जिनेन्द्रदेव के चरणकमल देवेन्द्रों के द्वारा पूज्य हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवन्तों ने केवलज्ञान के द्वारा समस्त तत्त्वार्थों को जान लिया है पुन: भव्य जीवों के लिए श्रावकधर्म व मुनिधर्म का उपदेश दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करके हम श्रावक धर्म का प्ररूपण करेंगे।
विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर के समवसरण में इन्द्रभूति नामक गौतम गणधर ने श्रेणिक महाराज को जिस प्रकार से श्रावकधर्म का उपेदश दिया है, उसी प्रकार गुरु परम्परा से प्राप्त श्रावकधर्म का वर्णन किया जाता है-
ग्यारह प्रतिमा-देशविरत नामक पंचम गुणस्थान में दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये ग्यारह स्थान (श्रेणी, कक्षा या प्रतिमा) होते हैं अर्थात् देशविरति वाले को श्रावक कहते हैं। ये ग्यारह स्थान चूँकि सम्यक्त्व रहित जीव के नहीं होते हैं अत: सबसे प्रथम सम्यक्त्व का वर्णन किया जाता है।
सम्यक्त्व-सच्चे आप्त, आगम और तत्त्वों का शंकादि पच्चीस दोष रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित सर्वज्ञ आप्त कहलाते हैं तथा उसी आप्त के वचन प्रमाणभूत आगम हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। उन सबका श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। इस सम्यक्त्व के नि:शंका, नि:कांक्षा आदि आठ अंग हैं।
सम्यग्दर्शन के होने पर संवेग-धर्म में प्रेम, निर्वेग-संसार से वैराग्य, निन्दा-स्वदोषों की आलोचना, गर्हा-गुरु के निकट स्वदोषों का कहना, उपशम-कषायों की मंदता, भक्ति-जिनेन्द्रदेवादि में सच्चा अनुराग, वात्सल्य-धर्मात्मा मेें प्रेम, अनुवंâपा-दया ये आठ गुण उत्पन्न हो जाते हैं।
जो सम्यग्दृष्टि श्रावक उदुंबर फल और सातों व्यसनों का त्याग करता है, वह दार्शनिक श्रावक कहलाता है। उदुंबर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर ये पाँचों फल, संधानक-अचार और वृक्षों के पूâल ये सब त्रस जीवों से भरे रहते हैं, अत: इनका त्याग करना चाहिए।
जुआ, शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परदारागमन ये सातों व्यसन दुर्गतिगमन के कारणभूत हैं। इन सबमें जुआ खेलना यह सबसे प्रमुख पाप है, लोक में अग्नि, विष, सर्प, चोरादि तो अल्प दुख देते हैं परन्तु जुआ खेलना मनुष्य को हजारों-लाखों भवों में दु:ख को देता है। मद्यपान से मनुष्य उन्मत्त होकर अनेक निंद्य कार्य करते हुए परलोक में अनंत दु:खों को भोगता है। मद्य के सदृश मधुसेवन१ भी अत्यधिक पाप उत्पन्न करता है। बारह गाँव के जलाने से भी अधिक पाप मधुसेवन से होता है। मांस प्रत्यक्ष में ही निंद्य, विष्ठा के समान अपवित्र महापाप का कारण है, इसका नाम लेने से भी सभ्यजन भोजन छोड़ देते हैं। वेश्या सेवन भी चांडालादि के जूठन सदृश निंद्य पापों का स्थान है। दयारहित शिकार खेलना भी महापाप है और अनंत दु:खों का कारण है। परधन का हरण, परप्राण के हरण सदृश होने से महापाप है। परस्त्री लंपट भी इस लोक में निंदा का पात्र होता हुआ परलोक में अनंत दु:खों को पाता है। ये सातों व्यसन नरक के द्वार हैं। एक-एक व्यसन से युधिष्ठिर, यादव, रावण आदि नष्ट हो चुके हैं तब जो सातों में आसक्त हैं, उनका क्या होगा ?
रात्रि भोजन करने वाले मनुष्य के ग्यारह प्रतिमाओं में से पहली प्रतिमा भी नहीं१ हो सकती है अत: नियम से रात्रि में चतुराहार का त्याग कर देना चाहिए। रात्रि भोजन करने वाले मरकर रात्रिचर, उल्लू, बिलाव आदि जंंतु होते हैं और भी अनेकों दु:ख उठाते हैं। तत्काल में कीट, पतंग, केश आदि से मिश्रित भोजन के कर लेने से स्वास्थ्य की भी हानि कर लेते हैं अत: पंच उदुंबर फल, सात व्यसन और रात्रि भोजन का त्यागी श्रावक पहली दर्शन प्रतिमाधारी कहलाता है।
इस पहली प्रतिमा के धारी को पानी छानकर पीना, संकल्पी हिंसा का त्याग करना, नित्य जिनेन्द्रदेव का दर्शन करना भी बहुत जरूरी है तथा शुद्ध मर्यादित भोजन करना चाहिए, बाजार का बना हुआ या जिस किसी के हाथ का बना हुआ भोजन, पान जिस पर फपूंâदी आ गई हो, ऐसे सड़े-गले आदि पदार्थ, अभक्ष्य पदार्थ, वंâद, मूल आदि का भक्षण नहीं करना चाहिए अन्यथा पहली प्रतिमा नहीं रहती है।
व्रत प्रतिमा-दूसरी प्रतिमा में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, ऐसे बारह व्रत होते हैं। त्रस हिंसा नहीं करना और निष्कारण स्थावर हिंसा भी नहीं करना, पहला स्थूल अहिंसाव्रत है। राग-द्वेष से झूठ नहीं बोलना और प्राणियों का घात करने वाला सत्य वचन भी नहीं बोलना स्थूल सत्यव्रत है। कहीं पर पड़ा हुआ, खोया हुआ आदि पराया द्रव्य नहीं लेना स्थूल अचौर्य व्रत है। अष्टमी, चतुर्दशी आदि में स्त्रीसेवन और सदैव अनंग क्रीड़ा का त्याग करने वाला स्थूल२ ब्रह्मचर्य है। जो धन, धान्य आदि का परिमाण किया जाता है वह पंचम परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। ऐसे उपासकाध्ययन में पाँच अणुव्रतों का लक्षण कहा है।
दिशा, विदिशाओं की मर्यादा करके उसके आगे नहीं जाना दिग्व्रत है। जिस देश में रहते हुए व्रत भंग का कारण उपस्थित हो, उस देश में गमन का त्याग करना दूसरा देशव्रत है। लोहे के शस्त्र, कुदाली आदि नहीं बेचना, झूठी तराजू, झूठे बांटों को नहीं रखना तथा बिल्ली, कुत्ता आदि व्रूâर प्राणियों को नहीं पालना अनर्थदण्ड त्यागव्रत है। दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदंडव्रत, ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं।
