, ‘इन दो कारणों के बिना असंभव है’ तथा क्षायिक सम्यक्त्व के लिए केवली या श्रुतकेवली का पादमूल आवश्यक है, उसके बिना सात प्रकृतियों का क्षय असंभव है।
जिन कारणों के होने पर कार्य हो या न भी हो, तथा जिन कारणों के बिना कार्य न हो वे समर्थ कारण माने जाते हैं।
जैसे-सम्यक्त्व के होने पर तीर्थंकर प्रकृति का बंधन न भी हो, लेकिन सम्यकत्व के बिना तीर्थंकर प्रकृति का बंधन असंभव ही है।
सम्यक्त्व में ही तीर्थंकर प्रकृति बंधती है
”सम्मदेव तित्थबन्धो आहारदुगं पमादरहिदेसु३।।’ ‘
असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण अर्थात् आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक सम्यग्दृष्टि के ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग का बंध अप्रमत्तसंयत (सातवें) गुणस्थान से लेकर आठ के छठे भाग तक ही होता है। तथा-
”पढ्मुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि।”
तिथ्येर बन्धपरंभया णरा केवलिदुगंते४।।ज़्।।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व में अथवा शेष के तीनों (द्वितीयोपशम, क्षयोपशम और क्षायिक) सम्यक्त्व में, असंयत से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक (आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक) मनुष्य ही केवली या श्रुतकेवली के निकट में तीर्थंकर प्रकृति के बंध का आरंभ करते हैं।
यद्यपि यह केवली-श्रुत्केवली का चरण सन्निध्य बाह्य निमित्त कारण है, फिर भी इसके बिना किसी भी मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं किया जा सकता है।
सोलहकारण भावनाएं तीर्थंकर प्रकृतिबंध में कारण हैं
”दर्शनविशुद्धता आदि सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म को बंधते हैं।”१ धवलकार ने तो एक-एक भावना में अन्य-अन्य भावनाओं को गर्भित करके एक-एक भावना के द्वारा भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध माना है अर्थात् जब एक-दो आदि व्यक्तियों की भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बंध माना जाता है, तब यह उचित है कि उस भावना में शेष भावनाएं अंतगर्भित होती हैं२।”
द्रव्यवेद मोक्ष में निमित्त है भववेद नहीं
ऐसे ही यदि कोई द्रव्य से पुरुषवेदी है और भाव से वह पुरुष स्त्रीवेदी या नपुंसक वेदी है तो वह संकटश्रेणी पर आरोहण करके कर्मों का विनाशकारी मोक्ष प्राप्त कर सकता है। लेकिन जो स्त्री द्रव्य से स्त्रीवेदी है तथा भाव से पुरुषवेदी है, वह भावों से पंचम गुणस्थान के ऊपर न चढ़ती है, क्योंकि उस भव में मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है। यहाँ पर बाह्य निमित्त इतना बलवान देखा जाता है जो कि अन्तः भाववेदों की महत्ता नहीं रखता।
शास्त्र भी शुद्धस्वरूप के लिए निमित्त हैं
श्री वसुनन्दि आचार्य मूलाचार की टीका में कहते हैं-
सर्वप्रथम उचित कार्य करने को आवश्यक कहा गया है। ये ही निश्चित क्रियाएँ हैं ये ही सर्व कर्मों के निर्मूलन करने में समर्थ नियम हैं।
समता, स्वाद, वंदना आदि छह आवश्यक क्रियाएँ हैं। आगे इन आवश्यक मूर्तियों में वंदना आवश्यक में कृतिकर्म के लक्षण करते हुए कहा जाता है-
”कृत्यते छिद्यते अष्टविधं कर्म येनाक्षरकदम्बकेन परिणामेन क्रियाया वा तत्कृतिकर्म पापविनाशनोपाय:३।।”
जब अक्षर समूह से, फलस्वरूप या क्रिया से आठ प्रकार के कर्मों को काटा जाता है, तो वह कृतिकर्म छेदा जाता है।
यहाँ पर स्तुति आदि के अक्षरसमूह से भी कर्मों का छेदन होना माना गया है।
अरहंत भगवान कर्मक्षय में निमित्त हैं
इसी प्रकार श्रीकुन्दकुन्ददेव भी कहते हैं-
चौसट्ठिचमरसहियो चौतीसाहि ऐसेहिं संजुत्तो।
अनबरबहुसत्तहियो कम्मक्ख्यकारणमित्तोऽऽऽऽ।।२९।।
जिन पर चौंसठ चंवर धुराये जा रहे हैं, जो चौंतीस अतिशयों से संयुक्त हैं, जो अनवरत बहुत से पाप का हित करते हैं ऐसे वे अर्हंत भगवान कर्मक्षय के कारण में निमित्त हैं।
श्री गौतम स्वामी के द्वारा बनाई गई चैत्य भक्ति और श्री कुंदकुंददेव रचित दश भक्तियों में ऐसे अनेक उदाहरण दिखते हैं।
श्री कुंदकुंददेव ने नियमसार में सम्यक्त्व के लिए बाह्य निमित्त व अन्तर्ज्ञान निमित्त को तो कहा ही है किन्तु अंत में उन्होंने ग्रन्थ के निर्माण में भी हेतुक व्यक्ति किया है-
‘णियभावनानिमित्तं माए कदं णियमसारणामसुदं।
णच्चा जिन्नोवदेसं पुव्वावरदोसनिममुक्कं।।१८७।।
मैंने पूर्वापर दोष रहित, जिनोपदेश का परिज्ञान कर निज भावना में निमित्त कारणभूत इस नियमसार नामक शास्त्र को बनाया है।
संसारस्थितिछेद के कारण
समयसार के आश्रव अधिकार में आचार्य श्री जयसेन ने ‘उक्तं च’ नामक प्रसंग के अनुसार संसार स्थिति को छेदने के कारण बताये हैं-
”द्वादशांग का ज्ञान, उसकी तीव्र भक्ति, अनिवृत्ति परिणाम और केवलीसमुदघात ये चार संसार स्थितियों का घात करने वाले होते हैं।”
पुन: टीकाकार ने ‘द्वादशांगवगम’ से द्रव्यश्रुत और भवश्रुत ज्ञान ‘तत्त्विव्र भक्ति’ से ‘भक्ति: पुन: सम्यक्तत्वं भन्यते’ ऐसा व्यवहार और निश्चित सम्यक्तत्व एवं ‘अनिवृत्तिपरिणाम’ से एकाग्र परिणतिरूप चरित्र लिया है। उसमें समस्त चरित्रान्तरं वीतराग चरित्रं जातं ऐसा व्यवहारिक और वास्तविक रूप से उभय चरित्र को लिया जाता है। यथा-सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि भेदाभेदरत्नत्रय-रूपेण संसारविचित्तिकरणानि भवन्ति। केषां ? छद्मस्थानमिति। ये भेद-अभेद रत्नत्रय संसार का घात करने वाले हैं। किनके ? छद्मस्थजनों के। और केवली समुद्घात केवली भगवान के संसार का घात करने वाला है१।”
अर्थात् रत्नत्रय तो छद्मस्थों के संसार स्थिति का घात करते हैं और केवली समुद्घात केवली भगवान के अघाति कर्मों की स्थिति का घात करता है।
तीर्थंकर का विहार प्राणियों के सुख में निमित्त है
तित्तयरस्स विहारो लोआसुहो नेव तत्त्व पुण्णफलो।
वयणं च दानपूजारंभयरं तं ण लेवेइ।।प्रशंसक।।
तीर्थंकरों का विहार संसार के लिए सुखकर है परन्तु उससे तीर्थंकरों को पुण्यरूप फल प्राप्त होता है ऐसा नहीं होता तथा दान और पूजा आदि आरंभ करने वाले वचनों को कर्मबंध से लिप्त नहीं किया जाता, अर्थात् वे दान, पूजा आदि आरंभों का जो उपदेश देते हैं उससे उन्हें कर्मबंध नहीं होता।
इससे यह भी स्पष्ट है कि तीर्थयात्रियों ने दान-पूजा आदि करने का उपदेश दिया है: वह सब मोक्षमार्ग है, हे नहीं है।
सम्यग्दृष्टि का पुण्य संसार का कारण नहीं है प्रत्युत् मोक्ष का कारण है
तीर्थंकर प्रकृति पुण्य प्रकृति है। इसका बंध आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक माना जाता है। जबकि आठवीं जीव श्रेणी में आरोहण होता है और वहां शुक्लध्यान होता है, निर्विकल्प परिणति होती है तथा उस प्रकृति का उदय होने पर अर्हंत भगवान ‘पुण्य के फल’ माने जाते हैं। तो यही कहा है-
”अर्हंत भगवान वास्तव में सम्यक प्रकार से सम्पूर्ण विकसित हुए पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल ही हैं।” उनकी सभी क्रियाएं पुण्य के उदय से औदयिकी हैं फिर भी मोह का अभाव हो जाने से वे कर्मबंध नहीं कर सकतीं अत: उन्हें क्षायिकी ही क्यों न कह दें२।”
श्री जयसेनाचार्य भी इसकी टीका में कहते हैं – जो पंच महाकल्याणक की पूजा करने वाला है, त्रैलोक्य को जीतने वाला है वह तीर्थंकर नाम का पुण्य कर्म है, उसी के फलभूत अर्हंत भगवान होते हैं, इत्यादि।
