श्रीनेमिनाथ का अतुल्य बल—किसी समय युवा नेमिकुमार, बलदेव और नारायण आदि कोटि-कोटि यादवों से भरी हुई ‘कुसुमचित्रा’ नामक सभा में गये। सब राजाओं ने उठकर प्रभु को नमस्कार किया और श्रीकृष्ण ने भी प्रभु की अगवानी कर अपने बराबर बिठाया। उस समय सभी के बल की प्रशंसा होते-होते अनेक राजाओं ने श्रीकृष्ण नारायण के बल को सर्वाधिक बतलाया तब श्री बलभद्र ने कहा कि तीर्थंकर नेमिनाथ का बल नारायण और चक्रवर्ती से भी अधिक है अत: इस सभा में श्री नेमिकुमार से अधिक बलशाली कोई नहीं है। तब श्रीकृष्ण ने नेमिनाथ की तरफ देखा और कहा कि बाहुयुद्ध में परीक्षा क्यों न कर ली जावे। भगवान नेमिनाथ ने उस समय हँसकर कहा—अग्रज ! बाहुयुद्ध की क्या आवश्यकता ? आप मेरी इस कनिष्ठा अँगुली को ही सीधी कर दें। श्रीकृष्ण ने पूरी शक्ति लगा दी किन्तु असफल ही रहे, तब वहाँ श्री नेमिनाथ के बल की प्रशंसा होने लगी।
श्री नेमिनाथ की जलक्रीड़ा—एक समय बसन्त ऋतु के आने पर श्रीकृष्ण अन्त:पुर की रानियों के साथ भगवान नेमिनाथ के साथ तथा अनेक राजा-महाराजाओं से वेष्टित हो गिरनार पर्वत पर क्रीड़ा की इच्छा से गये थे। यद्यपि भगवान नेमिनाथ स्वभाव से ही राग से पराङ्मुख थे फिर भी वे श्रीकृष्ण की रानियों के आग्रह से वहाँ शीतल जल से भरे जलाशय में क्रीड़ा करने लगे। ये रानियाँ कभी तैरतीं, कभी डुबकी लगातीं, कभी पिचकारियों में जल भरकर एक दूसरे के ऊपर डालतीं, कभी अँजुली में जल भरकर उछालर्ती। वे जब नेमिनाथ के ऊपर जल उछालने लगीं तब श्री नेमिकुमार ने भी जल्दी-जल्दी जल उछालकर उन सबको विमुख कर दिया। जलक्रीड़ा के अनंतर स्त्रियों ने श्री नेमिनाथ के शरीर को पोंछा और उन्हें दूसरे वस्त्र पहनाए। श्री नेमिकुमार ने जो तत्काल गीले वस्त्र छोड़े थे उसे निचोड़ने के लिए उन्होंने हँसते हुए श्रीकृष्ण की प्रेमपात्र रानी जाम्बवती को कह दिया। वह बनावटी क्रोध दिखलाती हुई बोली—जो महानागशय्या पर आरुढ़ हो महाशंख को फूकने वाले हैं, चक्ररत्न के स्वामी ऐसे मेरे पतिदेव ने भी मुझे कभी ऐसी आज्ञा नहीं दी है फिर आप कोई विचित्र पुरुष ही जान पड़ते हैं जो कि मेरे लिए गीला वस्त्र निचोड़ने का ऐसा आदेश दे रहे हैं……। इतना सुनते ही अन्य रानियों ने उससे कहा—अरी निर्लज्ज ! तीन लोक के स्वामी ऐसे जिनेन्द्रदेव की तू निन्दा क्यों कर रही है ?……। भाभी जाम्बवती के वचन सुनकर नेमिनाथ ने हँसते हुये कहा—तूने श्रीकृष्ण के जिस पौरुष का वर्णन किया है वह संसार में कितना कठिन है ? इस प्रकार कहकर प्रभु वेग से नगर की ओर गये और शीघ्रता से राजमहल में घुस गये। वे लहलहाते हुये फणाओं से सुशोभित श्रीकृष्ण की विशाल नागशय्या पर चढ़ गये और शाङ्र्ग धनुष को उठाकर प्रत्यंचा से युक्त कर दिया तथा पांचजन्य शंख को जोर से फूक दिया। शंख का ऊँचा स्वर ऐसा गूँजा कि हाथी भी आलानखम्भों को तोड़कर भागने लगे। सारे नगर में हलचल मच गयी। श्रीकृष्ण ने भी तलवार खींच ली। पता लगाने पर जब सही समाचार विदित हुआ तो वे शीघ्र ही अपनी आयुधशाला में गये। वहाँ श्री नेमिप्रभु को