शारीरिक शृंगार, तांबूल, गंध, पुष्पादि का जो परिमाण किया जाता है, वह भोगविरति नामक प्रथमशिक्षाव्रत है। शक्ति अनुसार स्त्रीसेवन, वस्त्र आभूषणों का परिमाण करना-कुछ-कुछ दिनों के लिए त्याग करना परिभोगविरति व्रत है। अतिथि का संविभाग करना-साधुओं को दान देना, यह तीसरा व्रत है। वस्त्र मात्र परिग्रह को रखकर विधिवत् सल्लेखना ग्रहण करना चौथा सल्लेखना व्रत है। इस प्रकार भोगविरति, परिभोगविरति, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत उपासकाध्ययन सूत्र में कहे गये हैं।
इनमें जो एक बार भोगने में आवे, वह वस्तु ‘भोग’ है और जो बार-बार भोगने में आवे वह ‘उपभोग’ है। इन दोनों के परिमाण करने से दो व्रत होते हैं। तीसरे शिक्षाव्रत में जो विशेषता है, उसे बताते हैं। उपासकाध्ययन सूत्र में अतिथि संविभाग के पाँच अधिकार बताये गये हैं। पात्रों के भेद, दातार, दानविधान, दातव्य-देने योग्य पदार्थ और दान का फल ये पाँच अधिकार हैं।
पात्र के भेद-उत्तम, मध्यम और जघन्य ये तीन भेद है। व्रत, नियम और संयमधारी साधु उत्तम पात्र हैं। ग्यारह प्रतिमाओं में स्थित श्रावक मध्यम पात्र हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य पात्र हैं। व्रत, तप और शील से सम्पन्न किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित जीव कुपात्र है और व्रत, शील तथा सम्यक्त्व से रहित जीव अपात्र है।
दातार-जिस दातार में श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति ये सात गुण होते हैं, वह दातार प्रशंसनीय है।
दानविधि-पात्र को आते देखकर (१) ‘नमोस्तु’ अत्र तिष्ठ तिष्ठ कहकर पड़गाहन करना, (२) घर में ले जाकर ऊँचे आसन पर बिठाना, (३) उनके चरण धोना एवं पवित्र पादोदक को शिर में लगाना, (४)पुन: जल, गंध, अक्षत आदि अष्टद्रव्य से पूजा करना, (५) चरणों के सामने पुष्पांजलि क्षेपण कर नमस्कार करना, (६) आर्तरौद्र ध्यान से रहित मन शुद्धि, (७) कर्वâश आदि वचन से रहित वचन शुद्धि (८) विनीत अंग सहित काय शुद्धि ऐसे तीनों की शुद्धि कहना और चौदह मल दोष रहित यत्न से शोधकर आहारदान देना यह एषणाशुद्धि है अर्थात् पड़गाहन, उच्च स्थान, चरण प्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मन, वचन, काय और आहार की शुद्धि यह नवधाभक्ति कहलाती है। यही दान की विधि है।
दातव्य-आहार, औषधि, शास्त्र और अभय ये चार प्रकार के दान कहे हैं, यही पात्र के लिए दातव्य हैं। तीन प्रकार के पात्र को यथायोग्य नवधाभक्ति से आहार देना। गूँगे, अंधे, बहरे, रोगी, दरिद्री आदि को करुणाबुद्धि से आहारदान देना यह करुणादान है। उपवास, व्याधि आदि से पीड़ित साधु को निर्दोष औषधि देना और अन्य रोगियों को भी वनस्पतिजन्य औषधि देना औषधिदान है। शास्त्र लिखा या छपाकर देना, जिन वचनों को पढ़ाना शास्त्रदान है। मरण से भयभीत जीवों का नित्य परिलक्षण करना सर्व दानों का शिखामणि अभयदान है।
दान का फल-सम्यग्दृष्टि जीव सुपात्र को दान देता है तो वह स्वर्ग-मोक्ष फल को प्राप्त करता है। भद्र मिथ्यादृष्टि (मंदकषायी) उत्तम पात्र में दान देने से उत्तम भोगभूमि में, मध्यम पात्र को देने से मध्यम भोगभूमि में, जघन्य पात्र को दान देने से जघन्य भोगभूमि में और कुपात्र को दान देने से कुभोगभूमि में जन्म लेता है। अपात्र में दिया गया दान दु:खदायी है, जैसे सर्प को दूध पिलाने से वह विष बन जाता है। दान की अनुमोदना करने से तिर्यंच भी उपर्युक्त प्रकार के क्रम से ही फल प्राप्त करते हैं अर्थात् उत्तम पात्र की अनुमोदना से उत्तम भोगभूमि में मनुष्य हो जाते हैं आदि। जिसने पहले मनुष्य की आयु बांध ली है अनंतर सम्यक्त्व ग्रहण करके यदि पात्र में दान देते हैं तो उत्तम भोगभूमि के मनुष्य होते हैं। यदि ऐसा तिर्यंच है तो वह भी उत्तम भोगभूमि का तिर्यंच होता है। भोगभूमि में दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्तम-उत्तम भोग सामग्री मिलती रहती है। अविरत सम्यग्दृष्टि और देशव्रती जीव तीन प्रकार के पात्रों में दान देने के फल से स्वर्गों में महद्र्धिक देव होते हैंं अनंतर यहाँ आकर मंडलीक, महामंडलीक राजा होकर सुखों को भोगकर या तीर्थंकर जैसे महान पद को भी प्राप्त कर क्रम से मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार से अतिथिसंविभाग व्रत का वर्णन हुआ।
सल्लेखना-वस्त्र मात्र परिग्रह के सिवाय सब छोड़कर घर में ही या जिनालय में जाकर गुरु के समीप मन, वचन, काय से सर्व दोषों की आलोचना करके पान१ के सिवाय तीन प्रकार के आहार का त्याग करना सल्लेखनाव्रत है।
श्री वसुनंदि आचार्य ने चार शिक्षाव्रतों में ही सल्लेखना को लिया है और इसे उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार बताया है। सल्लेखना को व्रत कहने का अर्थ है कि श्रावक सदैव यह भावना करे कि ‘मैं मरण समय अवश्य सल्लेखना करूँगा’ तथा अंत समय विधिवत् इस व्रत को पूरा करे। श्री समंतभद्र स्वामी ने अतिथि संविभाग को ‘वैयावृत्य’ नाम से कहा है और उसमें दान के सिवाय जिन२पूजन को भी ले लिया है। कुछ भी हो, इन बारह व्रतों को पालन करने वाला श्रावक नियम से देवगति में ही जाता है, अन्यत्र नहीं जा सकता।
श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन-विधान करना चाहिए।
विनय-गुरुजनों के प्रति नम्र व्यवहार करना विनय है। उसके पाँच भेद हैंं-दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय। ये पाँचों विनय पंचमगति-मोक्षगति के लिए कारण हैं। सम्यक्त्व के गुणों का पालन करना और सम्यक्त्वी का यथायोग्य आदर करना दर्शन विनय है। ज्ञान में, ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदिक में तथा ज्ञानवान पुरुष के प्रति अनुवूâल आचरण करना ज्ञान विनय है। पाँच प्रकार के चारित्र में और चारित्रधारियों में आदर-सत्कार, भक्ति करना चारित्र विनय है। यह बालक है, यह वृद्ध हैं, इस प्रकार के संकल्प को छोड़कर तपस्वीजनों का आदरपूर्वक वंदन करना तप विनय है। मन-वचन-काय से प्रत्यक्ष और परोक्ष में गुरुजनों की विनय करना उपचार विनय है।