नाम तीर्थंकर प्रकृति को सातिष्य पुण्य प्रकृति कहा गया है। वे अनंत प्राणियों के अनुग्रह में समर्थ ऐसे धर्मतीर्थ का क्रियान्वयन करते हैं। यह प्रकृति कर्मरूप होते हुए भी कथम्पी संसार का कारण नहीं है।
वस्त्र धारण करने वाला मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता, भले ही वह तीर्थंकर ही क्यों न हो, ऐसा जिनशासन में कहा गया है। अत: नग्न दिगम्बरपना ही मोक्ष का मार्ग है, इसके शेष सभी उन्मार्ग हैं।
इस सप्तम अध्याय में अब पुण्याश्रव का व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि वह प्रमुख है। ऐसा क्यों ? अतः वह पुण्याश्रवपूर्वक ही मोक्ष होता है अर्थात् मोक्ष के लिए यह कारण है।
इसलिये इस लोक में व्यापक रूप से विचार करते हुए भी मुनि कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं-
प्रश्न यह हुआ कि-
‘कथं चरे कथं चिट्ठे कथमासे कथं सए।
कथं भुंजेज्ज्ज् भासेज्ज् जदो पावं ण बंधइ।।
हे भगवान्! वैसे आचरण करें ? वैसे ठहरें ? वैसे सताँ ? वैसे शायन करें ? वैसे खाना कैसे खायें ? और वैसे भी बोलें कि जिससे पाप का बंधन न हो।
तब-जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सए।
जड़ं भुंजेज्ज्ज् भासेज्ज् एवं पावं ण बंधि२।।
यत्नपूर्वक आचरण करो, यत्नपूर्वक रहो, यत्नपूर्वक बैठो, यत्नपूर्वक शयन करो, यत्नपूर्वक भोजन करो और यत्नपूर्वक संभाषण करो, इस प्रकार से पाप कर्म का बंधन नहीं होता है।
और बस इतना ही कहा है-
घडियाजलं व कम्मे अणुसमयसंखगुणियसेढीए।
निज्जरमाणे सन्ते वि महाव्वेणं कुदो पावं३।।एसडी।।
जब महाव्रतियों के प्रतिसमय घटिका यंत्र के जल के समान अनेक गुणश्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा होती है तब उनका पाप वैसे संभव है ? नाम कथम्पी उनके पाप का बंधन नहीं हो सकता। निष्कर्ष यह निकला कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, क्षय और योग यही बंध के कारण हैं न कि अणुव्रत, महाव्रत आदि। ये व्रत तो मोक्ष के लिए कारणभूत ऐसे रत्नत्रय के अंतर्गत हैं।
व्रत निर्जरा के कारण हैं
यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि के व्रतों के बढ़ने पर क्रम-क्रम से कर्मों की निर्जरा बढ़ती जाती है-
”तीनों कारणों के अंतिम समय में वर्तमान विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के जो गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य है, वह प्रथमोपशम सम्यकत्व की उत्पत्ति होने पर असंयतसम्ग्दृष्टि के प्रतिसमय में होने वाली गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य अनेकातगुणा है।” इससे देशविरत के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य अनेकात गुणा है। इससे सकलसंयमी के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य अनेकातगुणा है……।१”
कर्मनिर्जरा का काल निश्चित नहीं है
इसी प्रकार श्री भट्टकलंक देव ने कर्मनिर्जरा का काल निश्चित नहीं किया है-
”कालानियमाच्च निर्जरया:।९। यतो न भव्यानां कृत्स्नकर्मनिर्जरापूर्वकामोक्षकालस्य नियमोऽस्ति२।”
निर्जरा के काल का कोई नियम नहीं है, क्योंकि भव्यों के सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरापूर्वक मोक्ष के काल का कोई नियम नहीं है।
मोक्ष अकरण नहीं है
कुछ सम्प्रदाय वाले मोक्ष को आश्चर्य मानते हैं व कुछ सम्प्रदाय वाले संसार को ही अहेतुक कहते हैं। अष्टसहस्री ग्रन्थ में उनकी मान्यता का निरसन करते हुए आचार्य महोदय ने मोक्ष व संसार दोनों को सकारण सिद्ध किया है।
मोक्ष का कारण सहित है, क्योंकि प्रतिनियत काल आदितः होती है वस्त्रादि के समान अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और तीर्थ आदि सामग्री के बिना मोक्ष नहीं हो सकता है इसलिए संचयन है। अन्यथा मोक्ष को बिना निमित्त के अनुरूप पर तो सर्वदा सभी स्थानों को मोक्ष प्राप्त हो जाएगा, चंहुकी उस पर की अपेक्षा से रहित है तथा आगम से भी मोक्ष का कारण तत्व बाधित नहीं होता है। बल्कि वह उस निमित्त का साधक ही है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र मोक्ष के मार्ग हैं, यह आगम वाक्य है।
कोई कहता है कि ”संसार अहेतुक है क्योंकि वह अनादि अनंत है आकाश के समान। तो आचार्य कहते हैं ऐसा नहीं कहना, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से संसार अनादि अनंत नहीं है। द्रव्यार्थिकनय से है तो हमें इष्ट ही है। सुख-दुख आदि प्रयासों के चक्ररूप जो यह संसार है, वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच प्रकार का है। ‘मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, क्षय और योग ये बंध के कारण हैं।’ और ये बंध के कारण ही तो संसार के कारण हैं।”
निष्कर्ष यही निकला कि जैसे संसार सन्निमित्तक है वैसे ही मोक्ष भी सन्निमित्तक है। मोक्ष के कारण सम्यक्चारित्र में सकल चरित्र और विकल चरित्र से दो भेद हो जाते हैं। विकल चरित्र में बारह व्रतों के अंतर्गत चार शिक्षाव्रतों में दान और पूजा का ग्रहण है: ये दान पूजा आदि मोक्ष के ही कारण हैं, यह निश्चित होना चाहिए।
संसार के कारण
श्री कुंदकुंददेव ने समयसार ग्रंथ में भी संसार के कारण व मोक्ष के कारण बताए हैं।
मिच्छत्तं पुन दुविहं जीवमजीवं तहेव अनन्नानं।
अविर्दि जोगो मोहो कोहादिया इमे भावा२।। मनुष्य।।
मिथ्यात्व पुन: दो प्रकार का है-एक जीव मिथ्यात्व, दूसरा अजीव मिथ्यात्व, और उसी प्रकार से अज्ञान, अविरति, योग, मोह और क्रोधादि क्षय ये सभी भाव जीव-अजीव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। यहाँ जीव मिथ्यात्व आदि बाह्य निमित्त हैं और जीव मिथ्यात्व आदि अन्तर्ज्ञान निमित्त हैं अथवा उपादान कारण हैं।
जं कुणै भावमादा कत्ता सो होदी तस्स भावस्स।
कामत्तं परिणमदे तमहि स्यान् पुग्गलं दव्वं१।।गर।।
यह आत्मा जिस भाव को करता है, उसी भाव का कर्ता आप होता है। वह कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य कर्मरूप से अपने आप परिणमन कर जाता है।
जन भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता।
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा२।।१०२।।
आत्मा जिस शुभ या अशुभ भाव को करती है, वह निश्चित रूप से उस भाव का कर्ता होता है और वह भाव उसका कर्म होता है, वही आत्मा उस कर्म का भोक्ता होता है।
समान्पच्चया खलु छौरो भण्णन्ति बंधकत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं कसयजोगा य बोध्व्वा।।१०९।।
तेसिं पुनो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो।
मिच्छादिट्ठी आदि जाव सजोगिस्स चरमं३।।१०।।
सामान्य से प्रत्यय चार हैं वे बंध के करने वाले हैं। मिथ्यात्व, अविरति, क्षय और योग। उनके भी भेद तेरह हो जाते हैं जो कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयोगी पर्यंत जानने के कारण ही होते हैं। योग में केवल एक योग ही कारण है। उस योग में एक समय की स्थिति वाला सता कर्म बंधता है। यहाँ भी जीव मिथ्यात्वादी व अजीव मिथ्यात्वादी दिखना चाहिए।
यदि जीव का कर्म के साथ बंधन न हो और जीव क्रोधादि विकार भावों से परिणमन न करता हो तो क्या होगा ?
