विवाह और उसके उद्देश्य- शास्त्र की विधि के अनुसार उचित आयु के वर और कन्या का अपनी-अपनी जाति में दृढ़ निश्चयी: वाग्दान (सगाई) प्रदान, वरण, पाणिग्रहण अन्त में सप्तपदीपूर्वक विवाह होता है। यह विवाह धर्म की परंपरा को चलाने के लिए, सदाचरण और पुत्र-पुत्री द्वारा कुल की उन्नति के लिए और मन एवं इंद्रियों के असंयम को रोकने के लिए मर्यादापूर्वक इंद्रिय सुख की इच्छा से किया जाता है क्योंकि पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले स्त्री-पुरुष से नहीं हो सकता इसलिए विद्वानों ने ब्रह्मचर्याणुव्रत में पर-स्त्री त्याग और स्व-स्त्री संतोष का उपदेश दिया है। यह विवाह देव, शास्त्र, गुरु कीक्षी से समाज की विशेषताएं होती हैं, जो जीवनपर्यन्त रहता है।
गठजोड़ा- हवन और सप्तपदी पूजा के बाद जीवन पर्यंत पति-पत्नी बनने वाले दम्पति में प्रेमभाव एवं लौकिक और धार्मिक कार्यों में साथ रहने का शुभ ग्रंथिबंधन (गठजोड़ा) किसी सौभाग्यवती (सुहागिनी) स्त्री के द्वारा करना चाहिए। कन्या की लुगदी (साड़ी) के पल्ले में १ सिक्का, १ सुपारी, हल्दी गुल, सरसों और पुष्प लगाकर उसे पकड़ें और उससे वर के दुपट्टे के पल्ले को पकड़ें।
पानीग्रहण-गठजोड़ा के पश्चात् कन्या के पिता कन्या के बाएँ हाथ में और वर के सीधे हाथ में पीसी हुई हल्दी को जल से रकाबी में घोलकर लेपें। लोगों में जो पीले हाथ करने की बात कही जाती है, यह वही बात है। फिर वर के सीधे हाथ में थोड़ी-सी गली मेंहदी और १ सिक्का धीरे उस पर कन्या का बायें हाथ धीरे कन्या का हाथ ऊपर व वर का हाथ नीचे करके वर-कन्या के दोनों हाथ जोड़ दें। इस विधि से कन्या का पिता अपनी कन्या को वर के हाथ में सौंपता है। इसे पाणिग्रहण कहते हैं।
फेरे और सप्तपदी- हथलेवा के बाद वर-कन्या को खड़ा करके कन्या को आगे और वर को पीछे रखकर वेदी में चवरी के मध्य में यंत्र सहित कटनी और हवन की प्रज्ज्वलित अग्नियुक्त स्थानिल के चारों ओर छ: फेरे दिलवावें। बुन्देलखण्ड के परवार आदि जातियों में वर-वधू का हाथ छुड़वाकर छह फेरे दिलाये जाते हैं। इस बार स्त्रियाँ फेरों के मंगल गीत गावें। वर और कन्या के कपड़े को संभालते हुए फेरे दिलाना चाहिए। एक-दो समझदार स्त्री और पुरुष दोनों को संभालते रहो। छ: फेरों के बाद दोनों अपने पूर्व स्थान पर पहले के समान बैठ जावें। गृहस्थाचार्य निम्न प्रकार के सात-सात वचनों (प्रतिज्ञाओं) को क्रम से पहले वर से और फिर कन्या से कहलावें, साथ ही स्वयं उनकी सरल भाषा में समझाते जाएं।
१. मेरे कुटुम्बी लोगों का यथायोग्य विनय सत्कार करना होगा।
२. मेरी आज्ञा का लोप नहीं करना होगा ताकि घर में अनुशासन बना रहे।
३. कठोर वचन बोलना नहीं होगा क्योंकि इससे चित्त को क्षोभ उत्पन्न दुःख द्वेष की संभावना रहती है।
४. सत्पात्रों के घर आने पर उन्हें आहार आदि प्रदान करने में कलुषित मन नहीं करना होगा।
५. मनुष्य की भीड़ में जहाँ धक्का लगने की संभावना हो, वहाँ बिना किसी विशेष कारण के अकेले नहीं जाना होगा।