नागशय्या पर अनादरपूर्वक खड़े देख विस्मित हो उठे। ज्यों ही उन्हें मालूम हुआ कि यह कार्य श्री नेमिनाथ ने रानी जाम्बवती के कठोर शब्दों से किया है त्यों ही उन्हें अत्यधिक हर्ष और संतोष हुआ। आगे बढ़कर उन्होंने श्री नेमिप्रभु का अंलगन कर उनका अत्यधिक सत्कार किया और अपने घर आ गये। उन्हें इस बात की खुशी हुई कि बहुत दिनों बाद यौवन को प्राप्त श्री नेमिकुमार के अन्दर राग का अंकुर फूटा है अत: प्रभु का क्रोध श्रीकृष्ण के संतोष का कारण बन गया। श्री बलदेव से परामर्श कर उन्होंने श्री नेमिकुमार के लिए राजा उग्रसेन की कन्या राजीमती की याचना की। राजा उग्रसेन ने कहा—प्रभो ! मेरी पुत्री तीर्थंकर भगवान की प्रिया हो इससे बढ़कर मुझे क्या खुशी हो सकती है।
श्री नेमिनाथ का विवाह समारंभ— भगवान नेमिनाथ रथ पर सवार हो वन की शोभा देखने के लिए निकले थे उनके साथ अनेक राजकुमार थे। आगे देखते हैं एक जगह तृणभक्षी पशु बाँधे गये हैं। भगवान ने रथ रोककर पूछा—हे सारथि! ये बहुत सारे पशु यहाँ क्यों रोके गये हैं ? सारथि ने विनय से कहा— प्रभो ! आपके विवाह में मांसभोजी राजाओं के लिए इनको यहाँ रोका गया है। प्रभु ने तत्क्षण ही पशुओं को बन्धनमुक्त कर दिया, उन्होंने क्षणमात्र में अवधिज्ञान से जान लिया कि यह मात्र एक षडयंत्र बनाया गया है। वे उसी समय रथ को वापस मोड़कर अपने स्थान पर आ गये।
भगवान का दीक्षा ग्रहण— तभी लौकांतिक देवों ने आकर प्रभु के वैराग्य की स्तुति की और सौधर्म इन्द्र आदि देवगण आकर उन्हें पालकी में विराजमान कर सहस्राम्रवन में ले गये। वहाँ भगवान ने दैगंबरी दीक्षा ग्रहण कर ली और ध्यान में लीन हो गये।
प्रभु का केवलज्ञान—== छप्पन दिन के अनन्तर प्रभु को केवलज्ञान हो गया। तब बलभद्र और श्रीकृष्ण ने भगवान के समवसरण में दर्शन कर धर्म उपदेश श्रवण किया। उसी समय राजीमती आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं की प्रधान गणिनी बन गयीं। वहाँ श्री वरदत्त महामुनि गणधर थे। एक बार श्री बलभद्र ने प्रश्न किया—भगवन्! श्रीकृष्ण का राज्य कितने काल तक रहेगा ? और द्वारावती की स्थिति कितने काल तक रहेगी ? इन प्रश्नों का उत्तर भगवान ने ऐसा दिया कि ‘‘मद्य’’ के हेतु से यह नगरी द्वीपायन मुनि द्वारा नष्ट होगी। कृष्ण का जरत्कुमार से मरण होगा। ‘‘यह सुनकर द्वीपायन (बलदेव के मामा) दीक्षा लेकर तत्काल वहाँ से दूर चले गये और भाई जरत्कुमार ने भी कौशाम्बी वन का आश्रय लिया। हरिवंश पुराण में कहा है कि बारह वर्ष समाप्त हो गए तब एक मास अधिक को न ख्याल कर द्वीपायन मुनि द्वारावती के बाहर आकर ध्यान में लीन हो गये। पूर्व में ही कृष्ण ने नगर में यह घोषणा करा दी थी कि ‘‘मद्य’’ बनाने के साधन और मद्य शीघ्र ही ग्राम से बाहर अलग कर दिए जायें। उस समय समस्त मदिरा आदि को सभी ने कदंबगिरि की गुफा में फैक दिया था। वह मदिरा बहुत दिनों तक वन में शिलाकुण्डों में भरी रही। श्रीकृष्ण ने यह भी घोषणा करा दी कि कोई भी हमारे इष्ट मित्र, पत्नी, पुत्र आदि दीक्षित होना चाहें तो मैं उन्हें मना नहीं करता, उस समय प्रद्युम्नकुमार आदि पुत्रों ने और रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रानियों ने दीक्षा ले ली थी।