संसारस्य अभावो पसज्जदे संखसमाओ वा४।।१२२।।
तो संसार का अभाव हो जायेगा या सांख्य का एकान्त मत आ जायेगा। इत्यादि रूप से गाथा २१ से १२५ तक जीव को संसारी कहा गया है।
मोक्ष के कारण
अब आप श्री कुंदकुंददेव के समयसार में मोक्ष के कारणों को देखिये-
दंसनाणांचरित्तानि सेविद्वानि साहुणा निच्चं।
तानि पुन जान तिन्न्निवी अप्पाणं चेव निच्छयदो१।।१६।।
साधु को दर्शन, ज्ञान और चरित्र नित्य ही सेवन करने योग्य है। पुनश्च: इन तीनों को भी निश्चित से आत्मा ही जानना चाहिए अर्थात् व्यवहार से ये तीन हैं और निश्चित से तीनों स्वरूप एक आत्मा ही है।
यहाँ पर भी भेदरत्नत्रय बाह्य कारण होने से निमित्त है और अभेदरत्नत्रय अन्तर्ज्ञान कारण होने से उपादान है।
आगे और कहते हैं-
जीवदसद्दहनं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं।
रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।।१५५।।
जीवदया पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, प्राप्त का जानना वह ज्ञान है और रागादि का त्याग करना चरित्र है यही मोक्ष का मार्ग है।
भेदाभेदरत्नत्रय से यतियों के ही कर्मों का क्षय होता है
मोत्तूण निच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्ठंति।
परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खो विहियो।।१५।।
विद्वानों के निश्चित विषय को रहित व्यवहार से प्रवृत्ति करते हैं परन्तु परमार्थभूत—आत्मस्वरूप के प्रतिभावान यतीश्वरों के ही कर्म का नाश कहा गया है अथवा जयसेन स्वामी ने इसका ऐसा अर्थ किया है कि-
निश्चय को आश्रय देने वाले यतियों के ही कर्मों का क्षय होता है। निश्चय को आश्रय देने वाले यतियों के ही कर्मों का क्षय होता है।
इस गाथा से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि श्री कुंदकुंद आचार्य ने समयसार में निश्चय का आश्रय लेने का उपदेश मुनियों के लिये ही दिया है। वे ही निश्चय के अवलम्बन के पात्र हैं श्रावक नहीं हैं। जगह-जगह गाथाओं में साधु, यति, मुनि आदि का प्रयोग किया है कहीं पर भी श्रावक का प्रयोग नहीं किया है चूँकि वे पहले श्रावक के देशव्रतों से आगे मुनि के सकलव्रतों में आयेंगे तभी वे निश्चय के विषयभूत आत्मा का अवलम्बन ले पायेंगे, अन्यथा नहीं।
आगे भी कहते हैं कि-
‘‘जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा१।’’
जो सर्व परिग्रह से रहित आत्मा है वही आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा को ध्याता है……।
संसार से छूटने का क्रम
आगे संवर अधिकार में भी बहुत ही सुंदर क्रम बताया है-
‘‘पूर्व में कहे हुये राग-द्वेष मोहरूप आस्रवों के हेतु सर्वज्ञदेव ने मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग ये चार अध्यवसान कहे हैं सो ज्ञानी के इन हेतुओं का अभाव होने से नियम से आस्रव का निरोध होता है। आस्रव भाव के बिना कर्म का भी निरोध हो जाता है। कर्म के अभाव से नोकर्मों का भी निरोध हो जाता है तथा नोकर्मों का निरोध हो जाने से संसार का निरोध हो जाता है२।’’
व्यवहार-निश्चय रत्नत्रय को आगे भी लिया है-
आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं।
छज्जीवणिकं च तहा भणइ चरित्तं तु ववहारो।।२७६।।
आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च।
आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो३।।२७७।।
आचारांग आदि शास्त्र तो ज्ञान है, जीवादि तत्त्व है वह दर्शन है और छह काय के जीवों की रक्षा सो चारित्र है यह व्यवहारनय कहता है और निश्चय से मेरी आत्मा ही ज्ञान है, मेरी आत्मा ही दर्शन और चारित्र है, मेरी आत्मा ही प्रत्याख्यान है, मेरी आत्मा ही संवर और योगध्यान है, इत्यादि।
कर्म के निमित्त से जीव संसारी है
श्री अकलंकदेव आत्मा को कर्म के निमित्त से मूर्तिक कह रहे हैं-
‘‘चूँकि आत्मा अमूर्त है अत: उसका कर्मपुद्गलों से अभिभव नहीं होना चाहिए।’’
‘‘अनादि कर्मबंधन के कारण उसमें विशेष शक्ति आ जाती है। अनादि पारिणामिक चैतन्यवान आत्मा की नर-नारकादि अथवा मतिज्ञानादिरूप पर्यायें भी चेतन ही हैं, फिर भी वह अनादि कार्मण शरीर के कारण मूर्तिमान हो रहा है और इसीलिये उस पर्याय संबंधी शक्ति के कारण कर्मों को ग्रहण करता है। जैन सिद्धांत में अनेकांत है, आत्मा कर्मबंध के कारण कथंचित् मूर्तिक है तथा अपने ज्ञानादि स्वभाव को न छोड़ने के कारण ‘कथंचित्’ अमूर्तिक है।’’……
कहा भी है-
बंध की दृष्टि से आत्मा और कर्म में एकत्व है और लक्षण की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है अत: आत्मा एकांत से अमूर्तिक नहीं है।
इसी बात को पर्यायांतर से समयसार में भी कहा है-
सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणवच्छण्णो।
संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं।।१६०।।
यह आत्मा स्वभाव से सर्व को जानने, देखने वाला सर्वज्ञ, सर्वदर्शी है तो भी अपने कर्मरूपी रज से आच्छादित होता हुआ संसार अवस्था को प्राप्त है अत: सर्व प्रकार से सर्व-लोकालोक को नहीं जानता है।
दोनों नयों की अपेक्षा से भी समयसार में कहते हैं-
जीवे कम्मं बद्धं पुट्ठं चेदि ववहारणयभणिदं।
सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ठं हवइ कम्मं।।१४१।।
जीव में कर्म बद्ध है तथा स्पृष्ट है यह व्यवहारनय का वचन है और जीव में कर्म अबद्धस्पृष्ट है अर्थात् न बंधता है न स्पर्शता है यह शुद्धनय का वचन है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव से कर्म का संबंध निमित्तरूप से ही है उपादानरूप से नहीं। फिर भी निमित्त-नैमित्तिक संबंध से ही यह जीव संसार में चारों गतियों में दु:ख उठा रहा है और इन कर्मों से छूटकर ही मुक्त होता है।
कर्म यद्यपि पुद्गल हैं, जड़ हैं तो भी ‘‘कर्मोदयहेतुभिर्विनापि शुद्धजीवस्य रागादिपरिणामो जायते स च प्रत्यक्षविरोध आगमविरोधश्च१।’’ कर्मोदयरूप कारण के बिना भी शुद्धजीव के रागादि परिणाम होते हैं ऐसा मानना तो प्रत्यक्ष से विरूद्ध है और आगम से भी विरुद्ध है अर्थात् कर्मोदय के निमित्त से ही जीव के राग-द्बेष आदि भाव होते हैं और उन भावों से ही आत्मा में पौद्गलिकद्रव्य कर्मों का बंध होता है।
यह जीव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य कर्मों का कर्त्ता है और अशुद्धनिश्चयनय से रागादि भाव कर्मों का कर्त्ता है।
नियमसार में भी यही बात कही है-
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो।
कम्मज-भावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो।।१८।।
यह आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है तथा निश्चयनय से (अशुद्ध निश्चयनय से) कर्मजनित भावों का कर्त्ता और भोक्ता है।
इन प्रकरणों से यह स्पष्ट है कि संसारी आत्मा व्यवहारनय से ही निमित्त रूप से पुद्गल कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता है, अशुद्ध निश्चयनय से उपादान रूप से निज अशुद्ध भावों का ही कर्त्ता-भोक्ता है। जैसे-कुम्भकार मिट्टी से घड़े को बनाता है उसमें मिट्टी घड़े के लिए उपादान कारण है और कुम्भकार निमित्त कारण है वैसे ही यह आत्मा पुद्गलवर्गणाओं को कर्मरूप परिणमाता है उसमें यह निमित्त कारण है तथा उन पुद्गलों के लिये भी जीव के भाव निमित्त कारण हैं अन्यथा वह पुद्गल कर्मरूप नहीं बनता तथा आत्मा स्वयं अपने रागादि भावों का उपादान कारण है वैसे ही पुद्गल द्रव्य भी कर्मों के लिए उपादान कारण है और जो कारण सहकारी रहता है वह निमित्त कारण है। यद्यपि मिट्टी में हमेशा उपादान कारण मौजूद है किन्तु निमित्तरूप कुम्भकार, चाक, दण्ड आदि के मिले बिना वह मिट्टी कभी घट रूप नहीं बन सकती है वैसे ही कार्मण वर्गणारूप पुद्गल में कर्मरूप होने की उपादान शक्ति मौजूद है किन्तु जीव के रागादि भाव हुये बिना वे पुद्गल वर्गणायें कर्मरूप परिणत नहीं हो सकती हैं। किन्तु जीव के परिणामों का निमित्त लेकर ही कर्मभाव को प्राप्त होती हैं अत: निमित्त के बिना भी कार्य का होना असम्भव ही है। जीव के रागादि भाव होवें और कर्म न बंधे ऐसा हो सकता है क्या ? नहीं।
कर्मनिर्जरा के निमित्तकारण
मंगल व सरागसंयम कर्मनिर्जरा में निमित्त है
शंका-पुण्य कर्म बांधने के इच्छुक देशव्रतियों को मंगल करना युक्त है किन्तु कर्मक्षय के इच्छुक मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि पुण्य बंध के कारणों के प्रति दोनों में समानता है। और तो क्या, देशव्रत के समान सरागसंयम भी पुण्यबंध का कारण है।
शंका-तब तो मुनि सरागसंयम का परित्याग कर दें, क्या हानि है ?
