जैसे खान में से निकला स्वर्ण पाषाण उचित निमित्त मूल्यवान बन जाता है और ईंट, चूना, आदि का निर्माण, कारीगर के संयोग से सुन्दर महल के रूप में किया जाता है, उसी प्रकार मानव पर्याय में गर्भ में आते ही बालक-बालिकाएं उपयोगी संस्कार मिल जाते हैं। तो उचित बन सकते हैं।
प्रथम तो माता-पिता के रज-वीर्य से बनने वाला पिंड, जहाँ जीव आता है, उस पर माता-पिता के जीवन का प्रभाव पड़ता है। गर्भाधान के अनुगामी माता के सद्विचार, आचार एवं आहार-विहार के प्रभाव से बालकों की शक्तियां दृढ़ होती हैं। जैसे कच्चे पौधों और चने को सूर्य की धूप-पानी के आदिप देते हैं, उसी प्रकार अपनी लड़कियों को सुसंस्कृत करने के लिए उचित निमित्त (संस्कार विधि) की आवश्यकता होती है।
माता के गर्भ में उत्पन्न होने के पश्चात् और गर्भ में आने के पूर्व संस्कारों का जो महत्व है तथा जिसके परिणामस्वरूप जीवन निर्माण होता है, वे संस्कार सोलह प्रकार के होते हैं, अत: इनके षोड़श संस्कार के नाम से जाना जाता है।
बिना साफ की गई भूमि में जिस प्रकार बीज फलीभूत नहीं होता, उसी प्रकार यह जीवित शरीर, विधिपूर्वक संस्कारों के बिना संयम, व्रत और शुभाचरण का पात्र नहीं होता।
गर्भ में आने वाले बालक को उसकी मानसिक और शारीरिक शक्तियों की प्राप्ति और घातक माता द्वारा प्राप्त होती है। माता के मन, वचन, काय की क्रिया का प्रभाव संतान के ऊपर तक है, अत: माता को विवेकशील और धर्मात्मा होना चाहिए।
संतान के पूर्वोक्त कर्म, उसके निर्माण में अन्तरंग निमित्त होते हैं और बाह्य निमित्त अन्य सामग्री होती है। जैसे माता के आहार का अंश गर्भस्थित संतान को प्राप्त होता है, जिससे उसके शरीर को पोषण मिलता है, साथ ही उसके विचारों व विचारों का उस पर प्रभाव होता है, अत: बच्चों को सुयोग्य बनाने के लिए उचित माता के समान शास्त्रानुसार धार्मिक संस्कारों की आवश्यकता होती है। है। ये संस्कार वैज्ञानिक दृष्टि से भी द्रव्य परमाणु की शक्ति की अपेक्षा से बच्चों के मन, वचन और शरीर के भीतर अपने प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
१. प्रथम गर्भाधान संस्कार- विवाह केवल विषयाभिलाषा से ही नहीं, अपितु पुत्रोत्पत्ति एवं गर्भस्थ्य जीवन में सहयोग द्वारा सदाचरण, लोकसेवा तथा आत्मोन्निति के उद्देश्य से किया जाता है।
स्त्री को मासिक धर्म के तीन दिन एकान्त में बिना किसी को स्पर्श किये सर्वथा पीना चाहिए। वह चौथे दिन स्नान कर घर के भोजन आदि में विशेष कार्यों को न करते हुए मंत्र का मानसिक ध्यान रखती हैं और सामान्य कार्यों में भाग लेती हैं। पाँचवें दिन शुद्ध शुद्ध मंदिर में जाकर जिनेन्द्र दर्शन, पूजन, स्वाध्याय आदि करे। इस प्रकार उसे तीन दिन से दृष्टि और चार दिन से धर्म की दृष्टि की प्रक्रिया करनी चाहिए।
गर्भाधान के पूर्व संस्कार विधि में विनायक यंत्रपूजा व हवन में गृहस्थाचार्य निम्नलिखित विशिष्ट मंत्रों से आहुति देते हुए पति-पत्नी पर आशीर्वादरूप में पीले चावल क्षेपण करें—
”सज्जातिभागी भव, साध्वीभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, अर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव।” पश्चात् पुण्याहवाचन, शांतिपाठ, समाधि भक्ति एवं समापन पाठ खंड पूजा पूर्ण करें। अन्त में सौभाग्यवती स्त्रियों से आशीर्वाद ग्रहण करें।
