पंच१ य महव्वयाइं, समिदीओ पंच जिणवरुद्दिट्ठा।
पंचेविंदियरोहा, छप्पि य आवासया लोचो।।२।।
आचेलकमण्हाणं, खिदिसयणमदंतघंसणं चेव।
ठिदिभोयणेयभत्तं, मूलगुणा अट्ठवीसा दु।।३।।
अर्थ-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण श्री जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के लिए कहे हैं।
यहाँ श्रमण, यति, मुनि, साधु और अनगार ये सब पर्यायवाची नाम हैं। इन शब्दों से दिगम्बर मुनि विवक्षित हैं। इनके तीन भेद होते हैं-आचार्य, उपाध्याय और साधु। इन सभी के ये अट्ठाइस मूलगुण होते ही हैं तथा आचार्य और उपाध्याय के ३६ और २५ भी मूलगुण माने हैं जो कि उनके विशेष गुण हैं।
उत्तरगुण-बारह तप और बाईस परीषह ये चौंतीस उत्तर गुण माने गये हैं।
‘मुनिचर्या’ में मुनि एवं आर्यिकाओं के मूलगुणों के अन्तर्गत जो छह आवश्यक क्रियाएं हैं उनके प्रयोग की विधि का वर्णन किया जा रहा है।
एसो अज्जाणं पि अ, सामाचारो जहाक्खिओ पुव्वं।
सव्वह्मि अहोरत्ते विभासिदव्वो जहाजोग्गं२।।१८३।।
मूलाचार ग्रंथ में पूर्व में जैसी विधि मुनियों के लिए कही गयी है वैसी ही यह समाचारविधि आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण अहोरात्र में यथायोग्य करनी चाहिए।
अन्तर इतना ही है कि
‘‘जहाजोग्गं-यथायोग्यं आत्मानुरूपो वृक्ष-मूलादिरहित:।
सर्वस्मिन्नहोरात्रे एषोऽपि सामाचारो यथायोग्यमार्यिकाणां
आर्यिकाभिर्वा प्रकटयितव्यो विभावयितव्यो वा यथाख्यात: पूर्वस्मिन्निति।’’
अपने अनुरूप-वृक्षमूल आदि योगों से रहित पूर्वकथित सर्व ही समाचार विधि अहोरात्र में आर्यिकाओं को भी करनी चाहिए। मूलाचार की इस गाथा से और टीका से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के लिए पूर्वकथित वे ही अट्ठाईस मूलगुण हैं और वे ही प्रत्याख्यान, संस्तर ग्रहण आदि तथा वे ही औघिक और पदविभागिक सामाचार माने गये हैं जो कि मूलाचार में चार अध्यायों में गाथा १८६ तक वर्णित हैं। मात्र ‘‘यथायोग्य’’ पद से टीकाकार श्री वसुनंदि आचार्य ने स्पष्ट कर दिया है कि आर्यिकाओं को वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तरयोगों को करने का निषेध है। यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिए पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् चर्या और क्रियाविधि आदि का कोई ग्रंथ नहीं है।
आचेलक्य मूलगुण में आर्यिकाओं के लिए दो साड़ी का विधान है। यथा-
वस्त्रयुग्मं सुबीभत्सलिंगप्रच्छादनाय च।
आर्याणां संकल्पेन, तृतीये मूलमिष्यते३।।
पर्यायजन्य असमर्थता के कारण अपने गुप्तांगों को ढकने हेतु आर्यिकाओं के लिए दो वस्त्र (दो साड़ी) का विधान है।
आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज कहते थे कि आर्यिकायें बैठकर करपात्र में आहार लेती हैं और साड़ी पहनती हैं। ये दोनों भी इनके मूलगुण ही हैं।
आर्यिकाओं को दीक्षा देते समय उन्हें अट्ठाईस मूलगुण दिये जाते हैं एवं मुनियों की दीक्षाविधि के ही संस्कार किये जाते हैं। यद्यपि छठे गुणस्थान योग्य संयम न होने से इनके पाँच महाव्रत उपचार से कहे गये हैं फिर भी ग्रंथों में इन्हें संयतिका, महाव्रतिका आदि पदों से कहा गया है। यही कारण है कि इनकी नवधाभक्ति पूजा आदि भी मुनियों के समान ही मानी गई है।
चत्तारि पडिक्कमणे, किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए।
पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दसा होंति१।।६०२।।