समाधान-यदि मुनि सरागसंयम को छोड़ दें तो उनके मुक्तिगमन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा।
किन्तु सरागसंयम से तो बंध की अपेक्षा मोक्ष ही होता है अर्थात् कर्मों की निर्जरा असंख्यातगुणी होती है। अत: सरागसंयम में मुनियों की प्रवृत्ति होना योग्य ही है।१
महामंत्र भी कर्मनिर्जरा में निमित्त है
‘‘उसी प्रकार से अरहंत नमस्कार मंत्र भी तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा का कारण है।२’’
इस प्रकरण से यह स्पष्ट है कि देशव्रती तो पुण्य ही करता है, मुनिराज भी सराग संयम, मंगल और महामंत्र के द्वारा पुण्य बंध के साथ-साथ कर्मों की असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा भी किया करते हैं।
निष्कर्ष यह निकला कि यह मंगल, सरागसंयम और महामंत्र का स्मरण पुण्यबंध के साथ-साथ कर्मनिर्जरा में भी निमित्त है।
परमानंद और आनंदस्वरूप भावों के लिए ग्रंथ निमित्त है
‘‘परमानंद और आनंदमात्र की ‘दो ग्रंथ’ यह संज्ञा है। यहाँ परमानंद और आनंदभूत द्रव्यों को भी उपचार से ‘दो गं्रथ’ संज्ञा दी है। उनमें से केवल परमानंद और आनंदरूप भावों का भेजना बन नहीं सकता है, इसलिये उनके निमित्तभूत द्रव्यों का भेजना ‘दो ग्रंथिक पाहुड़’ समझना चाहिए। परमानंदपाहुड़ और आनंदपाहुड़ के भेद से दो ग्रंथिक पाहुड़ दो प्रकार का है। उ्नामें से केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप नेत्रों से जिसने समस्त लोक को देख लिया है और जो राग-द्वेष से रहित है ऐसे जिनेन्द्रदेव के द्वारा निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान् आचार्यों को परम्परा से भव्यजनों के लिए भेजे गये बारह अंगों के वचनों का समुदाय अथवा उनका एक देश ‘परमानंद दो ग्रंथिक पाहुड़’ कहलाता है। इससे अतिरिक्त शेष जिनागम आनंदपाहुड़ मात्र है३।’’
इस कथन से यह बात सिद्ध हुई कि ‘षट्खण्डागम’ और ‘कसायपाहुड़’ ग्रंथ तो परमानंद पाहुड़ हैं। शेष समयसार आदि जो भी ग्रंथ हैं वे मात्र ‘आनंद पाहुड़ हैं’ षट्खण्डागम और कषायप्राभृत द्वादशांग के अंश हैं यह बात प्रारंभ में कह दी गई है।
‘‘कृत्रिम होते हुये भी कर्म मूर्त ही है। यदि कर्म को मूर्त न माना जाय तो मूर्त औषधि के संबंध से परिणामांतर की उत्पत्ति नहीं हो सकती है अर्थात् रुग्णावस्था में औषधि सेवन करने से रोग के कारणभूत कर्मों में जो उपशांति आदि देखी जाती है वह नहीं बन सकती है इससे मालूम पड़ता है कि कर्म मूर्त ही है।
यह परिणामांतर की प्राप्ति असिद्ध भी नहीं है क्योंकि ऐसा माने बिना ज्वर, कुष्ठ और क्षय आदि रोगों का विनाश बन नहीं सकता। इसलिये औषधि से कर्म में भिन्न परिणाम की प्राप्ति हो जाती है यह बात सिद्ध है।’’१ अर्थात् औषधि असाता कर्म को दूर करने में निमित्त है।
यही बात ‘तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ ग्रंथ में भी कही गई है।
अंतरंग में असातावेदनीय का उदय होने पर और बहिरंग में वात आदि विकार के होने पर दु:ख (रोग) होता है, उस समय उसके विरोधी औषधि के उपयोग करने पर दु:ख (रोग) की उत्पत्ति न होने से उसका उपचार हो जाता है।
यदि कोई कहे कि तब तो असाता का उदय होने पर भी दु:खरूप जो उसका फल था उसको बिना भोगे ही वह कर्म चला गया सो ‘किये हुए का फल नहीं मिलना’ यह एक दोष उपस्थित हुआ ?
आचार्य कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है। कडुवी आदि औषधि के उपयोग से उत्पन्न हुई जो पीड़ा है उतने मात्र ही अपना फल देकर उस असाता की निवृत्ति हो जाती है। इसलिये ‘कृतप्रणाश’ दोष नहीं आता है१।
यह प्रकरण अकालमृत्यु से सिद्धि के प्रसंग का है। यहाँ पर यह भी समझ लेना चाहिए कि कर्मभूमिज मनुष्य-तिर्यंचों के अकालमृत्यु के लिये ‘विषवेदना, रक्तक्षय, भय आदि कारण होते हैं।
श्री कुंदकुंददेव भी कहते हैं-
अकालमृत्यु में विष भक्षण आदि निमित्त हैं
यथा-विसवेयणरत्तक्खय-भयसत्थग्गहण-संकिलेसाणं।
आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जदे आऊ२।।२५।।
विषभक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से, रुधिर के क्षय हो जाने से, भय से, शस्त्रघात से, संक्लेश परिणाम से, आहार तथा श्वांस के निरोध से इन कारणों से आयु का क्षय हो जाता है अर्थात् आयु की उदीरणा होकर अकाल में मरण हो जाता है।
क्रोध भी निमित्त से ही उत्पन्न होता है
‘‘जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न होता है वह मनुष्य समुत्पत्ति कषाय की अपेक्षा क्रोध है।’’
‘‘किसी अन्य के निमित्त से किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं हो सकता ?’’
‘‘यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि कर्मों से कलंकित हुये जीव में कटु वचन के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति देखी जाती है और जो बात पाई जाती है उसके विषय में यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती है’’ यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा कहने में विरोध आता है३।
निमित्त के विषय में धवलाकार की और भी मान्यताएँ देखिये-
पूर्वाचार्यों की आचार परंपरा का अनुसरण रत्नत्रय में निमित्त है-
‘‘आचार्य परम्परा से आये हुए इस न्याय को मन में धारण करके और पूर्वाचार्यों के आचार का अर्थात् व्यवहार परम्परा का अनुसरण करना ‘रत्नत्रय का कारण है’ ऐसा समझ कर पुष्पदंताचार्य सकारण मंगलादिक छहों अधिकारों का व्याख्यान करने के लिये मंगलसूत्र कहते हैं’-इत्यादि।
श्री गौतमस्वामी भी व्रतों में लगे हुये दोषों की शुद्धि के लिये प्रतिक्रमण आदि को निमित्त मानते हैं तभी तो उन्होंने मुनियों के पाक्षिक, दैवसिक आदि प्रतिक्रमणों के दण्डक सूत्रों की रचना करके सभी महाव्रती साधुओं के लिये एक अनुपम दोषविशोधक रसायन प्रदान की है। जिसको कि वर्तमान में साधु-वर्ग बड़ी ही श्रद्धा भक्ति से ग्रहण करके अपने आपको धन्य मान रहे हैं। देखिये-
दैवसिक और पाक्षिक आदिक प्रतिक्रमण दोषों की शुद्धि में निमित्त हैं-
श्री गौतमस्वामी इस दु:षमकाल में मुनियों के दुष्परिणाम आदि से प्रतिदिन उपार्जित कर्म की विशुद्धि के हेतु प्रतिक्रमण लक्षण उपाय को कहते हुये उसकी आदि में मंगल हेतु इष्टदेवता विशेष को नमस्कार करते हैं। ‘श्रीमते इत्यादि।’
श्री गौतमस्वामी दैवसिक आदि प्रतिक्रमणादिकों के द्वारा निराकरण करने में अशक्य ऐसे दोषों के निराकरण हेतु वृहत्प्रतिक्रमणलक्षण उपाय को कहते हुये उसकी आदि में मंगलार्थ इष्ट देवताविशेष को नमस्कार करते हुये ‘णमो जिणाणं’ इत्यादि कहते हैं-
श्री गौतमस्वामी ने अंतिम तीर्थंकर को नमस्कार क्यों किया ?
इन ‘णमो जिणाणं’ आदि गणधरवलय मंत्रों के अंत में वर्धमान भगवान का नमस्कार पद है तो यह प्रश्न सहज हो सकता है कि ‘चौबीसों’ तीर्थंकर ही स्तुत्य हैं पुन: अंतिम तीर्थंकर को ही यहाँ क्यों लिया’ मानो उसके उत्तर में ही श्रीगणधर देव कहते हैं-(ऐसा प्रश्न श्री टीकाकार प्रभाचंद्राचार्य ने रखा है।)
जिनके पास में मैंने धर्मपथ को प्राप्त किया है उनके निकट मैं विनय का प्रयोग करता हूँ। मन वचन काय से शिर झुकाकर पंचांग नमस्कारपूर्वक मैं उन वर्धमान स्वामी का सत्कार (नमस्कार) करता हूँ।
इससे भी निमित्त की प्रधानता हो जाती है कि जिनके निमित्त से मुझे मोक्षपद मिला है मैं उनकी विशेष भक्ति करता हूँ।
निमित्त और उपादान परस्पर सापेक्ष ही सम्यक् हैं
प्रश्न-कभी-कभी बिना पुरुषार्थ किए भी कार्यसिद्धि होती देखी जाती है जैसे कि किसी को आकस्मिक भूमि में गड़ा हुआ धन का घड़ा मिल जावे तो इसमें निमित्त क्या रहा ?