अशुभ परिणाम को हटाकर, हित, मित, पूज्य कोमल और भक्तिपूर्ण विनीत वचन बोलना, साधु और व्रती श्रावकों की वंदना करना, उन्हें देख उठकर खड़े होना, नमस्कार करना, हाथ जोड़ना, उच्चासन देना, आते देख उनके सन्मुख जाना, जाते समय उनके पीछे-पीछे चलना, उनके शरीर का अनुवूâल मर्दन करना, समय और उनके मन के अनुवूâल प्रवृत्ति करना, संस्तर आदि करना (पाटा, चटाई आदि बिछाना), उपकरण आदि देना, यह सब प्रत्यक्ष उपचार विनय है।
यदि गुरु प्रत्यक्ष में नहीं हैं तो भी उनकी आज्ञा के अनुवूâल चलना, परोक्ष में वंदना आदि करना परोक्ष विनय है। विनय से मनुष्य यशस्वी, सौभाग्यशाली और सर्वत्र आदरणीय होता है। विनय से ही गुरु की कृपा को प्राप्त कर सांसारिक अभ्युदय के साथ-साथ मोक्षपुर को भी प्राप्त कर लेता है। विनय से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। विनय मुक्ति का द्वार है अत: श्रावक को इसे आवश्यक कत्र्तव्य समझकर नित्यप्रति पालन करना चाहिए।
वैय्यावृत्त्य-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका इस प्रकार से संघ में अतिबाल, अतिवृद्ध, रोग पीड़ित, मनोज्ञ-लोक में प्रभावशाली साधु अथवा श्रावकों का यथायोग्य हाथ, पैर, शिर आदि का दबाना, तेल मर्दन करना, अंग सेकना, उठाना, बिठाना, सेवा शुश्रूषा आदि समयोचित कार्यों द्वारा वैय्यावृत्ति करना, शरीर के योग्य पथ्य-अन्न जल द्वारा, औषधियों द्वारा, मल मूत्रादि के दूर करने से, शरीर के धोने से, प्रयत्नपूर्वक ग्लानि रहित भाव से वैय्यावृत्य करना चाहिए। वैयावृत्ति करने वाले श्रावक के द्वारा देह, तप, नियम, संयम, अभयदान आदि दिया जाता है अर्थात् वैय्यावृत्ति करने से साधु और श्रावकों के उपर्युक्त गुणों से युक्त शरीर की रक्षा होती है अत: मानो उसी वैयावृत्ति करने वालों ने ही यह गुण दिये हैं, ऐसा समझना।
वैय्यावृत्त्य करने वाले श्रावक के नवीन सद्गुणों का प्रादुर्भाव और जिनेन्द्र आज्ञा का परिपालन होता है। वह बिना प्रयत्न के अनेक गुणों को प्राप्त कर जिनशासन का तिलकभूत प्रभावक हो जाता है। सारे विश्व में उसका उज्ज्वल यश पैâल जाता है। वह परलोक में रूपवान, तेजस्वी, चिरायुष्क, रोग शोक से रहित, महाबली, पूर्ण प्रतापी हो जाता है। वैय्यावृत्त्य के प्रभाव से जल्लौषधि, सर्वोषधि, अक्षीणमहानस आदि ऋद्धियाँ भी बिना तपश्चरण के प्रगट हो जाती हैं। अधिक कहने से क्या, वैय्यावृत्त्य करने से यह जीव तीन लोक में संक्षोभ-हर्ष और आश्चर्यकारी महान तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लेता है।
वसुदेव पूर्व भव में वैय्यावृत्त्य करके महान् बल, शौर्य, तेज को प्राप्त कर कामदेव हुए। द्वारावती में नारायण श्रीकृष्ण ने वैय्यावृत्त्य करके तीर्थंकर पुण्य प्रकृति का उपार्जन कर लिया अत: प्रत्येक श्रावक को वैय्यावृत्ति को भी एक आवश्यक कत्र्तव्य समझकर नित्य ही करना चाहिए और सर्वशक्तिपूर्वक करना चाहिए क्योंकि यह वैय्यावृत्ति तपश्चर्या१ का हृदय है।
एकाशन, उपवास, बेला, तेला, आचाम्ल, निर्विकृति, पाँच उपवास, दस उपवास आदि के द्वारा शरीर को कृश करना तथा मन और इन्द्रियों को वश में करके आत्मा को तप अग्नि में तपाकर शुद्ध निर्मल करना कायक्लेश है। इसी कायक्लेश की सिद्धि के लिए कुछ व्रतों का दिग्दर्शन कराया जाता है।
पंचमीव्रत-आषाढ़, कार्तिक या फाल्गुन मास में शुक्ला पंचमी के दिन गुरु के पादमूल में विधिवत् व्रत ग्रहण कर उपवास करके जिनपूजन करे। प्रतिमास की शुक्ला पंचमी को उपवास करते हुए पाँच वर्ष और पाँच मास लगातार कर के व्रत का उद्यापन करे। उद्यापन में जिनेन्द्र भगवान की पाँच प्रतिमाएँ बनवाकर, पाँच शास्त्र लिखाकर उनकी प्रतिष्ठा में सभी उपकरण पाँच-पाँँच की संख्या में बनवावे और विधिवत् प्रतिष्ठा कराके व्रत पूर्ण करे, यह व्रत पंचमगति को प्राप्त कराने वाला है। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो व्रत को दुगुना करना चाहिए। इसके फलस्वरूप देवेन्द्र, चक्रवर्ती का वैभव प्राप्त कर निर्वाण पद प्राप्त कर लेते हैं।
रोहिणी व्रत-यह व्रत प्रतिमास के रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है, व्रत के दिन उपवास करके अभिषेक, पूजन, जाप्य करके जिनालय में पूरा समय बिताना चाहिए। प्रत्येक मास में एक बार रोहिणी नक्षत्र आता है। जिस दिन रोहिणी नक्षत्र का अभाव हो तो गणित के हिसाब के अनुसार कृत्तिका की समाप्ति होने पर रोहिणी के प्रारंभ में व्रत करना चाहिए। मृगशिरा अथवा कृत्तिका को व्रत करना निषिद्ध है। रोहिणी नक्षत्र पंचांग में एक-दो घड़ी भी हो तो भी कर लेना चाहिए, जब तक सूर्योदय काल में रोहिणी मिले तब तक अस्तकालीन नक्षत्र नहीं लेना चाहिए।
इस व्रत के फल से स्त्री या पुरुष कभी भी शोक को नहीं देखता है, वह विपुल भोगों को भोगकर निर्वाण को प्राप्त करता है। यह व्रत तीन वर्ष, पाँच वर्ष या सात वर्ष तक किया जाता है, इस व्रत में वासुपूज्य भगवान की पूजा और जाप्य करना चाहिए। इसके उद्यापन में प्रतिमा वासुपूज्य२ भगवान की बनवाना चाहिए।
अश्विनी व्रत-प्रत्येक मास में एक दिन अश्विनी नक्षत्र आता है। अश्विनी नक्षत्र में व्रत ग्रहण कर उपवास करना चाहिए। इस प्रकार सत्ताइस अश्विनी नक्षत्र के उपवास करके यह व्रत पूर्ण कर उद्यापन करना चाहिए। इस व्रत को करने वाला स्वर्ग के सुख भोगकर अक्षय मुक्तिसुख को प्राप्त करता है।
सौख्य संपत्ति व्रत-इस व्रत में प्रतिपदा का एक, द्वितीया के दो, तृतीया के तीन, चतुर्थी के चार, पंचमी के पाँच, षष्ठी के छह, सप्तमी के सात, अष्टमी के आठ, नवमी के नौ, दशमी के दश, एकादशी के ग्यारह, द्वादशी के बारह, त्रयोदशी के तेरह, चतुर्दशी के चौदह और पूर्णमासी के पन्द्रह उपवास करना चाहिए। यह व्रत भी उत्तम-उत्तम सौख्य संपत्ति को देकर अक्षय सौख्य सम्पत्ति को प्राप्त करा देता है। इसमें १२० उपवास होते हैं, अनन्तर उद्यापन करना चाहिए।
