(१) दिगम्बर गुरु श्री अकंंपन आचार्य महाराज शहर और ग्रामों में विहार करते हुए उज्जयिनी नगरी के उद्यान में जाकर ठहर जाते हैं। उनके साथ सात सौ मुनियों का विशाल संघ है। इतने बड़े संघ के अधिनायक आचार्य अपने निमित्तज्ञान से इस बात को जान लेते हैं कि यहाँ पर संघ के लिए कुछ अनिष्ट की संभावना है। तत्काल ही अपने सारे संघ को बुलाकर आदेश देते हैं— ‘‘हे मुनियो! यहाँ पर राजा, मंत्री या कोई भी प्रतिष्ठित व्यक्ति अथवा सामान्य प्रजा के लोग कोई भी दर्शनार्थ क्यों न आवें, आप कोई भी मुनि न तो उनके साथ कुछ वार्तालाप ही करना और न कुछ धर्म चर्चा ही। सभी मुनि मौन लेकर अपने आत्मतत्त्व का चिंतवन करो। यह मेरी आज्ञा है।’’ सभी साधु बिना कुछ पूछे-ताछे ही गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर लेते हैं और प्रात: श्रावकों के दर्शन के समय सब मौन लेकर ध्यान में बैठ जाते हैं। प्रात:काल शहर में मुनिसंघ के आने का समाचार पहुँचते ही सभी श्रावक हाथ में पूजा द्रव्य लेकर अपने-अपने घर से चल पड़ते हैं और उद्यान में पहुँचकर जय-जयकार करते हुए गुरुओं की वंदना करते हैं। कोई स्तोत्र पाठ करते हैं तो कोई अष्ट द्रव्य से गुरुओं के चरणकमलों की पूजा करते हैं। प्रात:काल की मधुर बेला में उज्जयिनी के शासक राजा श्रीवर्मा अपने महल की छत पर बैठे हुए हैं और उनके पास में ही उनके चारों मंत्री बैठे हैं। उनके नाम हैं—बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि। ये मंत्री राजनीति में निपुण होते हुए भी धर्म के कट्टर शत्रु हैं और दिगम्बर मुनियों के प्रति बहुत ही द्वेष करने वाले हैं। राजा श्रीवर्मा जब महल से नीचे राजपथ पर दृष्टि डालते हैं तब देखते हैं कि बहुत से लोग हाथ में पूजन सामग्री लिए हुए उद्यान की ओर जा रहे हैं। वे कुतूहलवश मंत्रियों से पूछते हैं— ‘‘हे मंत्रियोें! आज ये सब लोग पूजन सामग्री हाथ में लिए हुए कहाँ जा रहे हैं?’’ मंत्री कहते हैं— ‘‘राजन्! अभी यहाँ आते हुए हमने सुना है कि अपने शहर के बगीचे में नित्य ही नंगे रहने वाले साधु आए हुए हैं। ये सब लोग उन्हीं के दर्शन करने जा रहे हैं।’’ राजा प्रसन्न होकर कहते हैं— ‘‘मंत्रियों! हमें भी चलकर उनके दर्शन करना चाहिए। वे महापुरुष होंगे।’’ मंत्री कहते हैं— ‘‘राजन्! ये नंगे साधु कुछ नहीं रखते हैं, मूर्ख होते हैं। इनके दर्शन से कुछ भी फल नहीं मिलता है।’’ राजा मंद-मंद मुस्कराते हुए कहते हैं— ‘‘मंत्रीगण! जो भी हो, हमें उनके दर्शनों की तीव्र उत्कण्ठा हो रही है। अत: हम तो दर्शन करने जायेंगे ही।’’ तब चारों मंत्री भी राजा के साथ-साथ चल पड़ते हैं। वहाँ पहुँच कर राजा मुनियों को देखकर दूर से ही अपने वाहन से उतरकर पैदल चलकर उनके निकट पहुँच कर बहुत ही प्रसन्न हो जाते हैं। पुन: क्रम-क्रम से एक-एक मुनि को नमस्कार करते चले जाते हैं। परन्तु उस समय कोई भी मुनि न तो हाथ उठाकर राजा को आशीर्वाद देते हैं और न दृष्टि उठाकर उनकी ओर देखते हैं। गुरु की आज्ञानुसार सब ध्यानमुद्रा में स्थित हैं। आशीर्वाद के न मिलने से भी राजा उन वीतरागी निग्र्रंथ गुरुओं का दर्शन करके अपने जीवन को धन्य समझ रहे हैं, किन्तु बीच-बीच में वे मंत्री बोलते ही जा रहे हैं। ‘‘देखिए राजन्! मैंने आपको पहले ही कहा था कि ये नंगे साधु कुछ बोलना नहीं जानते हैं, अत: अपनी पोल न खुल जाए इसीलिए ये सब ध्यान का ढोंग लेकर बैठ गए हैं।’’ राजा मंत्रियों की बात को सुनी-अनसुनी करके भक्तिपूर्वक पुन: सबको नमस्कार करते हैं और पुन: वापस अपने महल की ओर चले आ रहे हैं। मंत्रीगण परस्पर में यही चर्चा करते आ रहे हैं कि— ‘‘देखो! ये बेचारे बोलना तक भी नहीं जानते हैं सब निरे मूर्ख हैं।’’ ‘‘यही तो कारण है कि सब मौनी बने बैठे हुए हैं।’’ ‘‘इन्हें देखकर बेचारे साधारण लोग तो यही समझेंगे कि ये सब आत्मध्यान में निमग्न हैं।’’ ‘‘ओह! कितना बड़ा कपटजाल रच रखा है इन ढोंगी साधुओं ने?’’ ‘‘देखो तो सही, ये भोली समाज को धोखा देने में कितने कुशल हैं।’’ ‘‘सचमुच में ये बड़े दांभिक हैं।’’ इस प्रकार त्रैलोक्य पूज्य, परम शांत उन वीतरागी मुनियों की निंदा करते हुए ये धर्मद्रोही राजा के साथ वापस लौट रहे हैं कि मध्य में ही इन्हें सामने से आते हुए एक मुनि दृष्टिगोचर हो जाते हैं। तब वे चारों ही मंत्री उनकी हँसी करते हुए कहते हैं— ‘‘महाराज! देखिये, यह एक बैल पेट भरकर चला आ रहा।’’ इतना सुनते ही वे मुनिराज समझ जाते हैं कि ये मंत्री वाद-विवाद करने के इच्छुक हैं। उसी समय मुनिराज वहाँ पर कुछ रुक जाते हैं और पूछ लेते हैं— ‘‘कहो! बैल का लक्षण क्या है?’’ इतना प्रश्न आते ही वे चारों अभिमानी मुनि के साथ शास्त्रार्थ करना शुरू कर देते हैं। वे मुनिराज बहुत ही बड़े ज्ञानी हैं। श्रुतसागर उनका नाम है। यथानाम तथागुण के अनुसार वे लीलामात्र में ही उन चारों मंत्रियों को पराजित कर निरुत्तर कर देते हैं, तब वे बेचारे झेंप जाते हैं और राजा प्रसन्नचित्त हो मुनिराज को पुन:-पुन: नमस्कार करके उनके वाक्चातुर्य व समीचीन ज्ञान की प्रशंसा करते हुए अपने महल वापस आ जाते हैं। उधर मुनिराज श्रतुसागर आचार्यदेव के चरण सानिध्य में पहुँचकर वंदना करके गोचरी प्रतिक्रमण करते हैं पुन: प्रत्याख्यान ग्रहण कर गुरु के पादमूल में बैठकर विनयपूर्वक मार्ग में राजा के साथ मंत्रियों से हुई शास्त्रार्थ की सारी बातों को सुना देते हैं। सुनकर गुरुदेव कहते हैं— ‘‘ओह! बहुत ही बुरा हुआ, तुमने अपने हाथों से सारे ही संघ का घात कर लिया, संघ की अब कुशल नहीं है।’ श्रुतसागर मुनि घबड़ाकर हाथ जोड़कर पूछते हैं— ‘‘गुरुदेव! सौ वैâसे?’’ आचार्य श्री कहते हैं— ‘‘मैंने जब प्रात: सभी मुनियों को किसी से न बोलने का आदेश दिया था तब तुम उपस्थित नहीं थे सो तुम्हें मालूूम नहीं था अत: तुमने इस धर्मद्रोही राजमंत्रियों के साथ शास्त्रार्थ कर लिया है तो अच्छा नहीं हुआ है।’’ श्रुतसागर जी पूछते हैं— ‘‘गुरुदेव! मेरे से अनजाने में बहुत बड़ा अपराध हो गया है अब संघ पर कोई विपत्ति न आ जाए उसके पहले ही आप हमें उचित प्रायश्चित्त दे दीजिए।’’ आचार्यदेव कहते हैं— ‘‘हे मुनि! यदि तुम सर्वसंघ की कुशलता चाहते हो तो वापस पीछे जाओ जहाँ पर मंत्रियों के साथ शास्त्रार्थ किया है। तुम अकेले उसी स्थान पर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान में स्थित हो जाओ।’’ आचार्यदेव की आज्ञा पाकर श्रुतसागर तत्क्षण ही गुरु के पादमूल की वंदना कर वहाँ से वापस आकर उसी स्थान पर ध्यान मग्न हो खड़े हो जाते हैं। ग्रंथकार कहते हैं कि— ‘सचमुच में— शिष्यास्तेऽत्र प्रशस्यन्ते ये कुर्वंति गरुोर्वच:। प्रीतितो विनयोपेता भवन्त्यन्ये कुपुत्रवत्।। शिष्य वे ही प्रशंसा के पात्र हैं जो विनयपूर्वक बड़े प्रेम से गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं। इसके विपरीत जो शिष्य होते हैं वे कुपुत्र के समान निंदा के पात्र हैं।’
(२) राजा के सामने एक नंगे साधु से शास्त्रार्थ में पराजित होकर वे चारों मंत्री बहुत ही लज्जित हुए अपने घर आ जाते हैं और अपने मान भंग का बदला चुकाने के लिए एक साथ बैठकर मंत्रणा करना शुरू कर देते हैं। मंत्रणा करके मुनियों का वध करने का निर्णय लेकर वे चारों ही रात्रि के समय हाथ में नंगी तलवार लेकर शहर से बाहर आ जाते हैं और मुनिसंघ के उद्यान की ओर चल पड़ते हैं। मार्ग में ही वे एक मुनि को ध्यान में खड़े देखकर निकट जाकर पहचानते हैं। पुन: कहते हैं— ‘अहो! यह वही दुष्ट है जिसने हमें शास्त्रार्थ में हराया है। पहले इसी का काम तमाम करो फिर आगे बढ़ो।’ ‘हाँ, हाँ, सच में दोषी तो यही है और सब बेचारे तो कुछ बोले भी नहीं थे।’’ ‘बस क्या देखते हो? एक साथ तलवार का वार करके इसकी गर्दन उड़ा दो।’ इतना कहते ही वे चारों व्रूâरकर्मा क्रोध से भरपूर हो एक साथ तलवार उठाकर गर्दन पर चलाना चाहते हैं कि मध्य में ही नगर देवता का आसन वंâपते ही उसी समय वह आकर उन चारों को वैसे ही तलवार उठाये मुद्रा में उसी जगह कील देते हैं। वे चारों उस क्रूरमुद्रा में जैसे के तैसे वहीं पर खड़े रह जाते हैं, किंंचित् मात्र भी टस से मस नहीं हो पाते हैं। अब वे मन ही मन सोचने लगते हैं— ‘ओह! यह क्या हुआ? अब प्रात: क्या होगा?……… प्रात:काल होते ही बिजली की तरह यह खबर सारे शहर में फैल जाती है। तभी सारा शहर यह कुतूहलपूर्ण दृश्य देखने के लिए उमड़ पड़ता है। सभी लोग एक स्वर में मंत्रियों को धिक्कारते हुए कहते हैं— ‘अरे, रे! इन पापियों को धिक्कार हो, धिक्कार हो! अरे जब साधारण क्षुद्र प्राणी की िंहसा करना भी महापाप है, तो भला इन जगत्पूज्य महासाधुओं की हिंसा करना महापाप क्यों नहीं होगा? तभी तो देवों ने इन्हें कील दिया है।’ ‘अच्छा ही हुआ, तभी तो लोग पाप से डरेंगे। पाप का फल परलोक में तो दु:ख देता ही है, इसलोक में भी दु:ख, अपयश और अपमान को कराने वाला है।’ ‘अहो! इन दुष्टों ने जैसा किया उसका फल इन्हें लगे हाथ मिल गया।’ इसी बीच महाराजा श्रीवर्मा भी अपनी रानी श्रीमती के साथ वहाँ पर आ जाते हैं जहाँ पर इतनी भीड़ इकट्ठी हुई है। राजा ऐसा दृश्य देखकर बहुत ही खेद के साथ कहते हैं— ‘अरे पापियों! तुमने संसार के महाउपकारी और निर्दोष ऐेसे महामुनियों के साथ यह क्या किया? अरे! पहले ही तुमने उनकी निंदा कर हमें उनके दर्शनों से रोकना चाहा, पुन: वहाँ पहुँच कर उन तपस्वी साधुओं की हँसी की, निंदा की। इतने पर भी संतोष नहीं हुआ तो मार्ग में आते हुए मुनि की अवहेलना कर उनके साथ शास्त्रार्थ किया। इसके पश्चात् तो तुम उनके विशाल ज्ञान को समझ चुके थे, फिर भी तुम लोगों ने उनको मारने का यह षड्यंत्र क्यों बनाया?……. तभी पुरदेवता उन्हें छोड़ देता हैं और गुरु श्रुतसागर के चरणों की बहुत ही भक्ति से पूजा करता है। तब राजा उन मस्तक नीचा किए हुए मंत्रियों से पुन: कहते हैं— ‘अरे दुष्टों! तुम्हारा मुख देखना भी महापाप है। तुम्हें इस मुनि हत्या के महापाप का दण्ड तो मुझ राजा को देना ही चाहिए। तुम्हारे लिए उपयुक्त दण्ड तो यही है कि जैसा तुम करना चाहते थे वही तुम्हारे लिए किया जावे।….. फिर भी पापियों! तुम्हारी कितनी ही पीढ़ियाँ मेरे यहाँ मंत्रीपद पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं इसीलिए मैं तुम्हें प्राणों का अभय दे रहा हूँ।’ पुन: राजा अपने कर्मचारियों से कहते हैं— ‘कर्मचारियों! तुम इन चारों को ले जाकर गधे पर बिठाकर इन्हें अपने देश की सीमा से बाहर निकाल दो।’ उसी समय राजाज्ञा का पालन किया जाता है। सारे शहर के लोग उधर उन मंत्रियों की निंदा कर रहे हैं और इधर महामुनि श्रुतसागर के तपश्चरण के पुण्य-प्रभाव की प्रशंसा कर रहे हैं। मुनि के साथ-साथ आचार्यदेव श्री अकंपनाचार्य के चरण सानिध्य में पहुँचकर जयकारों की ध्वनि से आकाश को मुखरित कर रहे हैं। आचार्यदेव भी इस प्रकार से आने वाली संघ की आपत्ति टल जाने से संतुष्ट दिख रहे हैं और संघ के सभी साधु गुरु के अनुशासन का प्रत्यक्ष सुखद अनुभव प्राप्त कर गुरु के अनुशास्य शिष्य होने से अपने आपको गौरवान्वित कर रहे हैं।
(३) हस्तिनापुर के राजा महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के युवराज पद के भार ग्रहण करने हेतु समझा रहे हैं किन्तु विष्णुकुमार कहते हैं— ‘‘पूज्य पिताजी! जिस राज्य और सांसारिक वैभव को छोड़कर आप दीक्षा लेना चाहते हैं वह राज्य व वैभव हमारे लिए भी हितकर केसे हो सकता है ? अत: निर्वाण सुख की प्राप्ति के लिए मैं भी आपके साथ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करूँगा।’’ तब दोनों ही पिता-पुत्र वन में जाकर महामुनि श्रुतसागरसूरि के चरण सानिध्य में पहुँचते हैं और उनके करकमलों से जैनेश्वरी दीक्षा लेकर घोरातिघोर तपश्चरण करना शुरू कर देते हैं। इधर पद्म महाराज राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हो प्रजा का पुत्रवत् पालन कर रहे हैं। उज्जयिनी से निकाले जाने पर वे बलि आदि चारों मंत्री यहाँ आकर वाक् चतुराई से राजा के यहाँ मंत्री पद को प्राप्त कर लेते हैं। किसी समय राजा को चिंतित देख उसका कारण ज्ञातकर राजा से निवेदन करते हैं— ‘‘राजन्! यह सिंहबल राजा किस अभिमान में हैं? भला जो आपके राज्यशासन में आतंक मचा रहा है और आपके वश में न होकर आपको चिन्तित रखा है। आप हमें आज्ञा दीजिए, हम उसे जीवित ही पकड़कर आपके सामने उपस्थित कर देंगे।’’ राजा उनकी बातों से प्रसन्न हो उनके साथ बहुत सी सेना दे देते हैं। वे चारों मंत्री कुम्भपुर नगर पर चढ़ाई कर अपने बुद्धिबल से सिंहबल को जीवित ही पकड़कर बाँधकर हस्तिनापुर लाकर राजा पद्म के सामने खड़ा कर देते हैं। राजा पद्म इन मंत्रियों की इस कार्य कुशलता से प्रसन्न हो उन्हें वर माँगने को कहते हैं तब मंत्रीगण निवेदन करते हैं। ‘‘महाराज! अभी हमारा वर आप धरोहररूप में अपने पास ही रहने दीजिए, आवश्यकतानुसार हम ले लेंगे।’’ इसी समय अकंपनाचार्य महामुनि अपने सात सौ मुनियों के साथ विहार करते हुए यहाँ आकर हस्तिनापुर के बाहर उद्यान में ठहर जाते हैं और वर्षायोग का समय ज्ञातकर वर्षायोग नियम ग्रहण कर लेते हैं। श्रावक लोग संघ की उपासना के लिए प्रतिदिन उनकी वंदना, पूजा, भक्ति करना शुरू कर देते हैं। ‘‘श्री अवंâपनाचार्य महामुनि संघ सहित यहाँ आये हैं’’ यह समाचार मंत्रियों को मिलते ही उन्हेें अपने अपमान की बात याद आ जाती है। उन चारों का हृदय प्रतिहिंसा की भावना से उद्विग्न हो उठता है। वे चारों एकांत में बैठकर परस्पर में विचार करते हैं— ‘‘अहो! यही समय उपयुक्त है इनसे बदला चुकाने का, इन्हीं दुष्टों के द्वारा अपने को कितना दु:ख उठाना पड़ा है ? सभी लोगों के बीच में हमें धिक्कारा गया है और उज्जयिनी से अपमानित होकर देश निकाले का दण्ड दिया है। देखो, राजा पद्म इनके परम भक्त हैं, वे अपने शासन में इनका अहित वैâसे होने देंगे ?’’ तब बलि मंत्री कहता है— ‘‘सुनो, हम लोगों ने सिंहबल को जीत लेने पर राजा से जो वर प्राप्त किया था, वह राजा के पास सुरक्षित है। इन मुनियों का काम तमाम करने के लिए हमें राजा से सात दिन का राज्य प्राप्त कर लेना चाहिए।’’ तीनों मंत्री प्रसन्न होकर बलि के बुद्धि चातुर्य की सराहना करते हैं और कहते हैं— ‘‘ठीक ठीक, बहुत ठीक, फिर तो जैसा हम करेंगे वैसा ही होगा। राजा के हाथ में कुछ भी अधिकार नहीं रह जायेगा।’’ ये मंत्री उसी समय राजा के पास पहुँच कर निवेदन करते हैं— ‘‘हे राजन्! जो आप हमें वर देना चाहते थे, सो आज हमें आवश्यकता है।’’ राजा कहते हैं— ‘‘कहो, आप लोगों को क्या चाहिए ? मैं वचनबद्ध हूँ, आप जो माँगोेगे सो मैं देने को तैयार हूँ।’’ तब बलि कहता है— ‘‘महाराज! हमें सात दिन के लिए अपना राज्य प्रदान कीजिए।’’ राजा पद्म ऐसा सुनते ही अवाक् रह जाते हैं उनके मन में कुछ अनर्थ की आशंका हो जाती है किन्तु अब वे कर ही क्या सकते थे ? वे वचनबद्ध थे अत: उन्हें राज्य देना ही पड़ा। राजा उन मंत्रियों को राज्य सौंपकर स्वयं सात दिन के लिए अपने घर पर आकर निवास कर रहे थे। इधर ये दुष्ट मंत्री राज्य पाकर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और एकांत में परामर्श कर मुनियों के मारने के लिए महायज्ञ का बहाना बनाकर षड्यंत रचते हैं जिससे कि सर्व साधारण लोग कुछ न समझ सकेँं। उस समय वे मंत्री मुनियों को बीच में रखकर उनके चारों तरफ एक बहुत बड़ा मंडप तैयार कराते हैं। उनके चारों तरफ लकड़ियों का ढेर इकट्ठा करवा देते हैं, बकरी, भेड़ें आदि हजारों पशु वहीं बाड़ा बनवाकर बंधवा देते हैं और यह घोषणा करा देते हैं कि देश तथा राज्य की शांति के लिए ‘पशुमेघ’ यज्ञ प्रारंभ किया है। तमाम वेद-वेदांग पारंगत विद्वान यज्ञ कराने के लिए वहाँ आकर ठहर जाते हैं और वेद ध्वनि से यज्ञ मण्डप को गुंजायमान कर देते हैं। बेचारे निरपराध पशुओं को निर्र्दयतापूर्वक मारा जा रहा है। मंत्रोच्चारणपूर्वक पशुओं की आहुतियाँ दी जा रही हैं। देखते-देखते दुर्गंधित धुएं से सारा आकाश परिपूर्ण हो जाता है। श्री अवंâपनाचार्य महाराज और सभी सात सौ मुनिगण इस दुर्घटना को देखकर अपने ऊपर उपसर्ग समझ लेते हैं। तब वे सब महामुनि अपने संयम की रक्षा हेतु आगम विधि के अनुसार सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं। अर्थात्— ‘‘यदि मैं इस उपसर्ग से जीवित बचूँगा तो पुन: अन्न जल ग्रहण करूँगा, अन्यथा इस उपसर्ग के न हटने तक मेरे चारों प्रकार के आहार का त्याग है।’’ इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर लेना नियम सल्लेखना है तथा बचने की संभावना न होने पर जीवन भर के लिए चतुराहार त्याग करना यम सल्लेखना है। उपर्युक्त प्रकार से नियम सल्लेखना लेकर सभी साधु शरीर से निर्मम होते हुए बारह भावनाओं के चिंतन में तल्लीन हो जाते हैं। चारों तरफ से अग्नि की लपट और पशुओं की आहुति से उत्पन्न होने वाले दुर्गंधित धुयें से सभी मुनियों के शरीर में तथा कण्ठ में घोर वेदना हो रही है। दिगम्बर मुनियों की चर्या ऐसी ही है कि ऐसे उपसर्ग के समय न वे उठकर कहीं अन्यत्र गमन कर सकते हैं, न कुछ प्रतीकार ही कर सकते हैं, वे तो मात्र आगम की आज्ञा के अनुसार ऐसे कष्टों को उपसर्ग समझ कर सहन करते हुए सल्लेखना की ही शरण ले लेते हैं और शत्रुओं पर क्रोध, कषाय न करते हुए पूर्ण क्षमा धारण करते हैं। आज भी दिगम्बर जैन मुनि किसी भी प्रकार के पर के द्वारा किये गए असि प्रहार आदि उपसर्गों के आ जाने पर क्षमा भाव से सहन करते हुए देखे जाते हैं। वे सभी मुनि विचार कर रहे हैं— ‘‘अहा! जब पाँच सौ मुनियों को घानी में पेल दिया गया था अब उन्हें कैसी वेदना हुई होगी ? यह अग्निकाण्ड के द्वारा होने वाले उपसर्ग शरीर को ही नष्ट करेगा मेरी आत्मा को नहीं, क्योंकि आत्मा तो अजर-अमर है, अविनाशी है। मेरी आत्मा को मृत्यु नहीं है तो भय किसका ? मेरी आत्मा को व्याधि नहीं है तो पीड़ा किसको? न मैं बालक हूँ, न युवा हूँ, न वृद्ध हूँ, ये तो पुद्गल की पर्यायें हैं।’’ इस प्रकार से आध्यात्मिक भावना को भाते हुए वे सभी मुनि पर्वत के समान अवंâप होकर निश्चल शरीर करके तिष्ठे हुए हैं। जब अधिक वेदना का अनुभव होने लगता है तब वे मुनि अपनी आत्मा को संबोधन करते हैं— ‘‘हे आत्मन्! जब कभी तू नरक में गया है तो कैसी वेदनाएँ भोगी हैं ? उनका स्मरण कर। अरे! वहाँ करोंत से चीरा जाना, कुम्भीपाक में पकाया जाना, तिल-तिल बराबर टुकड़े किए जाना, मुद्गरों से पीटे आदि भंयकर कष्ट भोगे हैं। पशुयोनि में भी बलि और अग्नि आहुति कितने कष्ट भोगे हैं? छेदन-भेदन, मारने, पीटने, हिंसकों, व्याधों द्वारा मारे जाने वाले, काटे जाने वाले, शस्त्रों से छिन्न-भिन्न किये जाने आदि के कितने कष्ट भोंगे हैं ? मनुष्योनि में भी गर्भवास में नव महीने रहने के कितने कष्ट भोगे हैं ? यदि अब संसार के दु:खों से छुटकारा पाना है तो इस उपसर्ग को शांतिपूर्वक सहन करो, जिससे पुन:पुन: संसार में जन्म न लेना पड़े।’ इत्यादि प्रकार से ये मुनि उपसर्ग सहन कर रहे हैं। इधर जब हस्तिनापुर नगरी के श्रावक-श्राविकाएँ मुनियों के ऊपर ऐसा उपसर्ग देखते हैं, तो दहल उठते हैं। हा-हा कार करने लगते हैं। परन्तु अब वे लोग कर ही क्या सकते हैं ? दु:खी प्रजा राजा की शरण में जाती है किन्तु जब राज्यगद्दी पर आसीन होकर राजा ही ऐसा अनर्थ कर रहा है तब बेचारी प्रज्ञा विंâकत्र्तव्य विमूढ़ हो गई है। बहुत से श्रावक मुनियों के इस भयंंकर उपसर्ग के दूर होने तक के लिए कुछ न कुछ वस्तु का त्याग कर बैठ गये हैं। कुछ श्रावक उपसर्ग निवारण हेतु उपायों को सोच-सोच कर पुन: कुछ मार्ग न देखकर आँखों से अश्रु गिरा रहे हैं। इधर बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि ये चारों दुष्टात्मा राज्य को प्राप्त कर पूâले नहीं समा रहे हैं और मुनियों को मारने के लिए यज्ञ विधि का आयोजन करके किमिच्छक दान बाँट रहे हैं। राजा पद्म का कोश खोल दिया है और सारे शहर में घोषणा कर दी है कि— ‘महायज्ञ के अवसर पर सभी को मुँह माँगे सुवर्ण, धन और रत्न आदि दिये जा रहे हैं। जिसको जो चाहिए सो माँग लो और कई पीढ़ियों तक के लिए दरिद्रता को समाप्त कर दो।’ धन के लोभी, दरिद्री और अनाथ लोग ऐसी दान की घोषणा सुनकर चारों तरफ से चले आ रहे हैं और मन चाहे धन, सुवर्ण, रत्न आदि प्राप्त कर खुशियाँ मना रहे हैं। भला उन बेचारों को मुनियों के इस अग्नि उपसर्ग के कष्ट की क्या कल्पना ? मानो इस मुनि उपसर्ग को न देख सकने के ही कारण सूर्यदेव अस्ताचल को प्राप्त हो गये हैं। हस्तिनापुर निवासी सज्जन लोग चिंतातुर हो सोच रहे हैं— ‘‘अहो! मनुष्यों के हाथ से राज्य व्रूâर राक्षसों के हाथ में चला गया है अब क्या होगा ? त्रिभुवन पूज्य इन गुरुओं की रक्षा वैâसे होगी ? हे नाथ! हे जिनेन्द्रदेव! हे भगवन्! इस भयंकर स्थिति में अब इन महामुनियों के लिए आप ही शरण हैंं। हे भगवन्! रक्षा करो, रक्षा करो।’’ चारों तरफ से ऐसी आवाज उठ रही है—
(४) मिथिला नगरी के बाहर उद्यान में श्री श्रुतसागरमुनि रात्रि के समय ध्यान में स्थित हैं। अर्धरात्रि के अनंतर वे ध्यान को विसर्जित कर आकाश की ओर दृष्टिपात करते हैं तो देखते हैं ‘श्रावण नक्षत्र कंंपायमान हो रहा है’ नक्षत्र कंंतपते हुए देखकर अपने निमित्तज्ञान से विचारते हैं और सहसा मुख से बोल पड़ते हैं— ‘हाय! हाय!!’’ पास में ही पुष्पदंत नाम के क्षुल्लक जी बैठे हुए थे, वे गुरु के मुख से सहसा ‘हाय, हाय,’ शब्द सुनकर घबराकर पूछते हैं— ‘भगवन्! क्या हुआ, क्या हुआ!!’ श्रुतसागरसूरि कहते हैं— ‘मुनियों पर बहुत बड़ा उपसर्ग हो रहा है।’ क्षुल्लक जी पूछते हैं— ‘प्रभो! यह उपसर्ग कहाँ हो रहा है ?’ सूरि कहते हैं— ‘हस्तिनापुर में सात सौ मुनियों का संघ ठहरा हुआ है। उस संघ के नायक श्री अकपनाचार्य महामुनि हैं। उस सारे संघ पर पापी बलि के द्वारा यह उपसर्ग किया जा रहा है।’ क्षुल्लकजी पूछते हैं— ‘‘प्रभो! ऐसा क्या उपाय है कि जिससे यह उपसर्ग दूर हो ?’’ सूरि कहते हैं— ‘‘हाँ, एक उपाय है। श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई है। वे अपनी ऋद्धि के बल से इस उपसर्ग का निवारण कर सकते हैं।’’ क्षुल्लक पुन: पूछते हैं— ‘‘भगवन्! वे मुनि इस समय कहाँ पर विराजमान हैं ?’’ सूरि कहते हैं— ‘‘वे उज्जयिनी नगरी के बाहर एक गुफा में स्थित हैं।’’ तब पुन: क्षुल्लक विनय से प्रार्थना करते हैं— ‘‘प्रभो! मुझे जाने की आज्ञा दीजिए।’’ गुरु की आज्ञा पाकर पुष्पदंत क्षुल्लक तत्क्षण ही अपनी आकाशगामी विद्या के बल से मुनि विष्णुकुमार के चरण सानिध्य में पहुँचकर नमोऽस्तु करते हैं और श्री श्रुतसागर सूरि द्वारा कथित समाचार सुना देते हैं। तब विष्णुकुमार मुनि आश्चर्य से सोचते हैं— ‘अहो! क्या मुझे विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो चुकी है ?’ इतना सोचकर तत्क्षण ही परीक्षा के लिए अपना हाथ पसारते हैं तो वह हाथ गुफा के बाहर निकलकर अनेक पर्वत आदि को भेदन करता हुआ बहुत दूर तक चला जाता है। विष्णुकुमार मुनि उसी क्षण विक्रियाऋद्धि के बल से आकाश मार्ग से वहाँ से चलकर शीघ्र ही हस्तिनापुर आ जाते हैं और अपने बड़े भाई राजा पद्म के राजमहल में पहुँच जाते हैं। मुनि विष्णुकुमार को आते हुए देखकर सहसा राजा पद्म उठकर सामने बढ़कर साष्टांग नमस्कार करते हैं पुन: उच्च आसन पर विराजमान करते हैं। विष्णुुकुमार मुनि कहते हैं— ‘हे भाई! तुम किस नींद में सो रहे हो ? क्या तुम्हें पता है कि शहर में कितना भारी अनर्थ हो रहा है ? अरे! अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया ? क्या पहले अपने कुल में किसी ने आज तक ऐसा मुनि घातक घोर पाप किया है ? हाय! हाय!! धर्म के अवतार परमशांत ऐसे इन मुनियों पर ऐसा अत्याचार ? और वह भी तुम सरीखे धर्मात्माओं के राज्य में ? बड़े खेद की बात है, भाई! राजाओं का धर्म तो यही है कि सज्जनों की, धर्मात्माओं की रक्षा करना और दुष्टों को दण्ड देना, पर तुमने तो इससे बिल्कुल उल्टा कर रक्खा है। समझते हो, साधुओं को सताना ठीक नहीं। देखो! जल का स्वभाव ठंडा है फिर भी वह जब अति गरम हो जाता है तब शरीर को जला देता है। इसलिए जब तक कोई आपत्ति तुम पर न आ जावे, उसके पहले ही इस उपसर्ग की शांति करवा दीजिए।’ अपने पूज्य भ्राता श्री विष्णुकुमार मुनि का आदेश सुनकर राजा पद्म हाथ जोड़कर कहते हैं—
(५) ‘भगवन्! मैं क्या करूँ ? मुझे क्या मालूम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे ? अब तो मैं बिल्कुल विवश हूँ। मैं कुछ भी नहीं कर सकता क्योंकि मैं वचनबद्ध हो चुका हॅूं, सात दिन तक के लिए अपना राज्य दे चुका हूँ। हे महामुने! अब तो आप ही इस कार्य में समर्थ हैं। आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए। इसमें आपके लिए मेरा कुछ कहना तो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अब आप शीघ्र ही कुछ उपाय कीजिए।’ इतना सुनकर विष्णुकुमार मुनि विक्रियाऋद्धि के प्रभाव से वामन का अवतार ऐसा ब्राह्मण का वेष बनाते हैं। वंâधे पर जनेऊ लटका कर बगल में वेदशास्त्रों को दबाकर बड़ी मधुरता से वेद की ऋचाओं का उच्चारण करते हुए वहाँ यज्ञ मंडप में पहुँच जाते हैं। यज्ञ के सभा मंडप में वामन ब्राह्मण को आते हुए देख बलि आदि मंत्री आगे बढ़कर उनका सम्मान करते हुए बहुत ही प्रसन्न हो जाते हैं। बलि राजा (मंत्री) तो उन पर इतना प्रसन्न हो जाता है कि वह आनंद विभोर हो जाता है। पुन: गद्गद वाणी में कहता है— ‘महाराज! आपने यहाँ पधार कर मेरे यज्ञ की अपूर्व शोभा कर दी है, मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ। अत: आपकी जो इच्छा हो, सो माँगिए। इस समय मैं सब कुछ देने में समर्थ हूूँ।’ वामन विष्णु कहते हैं— ‘मैं एक गरीब ब्राह्मण हूूँ। मुझे अपनी स्थिति में ही संतोष है। मुझे धन-दौलत की कुछ आवश्यकता नहीं है। पर आपका जब इतना आग्रह है, तो मैं आपको असंतुष्ट करना भी नहीं चाहता। मुझे केवल तीन पैर-पग पृथ्वी की आवश्यकता है। यदि आप उतनी भूमि मुझे दे देंगे तो मैं उसी में अपनी झोंपड़ी बनाकर रह जाऊँगा और निराकुलता से वेदाध्ययन आदि करता रहूँगा। बस, इसके सिवाय मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’ उस वामन की यह तुच्छ याचना सुनकर पास में खड़े हुए अन्य लोग आश्चर्य करने लगते हैं। कुछ लोग हँस पड़ते हैं और कुछ लोग खेद व्यक्त करते हैं। पुन: कुछ ब्राह्मण कहते है— ‘‘कृपानाथ! आपको थोड़े में संतोष है सो ठीक, फिर भी आपका तो यह कत्र्तव्य था कि आप बहुत कुछ मांगकर अपने जातीय भाइयों का उपकार कर देते ? भला उसमें आपका क्या बिगड़ जाता ?’’ बलि महाराज भी उन्हें खूब समझाते हैं और पुन:-पुन: कहते हैं— ‘‘हे वामनावतार! हे भूदेव! आप और अधिक माँगिये। अहो! मेरे कोश में इस समय अतुल धनराशि भरी हुई है। कम से कम हमारे वैभव के अनुरूप तो आपको माँगना ही चाहिये।’’ किन्तु वामन महाराज पूर्णरूप से अन्य कुछ माँगने की अपनी अनिच्छा ही रखते हैं और कहते हैं— ‘‘राजन्! यदि देना है तो दे दो अन्यथा मैं अन्यत्र चला जाऊँगा, क्योंकि मुझे तो मात्र तीन पैर धरती ही चाहिये।’’ तब बलि कहता है— ‘हे पूज्य! आप मुझे बहुत शर्मिन्दा कर रहे हैं। आपकी इस तुच्छ याचना से मुझे बहुत ही असंतोष है, फिर भी यदि आप आगे कुछ नहीं माँगना चाहते हैं तो ठीक, जैसी आपकी इच्छा। अच्छा! तो आप स्वयं अपने ही पैरों से पृथ्वी माप लीजिए।’ इतना कहकर बलि महाराज जल की भरी सुवर्ण झारी उठा कर दान का संकल्प करते हुए वामन विष्णुकुमार के हाथ पर जलधारा डाल देते हैं और संकल्प होते ही वामन वेषधारी विष्णुकुमार पृथ्वी को मापने के लिए अपना पहला पाँव उठाकर सुमेरु पर्वत पर रखते हैं, दूसरा पैर उठाकर मानुषोत्तर पर्वत पर रखते हैं पुन: तीसरा पैर उठाते हैं और उन्हें आगे बढ़ने की कहीं जगह ही नहीं दिखती है, उसे वे कहाँ रक्खे ? …...तब वह तीसरा पाँव आकाश में ही उठा रह जाता है। उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठती है, सभी पर्वत चलायमान हो जाते हैं, सभी समुद्र मर्यादा तोड़ देते हैं और उनका जल बाहर उद्वेलित होकर बहने लगता है। देवों के विमान एक से एक टकराने लगते हैं और देवगण सहसा आश्चर्य से चकित हो जाते हैं। पुन: तत्क्षण ही देवगण अपने अवधिज्ञान से सारा समाचार ज्ञातकर वहाँ आकर दैत्यकर्मा बलि को बाँधकर मुनि विष्णुकुमार से कहते हैं— ‘प्रभो! क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए!!…….. इस प्रकार चारों तरफ से आकाश में उपस्थित देवगण एक साथ शब्दों का उच्चारण करते हुए आकाश को मुखरित कर रहे हैं— ‘जय हो, जय हो, जय हो!! महामुनि अवंâपनाचार्य की जय हो, सर्व दिगम्बर मुनियों की जय हो, जैनधर्म की जय हो। महासाधु विष्णुकुमार की जय हो, जय हो, जय हो!! ….. हे धर्मवत्सल! हे दया सिन्धो, हे धर्म के अवतार! क्षमा करो, क्षमा करो, क्षमा करो!! दया करो, दया करो, दया करो!! हे नाथ! हम सभी की रक्षा करो, अब आप अपनी विक्रिया समेटो, हे देव! अब आप अपना पैर संकुचित करो। यह सब दृश्य देखकर अतीव भयभीत हुआ और काँपता हुआ बलि महाराज के चरणों में गिर पड़ता है और गिड़गिड़ाता हुआ कहता है— हे कृपानाथ! मुझे क्षमा कर दीजिए, मैं महापापी हूँ फिर भी अब आपकी शरणागत हूूँ अब आप मेरी रक्षा कीजिए, मेरे ऊपर दया कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए।’ इसी मध्य बलि के साथी बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि ये तीनों मंत्री भी आकर मुनि के चरणों में साष्टांग पड़कर क्षमा याचना करते हैं और पश्चात्ताप करते हुए अश्रु गिराने लगते हैं। वामन वेषधारी विष्णुकुमार तत्क्षण ही अपनी विक्रिया समेट लेते हैं और मुनि अवस्था में वहाँ खड़े हो जाते हैं। उसी समय देवगण आकर सभी मुनियों पर हो रहे सारे उपसर्ग को दूर कर देते हैं। यज्ञ मंडप और अग्नि को हटा देते हैं। जो बेचारे निरपराध पशु हवन की आहुति के लिए वहाँ बाँधे गये थे उन्हें छोड़ देते हैं और सभी को अभयदान की घोषणा कर देते हैं। उसी क्षण राजा पद्म अपने महल से निकलकर वहाँ आ जाते हैं और विष्णुकुमार मुनि के चरणों से लिपट जाते हैं। सात सौ मुनियों के ऊपर हो रहे इस भंयकर अग्निकाण्ड उपद्रव को दूर हुआ देख हर्षाश्रु से मुनि विष्णुकुमार के चरणों का मानों प्रक्षालन ही कर रहे हों। सर्वत्र प्रजा में शांति की लहर दौड़ जाती है। एक साथ सारी प्रजा वहाँ दौड़ आती है और गुरुओं की वंदना एवं वैयावृत्ति में लग जाती है। उसी क्षण राजा और चारों मंत्री बड़ी भक्ति से संघ के नायक अकंंपनाचार्य की वंदना करने को वहाँ पहँच जाते हैं और उनके चरणों में साष्टांग पड़कर नमस्कार करते हुए कहते हैं— ‘हे भगवन्! हे कृपासिंधो! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु।’ पुन: बलि आदि मंत्री नेत्रों से अश्रु झराते हुए लड़खड़ाती वाणी में कहते हैं— ‘हे भक्त जनवत्सल! हे करुणा के सागर! हे परम क्षमाशील! गुरुदेव! हम पापियों के इस महान् अपराध को क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए।’ पुन: वे चारों मंत्री गुरुदेव से निवेदन करते हैं— ‘हे नाथ! अब हमें आप विश्व हितकारी, परमोपकारी, अहिंसामयी इस जैनधर्म को ग्रहण कराइए।’ इतनी प्रार्थना को सुनकर करुणासागर श्री अकंंपनाचार्य गुरुवर्य उन पर दया करके उन्हें सान्त्वना देते हैं पुन: मिथ्यात्व का त्याग कराकर उन चारों को सम्यक्त्व तथा अणुव्रत देकर उन्हें दुर्जन से सज्जन बना देते हैं। सभी देवगण प्रसन्न होकर बहुत ही भक्ति भाव से अष्ट द्रव्य आदि उत्तम-उत्तम सामग्री लेकर श्री विष्णुकुमार मुनि के चरणों की पूजा करते हैं, पुन: अकंंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों की पूजा करते हैं। वे देवगण देवमयी तीन वीणाएँ लाकर उन्हें बजा-बजा कर खूब भक्ति-पूजा करते हैं। पुन: उन तीनों वीणाओं को यहीं मध्यलोक में दे जाते हैैं जिनके द्वारा भक्त लोग सदा ही उन गुरुओं का गुणानुवाद गा-गाकर पुण्य संपादन करते रहे। देवों के द्वारा पूजा-विधि संपन्न हो जाने के बाद राजा पद्म और हस्तिनापुर शहर के समस्त भक्तगण भक्ति में विभोर हो नाना प्रकार से मुनि श्री विष्णुकुमार के चरणों की, आचार्य अवंâपन गुरु और सात सौ मुनियों की पूजा भक्ति करके जय-जयकार के नारों से आकाश को गुंजायमान कर देते हैं। पुन: सभी श्रावक-श्राविकाएँ विचार करते हैं— ‘‘अहो! इन उपसर्ग विजयी महामुनियों को अग्नि की आँच और धुएं से बहुत क्लेश हुआ है। इनके वंâठ रुँध गए हैं और शरीर में भी वेदना हो रही है अत: अब इन्हें ऐसा आहार देना चाहिए कि जिससे ये जले हुए, पीड़ा युक्त कंंडठ से सहज में ग्रहण कर सके।’’ तभी सब श्रावक सेमई की खीर को उपयुक्त आहार समझकर घर-घर में वैसा मृदु आहार तैयार करके आहार की बेला में अपने-अपने घर के दरवाजे पर मुनियों के पड़गाहन की प्रतीक्षा में खड़े हो जाते हैं। सभी मुनि अपनी-अपनी नियम सल्लेखना को विसर्जित कर आचार्यश्री की आज्ञा से आचार्यश्री के साथ शरीर को संयम का साधन मानकर उसकी रक्षा हेतु चर्या के लिए निकलते हैं। श्रावक आनंदविभोर हो पड़गाहन करना शुरू कर देते हैं— ‘‘हे भगवन्! नमोऽस्तु नमोऽस्तु, अत्र तिष्ठ तिष्ठ, हे गुरुदेव! आपको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो, यहाँ ठहरो, ठहरो, अन्न जल शुद्ध है।’’ जिन-जिन श्रावकों को एक-दो आदि मुनियों का लाभ मिल जाता है वे अपने जीवन को धन्य मान लेते हैं और विधिवत् नवधा भक्ति करके उन्हें मुदु और सरस सेमई की खीर का आहार देकर अतिशय पुण्य संपादन कर लेते हैं। जिन श्रावकों को कोई उत्तम मुनि-पात्र नहीं मिल पाता है वे भी उस दिन पात्रदान की उत्कट भावना से अन्य व्रती श्रावकों को भोजन कराकर आहार दान की भावना भाते हुए अपने जीवन को सफल करते हैं। जिस दिन इन सात सौ मुनियों की रक्षा हुई थी वह दिन श्रावण शुक्ला पूूर्णिमा का था। तभी से आजतक सभी श्रावकगण इस दिन को रक्षाबंधन पर्व के नाम से मनाते चले आ रहे हैं। इतना ही नहीं, समस्त भारतवर्ष में सभी सम्प्रदाय के जैनेतर लोग भी किसी न किसी रूप में इस पर्व को मनाते हैंं। यह पर्व सामाजिक पर्व के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन सर्वत्र श्रावकगण तो मुनि-आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं के चरण सानिध्य में पहुँच कर उनके श्रीमुख से मुनि विष्णुकुमार की कथा सुनकर पुन: मुनि आदि पात्रोें को खीर का आहारदान देते हैं। जहाँ कहीें मुनि आर्यिका आदि के चातुर्मास नहीं हैं, वहाँ के श्रावक अन्यत्र कहीं गुरुओं के निकट पहुँच कर आहारदान का लाभ लेते हैं और मुनियों को आहार देते समय पूर्व मुनियों की स्मृति कर वर्तमान मुनियों में उनका स्थापना निक्षेप कर आहार देकर अपने को पुण्यशाली समझ लेते हैं तथा तदनुरूप विशेष पुण्य का भी संचय कर लेते हैं। यह पर्व वात्सल्य की पवित्रता का द्योतक होने से प्राय: सर्वत्र समाज के बहन-भाई में पवित्र स्नेह के रूप में भी मनाया जाता है। बहन भाई को मिष्ठान्न आदि का भोजन कराकर उनके हाथ में रक्षाबंधन का सूत्र बाँधती हैं। उस रक्षासूत्र को ‘राखी’ भी कहते हैं। इस प्रकार धर्मात्माओं के प्रति परम धर्म के अवतार मुनि श्री विष्णुकुमार ने वात्सल्य भाव को करके जो धर्मात्माओं की रक्षा की है, उसी की स्मृति में इस पर्व को मनाते हुए धर्म और धर्मात्माओं की रक्षा का नियम लेना चाहिए, तभी इस पर्व को मनाने की पूर्ण सार्थकता है क्योंकि ‘‘न धर्मो धार्मिकैैंर्विना’’ धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं रहता है। अनंतर विष्णुकुमार मुनि अपने गुरु के पास जाकर विक्रिया से जो वामनवेष बनाया था उसका प्रायश्चित्त ग्रहण कर घोराघोर तपश्चरण कर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। वे महामुनि विष्णुकुमार तथा अकंंपनाचार्य आदि सात सौ मुनि हम सब की रक्षा करें।
विशेष—सुमेरु पर्वत जम्बूद्वीप के बीचोंबीच में है। मानुषोत्तर पर्वत पुष्करद्वीप के मध्य में है, यह चूड़ी के आकार वाला है। इस मानुषोत्तर पर्वत तक ही मनुष्य लोक की सीमा है। इसके आगे चारणऋद्धिधारी या विक्रियाधारी मुनि या विद्याधर मनुष्य नहीं जा सकते हैंं। इसीलिए श्री विष्णुकुमार मुनि ने विक्रिया से दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर रख कर सारा मनुष्य लोक माप लिया था।