उत्तर-इसमें बाह्य निमित्त अप्रधान है और अंतरंग का पुण्योदय निमित्त प्रधान है। स्याद्वाद सिद्धांत के वेत्ताओं को बाह्य और अंतरंग कारणों में सापेक्ष दृष्टि रखना चाहिए। इसी बात को श्री समंतभद्रस्वामी ने बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया है।
यदि कोई देव का ही एकांत ग्रहण करे तो उसके लिए कहते हैं-
दैवादैवार्थसिद्धिश्चेद्दैवं पौरुषत: कथं।
दैवतश्चेदनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलं भवेत्।।८८।।
यदि दैव (भाग्य) से ही कार्यों की सिद्धि मानो तो दैव पुरुषार्थ से वैâसे बना ? यदि दैव का निर्माण दैव से ही होता है तो किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा और पुरुषार्थ भी निष्फल हो जाएगा।
किन्तु ऐसी बात नहीं है। वर्तमान के पुरुषार्थ से ही भावी समय का निर्माण होता है। यदि कोई पुरुषार्थ का ही एकांत ग्रहण करे तो कहते हैं-
पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुषं दैवत: कथं।
पौरुषाच्चेदमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पौरुषम्।।८९।।
यदि पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि होती है तो फिर पुरुषार्थ दैव से वैâसे हुआ ? यदि कहो कि पुरुषार्थ, पुरुषार्थ से ही होता है तब तो सभी के सभी कार्य सफल हो जाएँगे, क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में है ही है।
किन्तु देखा जाता है कि एक साथ खेत में बीज बोने वालों के भी फसल में अंतर पड़ जाता है। सो ऐसा क्योें ? कहना पड़ेगा कि उसका भाग्य अनुकूल नहीं है।१
अनायास-बिना सोचे-विचारे कोई अनुकूल या प्रतिकूल कार्य हो जाता है तो वह स्वदैवकृत माना जाता है, क्योंकि उसमें बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा नहीं है अत: वहाँ पुरुषार्थ अप्रधान है दैव प्रधान है और इससे विपरीत प्रयासपूर्वक यदि कोई इष्ट या अनिष्ट कार्य होता है तो वह पुरुषार्थकृत् माना जाता है क्योंकि वहाँ बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा विद्यमान है, अत: वहाँ पर दैव की अप्रधानता है, पुरुषार्थ की प्रधानता है।
शंका-सर्वज्ञ के ज्ञान में जो झलका है सो तो होगा ही होगा पुन: पुरुषार्थ करने की, नाना निमित्तों को जुटाने की क्या आवश्यकता है ?
समाधान-सर्वज्ञ का ज्ञान तो दर्पण के समान है। उसमें हमारा पुरुषार्थ, मोक्ष जाने का समय व उसके लिए मिलने वाले निमित्त सभी झलक चुके हैं। यदि हमारे सामने दर्पण रखा है तो जो हमारी चेष्टाएँ हो रही हैं सो ही उसमें झलक रही हैं तद्वत् सर्वज्ञदेव के ज्ञान में हमारी सम्पूर्ण ही त्रैकालिक स्थिति स्पष्ट है। फिर भी बिना पुरुषार्थ किये कोई भी जीव न आज तक मोक्ष जा सका है और न जा सकता है। यह बात भी उस ज्ञान में झलकी होगी।
आश्चर्य है कि लोग आत्महित के लिए ऐसी कर्तव्यशून्यता का अवलंबन ले लेते हैंं किन्तु वैसे ही व्यापार आदि प्रसंगों में थोड़ा संतोष कर लें और सोच लें कि जो मिलना होगा सो मिलेगा, धर्म व कर्तव्य को जलांजलि देकर धन कमाने में आसक्त क्यों होना ? तो उससे उनको लाभ ही होगा न कि हानि। हाँ, जब अतीव प्रयत्न करने के बाद भी कोई कार्य सफल न हो सके अथवा बिगड़ जाए उस समय यही विचार करना चाहिए कि जो होनहार होती है, होकर ही रहती है। अत: अब पश्चात्ताप या अशांति करने से क्या लाभ ? अथवा जो कुछ सर्वज्ञदेव के ज्ञान में प्रतिभासित हुआ है सो हो रहा है। अशांति करने से या संक्लेश करके अशुभ कर्म बंध से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं।
इसलिए अनेकांत का आश्रय लेकर निश्चय और व्यवहारनय में से किसी एक को मुख्य करके, दूसरे को गौण करना चाहिए और जब दूसरे को मुख्य करें तो प्रथम को गौण कर वस्तु स्वरूप को समझना चाहिए। तभी निमित्त और उपादान का भी सही स्वरूप समझ में आता है, अन्यथा नहीं।
श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा भी है कि-
‘एकेनाकर्षंती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
अंतेन जयति जैनी नीतिर्मंथाननेत्रमिव गोपी१।।२२५।।
जैसे ग्वालिन दधि मंथन करते समय हाथ में एक ओर की रस्सी को खींचती है तथा दूसरे हाथ की रस्सी को शिथिल करती है और इस प्रक्रिया से वह नवनीत निकाल लेती है इसी प्रकार से जैनशासन में एक नयदृष्टि (निश्चय) को मुख्य करके दूसरी नयदृष्टि (व्यवहार) को गौण कर दिया जाता है और जब दूसरी दृष्टि (व्यवहार) मुख्य होती है तब पहली दृष्टि (निश्चय) गौण हो जाती हैै। इससे दोनों ही दृष्टियों का महत्त्व समान है यह स्पष्ट हो जाता है।
अनेकांत
प्रश्न-अनेकांत किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रत्येक वस्तु अनंत धर्मात्मक होती है। उन परस्पर विरोधी धर्मों को समझने के लिये ही सप्तभंगी प्रक्रिया मानी गई है। नयों को मुख्य-गौण करके वह प्रक्रिया सिद्ध होती है।
सो ही अकलंकदेव तत्त्वार्थराजवार्तिक में स्पष्ट करते हैं-
‘‘उस स्याद्वादनय से संस्कृत श्रुतनामक प्रमाण के द्वारा प्रत्येक पर्याय के प्रति सप्तभंगी घटित कर जीवादि पदार्थों को जानना चाहिये।’’
एक ही वस्तु में प्रश्न के वश से प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के अविरुद्ध विधि-प्रतिषेध की कल्पना सप्तभंगी है।
जैसे-जीवद्रव्य स्यात् शुद्ध है, निश्चयनय की अपेक्षा से। जीवद्रव्य स्यात् अशुद्ध है, व्यवहारनय की अपेक्षा से।
जीवद्रव्य स्यात् शुद्ध-अशुद्ध है, क्रम से दोनों नयों की विवक्षा करने से। जीवद्रव्य स्यात् अवक्तव्य है, युगपत् दोनों नयों की विवक्षा करने से। जीवद्रव्य स्यात् शुद्ध अवक्तव्य है, क्रमश: निश्चयनय की और युगपत् दोनों नयों की अपेक्षा करने से।
जीवद्रव्य स्यात् अशुद्ध अवक्तव्य है, क्रमश: व्यवहारनय की और युगपत् दोनों नयों की अपेक्षा करने से।
जीवद्रव्य स्यात् शुद्ध-अशुद्ध अवक्तव्य है, क्रमश: दोनों नयों की और युगपत् दोनों नयों की विवक्षा होने से।
इसी प्रकार से यह सप्तभंगी वस्तु के प्रत्येक धर्म में घटित कर लेना चाहिए।
शंका-यदि अनेकांत में भी विधि-प्रतिषेध कल्पना घटित होती है तो जिस समय अनेकांत में ‘नास्ति’ भंग प्रयुक्त होगा उस समय एकांतवाद का प्रसंग आ जावेगा और यदि अनेकांत में अनेकांत नहीं लगेगा तो वह उसमें एकांत व्यवस्था हो जावेगी ?
समाधान-अनेकांत में भी प्रमाण और नय की दृष्टि से अनेकांत और एकांतरूप से अनेकमुखी कल्पनायें हो सकती हैं।अनेकांत और एकांत दोनों ही सम्यक् और मिथ्या के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं।
प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एकदेश को सयुक्तिक ग्रहण करने वाला सम्यक् एकांत है।
एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकांत है।
एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यक् अनेकांत है।
वस्तु को तत्-अतत् आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करने वाला जो अर्थशून्य वचन विलास है वह मिथ्या अनेकांत है।
सम्यक् एकांत नय कहलाता है एवं सम्यक् अनेकांत प्रमाण कहलाता है। यदि अनेकांत को अनेकांत ही माना जाये और एकांत का लोप किया जाय तो सम्यक् एकांत के अभाव में ‘शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह’ तत्समुदाय रूप अनेकांत का भी अभाव हो जायेगा और यदि एकांत ही माना जाये तो उसके अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने पर प्रकृत धर्म का भी लोप हो जाने से सर्वलोप का प्रसंग प्र्ााप्त होगा। अत: अनेकांत भी अनेकांत रूप है।
जैसे-अनेकांत कथंचित् अस्तिरूप है, प्रमाण की अपेक्षा से। अनेकांत कथंचित् नास्तिरूप है, नय (सम्यक् एकांत) की विवक्षा से। इत्यादि सप्तभंगी प्रक्रिया लगा लेना चाहिए।
अनेकांत छलरूप नहीं है, क्योंकि जहाँ वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके वचन विघात किया जाता है वहाँ छल होता है। किन्तु अनेकांत सुनिश्चित मुख्य गौण विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीतरूप से प्रतिपादन करने वाला है।
प्रश्न-एक वस्तु में विरोधी अनेक धर्मों का रहना असंभव है अत: अनेकांत संशय का हेतु है ?