विमान पंक्ति व्रत-चारों दिशाओं में स्थित चार श्रेणीबद्ध संबंधी चार एकान्तर उपवास करके, पुन: मध्य में स्थित इंद्रक विमान संबंधी एक बेला करे। यह विधि तिरेसठ बार करना चाहिए। व्रत प्रारंभ करने के दिन और समाप्त होने के दिन बेला करे तथा मध्य में बेला करे। इस व्रत के फल से यह जीव देव, मनुष्यों के सुख भोग कर देवेन्द्रों से स्तुति को प्राप्त हुआ मोक्ष को प्राप्त होता है।
विशेष-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक के भेद से विमान के तीन भेद हैं, इनमें से इन्द्रक विमान बीच में हैं और श्रेणीबद्ध विमान चारों दिशाओं में श्रेणीरूप में स्थित हैं। ऋतु विमान आदि को लेकर इन्द्रक विमानों की संख्या त्रेसठ है। विमान पंंक्ति व्रत में इन्द्रक की चारों दिशाओं में श्रेणीबद्ध विमानों की अपेक्षा चार उपवास, चार पारणाएँ और इन्द्रक की अपेक्षा एक बेला, एक पारणा होती है। इस तरह त्रेसठ इन्द्रक विमानों की चार-चार श्रेणियों की अपेक्षा चार-चार उपवास होने से ये दो सौ बावन उपवास तथा त्रेसठ इन्द्रक संबंधी त्रेसठ बेला होते हैं। त्रेसठ बेला के बाद एक तेला होता है। इस प्रकार उपवास २५२, बेला ६३ और तेला १ सब मिलाकर तीन सौ सोलह स्थान होते हैं अत: इतनी ही पारणाएँ होती हैं। यह व्रत पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा के क्रम से होता हैं चारों दिशाओं के चार उपवास के बाद बेला होता है। इसमें कुल छह सौ सत्तानवे दिन लगते हैं। यह व्रत विमानों की ईश्वरता प्राप्त कराने वाला है अर्थात् इस व्रत का करने वाला मनुष्य विमानों का स्वामी होता है।
व्रतों के अनुष्ठान रूप तप के द्वारा शरीर को कष्ट देना इसलिए उपयोगी है कि शरीर को कष्टसहिष्णु बनाना और शरीर से निर्मम होने का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि शरीर में ममत्व होना ही संसार का मूल कारण है तथा सुखिया जीवन में किया गया तत्व का अभ्यास दु:ख के आने पर पलायमान हो जाता है अत: शक्ति के अनुरूप दु:खों को बुलाकर भी आत्मा का अभ्यास करना चाहिए। यह सब तप, अनुष्ठान के निमित्त से ही संभव है अत: ये व्रत बहुत ही महत्वशाली हैं। अनेक लौकिक सुखों को भी प्रदान करते हैं और आत्मशुद्धि में मुख्य कारण हैं।
अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु और शास्त्र की नाना वैभव से जो अर्चा की जाती है, उसे पूजन-विधान कहते हैं। उस पूजन के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छह भेद हैं।
नाम पूजा-अरिहंत आदि का नाम उच्चारण करके जो विशुद्ध प्रदेश में पुष्पक्षेपण किया जाता है वह नाम पूजा है।
स्थापना पूजा-सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना से स्थापना के दो भेद हैं। आकारवान पाषाण आदि की प्रतिमा में अरहंत आदि के गुणों का आरोपण करना सद्भाव स्थापना है और अक्षत आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता हैं, ऐसा संकल्प करना असद्भाव स्थापना पूजा है इस हुंडावसर्पिणी काल में द्वितीय स्थापना पूजा का निषेध है। इस स्थापना पूजा में विधिवत् प्रतिमा को बनवाकर प्रतिष्ठा करवाना चाहिए। इसमें जो श्रुतज्ञान के बारह अंग उपांग वाली हैं, सम्यग्दर्शनरूपी तिलक से विभूषित हैं, चारित्ररूप वस्त्र की धारक हैं और चौदह पूर्वरूप आभरणों से मंडित हैं ऐसी श्रुतदेवी की भी मूर्ति स्थापित करना चाहिए या जिनागम को पुस्तकों में लिखवाकर शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठा करना चाहिए। पाँच बातें ज्ञातव्य हैं-प्रतिष्ठा कराने वाला, प्रतिष्ठाचार्य, प्रतिमा, प्रतिष्ठा विधि और प्रतिष्ठा का फल। जिनमंदिर बनवाकर प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराकर विराजमान करना आदि स्थापना पूजा है।
द्रव्य पूजा-जलादि अष्ट द्रव्य से जिनप्रतिमा आदि की पूजा करना द्रव्य पूजा है। इसके तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। प्रत्यक्ष में उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि की शास्त्रोक्त पूजन करना सचित्त पूजा है। जिन तीर्थंकर आदि के शरीर की और द्रव्य श्रुत-कागज आदि के शास्त्रों की पूजा अचित्त पूजा है और जिसमें दोनों की पूजन हो, वह मिश्रपूजा कहलाती है।
क्षेत्र पूजा-जिन भगवान की जन्मकल्याण भूमि, केवलज्ञानोत्पत्ति भूमि, तीर्थ चिन्ह स्थान, निर्वाण भूमि आदि की शास्त्र विधि के अनुसार पूजा करना क्षेत्र पूजा है।
काल पूजा-जिस दिन तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्माभिषेक, तप, ज्ञान, निर्वाणकल्याणक हुए हैं उस दिन विधिवत् अभिषेक करके संगीत, नाटक आदि पूर्वक उत्सव करना, नंदीश्वर पर्व आदि में पूजन आदि पूर्वक जिनमहिमा करना काल पूजा है।
भाव पूजा-परम भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान के अनंतचतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है उसे निश्चय से भाव पूजा कहते हैं अथवा पंच नमस्कार मंत्र का जाप करना, स्तोत्रादि करना भाव पूजन है अथवा पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत रूप जो चार प्रकार का ध्यान है उसे भी भाव पूजा कहते हैं। इस प्रकार से संक्षेप से पूजा के छह भेद कहे गये हैं।
इन ५ प्रकार की पूजन के भेदों में श्रावकों के लिए द्रव्य पूजा मुख्य है और साधुओं के लिए भाव पूजा मुख्य है क्योंकि जब तक श्रावक परिग्रह आरंभ का त्यागी नहीं है तब तक उसे अष्टद्रव्य आदि सामग्री को लेकर अभिषेकपूर्वक द्रव्य पूजन का अनुष्ठान करना ही चाहिए। इसी प्रकार स्तोत्र पाठ और महामंत्र का जाप्य भी करना चाहिए और ध्यान के अभ्यास के लिए सामायिक काल में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का अभ्यास भी अवश्य करना चाहिए।
पहले भाव पूजा के लक्षण में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत रूप चार प्रकार के ध्यान को करने का उपदेश दिया गया है। उसी में सबसे प्रथम पिंडस्थ ध्यान का वर्णन किया जाता है-श्वेत किरणों से विस्पुâरायमान और अष्ट महाप्रातिहार्यों से संयुक्त जिनरूप-केवलीतुल्य आत्मस्वरूप का जो ध्यान किया जाता है उसे पिंडस्थ ध्यान कहते हैं अथवा अपने नाभिस्थान में मेरु पर्वत की कल्पना करके उसके अधोभाग में अधोलोक का ध्यान करे, नाभिपाश्र्ववर्ती द्वितीय तिर्यग विभाग में तिर्यग्लोक का ध्यान करे। नाभि से ऊध्र्वभाग में ऊध्र्वलोक का चिंतवन करे। स्वंâध पर्यंत भाग में कल्प विमानों का, ग्रीवा स्थान पर नव ग्रैवेयकों का, ठोड़ी के स्थान पर नव अनुदिशों का, मुख प्रदेश पर विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि का ध्यान करे। ललाट प्रदेश में सिद्धशिला, उसके ऊपर उत्तमांग में लोक शिखर के तुल्य सिद्धक्षेत्र को जानना चाहिए। इस प्रकार जो निज देह का ध्यान किया जाता है, उसे भी पिंडस्थ ध्यान जानना चाहिए।
अथवा पिंडस्थ ध्यान में श्री वर्धमान स्वामी द्वारा कही हुई जो पाँच धारणाएँ१ हैं, उनका वर्णन करते हैं। पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्वरूपवती ये पाँच धारणाएँ हैं। पार्थिवीधारणा- प्रथम ही ध्यानी स्वयंभूरमणपर्यंत जो मध्यलोक है, उस एक राजू प्रमाण क्षीरसमुद्र का चिंतन करे। उस समुद्र के मध्य में जम्बूद्वीप बराबर एक लाख योजन प्रमाण स्वर्ण सदृश पीला एक सहस्र दल वाला कमल है। उस कमल के मध्य मेरु के समान कर्णिका है उस पर श्वेत वर्ण का एक सिंहासन है। उस सिंहासन पर बैठे हुए अपनी आत्मा को ऐसा विचारे कि यह समस्त रागद्वेषादि को क्षय करने में समर्थ है। यह पार्थिवी धारणा हुई।
आग्नेयी धारणा-तत्पश्चात् निश्चल अभ्यास से ध्यानी अपने नाभिमंडल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्तों वाला एक मनोहर कमल का चिंतवन करे, अनन्तर उस कमल के सोलह पत्तों पर ‘अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ¸ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ अं अ:’ इन अक्षरों का ध्यान करे तथा कर्णिका पर ‘र्हं’ इस महामंत्र का ध्यान करे। अनन्तर सोचे कि महामंत्र के रेफ से मन्द-मन्द धुएँ के साथ अग्नि की ज्वाला निकल रही है। अनन्तर यह सोचे कि हृदय में अधोमुख वाला आठ पत्ते का कमल है उसके प्रत्येक पत्ते पर क्रम से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय ये आठ कर्म स्थित हैं।
यह नाभिकमल की कर्णिका के ‘र्हं’ की अग्निज्वाला उस हृदयस्थ कमल को जलाने लगी। कमल को जलाकर प्रबल रूप से बढ़ती हुई अग्नि बाहर निकलकर त्रिकोणाकार बन गई और बड़वानल के समान भयंकर होकर औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर को भस्म करने लगी। बाह्य में त्रिकोणाकार में ‘रं, रं’ बीजाक्षर व्याप्त हैं और साथिया का चिन्ह है। यह अग्निमण्डल अन्दर के कमल को और बाह्य में शरीर भस्मसात करके जलाने योग्य पदार्थ का अभाव होने से धीरे-धीरे अपने आप शान्त हो गई। यह आग्नेयी धारणा है।
श्वसना-मारुती धारणा-पुन: वह ध्यानी आकाश में पूर्ण होकर विचरते हुए महावेग वाले ऐसे वायुमंडल का चिंतवन करे। वह वायु मण्डल देवों की सेना को चलायमान करता हुआ, मेरु पर्वत को भी वंâपाता हुआ, मेघों के समूह को बिखेरता हुआ, समुद्र को क्षुब्ध करता हुआ, लोक के मध्य में दशों दिशाओं में संचरता हुआ, जगत् रूप घर में फैला हुआ पृथ्वीतल में प्रवेश कर रहा है। जो शरीरादि के जलने से भस्म हुई थी उसको इस महावायु ने शीघ्र ही उड़ा दिया पुन: स्थिर होकर शान्त हो गई। यह श्वसना मारुती धारणा है।
वारुणी धारणा-वही पुण्यात्मा ध्यानी इन्द्रधनुष, बिजली, गर्जनादि से भरे मेघोें के समूह का चिंतवन करे। ये मेघ अमृत से उत्पन्न मोती सदृश बड़ी-बड़ी बिन्दुओं से मूलसाधार वर्षा कर रहे हैं। तत्पश्चात् अद्र्धचन्द्राकार मनोहर अमृतमय जल का प्रवाह शरीर के जलने से उत्पन्न हुए भस्म को प्रक्षालित करके आत्मा को दिव्य निर्मल कर रहा है, ऐसा चिंतवन करें। यह जल धारणा या वारुणी धारणा कहलाती है।
तत्त्वरूपवती धारणा-तत्पश्चात् ध्यानी मुनि या श्रावक ऐसा ध्यान करे कि मेरी आत्मा सात धातु रहित पूर्ण चन्द्रमा के समान निर्मल प्रभासहित सर्वज्ञ हो गई है। यह आत्मा अतिशययुक्त सिंहासन पर आरूढ़ कल्याणक में सौधर्म आदि इन्द्रों से पूजित है। तत्पश्चात् आठ कर्मों से रहित स्पुâरायमान ज्ञानपुंज स्वरूप पुरुषाकार ऐसी अपनी आत्मा का चिंतवन करें। यह तत्त्वरूपवती धारणा है।
इस प्रकार पिंडस्थ ध्यान का अभ्यास करने वाला श्रावक निश्चल अभ्यास के द्वारा कुशलता प्राप्त करता हुआ मुनि होकर शुक्लध्यान की सिद्धिपूर्वक मोक्षसुख को अतिशीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। पिंड अर्थात् शरीर में स्थित आत्मा का ध्यान पिंडस्थ ध्यान है। यह धर्मध्यान से अंतिम संस्थानविचय ध्यान का प्रथम भेद है। आज भी इस ध्यान का अभ्यास हो सकता है, ऐसा आचार्यों ने कहा है। यह ध्यान मुख्यरूप से मुनियों को ही होता है, किन्तु गौणरूप से श्रावक भी इसको कर सकते हैं।
प्रारंभ में इन ध्यानों का अभ्यास करने में इनकी भावना मात्र चलती है। धीरे-धीरे बार-बार चिंतवन करते-करते वह एकाग्र रूप हो जाता है। वही ध्यान कहलाता है। यदि यह ध्यान एक क्षण के लिए भी एकाग्र स्थिति को प्राप्त करता है, तब भी समझना चाहिए कि असंख्यात गुणित कर्मों की निर्जरा हो जाती है। इस ध्यान के प्रभाव से विद्या, मंडल, यंत्र-मंत्र, इंद्रजाल के आश्चर्य, व्रूâर मरणादि क्रिया तथा सिंह, सर्प, दैत्य, हस्ती, अष्टापद आदि किसी प्रकार का उपद्रव नहीं कर सकते हैं तथा शाकिनी, ग्रह, राक्षस, पिशाच, व्यन्तर आदि भी किसी प्रकार की बाधा नहीं कर सकते हैं। इन पाँच धारणाओं के अभ्यास से मन वश मेें हो जाता है जिससे अनेक कार्य सिद्ध हो जाते हैं, अंतिम सिद्धि तो मुक्तिलक्ष्मी का वश में हो जाना ही है। वह भी परम्परा से प्राप्त हो जाती है।