२. द्वितीय प्रीति संस्कार-गर्भ के दिन से तीसरे माह में गर्भाधान क्रिया के अनुसार विनायक यंत्र पूजा, ११२ आहुतियों से हवन, पुण्याहवाचन, शांतिपाठ, समाधि पाठ, क्षमापान करके हवन के नीचे लिखे विशेष मंत्रों की आहुति दें और पति-पत्नी पर पुष्पक्षेपण करें।
”त्रैलोक्यनाथो भव, त्रिकालज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव’, इसी समय ”ॐ कंठ व्: प: असि आ उसा गर्भार्भकं प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा’ यह मंत्र तीन बार गर्भवती पर पति द्वारा जलसेचन करावें।
३. तृतीय सुप्रीति संस्कार- गर्भाधान के पांचवे माह में यह सुप्रीति या पुंसवन क्रिया श्रवण, रोहिणी, पुष्य नक्षत्र, रवि, मंगल, गुरु, शुक्रवार, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२, १३ तिथि के मुहूर्त में करें। इसमें पूर्ववत् पूजा, हवन, पुण्याहवाचन आदि करके निम्न प्रकार के विशेष मंत्रों से आहुति व पुष्पों से आशीर्वाद देवें।
‘अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेक कल्याणभागी भव, निष्क्रांति कल्याणभागी भव, अर्हन्त्य कल्याणभागी भव, परमनिर्वाण कल्याणभागी भव’। इस समय पति, पत्नी के सिर की मांग में सिंदूर और १०८ जौ के दानों की पहले से तैयार की गई माला ‘ॐ झं वं क्ष्वीं क्ष्वीं हं स: कांतगले यवमालां क्षिपामि झौं स्वाहा’ मंत्र पति के गले में पहनावें। पत्नी अपनी आँखों में अंजन लगावें।
४. चतुर्थ धृति या सीमान्तोन्नयन संस्कार-यह क्रिया सातवें माह में शुभ मुहूर्त मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, मूल, उत्तरात्रय, रोहिणी, रेवती इन में से किसी नक्षत्र में व रवि, मंगल, गुरु इन वारों तथा १, २, ३, ५ , ७, १०, ११, १३ इन तिथियों में किसी तिथि में करें। इसका दूसरा नाम खोला भरना है। इसमें पहले के समान पूजा, हवन, पुण्याहवाचन आदि करें। नीचे लिखे विशेष मंत्रों से आहुति व आशीर्वाद दें—
सज्जातिदातृभागी भव, सद्गृहस्थदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, अर्हन्त्यदातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव।
अनन्तर पुत्र वाली सौभाग्यवती स्त्री द्वारा तेल व सिंदूर में डुबोकर शमी (सोना) वृक्ष की समिधा (सींक) से गर्भिनी पत्नी के केशों की जरूरत भरी जावे। इसी दिन गोद (खोल) में श्रीफल, मेवा, फल आदि सेवक पति-पत्नी या केवल पत्नी महिलाओं के साथ जिनमंदिर जावें।
५. पंचम मोद संस्कार- यह संस्कार गर्भ के दिन से ९वें माह में किया जाता है। इसमें पूर्ववत् यंत्र पूजा व हवन करें। साथ ही नीचे लिखे विशेष मंत्रों से आहुति व दम्पति को आशीर्वाद दें।
पुण्याहवाचन, शान्ति पाठ आदि के पश्चात् गृहस्थाचार्य पति, पत्नी को निम्मोकार मंत्र रक्षा सूत्र बाँधें।
नोट-यदि गर्भाधान संस्कार चरण: न कर बैठेंगे तो ४-५वें संस्कारों के साथ उन संस्कारों के मंत्र व क्रियाएँ इसी समय कर ली जावें। गर्भिणी महिला को प्रतिदिन ”ओं ह्रीं अर्हं आसियाऔसा नम:” इस मंत्र का जाप करना चाहिए। उसे गर्भ के पाँचवें महीने से, अधिक ऊँची ज़मीन पर चढ़ना नहीं चाहिए। वह वाहन (बैलगाड़ी, अश्व या ढके वाली गाड़ी) पर न चढ़ी। तेज दवा न लें, बोझा न धोवे, ब्रह्मचर्यपूर्वक रहें, सदा भोजन करें। स्वाध्याय में अधिक समय व्यतीत करें। हाथ चक्की से आटा स्पैड का अभ्यास करें। इन संस्कारों को अन्यथा हवन में शामिल नहीं किया जाता। क्रोधादि क्षय न कर शान्त परिणाम पाये। पति का भी कर्तव्य है कि वह पत्नी को सार्थक कार्य में सहयोग दे।