उत्तर-सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने से और विशेष धर्मों के प्रत्यक्ष न होने से किन्तु उभय विशेषों का स्मरण होने पर संशय होता है। जैसे-धुंधली रात्रि में स्थाणु को देखकर पुरुष का संशय होना। किन्तु अनेकांतवाद में विशेष धर्मों की अनुपलब्धि नहीं है, सभी धर्मों की सत्ता अपनी-अपनी निश्चित अपेक्षाओं से स्वीकृत है और उन-उन धर्मों का विशेष प्रतिभास विवादरहित सापेक्षरीति से बताया है। जैसे-एक ही देवदत्त में परस्पर विरोधी पिता-पुत्र, चाचा-भतीजा, मामा-भानजा, शत्रु-मित्र आदि संबंध पाये जाते हैं उसी तरह से एक ही जीव में नित्य-अनित्य, शुद्ध-अशुद्ध, एक-अनेक आदि परस्पर विरोधी धर्म अपनी-अपनी अपेक्षा से पाये जाते हैं। यह निर्विवाद है१।
इस प्रकार से नयों को मुख्य-गौण करके अनेकांतरूप से वस्तु के सही स्वरूप को समझना चाहिए और एकांत दुराग्रह से होने वाले मिथ्यात्व को छोड़ देना चाहिए।
मिथ्यात्व
शंका-मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
समाधान-जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान न करना अथवा अन्य के द्वारा उपदिष्ट असत् अर्थ का श्रद्धान करना सो मिथ्यात्व है।
इसके गृहीत, अगृहीत की अपेक्षा दो भेद हैं, गृहीत, अगृहीत और सांशयिक की अपेक्षा तीन भेद हैं। एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान की अपेक्षा से पाँच भेद हैं तथा क्रियावाद आदिकों की अपेक्षा से तीन सौ त्रेसठ भेद भी हो जाते हैं अथवा जीव के भावों की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात और अनंतभेद भी हो जाते हैं। मध्यम रीति से तीन सौ त्रेसठ भेदों का संक्षिप्त स्वरूप देखिये-
तीन सौ त्रैसठ पाखंडमत
‘‘क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और वैनयिकवादियों के ३२ ऐसे १८० ± ८४ ± ६७ ± ३२ · ३६३ पाखंडमत होते हैंं। इनका विशेष वर्णन इस प्रकार है-
‘अस्ति’ पद को ‘आप से’ ‘पर से’ नित्यपने से’ और ‘अनित्यपने से’ इन चार से, जीवादि नव पदार्थ से तथा ‘काल’, ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘नियति’ और ‘स्वभाव’ इन पाँच से, ऐसे क्रम से गुणा करने से १ ² ४ ² ९ ² ५ · १८० भेद क्रियावादियों के होते हैं।
‘नास्ति’ पद को ‘आपसे’, ‘पर से’, पुण्य-पाप रहित सात पदार्थ से और ‘काल’ आदि पाँच से गुणा करने पर १ ² २ ² ७ ² ५ · ७० भंग होते हैं। पुन: ‘नास्ति’ पद को सात पदार्थ और ‘नियति’ तथा ‘काल’ इन दो से गुणा करने पर १ ² ७ ² २ · १४ भेद हुये। दोनों मिलाकर ७०±१४·८४ भेद अक्रियावादियों के होते हैं।
नव पदार्थ को सप्तभंगी से गुणा करने पर ९ ² ७ · ६३ भेद हुये। पुन: ‘शुद्ध पदार्थ’ को अस्ति, नास्ति, उभय और अवक्तव्य इन चार भेदों से गुणा करने पर १ ² ४ · ४ भेद हुये। दोनों मिलाकर ६३ ± ४ · ६७ भेद अज्ञानवाद के होते हैं।
इसका अर्थ यह है कि जीवादि नव पदार्थों में एक-एक को सप्त भंग से न जानना। जैसे कि ‘जीव’ अस्तिरूप है ऐसा कौन जानता है, नास्ति रूप है ऐसा कौन जानता है, इत्यादि।
देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता और पिता इन आठों का मन, वचन, काय और दान, इन चार से विनय करना सो ८ ² ४ · ३२ ये बत्तीस भेद विनयवादियों के हैं। ये विनयवादी गुण-अगुण की परीक्षा किये बिना विनय से ही सिद्धि मानते हैं।
पूर्व में क्रियावादी के भेदों में जो ‘अस्ति’ ‘स्व’ ‘पर’ ‘नित्य’ ‘अनित्य’ और नवपदार्थ तथा काल आदि पाँच आये हैं, उनमें से सबका अर्थ तो स्पष्ट ही है। काल ईश्वर आदि पाँचों का अर्थ बताते हैं।
काल ही सबको उत्पन्न करता है और सबका नाश करता है, काल ही सोते हुए प्राणियों में जागता है ऐसे काल को ठगने के लिये कौन समर्थ है। इस प्रकार काल से ही सब कुछ मानना कालवाद है।
आत्माज्ञान रहित है, अनाथ है, कुछ कर नहीं सकता, उस आत्मा का सुख-दु:ख तथा स्वर्ग-नरक में गमन आदि सब ईश्वर का किया हुआ होता है। ऐसी मान्यता ईश्वरवाद है।
संसार में एक ही महान् आत्मा है, वही पुरुष है, वही देव है, वह सबमें व्यापक है, सर्वांगपने से अगम्य है, चेतना सहित है, निर्गुण है और उत्कृष्ट है। इस तरह आत्मस्वरूप से ही सबको मानना आत्मवाद है।
जो जिस समय, जिससे, जैसे, जिसके नियम से होता है, वह उस समय, उससे, वैसे और उसके ही होता है। ऐसा नियम से ही सब वस्तु को मानना नियतिवाद है।
कांटे आदि तीक्ष्ण वस्तुओं में तीक्ष्णता कौन करता है ? मृग आदि पशु पक्षियों के अनेक आकार कौन बनाता है ? इत्यादि प्रश्न होने पर कहना पड़ेगा कि सबमें स्वभाव ही है। ऐसे सब को कारण के बिना स्वभाव से ही मानना स्वभाववाद है।
इस प्रकार से काल आदि की अपेक्षा से ‘अस्ति’ आदि के साथ एकांत पक्ष ग्रहण करने से क्रियावादी और अक्रियावादी के भेद होते हैं।
इस प्रकार स्वच्छंद श्रद्धानी पुरुषों ने इन ३६३ मतों की कल्पना की है। ये पाखण्डी लोगों को ही अच्छे प्रतीत होते हैं।
आगे और भी एकांतवादों को कहते हैं।
ज्ाो आलसी है, उद्यम करने में उत्साह रहित है वह कुछ भी फल नहीं भोग सकता। जैसे माता के स्तन का दूध पीना भी बिना पुरुषार्थ के नहीं होता है। इस तरह पुरुषार्थ से ही सर्वकार्य की सिद्धि मानना पौरुषवाद है।
मैं केवल भाग्य को ही उत्तम मानता हूँ, निरर्थक पुरुषार्थ को धिक्कार हो। देखो! किले के समान ऊँचा राजा कर्ण युद्ध में मारा गया। इस तरह दैव से ही सिद्धि मानना दैववाद है।
जैसे एक अंधा और एक पंगु दोनों वन में प्रतिष्ठ हुये, सो किसी समय वहाँ आग लग जाने से ये दोनों एक दूसरे के संयोग से बचकर नगर में आ गये। ऐसे ही संयोग से ही सर्वकार्य सिद्ध होते हैं। ऐसा कहना संयोगवाद है।
एक बार की उठी हुई लोकप्रसिद्धि देवों द्वारा भी दूर नहीं की जा सकती, अन्य की तो बात क्या है। देखो! द्रौपदी ने केवल अर्जुन के गले में वरमाला डाली थी किन्तु ‘इसने पाँचों को वरा है’ ऐसी प्रसिद्धि हो गयी। इस तरह लोक प्रवृत्ति को ही सर्वस्व मानना लोकवाद है।
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या ? जितने भी वचन बोलने के मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। तात्पर्य यही है कि जो कुछ भी बोला जाता है वह कुछ न कुछ अपेक्षा को लिये ही होता है। उस जगह जो अपेक्षा है वही नय है और बिना अपेक्षा से बोलना या एक ही अपेक्षा से अनंत धर्मवाली वस्तु को सिद्ध करना यही परमतों में मिथ्यापना है।
सो ही स्वयं कहते हैं-
पर मतों के वचन ‘सर्वथा’ कहने से नियम से असत्य होते हैं और जैनमत के वचन ‘कथंचित्’ (किसी एक प्रकार) से कहने से सत्य होते हैं।’१
शंका-हमेशा अपने मत का मंडन करना चाहिए, दूसरों के मत को मिथ्या कहने और उसके खंडन करने की क्या आवश्यकता है ?
