इधर घूमते-घूमते ये पांडव लोग चंपापुरी में पहुँच गये। अनेकों चेष्टाओं से मनोविनोद करते हुये वहाँ घूम रहे थे कि अकस्मात् एक बलवान हाथी आलान स्तम्भ तोड़कर नगर को व्याकुल कर रहा था। तब भीम ने उस हाथी को वश में करके नगर का वातावरण शान्त किया, आगे बढ़कर कदाचित् ये लोग विध्य पर्वत पर पहुँचे, वहाँ एक जिनमन्दिर के किवाड़ बन्द थे, भीम ने खोल दिये और सबने बड़ी भक्ति से जिनेन्द्र भगवान की पूजा की, अनन्तर एक यक्षदेव ने आकर भीम को एक गदा प्रदान की और बहुत प्रशंसा-स्तुति की।
अनन्तर ये लोग अनेकों देशों का उल्लंघन करते हुये माकंदी नगरी में आ गये। वहाँ के राजा युद्ध द्रुपद की भोगवती पत्नी से उत्पन्न हुई द्रौपदी नामक सुन्दर कन्या थी। निमित्तज्ञानी ने बताया था कि जो पुरुष गांडीव धनुष चढ़ायेगा वही इस कन्या का पति होगा। वहाँ यह सूचना थी कि जो मनुष्य गांडीव धनुष चढ़ाकर राधा के नाक में स्थित मोती को विद्ध करेगा वही इस कन्या का पति होगा। उस समय वहाँ पर दुर्योधन आदि बड़े-बड़े राजा लोग आये थे। सभी के हताश हो जाने पर युधिष्ठिर की आज्ञा से ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने गांडीव धनुष को चढ़ाकर राधा की नाक का मोती बेधकर द्रौपदी की वरमाला प्राप्त कर ली।
जिस समय द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली उस समय हवा के वेग से माला के पुष्प टूट कर पाँचों पांडवों की गोद में जा गिरे। उस समय ‘‘द्रौपदी ने पाँच पुरुषों को वर लिया है’’ मूर्ख लोगों ने ऐसी घोषणा कर दी। आचार्य कहते हैं कि जो ऐसी सतियों पर दोषारोपण करते हैं वे महान पाप का बन्ध कर लेते हैं। इसका कारण भी यह है कि किसी समय एक र्आियका नवदीक्षिता थी, उसने पाँच जार पुरुषों के साथ वन में आई हुई बसंतसेना नामक सुन्दर वेश्या को देखा, उसे देखकर ‘‘मुझे भी ऐसा सुख प्राप्त होवे’’ ऐसा भाव कर लिया। पुन: शीघ्र ही वापस आर्यिकाओं के पास आकर गुर्वाणी के पास अपनी निन्दा करते हुए प्रायश्चित्त लिया और घोर तपश्चरण किया। अनंतर आयु के अन्त में समाधि से मरकर अच्युत स्वर्ग में देवी हुई। वहाँ से आकर द्रौपदी हुई। जरा सी दुर्भावना से उस समय जो कर्मबन्ध हो गया था उसके फलस्वरूप द्रौपदी को पाँच पति वाली होने का झूठा आरोप लगा है। वास्तव में युधिष्ठिर और भीम जेठ तथा नकुल एवं सहदेव देवर थे। इधर दुर्योधन आदि भड़क कर युद्ध करने के लिए वहीं स्वयंवर मण्डप में सन्नद्ध हो गये। इस समय पांडव लोग ब्राह्मण के वेश में थे। भयंकर युद्ध शुरू हो गया। गुरु द्रोणाचार्य को अपने सामने युद्ध में तत्पर देख अर्जुन ने अपना परिचय लिखकर बाण में लगाकर गुरु के पास छोड़ा। द्रोणाचार्य ने पत्र पढ़ा, उनके नेत्र अश्रुजल से भर गये। ‘‘पांडव लाक्षागृह में जल गये थे’’ ऐसी कल्पना के बाद पुन: उन पांडवों को जीवित प्राप्त कर कुटुम्बियों के हर्ष का पार नहीं रहा। द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, कर्ण, कौरव सभी परस्पर में पांडवों से मिले। तब दुर्योधन ने कहा कि हे नृपगण! मैंने लाक्षागृह नहीं जलाया था मैं शपथपूर्वक कहता हूँ, इत्यादि रूप से अपनी दुष्टता को छिपाते हुये दुर्योधन आदि कौरव अर्जुन का विवाह कराकर सब मिलकर हस्तिनापुर आ गये और सुख से रहने लगे। मार्ग में जिन-जिन ने युधिष्ठिर आदि को कन्यायें दी थीं व देने का संकल्प किया था, उन सभी कन्याओं को अपने यहाँ बुलाकर ये लोग कालयापन करने लगे। उस समय युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में, भीम कुरुजाँगल देश के तिलपथ नामक बड़े नगर