‘‘चार प्रतिक्रमण के और तीन स्वाध्याय के ऐसे पूर्वाण्ह के सात कृतिकर्म और अपरान्ह के सात कृतिकर्म ऐसे चौदह कृतिकर्म होते हैं।’’ अथवा पश्चिम रात्रि२ में प्रतिक्रमण के चार, स्वाध्याय के तीन और वंदना के दो, सूर्य उदय होने पर स्वाध्याय के तीन और मध्यान्ह देव वंदना (सामायिक) के दो इस प्रकार पूर्वाण्ह कृतिकर्म के ये चौदह हुए, उसी प्रकार अपरान्ह काल मेें स्वाध्याय के तीन, प्रतिक्रमण के चार, वंदना के दो, रात्रियोग ग्रहण-विसर्जन में योगभक्ति के दो और पूर्व रात्रि में स्वाध्याय के तीन इस प्रकार अपरान्हिक क्रिया में चौदह कृतिकर्म होते हैं। अहोरात्रि के कुल मिलाकर अट्ठाईस कृतिकर्म होते हैं। यहाँ पर गाथा में प्रतिक्रमण और स्वाध्याय का ग्रहण उपलक्षण मात्र है इसलिए सभी क्रियायें इन्हीं में अन्तर्भूत हो जाती हैं३।’’
स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वंदनेष्टौ प्रतिक्रमे।
कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचरा:४।।७५।।
‘‘चार बार के स्वाध्याय के १२, त्रिकाल वंदना के ६, दो बार के प्रतिक्रमण के ८ और रात्रियोग ग्रहण-विसर्जन में योग भक्ति के २, ऐसे २८ कायोत्सर्ग साधु के अहोरात्र विषयक होते हैं।’’ इनका स्पष्टीकरण यह है कि-
त्रिकाल देववंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति संबंधी दो-दो २²३=६, दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण मेें, सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति, निष्ठितकरणवीर भक्ति और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति इन चार भक्ति संबंधी चार-चार ४²२=८, पूर्वान्ह, अपरान्ह, पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक इन चार कालिक स्वाध्याय में-स्वाध्याय के प्रारम्भ में श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति एवं समाप्ति में श्रुतभक्ति ऐसे तीन-तीन भक्ति सम्बन्धी ४²३=१२, रात्रियोग प्रतिष्ठापन में योगिभक्ति सम्बन्धी एक और निष्ठापन में एक ऐसे २, इस तरह सब मिलकर ६+८+१२+२=२८ कायोत्सर्ग किये जाते हैं। ये कायोत्सर्ग विधिवत् किये जाने से ‘‘कृतिकर्म’’ कहलाते हैं।
उद्दिष्टत्यागी क्षुल्लक, ऐलक और अनुमतित्यागी दसवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकों के लिए भी इन्हीं अट्ठाईस कायोत्सर्गरूप कृतिकर्म का विधान है। यथा-
वंदना त्रितये काले, प्रतिक्रांते द्वयं तथा।
स्वाध्यायानां चतुष्वंâ च, योगिभक्तिद्वयं पुन:।।
उत्कृष्टश्रावकेनामू:, कर्तव्या यत्नतोऽन्वहं।
षडष्टौ द्वादश द्वे च, क्रमशोऽमूषु भक्त्य:।।
त्रिकाल वंदना में छह, प्रातःकाल-सायंकाल दोनों समय के प्रतिक्रमण में आठ, चार स्वाध्याय में बारह और योगिभक्ति में दो ऐसी ६+८+१२+२=२८ भक्तियाँ कायोत्सर्ग सहित क्रम से उत्कृष्ट श्रावकों को प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। यही क्रिया क्षुल्लिकाओं के लिए भी समझनी चाहिए।
सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतुर्विंशतिस्तवपर्यंत: कृतिकर्मेत्युच्यते१।
‘‘सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशतिस्तव पर्यन्त जो विधि है उसे कृतिकर्म कहते हैं।’’
दोणदं तु जधाजादं, वारसावत्तमेव य।
चदुस्सिरं तिसुद्धिं च, किदियम्मं पउंजदे२।।६०३।।
‘‘यथाजात मुद्राधारी साधु मन वचन काय की शुद्धि करके दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनतिपूर्वक कृतिकर्म का प्रयोग करें।’’ अर्थात् किसी भी क्रिया के प्रयोग में पहले प्रतिज्ञा करके भूमि स्पर्शरूप पंचांग नमस्कार किया जाता है, जैसे-
‘‘अथ पौर्वाण्हिकस्वाध्यायप्रारंभक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं
भावपूजा-वंदनास्तवसमेतं श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’
ऐसी प्रतिज्ञा करके पंचांग नमस्कार किया जाता है। पुन: ‘‘णमो अरिहंताणं’’ से लेकर ‘‘तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि’’ पाठ बोला जाता है इसे सामायिक स्तव कहते हैं। इसमें ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पाठ प्रारंभ करते समय तीन आवर्त करके एक शिरोनति की जाती है, पुन: पाठ पूरा करके तीन आवर्त एक शिरोनति की जाती है। फिर कायोत्सर्ग करके पंचांग प्रणाम किया जाता है पुन: ‘‘थोस्सामि’’ इत्यादि चतुर्विंशति स्तव के प्रारंभ में तीन आवर्त एक शिरोनति करके पाठ पूरा होने पर तीन आवर्त और एक शिरोनति होती है। इस प्रकार प्रतिज्ञा के अनन्तर प्रणाम और कायोत्सर्ग के अनन्तर प्रणाम ऐसे दो प्रणाम हुए। सामायिक दण्डक के आदि-अन्त में और थोस्सामि स्तव के आदि-अन्त में ऐसे तीन-तीन आवर्त चार बार करने से बारह आवर्त हुए तथा प्रत्येक में एक-एक शिरोनति करने से चार शिरोनति हो गईं।
इसी विधि को आचारसार में स्पष्ट किया है। यथा-
क्रियायामस्यां व्युत्सर्गं, भक्तेरस्या: करोम्यहं।
विज्ञाप्येति समुत्थाय गुरुस्तवनपूर्वकम् ।।३५।।
कृत्वा करसरोजातमुकुलालंकृतं निजं।
भाललीलासर: कुर्यात्त्र्यावर्तां शिरसो नतिम् ।।३६।।
आद्यस्य दण्डकस्यादौ मंगलादेरयं क्रम:।
तदंगेऽप्यंगव्युत्सर्गः कार्योऽतस्तदनंतरम् ।।३७।।
कुर्यात्तथैव थोस्सामीत्याद्यार्याद्यन्तयोरपि।
इत्यस्मिन् द्वादशावर्ता: शिरोनतिचतुष्टयम् ।।३८।।
इन श्लोकों का पूरा अर्थ ऊपर आ चुका है अतः यहाँ पुन: नहीं दिया है।
अनगार धर्मामृत के आठवें अध्याय में छह आवश्यक क्रियाओं का वर्णन करके नवमें अध्याय में नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं का अथवा इन आवश्यक क्रियाओं के प्रयोग का वर्णन बहुत ही सरल ढंग से किया है। यथा-
अर्धरात्रि के दो घड़ी अनन्तर से अपररात्रिक स्वाध्याय का काल हो जाता है। उस समय पहले ‘‘अपररात्रिक’’ स्वाध्याय करके पुन: सूर्योदय के दो घड़ी शेष रह जाने पर स्वाध्याय समाप्त कर ‘‘रात्रिक प्रतिक्रमण’’ करके रात्रि योग समाप्त कर देवें। फिर सूर्योदय के समय से दो घड़ी (४८ मिनट) तक ‘‘देव वंदना’’ अर्थात् सामायिक करके ‘‘गुरुवन्दना’’ करें। पुन: ‘‘पौर्वाण्हिक’’ स्वाध्याय प्रारंभ करके मध्यान्ह के दो घड़ी शेष रहने पर स्वाध्याय समाप्त कर ‘‘देव वन्दना’’ करें। मध्यान्ह समय देववन्दना समाप्त कर ‘‘गुरु वन्दना’’ करके ‘‘आहार हेतु’’ जावें। यदि उपवास हो तो उस समय जाप्य या आराधना का चिन्तवन करें। आहार से आकर गोचरी प्रतिक्रमण करके व प्रत्याख्यान ग्रहण करके पुन: ‘‘अपराण्हिक’’ स्वाध्याय प्रारंभ कर सूर्यास्त के दो घड़ी पहले समाप्त कर ‘‘दैवसिक-प्रतिक्रमण’’ करें। पुन: गुरुवन्दना करके रात्रि योग ग्रहण करें तथा सूर्यास्त के अनन्तर ‘‘देव वन्दना’’-सामायिक करें। रात्रि के दो घड़ी व्यतीत हो जाने पर ‘‘पूर्वरात्रिक’’ स्वाध्याय प्रारंभ करके अर्ध रात्रि के दो घड़ी पहले ही स्वाध्याय समाप्त करके शयन करें। यह अहोरात्र संबंधी क्रियाएँ हुई।
मूलाचार गाथा ६०२ की टीका में भी इन्हीं क्रियाओं का कथन किया गया है।
विशेष-शास्त्रों में मध्यान्ह देववन्दना के बाद आहार करने को कहा है किन्तु आजकल प्रात: ९ बजे से ११.३० के बीच में साधुओं के आहार की परम्परा है अतः आहार के बाद मध्यान्ह की सामायिक की जाती है।