समाधान-सर्वथा ऐसा एकांत नहीं है, चूँकि दूसरों के मिथ्यामत के स्वरूप को समझे बिना और शिष्यों को समझाये बिना उनका त्याग करना असंभव है तथा यह पाखंडमतों का निराकरण तो द्वादशांग के अंतर्गत है। दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग में इनका वर्णन आता है। यथा-
‘‘दृष्टिवाद नाम के अंग में कौत्कल, काण्ठेविद्धि, कौशिक आदि क्रियावादियों के १८० मतों का; मारीचि, कपिल, उलूक आदि अक्रियावादियों के ८४ मतों का शाकल्य, बल्कल आदि अज्ञानवादियों के ६७ मतों का तथा वशिष्ठ, पाराशर आदि वैनयिकवादियों के ३२ मतों का वर्णन और उनका निराकरण किया गया है।’’२
ऐसे ही कुश्रुतज्ञान के प्रकरण में कहा है कि-‘‘चौर शास्त्र, हिंसा शास्त्र, भारत और रामायण आदि के तुच्छ और साधन करने के अयोग्य उपदेशों को श्रुत अज्ञान कहा है।’’३
तात्पर्य यही हुआ कि ये सब मिथ्यामत, मिथ्या अनेकांत और मिथ्या एकांत से ही कल्पित किये गये हैं तथा इनके कहने वाले शास्त्र भी मिथ्यात्व के पोषक होने से कुश्रुत ही हैं। इनके स्वरूप को समझकर इन सबका त्याग करके स्याद्वादमय अनेकांत धर्म का आश्रय लेना चाहिए।
हुंडावसर्पिणी के निमित्त से इस काल में अनेकों द्रव्य मिथ्यात्व उत्पन्न हो गये हैं किन्तु भाव मिथ्यात्व तो सर्वत्र-विदेह क्षेत्र में, विजयार्ध की श्रेणियों में, स्वर्गादि में व सर्वकाल में पाया ही जाता है। ये द्रव्य और भाव दोनों मिथ्यात्व सर्वदा त्याज्य ही हैं।
द्रव्य की स्वतन्त्रता का अभिप्राय
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। इनमें से धर्म आदि चार द्रव्य सदा निष्क्रिय, अमूर्त और शुद्ध हैं। इनमें स्वभाव परिणमन ही होता है, विभाव परिणमन नहीं। किन्तु जीव और पुद्गल अनादिकाल से विभावरूप परिणमन कर रहे हैं। पुद्गद द्रव्य स्कंधरूप परिणत होकर अशुद्ध हो रहा है।१ वह जब अणुरूप होता है तब भेद से ही होता है। अनादिकाल से कभी अणुरूप शुद्ध नहीं था ‘‘भेदादणु२।’’ इस सूत्र से यह बात स्पष्ट है। ऐसे ही जीव भी संसारावस्था में अशुद्ध ही है पुन: कर्म से मुक्त होकर ही शुद्ध होता है। धर्म आदि चार द्रव्यों में यद्यपि विभाव परिणमन नहीं है फिर भी ये अन्य द्रव्य के लिये निमित्त अवश्य बनते हैं। अन्यथा यदि ऐसी बात न होती तो श्री कुंदकुंददेव ऐसा क्यों कहते कि-
जीवाण पोग्गलाणं गमणं जाणेइ जाव धम्मत्थी।
धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति३।।३।।
जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहीं तक जीव और पुद्गलों का गमन जानना चाहिए क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में उसके आगे ये नहीं जाते हैंं।
श्री उमास्वामी आचार्य ने भी अलोकाकाश में जीव के गमन का निषेध करते हुए यही हेतु दिया है-
‘‘धर्मास्तिकायाभावात्४।’’
यदि यह धर्मद्रव्य जीवों की गति में निमित्त न होता तो आचार्य कह सकते थे कि ‘लोकाकाश के परे गमन करने की योग्यता का अभाव है’ किन्तु ऐसा तो नहीं है प्रत्युत् धर्मास्तिकाय के अभाव को हेतुरूप में लिया है।
शंका-पुन: द्रव्यों की स्वतंत्रता कहाँ रही ?
समाधान-फिर भी द्रव्य अपनी-अपनी सत्ता से स्वतंत्र हैं। देखिये-
‘‘अण्णोण्णं पविसंता िंदता ओगासमण्णमण्णस्स।
मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति५।।७।।’’
ये द्रव्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, परस्पर में एक-दूसरे को अवकाश देते हैं और परस्पर में मिल जाते हैं तो भी सदा अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।
श्री अमृतचंद्रसूरि ने इसकी टीका में इस बात को स्पष्ट कर दिया कि ‘जीव और कर्म के व्यवहारनय से एकत्व होते हुए भी परस्पर में स्वरूप का उपादान नहीं है।’ अर्थात् एक द्रव्य-दूसरे द्रव्य स्वरूप नहीं हो जाता है।
संसार में तो सर्वत्र छहों द्रव्य हैं ही हैं, सिद्धलोक में जहाँ कि अनंतानंत सिद्ध विराजमान हैं, वहाँ भी छहों द्रव्य हैं। शुद्धजीव के सिवाय वातवलय आदि के आश्रित तथा सूक्ष्म स्थावरकाय आदि जीव वहाँ पर हैं। पुद्गल का सबसे बड़ा महास्कंध लोकाकाश प्रमाण है एवं वातवलय आदि से संबंधित पुद्गलद्रव्य वहाँ पर विद्यमान है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य हैं ही हैं। फिर भी वे शुद्ध हुये सिद्ध जीवों का कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैं।
संसारी जीवों के लिये सर्वथा ऐसा एकांत नहीं है। इनमें परद्रव्य के निमित्त से परिवर्तन भी देखा जाता है अन्यथा संसार नाम की व्यवस्था समाप्त हो जावेगी। फिर भी कोई जीव या पुद्गलद्रव्य अपने स्वरूप को छोड़ते नहीं हैं और पर के उपादान से परिणमन करते नहीं हैं और यह निमित्त-नैमित्तिक संबंध कल्पनामात्र ही नहीं है अन्यथा संसार और मोक्षतत्त्व ही नहीं रहेंगे।
श्री कुंदकुुंददेव समयसार ग्रंथ में भी जीव और पुद्गल के परस्पर में निमित्त-नैमित्तिक संबंध को बतलाते हुए कहते हैं-
जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ।।८०।।
णवि कुव्वइ कम्मगुणे जावो कम्मं तहेव जीवगुणे।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोण्हं पि।।८१।।
एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण।
पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं।।८२।।१
जीव के परिणाम को निमित्त करके पुद्गल कर्मरूप परिणत हो जाते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म को निमित्त करके उसी प्रकार से परिणमन कर जाता है। जीव कर्म के गुणों को नहीं करता है और कर्म जीव के गुणों को नहीं करते हैं फिर भी परस्पर में एक-दूसरे के निमित्त से ही इन दोनों में परिणमन होता है ऐसा तुम जानो। इस कारण से यह आत्मा अपने भावों से ही परिणत होकर कर्त्ता कहलाता है किन्तु पुद्गल कर्मकृत सर्वभावों का वह कर्त्ता नहीं है।
टीकाकार श्री अमृतचंद्र सूरि ने और जयसेनाचार्य ने टीका में मिट्टी के कलश का उदाहरण लिया है। उससे जीव और पुद्गल के निमित्त कर्तृत्व का सुंदर समाधान हो जाता है।
जैसे कुम्भकार घट को बनाता है उसमें मिट्टी तो घट के लिये उपादान है और चाक, दण्ड तथा कुंभकार निमित्त हैं। कुंभकार, चाक आदि कारण घटरूप नहीं परिणमते हैं किन्तु मिट्टी ही घटाकार से परिणत होती है। उसी प्रकार से जीव भी उपादानरूप से कर्मों का कर्त्ता नहीं होता है वह कभी कर्मरूप परिणमन नहीं करता है किन्तु पुद्गलकर्मों के उदय को निमित्त बनाकर स्वयं राग, द्वेष, मोह आदिरूप परिणत हो जाता है अत: यह जीव अपने विभाव भावों का तो उपादानरूप से कर्त्ता होता है और पुद्गल कर्मों का निमित्तरूप से कर्त्ता होता है। वैसे ही पुद्गल के विषय में समझना।
शंका-कर्म कुछ नहीं कर सकते ऐसा मानने से क्या हानि है ?
समाधान-यदि कर्म के निमित्त से जीव में परिणमन न माना जाय और जीव के निमित्त से पुद्गल में परिणमन न माना जाय तो क्या-क्या दोष आवेंगे। सो ही कुंदकुंददेव स्वयं कहते हैं-
‘‘जीव में पुद्गल कर्म स्वयं बंधे नहीं हैं और न कर्मरूप से स्वयं परिणमन ही करते हैं, यदि ऐसा मानो तो पुद्गल द्रव्य अपरिणामी ठहरेगा अथवा यदि कर्मवर्गणायें कर्मभाव से नहीं परिणमती हैं तो संसार का ही अभाव हो जायेगा अथवा सांख्यमत का प्रसंग आ जावेगा१।’’
उसी प्रकार से जीव के विषय में कहते हैं-
‘‘तुम्हारी बुद्धि में यदि यह जीव कर्मों के साथ न तो स्वयं आप बंधा ही है और न क्रोधादि विभाव भावों से आप परिणमन ही करता है तब तो वह अपरिणामी हो जावेगा और क्रोधादि भावों से जीव के परिणमन न करने पर तो संसार का ही अभाव हो जावेगा अथवा सांख्य मत का प्रसंग आ जावेगा२।’’
सांख्यमत में एकांत से जीव को अकर्त्ता कहा है और प्रकृति-जड़ को ही कर्त्ता कहा है। न्याय ग्रंथों में इस मत का विस्तार से खंडन किया गया है।
आगे चलकर स्वयं आचार्य अपना सिद्धांत बताते हैं-
‘‘जब यह आत्मा क्रोध के उपयोग से सहित होता है अर्थात् क्रोधकषाय से परिणत होता है तब स्वयं क्रोध ही है। जब मान से उपयुक्त होता है तब स्वयं मान ही है, जब माया से परिणमन करता है तब माया ही है और जब लोभ से उपयुक्त होता है तब वह लोभ ही है।’’१
इन पंक्तियों से जीव और पुद्गल का पररूप से परिणमन कथंचित् (निमित्त-नैमित्तिकरूप से) सिद्धांत मान्य ही सिद्ध हो जाता है।
यदि एकांत से कर्म को ही कर्म का कर्त्ता मानें तो क्या-क्या दोष आते हैं ?