६. छठा प्रियोद्भव संस्कार- यह संस्कार बालक के जन्म के बाद किया जाता है। जन्म के दस दिन का सूतक होने से गृहस्थाचार्य या पारम्परिक सूतक न लगे, वे जिनमंदिर में पूजा-विधान करें। हवन में ‘दिव्य नेमिविजयाय स्वाहा’ परमनेमिविजयाय स्वाहा, अर्हंत्यनेमिविजयाय स्वाहा, घातिजयो भव, श्रीआदि देव्य: जातक्रिया: कुर्वन्तु, मन्दराभिषेकहो भवतु।’ इन मंत्रों से आहुति दें। पिता आदि भी बेटे को यह देखकर आशीर्वाद देवें। इस दिन बजें बजवावें।
नोट-कन्या जन्म होने पर भी पहले समान यथायोग्य संस्कार बताएं। उसे न चुनें। क्योंकि कन्या रत्न मानी जाती है।
७. सप्तम नामकर्म संस्कार- जन्म के १२, १६ या ३२वें दिन यह संस्कार करें। दस दिन सूतक होने से जिनाभिषेक, पूजा, शास्त्र का स्पर्श नहीं होता। सूतक त्रिलोकसार, मूलाचार आदि प्राचीन ग्रंथों में भी बताया गया है। सुतक वाले के घर में मुनिराज आहार नहीं लेते हैं।
नोट-पुत्र या पुत्री के मूल नक्षत्र में उत्पत्ति होने पर जन्म पत्रिका बनाने का समय ज्योतिषी अरिष्ट बताता है। जैन विधि से उसकी शांति निम्न प्रकार करना चाहिए—
मूल शांति- यदि मूल या उसके समान नक्षत्रों में पुत्र-पुत्री हो तो उस नक्षत्र की शांति हेतु निम्नलिखित १०१ माला के घर में कोई व्यक्ति या अन्य किसी के द्वारा जप करा लें। यह विधि जन्म से अठारहवें दिन जब वही नक्षत्र आता है, तब की जाती है। इस दिन चौंसठ ऋद्धि मण्डल विधान पूजा कर लें। इसे तीन-चार दिन पूर्व से जप लें।
घर का प्रसूति स्थान ५ दिन तक रहता है। पांचवे दिन नवजात शिशु को मंदिर ले गए। वहाँ जिनेन्द्र प्रतिमा के सामने शिशु की माता अपने शिशु को नीचे सुला दें और गृहस्थाचार्य या अन्य कोई व्यक्ति नव बार निम्नोकार मंत्र अपने शिशु में सुनावें। बालक को उसी समय अष्ट मूलगुण (पांच उदम्बर और तीन मकर का स्थूलरूप से त्याग) धारण करके जैन बनावें। इस त्याग की जिम्मेदारी वृद्धावस्था के विवेकपूर्ण होने तक माता-पिता एवं परिवार की रहती है।
यदि कोई दिगम्बर मुनि-आर्यिका आदि गुरुजन विद्यामान हों तो उनके मुखारविंद से निम्मोकार मंत्र सुनें एवं अष्टमूलगुण भी गुरु से ग्रहण करावें।
नामकरण-”सहस्रनामभागी भव, विजयनामाष्टसहस्रभागी भव, परमनामाष्टसहस्रभागी भव।’ इन मंत्रों से आशीर्वाद दिया जावे। अनेक नाम चुनने से किसी एक नाम का निर्णय हो सकता है।
नाम घोषित करने के समय, ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं अमुक बालकस्य नामकरणं करोमि। अयं आयुरारोग्यैश्वर्यवान भवतु भवतु झ्रौं झ्रौं असि आ उसा स्वाहा।’ मंत्र पढें जावे।
८. अष्टम बहिर्यान संस्कार- यह संस्कार लोक में प्रसिद्ध सूर्य-दर्शन (सूर्य का मुहूर्त) के समान है। इसमें जनता सूर्य व कूप पूजा आदि करती है। इस क्रिया को जन्म से लगभग १५ से ५ दिन के भीतर कर लेते हैं, जबकि २, ३ या चौथे माह में किये जाने का शास्त्र में उल्लेख है। इसके आशीर्वाद मंत्र के अनुसार नीचे लिखा गया है-
‘उपनयनिष्क्रांतिभागी भव, वैवाहनिष्क्रांतिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रांतिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रांतिभागी भव, मन्द्राभिषेकनिष्क्रांतिभागी भव, युवाराज्यनिष्क्रांतिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रांतिभागी भव, परमराज्यनिष्क्रांतिभागी भव, अर्हन्त्यनिष्क्रांतिभागी भव।’ बालकों को जिनालय में दर्शन कराने के समय ‘ॐ नमोऽर्हते भगवते जिनभास्कराय जिनेन्द्र प्रतिमा दर्शने अस्य बालकस्य दीर्घायुष्यं आत्मदर्शनं च भूयात्’ यह मंत्र पढ़ें।
९. नवमां निषद्या संस्कार- पाँचवें माह में बालक को मनाने की क्रिया की जाती है। उस समय पूर्वमुख कर सुखासन में बैठेव। नीचे लिखे आशीर्वाद खास मंत्र को पढ़ें-
‘दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी भव।’
१०. दशवां अन्नप्राशन संस्कार- जन्म से ७, ८ या नवमें माह में अन्न आहार बालक को करना चाहिए। इसके पहले अन्न देने से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। लीवर आदि के रोग इसी के परिणामस्वरूप होते हैं। इसका विशेष मंत्र ये हैं-
‘दिव्यमृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षीणामृतभागी भव।’
. ग्यारहवाँ पादन्यास अथवा गमन संस्कार- इस गमन विधि का उल्लेख आदिपुराण में नहीं है। इस संस्कार की पूर्ण विधि त्रिवर्णाचारादि संस्कार ग्रंथों में पाई जाती है। अतएव इस विधि का लेखन भी परमावश्यक है।
यह संस्कार नवमें महीने में किया जाता है। जिस दिन गमन करने योग्य नक्षत्र वार और योग हो, उसी दिन यह संस्कार करना चाहिए।
प्रथम ही बालक के पिता पहले के समान श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा और होम करे। बालकों को वस्त्रालंकारों से विभूषित करें। उस मंडप में किनारे-किनारे चारों ओर एक धुला हुआ वस्त्र इस प्रकार का वस्त्र है जिसमें वेदी तथा श्रावकादि सज्जनों के बैठने के स्थान के बीच में आ गये अर्थात् वेदी और सज्जनों के बैठने के स्थान के चारों ओर धुला हुआ वस्त्र है। यह वस्त्र पूर्व दिशा की ओर से रखना प्रारंभ करे और दक्षिण उत्तर पश्चिम की ओर पूर्व दिशा में ही समाप्त हो।
अनन्तर पिता उस बालक के दोनों हाथ अग्निकुण्ड की पूर्व दिशा में उत्तर दिशा की ओर मुख करके उस बालक को उस बिछे हुए वस्त्र पर खड़ा करे तथा ”ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते महावीराय चतुस्त्रिंशदतिशय-युक्ताय बालकस्य पादन्यासं शिक्षायामि तस्य सौख्यं भवतु भवतु झ्वीं क्ष्वीं स्वाहा ‘ यह मंत्र उस लड़के का दर्द आगे बढ़ाता है। फिर इसी प्रकार उस लड़के के दोनों हाथ खींचे हुए एक ही वस्त्र पर उसे पहना दिया जाए। पूर्व दिशा समाप्त होने पर दक्षिण की ओर मुड़ जाए। दक्षिण से पश्चिम उत्तर की ओर हुआ फिर पूर्व की ओर आ जाये।
इसी प्रकार तीन प्रदक्षिणा करा देवे। ध्यान रहे कि प्रदक्षिणा देते समय बालक के पूर्ण हाथ की ओर रहें।
प्रदक्षिणा दे चुकने पर बालकों से श्री जिनेन्द्रदेव तथा अग्नि, गुरु और वृद्धजनों को भी नमस्कार कराया जाता है।
12. … बारहवाँ वर्षवर्धन (व्युष्टि) संस्कार- यह क्रिया बालक के एक वर्ष होने पर करें। इस
दिन मंदिर में पूजा विधान कराया जाता है। बूढ़े को मंदिर भेजें। उनका जन्म दिवस मनाया गया। इन मंत्रों से युवाओं को आशीर्वाद दें।
”उपनयन जन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहिकवर्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी भव, मन्द्राभिषेकवर्षवर्धनभागी भव, युवाराज्यवर्षवर्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव, अर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव।’