६. दुराचारी और नशा करने वाले लोगों के घर पर नहीं जाना होगा, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों द्वारा उनके सम्मान में बाधा आने की संभावना होती है।
७. रात के समय दूसरों के घर जाने के बिना लोगों को व्यर्थ ही टीका-टिप्पणी करने का मौका नहीं मिलेगा।
ये सात वचन स्वीकार करना चाहिए। इन वचनों में गृहस्थ जीवन को सुखद बनाने की बातों का ही उल्लेख है। इनके पालन से घर में और समाज में पत्नी का स्थान आदर्शनीय बनेगा।
इन वचनों को कन्या अपने मुँह से नि:संकोच कहें और स्वीकार करें।
१. मेरे अधिकतर अन्य स्त्रियों को माता, बहन और पुत्री के समान प्रतिष्ठा होगी अर्थात् पर-स्त्री सेवन का त्याग और स्व-स्त्री सन्तोष रखना होगा।
२. वेश्या, जो परस्त्री से भिन्न मानी जाती है, उसका सेवन का त्याग करना होगा।
३. लोक द्वारा निन्दनीय और कानून से निषिद्ध द्युत (जुआ) नहीं खेला जाएगा।
४. न्यायपूर्ण धन का उपार्जन करते हुए वस्त्र आदि से मेरा संरक्षण करना होगा।
५. आप जो अपने वचनों में मुझसे अपनी आज्ञा मानते हैं, उस संबंध में, धर्म स्थान में जाने और धर्माचरण करने में निर्भर नहीं डालना होगा।
६. मेरे संबंध की ओर से घर की कोई बात मुझसे छिपी नहीं होगी, क्योंकि मैं भी आपकी सच्ची सलाह देने वाली हूँ। कदाचित् उससे आपको लाभ हो जाए और आपका संकट दूर हो जाए। साथ ही इसके विपरीत विश्वास भी बढ़ता है।
७. अपने घर की गुप्त बात दूसरे के नामी दोस्त आदि के विवरण प्रदर्शित नहीं करना होगा। लोगों की मनोवृत्ति प्रायः यह होती है कि वे दूसरे घर की छोटी-सी बात ‘तिल का ताड़’ की कहावत के समान बड़ी-बड़ी अफवाहें फैलाते हैं।
नोट – आधुनिक भाषा में आधुनिक युग की सात-सात मान्यताओं को देखकर ही, निम्न प्रकार की दोनों मान्यताओं के लिए प्रचार में आने योग्य हैं।
१. जीवनपर्यन्त साथ रहते हुए सहनशील और कर्मवीर बनकर एक-दूसरे के लिए जीवित रहना-जीवन से निराश न होना।
२. दम्पति जीवन को सुखी बनाने और गृहस्थजीवन के निर्माण में भीतर का उत्तरदायित्व नारी को और बाह्य जीवन का उत्तरदायित्व पुरुष पर है।
३. एक-दूसरे के परिवार के सदस्य सबके स्नेह और आधार के पात्र बनते हैं। विनय, सेवा करना एवं सद्विहार से घर और ससुराल को स्वर्ग बनाना।
४. समान स्नेह, व्यापकता, आकर्षण, विश्वास बना रहे, इसके उपाय आचरण में लाना। पति के लिए पत्नी सबसे सुन्दर व प्रिय और पत्नी के लिए पति परमाराध्य रहे।
५. वधू को कुल वधू (सीता, अंजना, सुलोचना आदि के समान) और वर को कुलपुत्र (राम, जयकुमार, सुदर्शन आदि के समान) बनने से घर का सम्मान, गौरव, प्रतिष्ठा, कीर्ति बनी रहे वैसे काम करना। निर्व्यासनी, शीलवान और विवेकी बनना।
६. जिनेन्द्रदेव, गुरु, शास्त्र की अर्चना एवं साक्षीपूर्वक विवाह संपन्न हो रहा है, उन्हें श्रद्धा बनाये रखें, इससे बुराइयों से बचने में बल मिलता है। आत्महित (वीतरागता) की ओर दृष्टि रखें।
७. समाज, जनता और राष्ट्र की सेवा दोनों में समान सहयोग से आगे बढ़ना। सर्दी से छुटकारा।