देखिये-‘‘पुरुषवेदकर्म तो स्त्री का अभिलाषी है और स्त्रीवेदकर्म पुरुष को चाहता है तब तो कोई भी जीव अब्रह्मचारी नहीं रहेगा२।’’
अत: कथंचित् जीव पुद्गल कर्म का कर्त्ता भी है कथंचित् भोक्ता भी है। हाँ, यदि उपादानरूप से मान लेंगे तो जीव दो क्रियावाद हो जावेगा। इसलिये अनेकांत की व्यवस्था को समझना चाहिये।
श्री अमृतचंद्रसूरि कहते हैं कि ‘‘जब यह जीव ज्ञानरूप से ही परिणमन करता है तब केवल-मात्र ज्ञाता स्वरूप होने से साक्षात् अकर्त्ता हो जाता है। उससे पहले तो कर्त्ता होता ही है३।’’
शंका-जब यह आत्मा कथंचित् पुद्गल कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता है। पुन: द्रव्य त्रैकालिक शुद्ध है पर्यायें मात्र अशुद्ध हैं यह कथन वैâसे बनेगा ?
समाधान-जब जीव द्रव्य शुद्ध है तब उसकी पर्यायें अशुद्ध नहीं रह सकती हैं क्योंकि पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है। जैसे कि स्कंध, शाखा और पत्तों के बिना वृक्ष कोई चीज नहीं है उन अवयवों के समुदाय का नाम ही वृक्ष है वैसे ही गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है। इनको छोड़कर द्रव्य कुछ नहीं है। देखिये-
‘‘सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा४।।४९।।’’
शुद्धनय से संसार में रहने वाले सभी जीव सिद्धस्वभावी हैं।
इसकी टीका में श्री पद्मप्रभमलधारीदेव कहते हैं-
‘‘जो जीव चार विभाव भाव (औदयिकादि) रूप परिणत होते हुये संसार में रह रहे हैं वे भी सभी जीव शुद्धनय की अपेक्षा से भगवान् सिद्धों की शुद्धगुणपर्यायों के सदृश शुद्ध हैं१।’’
श्री देवसेनाचार्य भी कहते हैं—‘‘शुद्धद्रव्यार्थिक नय से संसारी जीव सिद्ध सदृश शुद्ध हैं चूँकि वे कर्मोपाधि से निरपेक्ष हैं२।’’
यह द्रव्यार्थिकनय पर्यायों को गौण कर देता है। पुन: पर्यायार्थिक का कथन देखिये-
‘‘अनित्यशुद्ध पर्यायार्थिकनय से संसारी जीवों की पर्यायें सिद्धों की पर्याय सदृश शुद्ध हैं क्योंकि यह नय कर्मोपाधि से निरपेक्ष स्वभाव को ग्रहण करता है३।’’
तात्पर्य यह हुआ कि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य शुद्ध है और शुद्ध पर्यायार्थिक नय से उसकी पर्यायें भी शुद्ध हैं। तथैव ‘‘अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से जीव कर्मोपाधि सापेक्ष होने से क्रोधादि कर्मजनित विभावभाव रूप है४।’’ और अशुद्ध पर्यायार्थिक नय से संसारी जीव की पर्यायें अशुद्ध हैं उसे जन्म मरण हो रहा है५।’’
अत: जो कहते हैं कि ‘‘द्रव्य त्रैकालिक शुद्ध है, पर्यायें अशुद्ध हैंं, वे आगमज्ञान से शून्य हैं। शुद्धनय से संसारी जीव की द्रव्य और पर्यायें सभी शुद्ध हैं, अशुद्धनय से उसकी द्रव्य और पर्यायें सभी अशुद्ध हैं।’’
शंका-शुद्धनय से अभव्य जीवों को शुद्ध नहीं मानना चाहिये क्योंकि वे कभी भी शुद्ध नहीं हो सकते हैं ?
समाधान-नहीं, ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ इस कथन से भव्य और अभव्य तथा दूरानुदूर भव्य सभी संसारी जीवराशि शुद्ध ही हैं। एकेन्द्रियों में पृथ्वीकायिक आदि चार प्रकार के स्थावर जीव तो पृथक्-पृथक् असंख्यातासंख्यात हैं, वनस्पतिकायिक अनंतानंत हैं, त्रसकायिक के चार भेदों में प्रत्येक असंख्यातासंख्यात हैं। इनमें से जितने भी भव्य हैं वे तो मोक्ष जावेंगे ही। अभव्य और दूरानुदूर भव्य तो कभी भी मोक्ष नहीं जावेंगे किन्तु शुद्धनय की अपेक्षा से वे भी सिद्ध हैं।
शंका-क्या त्रैकालिक सिद्धों को नमस्कार करने से इन अभव्यों को भी नमस्कार हो जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि नमस्कार व्यवहारनय की अपेक्षा से ही होता है शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा नमस्कार की आवश्यकता ही क्या है ? हाँ! इतना अवश्य है कि जो भव्यजीव अनंतानंत काल में कभी भी सिद्ध होेंगे, भावी सिद्धों को नमस्कार करने से उन सबको नमस्कार हो जाता है। किन्तु अभव्यों में शक्ति की अपेक्षा सिद्धत्व विद्यमान होने पर भी उसका कुछ भी मूल्य नहीं है।
शंका-क्या अभव्य में केवलज्ञान शक्तिरूप में है ?
समाधान-हाँ! देखिये, ”अभ्यजीव में मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्राप्त करने की सामर्थ्य है या नहीं ? यदि है तो वह अव्यवहार्य नहीं रह रही है और यदि नहीं है तो उसके इन दो ज्ञानावरण को पढ़ना व्यर्थ है ? ऐसा नहीं कहना, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से सत्रोपरि मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान पर स्वरूप होता है और पर्यायार्थिकनय से असत्रूप दोनों पर। यदि पुन: द्रव्यार्थिकनय से दोनों ज्ञान-अभव्य के उपस्थित हों तो वह भव्य हो जाएगा? ऐसा नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र की शक्ति के होने और न होने की अपेक्षा भव्यता और अदृश्यता की बात नहीं है। पुन: क्या है ? सम्यकत्व आदि की उपस्थिति के होने और न होने की अपेक्षा से ही भव्य-अभव्य की व्यवस्था है, अर्थात् सम्यकत्व आदि की उपस्थिति की अपेक्षा हो सकती है, वही भव्य है उससे विपरीत अभव्य है। शक्तिरूप से तो सम्यक्त्वदि गुण भव्य-अभव्य दोनों में समान ही है१।”
निष्कर्ष यही है कि जीव को एकान्त से शुद्ध, अमूर्त और कर्मों का अकर्त्ता जन्म नहीं मिलता। क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष से विरोध है देखिये-
¨हसा व पापबंध व्यवहार से ही तो है
”कोई कहता है कि जीव से प्राण भिन्न होते हैं अत: हिंसा भी व्यवहार से होती है, जो कि घटनय से नहीं होती।” इस पर आचार्य कहते हैं कि आपने ठीक ही कहा है जैसे कि हिंसा व्यवहार से होती है वैसे ही। पाप भी है और नरकादि दु:ख भी व्यवहार से ही हैं, यह बात हमें मान्य ही है। यदि वे नरकादि दु:ख से प्रभावित हैं तो आप हिंसा करेंगे और यदि उन दु:खों से भय महसूस होता है तो हिंसा छोड़ दीजिए।”
इन सभी बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव और पुद्गल का परस्पर उपादान संबंध न बढ़कर निमित्त-नैमित्तिक संबंध है, फिर भी पुद्गल कर्म के निमित्त से ही वह संसारी, मूर्तिक और दु:खी हो रहा है।
आचार्य कुंदकुंददेव भी ”इन कर्मों के निमित्त से जीव के दर्शन, ज्ञान आदि गुणों का आच्छादन मानते ही हैं२।” मिथ्यात्वादि को दूर करने के लिए भेदाभेद रत्नत्रय को भी निमित्त मानते हैं। और इसलिए यदि इस रत्नत्रय की प्राप्ति के साधनभूत ऐसे देश, कुल, जाति आदि की शुद्धि को भी मोक्ष में निमित्त माना जाए तो उन्होंने ‘आचार्य भक्ति’ में आचार्यों की स्तुति करते हुए कहा है-
”देशकुलजाइसुद्धा विशुद्धमनव्यनकायसंजुत्ता।”
अतः पायपयोरुहमिह मंगलमथु मे निच्चं।।”
देश, काल और जाति से शुद्ध तथा विशुद्ध मन, वचन, काय से संयुक्त हे आचार्यों! आपके चरण कमल हमेशा मेरे लिए मंगल करें।
निष्कर्ष यह निकला है कि जीव के संसार के लिए निमित्त मोह, राग, द्वेष, मिथ्यात्व, अविरति आदि हैं। मोक्ष के लिए निमित्त रत्नत्रय है। उनमें भक्ति, पूजा, दान, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप आदि गर्भित हैं। भेदरत्नत्रय बाह्य निमित्त है और अभेद रत्नत्रय अन्तर् निमित्त है।. बाह्य के बिना अन्तर् नहीं होता है।. सभी द्रव्य स्वभाव से स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के लिए निमित्त होते रहते हैं। धर्मशास्त्र का आधार सिद्धों को भी लोकाग्र में रखा गया है। संसारी जीव तो प्रत्यक्ष में ही कर्म के निमित्त से पराधीन और दु:खी हैं। जब वे मोक्ष के निमित्तों का श्रद्धान कर लेते हैं और उनकी शरण ले लेते हैं, तब वे अपने-अपने उपादान स्वरूप को पूर्ण शुद्ध करके पूर्ण स्वातंत्र्य को प्राप्त कर लेते हैं।
(इस प्रकार निमित्त-उपादान को कहने वाला यह पाँचवाँ परिच्छेद पूर्ण हुआ)