में, अर्जुन सुनपथ (सोनीपत) में, नकुल जलपथ (पानीपत) में और सहदेव वणिक्पथ (बागपत) नामक नगर में रहने लगे। ये पांडव हमेशा न्यायनीतियुक्त धार्मिक भावना रखते थे किन्तु दुर्योधन आदि ईष्र्या में बढ़ते ही गये। किसी समय पांडव के मामा वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ऊर्जयन्त महापर्वत पर क्रीड़ा के लिए बुलाया। वहाँ पर बहुत काल तक ये नर और नारायण आनन्द से क्रीड़ा करते रहे। वहीं पर श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा का अर्जुन के साथ विवाह सम्बन्ध हो गया। इसी प्रकार यादववंश की कन्याओं का विवाह युधिष्ठिर आदि पांडवों के साथ सम्पन्न हुआ। कुछ दिन बाद अर्जुन अपनी पत्नी सुभद्रा के साथ हस्तिनापुर आ गये और उन दोनों के अभिमन्यु नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।
किसी समय दुष्ट बुद्धि दुर्योधन ने पांडवों को बुलाया और द्यूत—जुआ खेलने का निर्णय किया। धीरे-धीरे धर्मराज युधिष्ठिर अपने को छोड़कर सब राज्य वैभव हार गये। तब भीम ने आकर युधिष्ठिर को जुआ खेलने से रोका और उस व्यसन के दोष बताये किन्तु धर्मराज ने बारह वर्ष तक अपने राज्य को हार कर जुआ खेलना बन्द किया। ये पांडव अपने घर पहुँचे। इतने में ही दुर्योधन ने एक दूत भेजा जिसने आकर कहा कि आप लोग बारह वर्ष तक वन में निवास करें जिससे कि कोई भी आपका नाम भी न जान सके। अनन्तर तेरहवाँ वर्ष गुप्त रूप से व्यतीत करें, ऐसा राजा दुर्योधन ने कहलाया है।
इसी बीच दुर्योधन का भाई दु:शासन दुष्ट बुद्धि से आकर द्रौपदी के महल में जाकर उसकी चोटी पकड़ कर उसे बाहर घसीट लाया और उसका अपमान किया। द्रौपदी की अपमान की बात सुनकर भीम और अर्जुन अत्यधिक कुपित हो उठ खड़े हुए किन्तु युधिष्ठिर ने उन्हें उस समय शांत कर दिया। इस समय की यह भी प्रसिद्धि है कि ‘दु:शासन’ ने द्रौपदी का चीरहरण करना चाहा था किन्तु उसके शील के प्रभाव से वह बढ़ता ही चला गया था— जब चीर द्रौपदी का दु:शासन ने था गहा, सवरे सभा के लोग थे कहते हहा—हहा। उस वक्त भीर पीर में तुमने करी सहा, परदा ढका सती का सुजश जगत में लहा।।
उस समय रोती हुई माता कुन्ती को ये पांडव अपने चाचा विदुर राजा के घर पर छोड़कर चल पड़े। अत्यधिक मना करने पर भी द्रौपदी इनके साथ चल पड़ी। जुआ के दोषों का विचार करते हुए ये पांडव वन और पर्वतों में यत्र-तत्र भ्रमण कर रहे थे। किसी समय अर्जुन विजयार्ध पर्वत पर जाकर रथनुपूर के इन्द्र नामक राजा के शत्रुओं को परास्त कर वहाँ रहने लगे और शस्त्र विद्या में चित्रांग आदि सौ शिष्यों को प्राप्त किया, पुन: पाँच वर्ष बाद उसी कलिंजर वन में आकर भाई से मिलकर रहने लगे। किसी समय सहाय वन में पांडवों का समाचार जानकर दुर्योधन उन्हें मारने के लिए सेना के साथ वहाँ पहुँचा तब नारद ऋषि से संकेत पाकर चित्रांग आदि विद्याधरों ने युद्ध में प्रवृत्त होकर दुर्योधन को बाँध लिया किन्तु युधिष्ठिर की आज्ञा से सज्जन स्वभाव वाले अर्जुन ने दुर्योधन को छुड़ा दिया। उस समय दुर्योधन ने कहा कि मुझे युद्ध में मरने का या पराजय का वह दु:ख नहीं होता जो कि अर्जुन द्वारा बन्धनमुक्त कराने का दु:ख है। तब उसने यह सूचना निकाल दी कि जो पांडवों को मारकर मेरे अपमानजनित दु:ख को दूर करेगा उसे मैं आधा राज्य दूँगा। तब एक कनकध्वज राजा ने पांडवों को मारने के लिए ‘‘कृत्या’’ नाम की विद्या सिद्ध की किन्तु उस विद्या ने उस कनकध्वज को ही मार डाला। इधर घूमते-घूमते ये पांडव विराट नगर में पहुँचे। तब तक बारह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और