एक अक्षर को आदि लेकर अनेक प्रकार के पंचपरमेष्ठीवाचक पवित्र मंत्र पदों का उच्चारण करके ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। जैसे ‘ॐ’, ‘अर्हं’’,‘ॐ नम:’, ‘अरहंत’, ‘अर्हं नम:’ ‘असि आ उसा’, ॐ नम: सिद्धेभ्य:’, ये मंत्र क्रमश: एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह अक्षर वाले हैं इनका ध्यान करना चाहिए। ॐ ह्रीं नम:, ॐ ह्रीं अर्हं नम:, ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं नम:, ‘अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नम:’ इत्यादि पंचपरमेष्ठी या जिन तीर्थंकर वाचक नाम पदों का ध्यान पदस्थ ध्यान है।
‘अर्हं’ इस मंत्र का ध्यान समस्त पापरूपी अंधकार को नाश करने वाला है। हृदय कमल में चार पत्र का कमल सोचे, उसकी कर्णिका पर ‘अ’, पूर्व दिशा के पत्र पर ‘सि’, दक्षिण दिशा के पत्र पर ‘आ’, पश्चिम दिशा के पत्र पर ‘उ’, उत्तर दिशा के पत्र पर ‘सा’ इन मंत्रों को स्थापित कर ध्यान करे अथवा अष्टदल कमल की कर्णिका पर ‘अ’, पूर्व दिशा के पत्रों पर ‘सि’, ‘आ, उ, सा’ और विदिशाओं के पत्र पर क्रमश: दर्शन का ‘द’, ज्ञान का ‘ज्ञा’, चारित्र का ‘चा’ और तप का ‘त’ इन अक्षरों को स्थापित कर ध्यान करे। इस प्रकार अष्ट दल वाले कमल को सिर, मुख, वंâठ, हृदय और नाभिप्रदेश इन पाँच स्थानों मेें स्थापन कर ध्यान करना चाहिए।
१वर्णमातृका ध्यान-अनादि सिद्धान्त में प्रसिद्ध जो वर्णमातृका-समूह है, यह संपूर्ण शब्दों के रचना की जन्मभूमि है और जगत से वंदनीय है। ध्यान करने वाला पुरुष नाभिमंडल में सोलह दल के कमल का चिंतवन करे, उस कमल के प्रत्येक पत्ते पर क्रम से अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ¸ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ अं अ:’ इन सोलह अक्षरों का चिंतवन करे। तत्पश्चात् वह ध्यानी हृदय स्थान में चौबीस दल का कमल सोचे, उसकी कर्णिका पर ‘क’ और पूर्व दिशा के क्रम से प्रत्येक पत्ते पर ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म इन पच्चीस अक्षरों का ध्यान करे, अनंतर आठ पत्रों से विभूषित मुखकमल के प्रत्येक पत्र पर क्रम से ‘य र ल व श ष स ह’ इन आठ वर्णों का ध्यान करे। इस प्रकार से निरंतर वर्णमातृका का ध्यान करता हुआ योगी भ्रमरहित होकर श्रुतज्ञान रूपी समुद्र के पार को प्राप्त हो जाता है। इन ४९ अक्षरों का ध्यान करते हुए पुरुष कितने ही काल में नष्टादि वस्तु संबंधी ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
इस वर्णमातृका के जाप्य से योगी क्षय रोग, अरुचिपना, अग्निमंदता, कुष्ट, उदर रोग, कास तथा श्वास रोगों को जीतता है और वचनसिद्धता, महान पुरुषों से पूजा तथा परलोक में उत्तम गति को प्राप्त कर लेता है।
अन्य मंत्रों का ध्यान-‘र्हं’ यह मंत्रराज है। ॐ इस प्रणव मंत्र का ध्यान समस्त वाङ्मय को प्रकाश करने में दीपक के समान है। नाना दु:खों को शांत करने में महामेघ के समान है। ‘अ’ इस वर्ण मात्र का पाँच सौ बार जाप करने से एक उपवास का फल प्राप्त होता है। ‘सिद्ध’ यह मंत्र श्रुतस्वंâध का सारभूत है, संपूर्ण क्लेशों को नाशकर मोक्ष पद देने में समर्थ है।
‘ॐ ह्रीं नम:’ यह त्रैलोक्यवशंकरी विद्या है, इसका एक लाख जाप करने से सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।
रूपस्थ ध्यान-समवसरण के मध्य में स्थित अनंतचतुष्टय और आठ प्रातिहार्यों से संयुक्त अरिहंत भगवान का ध्यान किया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान है अथवा ऐसी ही सर्वशोभा से समन्वित किन्तु समवसरणादि परिवार से सहित और क्षीरसागर के मध्य में स्थित अथवा उत्तम क्षीर वर्ण के समान वर्ण के कमल की कर्णिका के मध्य भाग में स्थित क्षीरसागर के जल की धाराओं के अभिषेक से धवल हो रहा है सर्वांग जिनका, ऐसे अरिहंत परमेष्ठी का जो ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान है।
रूपातीत ध्यान-वर्ण, रस, गंध और स्पर्श से रहित, केवलज्ञान दर्शनस्वरूप जो सिद्ध परमेष्ठी का या शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जाता है, वह रूपातीत ध्यान है।
इन ध्यानों का अभ्यास करने वाला पुरुष सर्व संकल्प विकल्पों को छोड़कर स्थिरचित्त होकर ध्यान करे। जब तक ध्यान करने का अभ्यास न हो सके, तब तक पदस्थ ध्यान के किसी न किसी मंत्र का अवलंबन लेकर उसका जाप्य करे। महामंत्र णमोकार मंत्र सभी मंत्रों में प्रधान है और जपने वाले के सभी पापों का नाश कर उत्तम-उत्तम सुखों को देने वाला है। अन्य मंत्रों का जाप्य तो गुरुमुख से उसकी विधि समझकर करना चाहिए किन्तु यह णमोकार मंत्र मातृका मंत्र है किसी भी अवस्था में फलदायी ही है।
जिनेन्द्र भगवान की विधिवत् महती भक्तिपूर्वक जो पूजा की जाती है, उसका फल अचिन्त्य है जबकि ग्यारह अंग का धारक, देवों में सर्वश्रेष्ठ इंद्र भी सहस्र जिह्वाओं से पूजा के समस्त फल को वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं तब अन्य जन उसका वर्णन वैâसे कर सकते हैं ? फिर भी भव्यजनों को धर्म में अनुराग कराने के लिए यहाँ किचित् वर्णन किया जाता है-
जिनेन्द्र प्रतिमा का महत्व-जो मनुष्य धनिया के पत्ते के बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा को स्थापित करता है वह तीर्थंकर पद के पाने योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत जिनेन्द्र भवन बनवाता है, उसके फल का वर्णन वैâसे हो सकता है ?