द्वारिका दाह— किसी समय वनक्रीड़ा से थके हुए शम्बु आदि कुमारों ने वन में प्यास से पीड़ित हो जल समझकर उस शिलाकुण्ड की मदिरा को पी लिया और उन्मत भाव को प्राप्त हो गए। मार्ग में ध्यानस्थ मुनि द्वीपायन को देख उपसर्ग करना शुरू कर दिया। ऐसा बोले कि ‘‘यही साधु द्वारिका को भस्म करेगा’’ बहुत देर तक उपसर्ग सहने के बाद वे मुनि धैर्य से च्युत होकर व्रुद्ध हो गए। वे क्रोध से भरकर अग्निकुमार जाति के भवनवासी देव हो गए और वहाँ से आकर द्वारिका में आग लगा दी। उधर शम्बुकुमार आदि शीघ्र ही नगर से निकलकर मुनि हो गए। धू-धू करके द्वादश योजन प्रमाण द्वारावती जलने लगी, फलस्वरूप कितनों ने सन्यास ले लिया, कितने ही अग्नि में तड़प-तड़प कर मर गए। श्रीकृष्ण बलदेव घबराकर माता-पिता की रक्षा करने को तैयार हुए किन्तु असफल रहे। यह पाप द्वीपायन मुनि के लिए घोर संसार का कारण बन गया। बलदेव और श्रीकृष्ण जैसे-तैसे निकलकर पुण्य क्षीण हो जाने से बन्धुवर्ग रहित होते हुए दु:खितमना दक्षिण की ओर चले गए। पाण्डवों को लक्ष्य कर ये दक्षिण जा रहे थे कि मार्ग में कौशाम्बी वन में श्रीकृष्ण प्यास से व्याकुल हो लेट गए और बलदेव जल ढूँढते-ढूँढते दूर निकल गए। इधर जरत्कुमार ने श्रीकृष्ण के वस्त्र के छोर को वायु से हिलते हुए देखकर दूर से हरिण समझ बाण चला दिया। उस समय पादतल से विद्ध होते ही कृष्ण सहसा उठ बैठे। तब जरत्कुमार ने आकर कहा कि मैं वसुदेव का प्यारा पुत्र, बलभद्र और श्रीकृष्ण का भाई हूँ। श्रीकृष्ण की रक्षा की भावना करते हुए बारह वर्ष से जंगल में घूम रहा हूँ। हाय ! हाय ! यह क्या हुआ ? तब श्रीकृष्ण ने उसे प्यार कर कुछ समझा-बुझाकर अपना कौस्तुभमणि उसके हाथ में देकर वंश की रक्षा के लिए उसे शीघ्र ही भेज दिया और कहा कि तुम पाण्डवों से सब समाचार कहो। उस समय यथार्थ विचार करते हुए नेमिप्रभु को नमस्कार कर भविष्यत् में तीर्थंकर होने वाले ऐसे श्रीकृष्ण ने प्राण विसर्जन कर दिये। बलदेव वापस आकर भाई को मृतक देखकर मोह से पागल होकर छह मास तक शव को लेकर फिरते फिरे।
बलदेव की दीक्षा—== जब पाण्डवों को यह समाचार मिला तो वे लोग बहुत दु:खी हुए और इधर आए। बलभद्र के मोह को देखकर इन लोगों ने तथा अन्यों ने भी बहुत कुछ उपदेश दिया किन्तु बलभद्र पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। इन पाण्डवों ने भी उन्हीं के साथ रहते हुए वर्षाकाल वहीं समाप्त कर दिया। छह महीने के अनन्तर सिद्धार्थदेव के द्वारा संबोध को प्राप्त हुए बलदेव ने जरत्कुमार और पाण्डवों के साथ तुंगीगिरि के शिखर पर श्रीकृष्ण का दाह संस्कार कर स्वयं जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अनन्तर पाण्डवों ने फिर से अनेक वैभवयुक्त द्वारिका नगरी को बसाकर जरत्कुमार को राज्य प्रदान किया।
पाण्डवों की दीक्षा— अनन्तर संसार के दु:ख से भयभीत हुए पाण्डव, पल्लव देश में विहार करते हुए श्री नेमि जिनेश्वर के समवसरण में पहुँचे। भगवान को तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करके धर्म श्रवण किया। सभी ने क्रम से अपने-अपने पूर्व भव पूछे और अन्त में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि ने भी राजीमती आर्यिका के समीप आर्यिका दीक्षा ले ली। पाँचों पाण्डव रत्नत्रय से विशुद्ध, पंच महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि से अपनी आत्मा का चितवन करते हुए आत्मसिद्धि के लिए घोर तप करने लगे। श्री भीम मुनिराज ने एक दिन भाले के अग्रभाग से दिये हुए आहार को ग्रहण करने का नियम किया। ‘‘क्षुधा से उनका शरीर कृश हो गया था। छह महीने में उनका यह वृत्तपरिसंख्यान पूरा हुआ और आहार लाभ हुआ।’’
पाण्डव मुनियों पर उपसर्ग— किसी समय ये पाँचों पाण्डव मुनि सौराष्ट्र देश के शत्रुंजय पर्वत पर प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। उस समय दुर्योधन की बहन का पुत्र कुर्युधर वहाँ आया और पाण्डवों को अपने मामा के शत्रु समझकर उन पर दारुण उपसर्ग करने लगा। उसने लोहे के सोलह प्रकार के उत्तम आभूषण बनवाये जिनमें कुण्डल, बाजूबन्द, हार आदि थे और तीव्र अग्नि में उन्हें तपा-तपाकर लाल वर्ण के अंगारे जैसे कर-करके उन पाण्डवों को संडासी से पहनाना शुरू किया। मस्तक पर मुकुट, गले में हार, कर में कंकण, बाजूबन्द, कमर में करधनी, चरणों में पादभूषण, पाँचों अँगुलियों में मुद्रिकायें आदि अग्निमय गरम-गरम पहना दीं। जैसे अग्नि लकड़ियों को जलाती है वैसे ही वे सब अग्निमय आभूषण मुनियों के शरीर को जलाने लगे। उस समय उन मुनियों ने ध्यान का आश्रय लिया, वे बारह भावनाओं का और शरीर से निर्ममता का चितवन करने लगे। वास्तव में दिगम्बर जैन साधु ऐसे-ऐसे घोर उपसर्ग के समय अपने धैर्य और क्षमा से विचलित नहीं होते हैं।
मोक्षगमन व सर्वार्थसिद्धि गमन— वे पाण्डव मुनि शरीर को अपनी आत्मा से भिन्न समझकर शुद्धोपयोग में स्थित होकर श्रेणी में चढ़ गये। धर्मराज युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन मुनियों ने क्षपकश्रेणी में चढ़कर शुक्लध्यान के द्वारा घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया और तत्क्षण ही अघातिया कर्मों का नाश कर ये अन्तकृत्केवली मोक्ष को प्राप्त हो गए, परम सिद्ध परमात्मा बन गए। एक क्षण में आठवीं पृथ्वी के ऊपर तनुवातवलय के अग्रभाग में विराजमान हो गए। नकुल और सहदेव मुनि उपशम श्रेणी पर चढ़े थे। ये दोनों बड़े भाइयों की दाह को सोचकर आकुलचित्त हो गये थे इसलिये यहाँ से उपसर्ग सहन करके वीरमरण करते हुए ‘‘सर्वार्थसिद्धि’’ में अहमिन्द्र हो गये हैं। वहाँ पर तेतिस सागर तक रहेंगे पुन: मनुष्य होकर तपश्चर्या करके उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे। ये पाँचों पाण्डव मुनि महान् उपसर्ग विजेता हुए हैं। इन पाण्डवों को हस्तिनापुर में हुए आज लगभग छियासी हजार पाँच सौ वर्ष हुए हैं। ऐसी महान आत्माओं को मन, वचन, काय से बारम्बार नमस्कार होवे।