:जी. तेरहवाँ चौल संस्कार- यह बालक के पाँच वर्ष पूर्ण होने पर होता है। दो-तीन साल में भी यह क्रिया की जा सकती है। कहीं-कहीं पाँचवें दिन में भी मुंडन कराने की परंपरा है तथा कुछ परिवारों में १ वर्ष के अंदर ही बच्चों का मुंडन करा लेते हैं एवं कहीं-कहीं तीर्थयात्रियों पर ले जाकर भी मुंडन कराते हैं, प्रयाग-इलाहाबाद (उ.प्र.) में ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ पर बच्चों के मुंडन कराने से उनकी विद्या, बुद्धि का खूब विकास होता है। इसका मुहूर्त सोम, बुध, शुक्रवार, २, ३, ५, ७, १०, ११,१३ तिथि, ज्येष्ठा, मृगशिरा, चित्रा, रेवती, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, पुष्य, धनिष्ठा, शतभिषा, अश्विनी नक्षत्र हैं। नीचे विशेष आशीर्वाद मंत्र लिखा गया है-
‘उपनयन मुंडभागी भव, निर्ग्रंथमुंडभागी भव, निष्क्रांतिमुंडभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, सुरेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्य केशभागी भव, अर्हन्त्य-केशभागी भव।’ केश निकलने जाने के बाद चोटी के स्थान पर केशर से स्वस्तिक बनावें। इसी समय कर्णछेदन क्रिया भी करते हैं।
४. चौदहवाँ लिपि संख्याकरण संस्कार-यह पांच वर्ष पूर्ण होने पर घर में या पाठशाला में सोम, बुध, शुक्र, शनिवार, हस्त, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, चित्रा, अनुराधा नक्षत्रों में तथा २, ३, ५, ६, १०, ११, १२ तिथि के मुहूर्त में होगा। करें। जिन मंदिर में या घर पर पूजा के बाद यह क्रिया करें। सर्वप्रथम ”ॐ और ॐ नम: सिद्धेभ्य:” बालक से पट्टी पर लिखकर इनका उच्चारण करावें। आशीर्वाद के विशेष मंत्र निम्न प्रकार हैं-
”शब्दपरगति भव, अर्थपरगति भव, शब्दार्थपरगति भव।’ पुराने जमाने को लिपटी किताब दी जावे।
नोट-वर्तमान में ३ वर्ष की आयु पर भी यह संस्कार दिया जाता है क्योंकि बच्चों को अब ३ वर्ष की आयु में स्कूल भेजने की परंपरा हो गई है।
१५. पन्द्रहवाँ उपनयन संस्कार- आठ वर्ष की आयु के बालकों में यह यज्ञोपवीत संस्कार रवि, सोम, बुध, गुरु, शुक्रवार, हस्त, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरात्रय, रोहिणी, आश्लेषा, स्वाति, श्रवण, धन्या, शतभिषा, मूल, रेवती, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, उर्वा, पूर्वात्रय इन वार व नक्षत्रों में करें। रक्षाबंधन के दिन भी यह क्रिया सामूहिक रूप से की जाती है। इसका आशीर्वाद मंत्र इस प्रकार है-
यज्ञोपवीत का उद्देश्य-अष्टमूलगुण (स्थूल रूप से पाँच पाप का त्याग और मद्य, मांस, मधु का त्याग) विद्याभ्यास के काल में ग्रहण करके उनके चिन्हरूप में यज्ञोपवीत धारण करना है।
. सोलहवाँ व्रतावतरण संस्कार-पूर्व गुरुकुल (ब्रह्मचर्याश्रम) में विद्यार्थी ब्रह्मचर्यपूर्ण विद्याभ्यास करते थे। विवाह के पूर्व अध्ययन पूर्ण होने तक सदा भोजन और सादगीपूर्ण रहन-सहन व्रत चर्या का उद्देश्य है।
अध्ययन पूर्ण होने पर विद्यार्थियों को अभ्यासरूप में पूर्ण नियम और उनके चिन्ह आरंभकर्ता गुरु व माता-पिता की आज्ञा से विवाह के लिए तैयार किया जाता है। उक्त व्रतों में अष्टमूलगुण सदा पलटता है क्योंकि यह जैन का प्रतीक है।