अष्टद्रव्य के चढ़ाने का फल-विधिवत् पूजन करने वाला मनुष्य भगवान के आगे जलधारा चढ़ाता है, वह समस्त पाप मल को धो डालता है। जिनचरण में चंदन के लेप से मनुष्य सौभाग्य से सम्पन्न होता है। अक्षत से पूजा करने वाला अक्षय नौ निधि, चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा रोग, शोकरहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धि से सम्पन्न होकर अंत में अक्षय सुख को प्राप्त कर लेता है। पुष्पों से पूजा करने वाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुख वाला, तरुणीजनों के नयनों से और पुष्पों की मालाओं से अर्चित कामदेव होता है। नैवेद्य के चढ़ाने से शक्तिमान, कांति और तेज से सम्पन्न, सौन्दर्यरूपी समुद्र की तरंगों से संप्लावित अति सुन्दर होता है। दीपों से पूजन करने वाला केवलज्ञानरूपी प्रदीप के तेज से समस्त तत्त्वों के रहस्य को प्रगट करने वाला होता है। धूप की पूजा से धवलकीर्ति से जगत्त्रय को धवलित करने वाला होता है। फलों से पूजा करने वाला परम निर्वाण सौख्य का भोक्ता होता है।
अन्य उपकरण चढ़ाने का महत्व-जिनमंदिर में घंटा समर्पण करने वाला पुरुष घंटाओं के शब्दों से व्याप्त श्रेष्ठ विमानों में सुर समूह से सेवित, अप्सराओं के मध्य क्रीड़ा करता है। छत्र प्रदान करने से शत्रु रहित होकर पृथ्वी को एकछत्र भोगता है। चमरों के दान से उसके ऊपर देवों द्वारा चमर ढुराये जाते हैं। जिनमंदिर में विजय पताकाओें के देने से मनुष्य संग्राम के मध्य विजयी होता है तथा षट्खण्ड का स्वामी होकर यशस्वी होता है।
जिन भगवान के अभिषेक करने के फल से मनुष्य सुदर्शन मेरु के ऊपर क्षीरसागर के जल से सुरेन्द्र प्रमुख देवों के द्वारा भक्ति के साथ अभिषिक्त किया जाता है। अधिक कहने से क्या, तीनों ही लोकों में जो कुछ भी सुख है वह सब जिनपूजा के फल से प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
भावार्थ-यहाँ श्रावकों के अन्य कर्तव्य मेें विनय, वैयावृत्त्य, कायक्लेश और पूजन बताया गया है। अन्यत्र षट् आवश्यक क्रियाओं मेें देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान बतलाए हैं। इन सबमें भी देव पूजा का बहुत ही विशेष महत्व है। श्री वुंâदवुंâददेव ने तो स्पष्ट कह दिया है कि ‘‘दाणं पूजा मुक्खो सावय धम्मो ण सावया तेण विणा’’ श्रावक धर्म में दान और पूजन ये दो कत्र्तव्य मुख्य हैं, इनके बिना तो श्रावक ही नहीं हो सकता है।
सामायिक प्रतिमा-स्नान आदि से शुद्ध होकर चैत्यालय में अथवा अपने ही घर में प्रतिमा के सन्मुख होकर अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्वमुख या उत्तर मुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पंचपरमेष्ठी और कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयों की जो नित्य त्रिकाल-पूर्वाह्न, मध्यान्ह, अपरान्ह वंदना की जाती है वह सामायिक नाम का तीसरा स्थान है। जो श्रावक कायोत्सर्ग में स्थित होकर लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग, तृण-कांचन, चंदन और कुठार को समभाव से देखता है और मन में पंच नमस्कार मंत्र को धारण कर उत्तम अष्ट प्रातिहार्यों से संयुक्त अर्हंत प्रभु के स्वरूप को और सिद्ध भगवान के स्वरूप का ध्यान करता है अथवा विरक्तचित्त, अविचल अंग होकर एक क्षण भी उत्तम ध्यान करता है उसके उत्तम सामायिक होती है।
अन्यत्र ग्रंथों में सामायिक में ईर्यापथ शुद्धि करके चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति पढ़कर अनंतर ध्यान करने का विधान है१ तथा ऐसा भी कहा है कि ‘जिन२ पूजा बिना सर्वा दूरा सामायिकी क्रिया’। अर्थात् श्रावक की सामायिक जिनपूजापूर्वक होती है, जिन पूजा के बिना सभी सामायिक क्रिया दूर ही है। इस ग्रंथ में देवपूजा की विधि इस प्रकार बताई है कि पहले श्रावक तीन१ प्रकार के स्नान से शुद्ध होकर मंदिर में जाकर ईर्यापथ शुद्धि करे, अनंतर सिद्धभक्ति करके जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करके सकलीकरण क्रिया करे। पुराकर्मपूर्वक विधिवत् जिनेन्द्र भगवान का पंचामृत अभिषेक करे, अनंतर अष्ट द्रव्य से ग्यारह२ प्रकारी पूजा करे, पुन: यंत्रादि की पूजा करके जाप्य करके ‘चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति करके शांतिभक्ति और समाधिभक्ति करे, इस प्रकार श्रावक पूजा या सामायिक में सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति और शांति भक्ति का होना बहुत ही जरूरी है, ऐसा श्री पूज्यपाद आचार्य ने भी अपने पंचामृताभिषेक पाठ में लिखा है। यथा-‘कृत्वाऽहं सिद्ध भक्ति बुधनुत सकलीसत्क्रियां चादरेण; मैं सिद्धभक्ति करके सकलीकरण को आदरपूर्वक करता हूँ। आगे पंचामृताभिषेक और पूजन के अनंतर कहा है कि ‘आराध्यार्हंतमष्टोत्तर शतममलं चैत्यभक्त्यादिभिश्च। स्तुत्वा श्री शांतिमंत्र…….।
अर्हंतदेव की १०८ जाप्य करके चैत्यभक्ति आदि (आदि से पंचगुरुभक्ति) पढ़कर शांति मंत्र (शांति भक्ति) को पढ़ें।
यहाँ यह निष्कर्ष निकला कि विधिवत्३ देवपूजा करने से श्रावक की सामायिक क्रिया पूर्ण हो जाती है अथवा जो श्रावक देवपूजापूर्वक सामायिक न करना चाहें वे ईर्यापथशुद्धिपूर्वक चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति करके ही सामायिक४ करें। विधिवत् सामायिक करने वाला श्रावक असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा करते हुए महान पुण्य का बंध कर लेता है। द्रव्यलिंगी मुनि भी सामायिक के प्रभाव से नव ग्रैवेयक में उâपर वाले ग्रैवेयक तक चले जाते हैं तो फिर जो सम्यग्दृष्टी भावपूर्वक सामायिक करते हैं उनके फल का क्या कहना है ? सामान्य अविरति श्रावक या पहली प्रतिमाधारी श्रावक कम से कम एक बार सामायिक अवश्य करें। दो प्रतिमाधारी के लिए दो बार तो नियम ही है। तीन प्रतिमाधारी को त्रिकाल में तीन बार सामायिक अवश्य ही करना चाहिए।
प्रोषध प्रतिमा-प्रत्येक मास की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी ऐसे चार पर्वों में जो विधिवत् उपवास किया जाता है उसे प्रोषधोपवास कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य। सप्तमी और त्रयोदशी के दिन अतिथि के आहार के अनंतर स्वयं भोजन करे, वहीं पर मुखशुद्धि करके उपवास संबंधी नियम करके जिन मंदिर में गुरु के पास विधिवत् चारों आहार के त्यागरूप उपवास ग्रहण करना। उस दिन अष्टमी और चतुर्दशी के दिन पूरा समय पूजन, स्वाध्याय, वंदना आदि में व्यतीत करके नवमी या पूर्णमासी के दिन प्रात: पूजन के पश्चात् अतिथि को आहारदान देकर स्वयं पारणा करना यह उत्तम प्रोषध विधि है। इसमें सप्तमी, नवमी, त्रयोदशी और पूर्णिमा के दिन एकाशन ही होता है शाम को पानी नहीं ले सकते हैं तथा अष्टमी और चतुर्दशी को चतुराहार त्याग उपवास रहता है।
मध्यम विधि में अष्टमी, चतुर्दशी के दिन जल ग्रहण कर लेना और तीन प्रकार के आहार का त्याग करना, शेष विधि पूर्वोक्त है।
जो अष्टमी और चतुर्दशी के दिन आचाम्ल, निर्विकृfित, एकस्थान अथवा एकभुक्ति करता है, वह जघन्य प्रोषध विधि को करने वाला है।
आचाम्ल-एक बार रूक्ष या नीरस भोजन करना आचाम्ल है अथवा पानी में उबले चावलों को इमली आदि के रस के खाना भी आचाम्ल माना गया है।
निर्विकृति-जिस भोजन के करने से जिह्वा और मन विकार को प्राप्त हो, उसे विकृति कहते हैं। इसके चार भेद हैं-गोरसविकृति, इक्षुरस विकृति, फलरसविकृति और धान्यरसविकृति। दूध, दही, घी, मक्खन आदि को गोरस कहते हैं। गुड़, खांड, शक्कर, मिश्री आदि को इक्षुरस कहते हैं। अंगूर, अनार, आम, संतरे, मौसमी आदि फलों के रस को फलरस कहते हैं। तेल, मांड आदि को धान्यरस कहते हैं। इन चारों प्रकार के रसों से रहित भोजन निर्विकृति कहलाता है अथवा यहाँ तक कि मिर्च मसाले से भी रहित बिल्कुल सात्विक भोजन को निर्विकृति भोजन कहा जाता है।
उपवास की शक्ति न होने से प्राय: लोग यह निर्विकृति विधि करते हैं।
एकस्थान-एक बार थाली में परोसे गये भोजन को ग्रहण करना, दोबारा परोसे गये भोजन को नहीं लेना। एकस्थान का ऐसा अर्थ किया जाता है।
एकभुक्ति-एक बार ही भोजन, पान, प्रासुक औषधि आदि लेकर पुन: त्याग कर देना, दूसरी बार पानी भी नहीं पीना। यह एकभुक्ति कहलाती है।
सचित्तत्यागप्रतिमा-जहाँ पर हरित, छाल, पत्र, कोंपल, वंâद, फल, बीज और अप्रासुक जल का त्याग किया जाता है वह सचित्तत्याग नामक पाँचवीं प्रतिमा है१।
रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा-जो मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदना से दिन में मैथुन का त्याग करता है, वह श्रावक छठी प्रतिमाधारी है।
रात्रिभुक्तित्याग में श्री स्वामी समंतभद्र ने रात्रि में चतुराहार का मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदना रूप से त्याग करने को कहा है। यहाँ तक छह प्रतिमा को
धारण करने वाले श्रावक गृहस्थाश्रमी हैं। न्यायनीति से, व्यापार आदि करते हुए गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए अपने जीवन को सफल कर लेते हैं।
ब्रह्मचर्य प्रतिमा-जो मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदना रूप नौ प्रकार से मैथुन को सर्वथा त्याग कर देता है, वह स्त्री कथा आदि से भी विरक्त होता हुआ सप्तम२ प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी कहलाता है।
आरंभत्याग प्रतिमा-जो कुछ भी थोड़ा या बहुत गृहसंबंधी आरंभ होता है, उसे जो सदा के लिए त्याग करता है वह आरंभ से निवृत्त हुआ आरंभत्याग नामक आठवीं प्रतिमा का धारी कहलाता है।
परिग्रहत्याग प्रतिमा-जो वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है, उसे परिग्रह प्रतिमाधारी नवमां श्रावक जानना चाहिए।
अनुमतित्याग प्रतिमा-स्वजन तथा परजनों के द्वारा पूछे जाने पर भी जो श्रावक गृहसंबंधी कार्य में अनुमति नहीं देता है। वह दसवीं अनुमतित्याग प्रतिमाधारी कहलाता है।
उद्दिष्टत्याग प्रतिमा-ग्यारहवें प्रतिमास्थान में आया हुआ श्रावक उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। यह उद्दिष्ट से बने हुए भोजन का त्यागी होता है अर्थात् कोई इनके उद्देश्य से कुछ बनाकर उनसे कहे तो वह उसे ग्रहण नहीं करता है। उस श्रावक के दो भेद हैं-क्षुल्लक और ऐलक।
क्षुल्लक एक खंडवस्त्र और एक लंगोटी रखता है। वैंâची या उस्तरे से हजामत करा सकता है, पीछी आदि उपकरण से अपने स्थान आदि का प्रतिलेखन करता है। बैठकर पाणिपात्र या थाली आदि में एक बार आहार लेता है। पात्र को प्रक्षालन कर चर्या के लिए श्रावक के घर में जावे, वहाँ आंगन में ठहरकर ‘धर्मलाभ’ कहकर स्वयं भिक्षा मांगता है। न मिलने पर अदीनमुख हो वहाँ से शीघ्र निकलकर दूसरे घर में जाता है और मौन से अपने शरीर को दिखलाता है। आवश्यक भिक्षा मिलने के पश्चात् किसी एक घर में भोजन करके यत्नपूर्वक अपने पात्र को प्रक्षालन कर गुरु के जाता है। यदि किसी को उक्त विधि से गोचरी नहीं रुचे तो वह मुनियों१ के गोचरी कर जाने के पश्चात् चर्या को निकले और किसी एक श्रावक के घर में जाकर आहार ग्रहण करे पश्चात् गुरु के समीप आकर प्रत्याख्यान ग्रहण कर प्रयत्न के साथ सब दोषों की आलोचना करे।
ऐलक-ये श्रावक नियम से केशलोंच करते हैं, पीछी रखते हैं और पाणिपात्र में ही भोजन करते हैं।
ये प्रथम प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक ऐलक पर्यंत स्थान वाले श्रावक ही कहलाते हैं, इन्हें उपासक और देशव्रती भी कहते हैं।
देशव्रती की वज्र्याक्रिया-दिन में प्रतिमायोग धारण करना अर्थात् नग्न होकर दिन भर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या अर्थात् मुनि के समान गोचरी करना, त्रिकाल योग-गर्मी में पर्वत पर, बरसात में वृक्ष के नीचे और सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, सिद्धांत ग्रंथों का अध्ययन करना और रहस्य-प्रायश्चित्तशास्त्र का अध्ययन, इतने कार्यों में देशव्रती श्रावकों का अधिकार नहीं है।
इस प्रकार से यहाँ ग्यारह प्रतिमाओं का संक्षेप में वर्णन किया है।
श्महान औषधि क्या है?
जिणवयणमोसहमिणं विसहसुहविरेयणं अमिदभूदं।
जरमरणवाहिहरणं रवयकरणं सव्वदुक्खाणं।।
अर्थ-जिनेन्द्रदेव के वचन महान औषधि हैं, ये विषयसुखों का विरेचन कराने वाले हैं, अमृतरूप हैं, जरा और मरणरूप महाव्याधि को दूर करने वाले हैं तथा संपूर्ण दु:खों का क्षय करने वाले हैं।
(भगवान कुन्दकुन्द दर्शनप्राभृत)