इन सात प्रतिज्ञाओं को दोनों स्वीकार करें। इनके सिवा और भी कोई खास बात हो तो विवाह के पहले स्पष्ट करना चाहिए। जिससे दाम्पत्य जीवन आनन्दपूर्वक सम्पन्न हो। सच यह है कि आपका स्पष्ट और शुद्ध परिणाम से ही संबंध अच्छा रह सकता है।
सप्तपदी के अनुयायी वर को आगे करके सातवाँ फेरबदल करें और अपने पहले के स्थान पर जब आवें तब वे पति-पत्नी के रूप में उठें यानि स्त्री-पति के बाँहें ओर पति-स्त्री के समीप बैठे। इस अवसर पर स्त्रियाँ मंगलगीत गावें।
उक्त सात फेरे या भंवर सात परम स्थानों की प्राप्ति के द्योतक हैं। आगम अनुसार संसार में (१) सज्जात्व (२) सद्गृहस्थत्व (३) पारिव्र्राज्य (४) सुरेन्द्रता (५) साम्राज्य (६) अर्हन्त्य और (७) निर्वाण ये सात परम स्थान माने गए हैं।
सात फेरे होने पर गृहस्थाचार्य नवदम्पति पर निम्न प्रकार के मंत्र द्वारा पुष्प क्षेपण करें—
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सी आ उ सा अर्हतसिद्धाचार्योपाध्यायसाध्व: शांताइं पुष्टिं च कुरुत कुरुत स्वाहा।
यहाँ पर संक्षेप में गृहस्थ जीवन के महत्व पर उपदेश देकर यथाशक्ति दोनों पक्षों की ओर से मंदिर-तीर्थ आदि के लिए दान की घोषणा करके यथास्थान भिजवाने का प्रबंध करना चाहिए।
इसके बाद कन्या पक्ष की ओर से वर को तिलकपूर्वक कुछ राशि और श्रीफल देकर संयोजन प्रदान करना चाहिए।
१. विवाह के दिन कन्या के रजस्वला हो जाने पर कन्या से पाँचवें दिन पूजन-हवन आदि विवाह की विधि कराना चाहिए। विवाह विधि जहाँ तक संभव हो तो दिन में ही किया जाना चाहिए।
२. नवदेवता पूजन में अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनालय ये ९ देवता हैं।
३. गुरु पूजा में ऋद्धियों की स्थापना के लिए ‘‘ॐ बुद्धिचारण विक्रियौषध-तपोबलरसाक्षीणमहानसचतु:षष्ठि ऋद्धिभ्यो नम:’’ यह मंत्र कागज पर केसर से लिखकर नीचे की कटनी पर रख देना चाहिए।
४. विवाह के मुहूर्त निकालने आदि में और अन्य ग्रहादिदोष को दूर करने के लिए जो पूजा आदि शांति के उपाय ज्योतिषी बताते हैं उनके उपाय जैनशास्त्रानुसार ही करना चाहिए। नवग्रह शांति विधान के अनुसार विवाह के समय जिनेन्द्र पूजा करा देना चाहिए और विशेष करना हो तो नवग्रह शांति विधान का मण्डल मंडवाकर
‘‘ॐ ह्रीं अर्हम् अ सि आ उ सा सर्वविघ्न शांतिं कुरु कुरु स्वाहा’’ इस मंत्र की ग्रह के हिसाब से यथाशक्ति जाप व विवाह के समय आहुति करा देना चाहिए।
नव दम्पत्ति के प्रति-आप दोनों गार्हस्थ जीवन में प्रविष्ट हुए हैं। अपने मानव जीवन को पवित्र और सफल बनाने के लिए ही यह क्षेत्र आपने चुना है। इसको आनन्दपूर्ण और सुखमय बनाना आपके ही ऊपर निर्भर है। यह केवल इन्द्रिय भोग भोगने के लिए नहीं, वरन् संयमपूर्वक सदाचार और शील की साधना के उद्देश्य से आपने अंगीकार किया है। आप दोनों एक-दूसरे के प्रति तो जवाबदार हैं ही, पर स्व-धर्म, स्व-समाज की और स्व-देश की सेवा का दायित्व भी आप पर आ पड़ा है। यह गृहस्थ का भार बहुत बड़ा और अनेक संकटों से युक्त हो सकता है। गृहस्थ अवस्था में आने वाली अनेक आपत्तियों से घबराकर गृह-विरत हो जाने के बहुत उदाहरण मिलेंगे परन्तु हमें आशा है कि आप जीवन की सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होंंगे। समस्त कठिनाइयों को सहन करते हुए उत्तरोत्तर प्रगतिपथ पर दृढ़ रहना आपका कर्तव्य होगा।