गुप्त रूप से तेरहवाँ वर्ष बिताना था इसलिये युधिष्ठिर ने पुरोहित, भीम ने रसोइया, अर्जुन ने गंधर्व, नकुल ने घोड़ों के रक्षक, सहदेव ने गोधन के रक्षक का वेश बनाया और द्रौपदी ने मालिन का वेश बना लिया। ये सब कषाय (गेरुवा) रंग के वस्त्र पहन कर राज्य सभा में गए और विराट नरेश ने इनको यथायोग्य स्थानों पर नियुक्त कर दिया। किसी समय विराट नरेश का साला कीचक वहाँ आया और द्रौपदी के रूप पर मुग्ध होकर उसके शीलहरण की चेष्टा करने लगा तब भीम ने स्त्री वेश में होकर उस कीचक को खूब दण्डित किया और द्रौपदी के शील की सुरक्षा की। किसी समय दुर्योधन के द्वारा भेजे गए अनेकों किंकर वापस आकर हस्तिनापुर में दुर्योधन से बोले—महाराज! पांडवों का कहीं नामोनिशान नहीं मिलता है तब दुर्योधन ने उन लोगों को खूब इनाम दिया। उस समय भीष्म पितामह ने कौरवों से कहा—हे कौरवों ! सुनो, वे पांडव अल्प मृत्यु वाले नहीं हैं, मेरे सामने एक बार मुनि ने कहा है कि ‘‘युधिष्ठिर कुरुजांगल देश का राजा होगा और शत्रुंजय पर्वत से मोक्ष प्राप्त करेगा।’’ अत: ये सत्पुरुष कहीं न कहीं जीवित अवश्य हैं। किसी समय किसी जालंधर नाम के राजा ने दुर्योधन से कहा कि विराट राजा के पास बहुत सा गोधन है, वह जगत में विख्यात है, मैं उसका हरण करूँगा तब गुप्त शरीर वाले पांडवों को शीघ्र ही मारूँगा। दुर्योधन ने यह सब स्वीकार कर लिया। वहाँ विराट नगर पहुँचकर गोकुल हरण करने से विराट राजा के साथ युद्ध छिड़ गया, उसमें पांडवों ने जालंधर को बाँध लिया। इस घटना से दुर्योधन भी सेना लेकर वहाँ आ गया और द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, कर्ण आदि सभी उसमें सम्मिलित थे। तब अर्जुन ने स्वनामाक्षर बाण भीष्म और द्रोण गुरु के पास भेजा। उस समय उन दोनों ने कौरवों को बहुत समझाया किन्तु वे नहीं माने। अनंतर अर्जुन ने पितामह और गुरु द्रोणाचार्य को बहुत मना किया किन्तु वे लोग भी अर्जुन आदि के साथ युद्ध करते रहे। उस युद्ध में अर्जुन ने विजयपताका प्राप्त की और गोकुल को मुक्त कराया। कौरव राजागण लज्जित और पराजित होकर हस्तिनापुर चले आए। उधर विराट राजा ने पाँचों पांडवों का परिचय प्राप्त कर उन्हें नमस्कार किया और कहा—हे भगवन्! मैंने आपको पहचाने बिना आप लोगों को िंककर बनाया सो क्षमा करो, मैं आपका किंकर हूँ। आप यहाँ राज्य कीजिए तथा अभिमन्यु के साथ अपनी कन्या के विवाह का निश्चय किया। यह खबर द्वारावती में पहुँच गई और वहाँ से बलभद्र, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न, भानु, राजा द्रुपद आदि अभिमन्यु के विवाह में आए। कुछ दिन रहकर ये यादव लोग कुन्ती और पांडवों को लेकर द्वारावती चले गये, वहाँ अन्योन्य की प्रीति से वे दीर्घ काल तक रहे। एक दिन द्वारावती में किसी ने श्रीकृष्ण को दु:शासन के द्वारा कृत द्रौपदी के अपमान की और दुर्योधन के अनेक दुष्ट कृत्यों की बात कही। तब पाण्डवों के साथ विचार करके श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर एक दूत भेज दिया। दूत ने जाकर प्रणाम कर निवेदन किया—हे राजन्! श्रीकृष्ण का कहना है कि आप पांडवों से सन्धि करके उनका आधा राज्य उन्हें दे दीजिए अन्यथा आपके वंश का नाश होगा, श्रीकृष्ण आदि पांडवों की सहायता करेंगे। इस बात को दुर्योधन ने विदुर चाचा से बताया, विदुर ने भी इन लोगों को बहुत समझाया किन्तु वे दुष्ट कुछ भी नहीं माने तब विदुर ने विरक्त होकर वन में जाकर विश्वर्कीित मुनि को नमस्कार करके जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली।