क्या आप मंदिर जाते हैं ? यदि हाँ, तो मंदिर जाकर किस प्रकार से अपने इष्टदेव का अभिवादन करते
हैं ? उनके सामने जाकर क्या पढ़ते हैं ? खाली हाथ जाते हैं या कुछ लेकर जाते हैं ? उन्हें देखकर मन में क्या चिन्तन आता है ? किस विधि से उनकी पूजा, स्तुति, वन्दना अथवा दर्शन करते हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है।
यदि आप मंदिर नहीं जाते हैं ? तो जाने का मन बनाइये क्योंकि हर सम्प्रदाय ने अपनी-अपनी श्रद्धा के प्रतीक मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारों का निर्माण किया है। जिसमें क्षण दो क्षण जाकर वे अपने इष्टदेव का स्मरण कर शान्ति का अनुभव करते हैं। आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है—
अर्थात् अन्तरंग, बहिरंग श्री (लक्ष्मी) को प्राप्त जिनेन्द्र भगवान के मुख का अवलोकन करने से (दर्शन करने से) श्री—लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तथा जो जिनेन्द्र भगवान के मुख का अवलोकन नहीं करते हैं उन्हें उस लक्ष्मी का सुख वैâसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी का सुख उन्हें प्राप्त नहीं हो सकता है।
आज भी जगह-जगह नये-नये मंदिरों के निर्माण हो रहे हैं तथा पुरातन पुरुषों के द्वारा बनाए गए प्राचीन अनेक मंदिर बने हुए हैं जिनको अतिशय वृद्धिंगत करना प्रत्येक जैन मानव का परम कर्त्तव्य है। तात्पर्य यह है कि मंदिर पावनता के प्रतीक हैं वहां जाने की भावना करने मात्र से अनेक उपवासों का फल प्राप्त होता है। जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने से तो असंख्य उपवासों का फल मिलता है।
२६ जनवरी एवं १५ अगस्त आदि राष्ट्रीय पर्वों पर अपने देश के राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री को सलामी देने के लिए जल, थल आदि सेनाओं के कमान्डर एवं स्कूल के बच्चे आदि सभी महीनों पूर्व से अभ्यास करते हैं तब उनकी सलामी राष्ट्रपति स्वीकार करते हैं। जब एक राष्ट्रपति को सलामी देने के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है तब आप स्वयं सोचें कि त्रैलोक्य के अधिपति का अभिवादन करने हेतु भी आपको अभ्यास की आवश्यकता है या नहीं ?
सबसे पहले आप घर से स्नान करके धुले स्वच्छ वस्त्र पहन कर हाथों में चावल तथा फल आदि लेकर शुद्ध मन से मंदिर के मार्ग पर चलें और मंदिर के द्वार पर जाकर पैर धोएं पुनः मंदिर में घुसते हुए निम्न पाठ पढ़ें—
पुन: हाथ जोड़कर वेदी के सामने खड़े होकर धीमे सुरीले स्वर में ये पंक्तियाँ बोलें—(शेर छंद)
और यह पाठ पढ़कर भक्तिपूर्वक वेदी पर चावल के पाँच पुंज चढ़ावें।
अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ऐसे पाँचों पद बोलते हुए क्रम से बीच में, ऊपर, दाहिनी ओर, नीचे और बाईं ओर ऐसे पाँच पुंज चढ़ावें। जैसे—
उसके बाद घुटने टेक कर, हाथ जोड़कर, मस्तक भूमि पर लगाकर पंचांग नमस्कार करें और खड़े होकर भगवान की वीतराग मुद्रा का अवलोकन करते हुए भावविह्वल होकर निम्न पाठ पढ़ें—
(शेर छन्द)
जितने हर्षित हृदय से भगवान का दर्शन किया जाएगा, उतना ही अधिक पुण्य बन्ध होगा। दर्शन करते समय कभी आँखों को बन्द नहीं करना चाहिए क्योंकि ‘‘दृश’’ धातु से ‘‘दर्शन’’ शब्द बनता है जिसका अर्थ है देखना। ध्यान करते समय आँखों को बंद किया जाता है और दर्शन के समय अपलक दृष्टि से भगवान को निरखा जाता है जिससे आँखों के रोग तो नष्ट होते ही हैं, भगवान की वीतरागी छवि भी हृदय में अपना प्रभाव अवश्य डालती है।
इस प्रकार जितनी वेदियां मंदिर में हों, उन सबके पास जाकर पांच-पांच पुंज चढ़ाकर घुटने टेककर पंचांग नमस्कार करें और यदि आपके पास समय है तो बैठकर १-२ माला फेर लें, ध्यान का अभ्यास हो तो १०-५ मिनट पिण्डस्थ, पदस्थ आदि ध्यान करें, शास्त्र का स्वाध्याय करें, पुनः मंदिर से वापस जाते समय अभिषेक का गन्धोदक लेना न भूलें क्योंकि वह गन्धोदक महान पवित्र होता है, जिसे लगाने से शारीरिक व्याधियाँ नष्ट होती हैं। गन्धोदक को मस्तक, ललाट, गले, आँख आदि उत्तमांगों में लगाना चाहिए। उसे लगाते समय निम्न श्लोक बोलना चाहिए—
आपके शहर के मंदिर अथवा धर्मशाला में यदि कोई मुनि-आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका विराजमान हैं तो उनके पास भी जाकर विनयपूर्वक चावल के तीन पुञ्ज चढ़ाकर नमस्कार करना चाहिए। साधु चूंकि रत्नत्रय के पथ पर चल रहे हैं अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्र बोलकर उनके समक्ष तीन पुञ्ज चढ़ाए जाते हैं। हाँ, उनके नमस्कार के शब्दों में थोड़ा सा अन्तर अवश्य है ! जैसे—मुनिराजों को नमस्कार करते समय नमोस्तु बोला जाता है, आर्यिकाओं को वंदामि बोलकर नमस्कार किया जाता है इसी प्रव्ाâार ऐलक, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं को इच्छामि कहकर नमस्कार करना चाहिए।
विधिवत् घुटने टेककर पंचांग नमस्कार करने से अथवा गवासन से बैठकर पंचांग नमस्कार करने से पैर और घुटने सम्बन्धी रोगों में आराम मिलता है तथा पिछले तमाम अशुभ कर्मों का नाश हो जाता है। कपड़ों की स्वच्छता, उनकी क्रिच खतम न होने पावे अथवा आलस्यवश आज खड़े—खड़े हाथ जोड़कर भगवान का दर्शन करने की परम्परा बड़ी तेजी से हमारी समाज में प्रविष्ट हो गई है किन्तु यह स्वस्थ परम्परा नहीं है। इस नमस्कार से पूरी विनय का पालन नहीं हो पाता है, यही कारण है कि देवदर्शन का जो फल मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता है। जिनेन्द्र प्रभु, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरुओं के दर्शन करके प्रत्येक अंग को धन्य समझना चाहिए। जैसा कि प्राचीन दर्शन पाठ में पढ़ा जाता था—
इसका हिन्दी पद्यानुवाद करती हुई पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने लिखा है—
अर्थात् इन शब्दाञ्जलियों के माध्यम से भक्त श्रावक अपने जन्म को सफल करता है तथा अपने भव—भव के दु:खों को समाप्त करने की अकाट्य भावना जागृत करता है।