पुराणों में उल्लिखित जयकुमार-सुलोचना, राम-सीता या अन्य किसी के दाम्पत्य जीवन के आदर्श को आप अपने सामने रखें। हमारी यह शुभकामना है कि उन्हीं के समान भावी पीढ़ी आपका भी उदाहरण अपने समक्ष रखें।
आप दोनों यौवन के वेग में न बहकर अपने कुल के सम्मान का ख्याल रखते हुए गौरवमय यशस्वी जीवन व्यतीत करें। आपका पारस्परिक एवं पारिवारिक-सामाजिक व्यवहार न्याय एवं नैतिकतापूर्ण हो।
पति का कर्त्तव्य है कि वह अपनी पत्नी को सहयोगिनी मानकर उसे ऊँचा उठाने के साधन सदा जुटाता रहे और पत्नी-पति के हर कार्य को सफल बनाने में पूरा योगदान देती रहे। दोनों भौतिकता में न लुभाकर आध्यात्मिकता के रहस्य को भी समझें, इसी में उन्हें यथार्थ सुख और शांति की प्राप्ति होगी। इसके लिए प्रतिदिन देवदर्शन, गुरुदर्शन, पूजन, सामायिक और स्वाध्याय भी आवश्यक है। हमारी हार्दिक मंगल कामना है कि आपकी यह जोड़ी दीर्घकाल तक अखण्ड बनी रहे।
विवाह के पश्चात्-जो स्त्री-पुरुष विवाह करते हैं, उन्हें गृहस्थ जीवन के महत्व को समझकर संयम के साथ धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को परस्पर अविरोध रूप से सेवन करना चाहिए। न्यायपूर्वक अर्थोपार्जन करना भी गृहस्थ का कर्तव्य है। अर्थ के बिना लोक यात्रा नहीं चल सकती, परन्तु अर्थ के पीछे पड़कर धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए। जीवन में सदाचार और सत्यता का बड़ा महत्व है। चाहे युवा, प्रौढ़ या वृद्धावस्था कोई भी हो, उसमें इस लोक की सफलता का और परलोक का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। जीवन के साथ मरण तो सर्वंभवी है। मरण अच्छा उसी का होता है जिसका जीवन अच्छा रहा हो। मृत्यु कभी नहीं आती इसलिए हमेशा सावधान रहना चाहिए। जीवन आनन्दपूर्वक आनन्दित होते हुए निराकलुता का भी अनुभव किया जावे, जिससे दुख से बचकर शुभोपयोग का वातावरण उपलब्ध हो सके। विदेश में लोग विवाह करना अच्छा नहीं समझते, बिना विवाह किये कई वर्षों तक वे अनेक अविवाहित महिलाएं के साथ मित्र के रूप में रहती हैं। बिना विवाह किये पुरुष और स्त्री के साथ रहने से ब्रह्मचर्य का आचरण नहीं किया जाता है। संयुक्त परिवार की परंपरा वृद्धावस्था में कोई सहारा नहीं रहती। विवाह करके भी तलाक होता है इसलिए भारत के आदर्श का विचार कर यदि ब्रह्मचर्यपूर्वक नहीं रह सकते तो विवाह करके एक पत्नी व्रत पालने में ही सुख और शांति मिलेगी। अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा में धन्यवाद देने का भी कम महत्व नहीं है, क्योंकि भविष्य में हमें भी वृद्ध और रोगी बनकर अपने पुत्रों से अपेक्षा होती है।
व्यक्तिगत जीवन जीने के बजाय समाज और जनता के संपर्क में भी आना चाहिए। अपनी शक्ति के अनुसार समाज सेवा और जनता की सेवा करते रहना चाहिए, ताकि लोग सदैव याद रहें।