एक दिन रात्रि में कुछ परामर्श करते हुए माँ मेरे पास बैठी हुई थीं। समय पाकर मैंने उनसे अपने भाव व्यक्त कर दिये कि- ‘‘मैं कथमपि संसार बंधन में नहीं फंसना चाहती हूँ, मैंने गृहत्याग का पूर्ण निर्णय कर लिया है। मुझे अपनी आत्मा का कल्याण करना है। यह मनुष्य भव यूँ ही व्यर्थ नहीं खोना है।’’ माँ मेरे मुख से प्रायः धर्म की चर्चा सुना करती थीं अतः इस बात पर भी उन्होंने विशेष लक्ष्य नहीं दिया और इतना ही कहा-‘‘देखो! लोग कहेंगे कि लड़की सयानी हो गई।
विवाह नहीं कर पाए अतएव उसने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। इसलिए ऐसा कोई कदम नहीं उठाना है।’’ फिर भी कई बार मेरे मुख से मेरे त्याग का निर्णय सुनकर वह भी मन में समझ चुकी थीं कि-‘‘शायद ही यह विवाह करायेगी।’’ फिर भी अपने कर्तव्य में लगी हुई थीं। एक दिन मुझे भाग्य से ‘जम्बूस्वामी चरित’ मिल गया। मैं उसे रात्रि में पढ़ने बैठ गई।
बहुत देर हो गई। माँ-पिता ने कहा- ‘‘क्या पढ़ रही हो? सो जाओ, कल पूरा कर लेना।’’ किन्तु मानों मैं कुछ सुन ही नहीं रही थी। रात्रि में १२-१ बजे तक उस छोटी सी पुस्तक को पढ़कर पूरी कर ली। मुझे उससे बहुत ही शिक्षा मिली। षट्काल परिवर्तन का वर्णन बहुत ही रोमांचकारी था। उसमें आने वाले छठे काल में कैसे मनुष्य होंगे?
उनकी कैसी दुर्दशा रहेगी? पुनः प्रलयकाल में अग्नि की वर्षा! प्राणी कैसे झुलस जायेंगे?….. यह सब हृदयद्रावक संक्षिप्त वर्णन पढ़कर मैं काँप उठी। सोचने लगी- ‘‘अपने को शीघ्र ही ऐसा प्रशस्त कार्य कर लेना चाहिए कि जिससे उत्तम गति प्राप्त हो जाये और छठे काल में जन्म न लेना पड़े। जम्बूकुमार के अखण्ड ब्रह्मचर्य का प्रभाव भी मन पर बहुत ही प्रभावकारी रहा तथा उनके पूर्वजन्म के ‘असिधारा’ व्रत को भी मैं बार-बार पढ़ती रहती थी।
जब माता-पिता मेरे मोह से विक्षिप्त हो रोने लगते तब मैं उन्हें जम्बूस्वामी की कथा सुनाने लगती। उनके मन में भी उस समय शांति आ जाती किन्तु घर से बाहर निकलते ही लोगों की चर्चाएं और भाईयों की सलाह से पिता पुनः मोह, क्रोध व अशांति में आ जाते थे।
पिता का कितना बड़ा हृदय था
मुझे आज तक भी स्मृति नहीं है कि कभी पिता ने मुझे क्रोध से डांटा हो, या कुछ कटु शब्द कहे हों। थप्पड़ आदि मारना तो बहुत दूर की बात है, प्रत्युत् जब कभी काम के बिगड़ जाने से बहुत छोटेपन में माँ थप्पड़ मार देती थीं तो पिता उन पर नाराज अवश्य होते थे। वे हमेशा कहा करते थे-‘‘देखो, कन्या कुछ दिन में पराये घर चली जायेगी अतः पुत्रियों को कभी मत मारो, मत डांटो, इन्हें जितना भी प्यार देवो उतना थोड़ा है।’’
जब मैं घर छोड़ने की बात कर रही थी उस समय तो मेरे चार भाई और चार बहनें थीं। अत्यधिक बचपन की भी मुझे याद है कि जब कभी भी मंदिर के बाहर मैदानों में चार पुरुष एकत्रित हो जाया करते थे और उनके बच्चे खेला करते थे और कदाचित् मैं मंदिर से बाहर निकलती उस समय यदि कोई टोक देता- ‘‘लाला छोटेलाल! देखो, यह तुम्हारा एक लाख का हुण्डा है।’’
तो वे अनाप-सनाप गरम हो जाते। कहते-‘‘भाई! मैं ऐसा शब्द नहीं सुन सकता हूँ। प्रत्येक लड़कियाँ अपने भाग्य को अपने साथ में लेकर आई हैं। वे मेरी कमाई क्या ले जायेंगी? वे अपने भाग्य का ही ले जावेंगी।’’ यदि कदाचित् कोई हँसी में भी कह देते कि-‘‘तुम्हारे पाँच लड़कियाँ हैं’’ तो पिताजी को बहुत ही बुरा लगता था।
वे कहते- ‘‘भाई! आज से मेरी लड़कियों की गिनती नहीं करना। वे सब अपना-अपना भाग्य लेकर आई हैं। किसी के भाग्य का नहीं खाती हैं और न किसी के भाग्य का कुछ ले ही जायेंगी।’’ उन्होंने घर में खाने,पीने या पहनने में कभी भी पुत्र और पुत्रियों में भेद-भाव नहीं किया था। वे अक्सर यही कहा करते थे- ‘‘देखो! जैसे पुत्र अपनी सन्तान है वैसे ही पुत्री भी अपनी ही संतान है। उसे मोटा खिलाकर, मोटा पहनाकर लड़कों को अच्छा खिलाना और अच्छा पहनाना मुझे पसंद नहीं है।’’
कभी-कभी तो कहते कि ‘‘पुत्रों की अपेक्षा भी पुत्रियों पर अधिक स्नेह रखना चाहिए क्योंकि वे सदा घर में रहने वाली नहीं हैं।’’ यदि कदाचित् कोई लोग ऐसा भेदभाव रखते और उन्हें पता चलता तो घर में आकर उनकी चर्चा करते और कहते- ‘‘ये लोग कितने अज्ञानी हैं। भला लड़कों से लड़कियों को तुच्छ समझना यह उनकी कहाँ की बुद्धिमानी है ?’’
एक बार एक विद्वान् के सामने ऐसे ही दहेज की चर्चा चल रही थी तब किसी पड़ोसी ने कह दिया-‘‘छोटेलाल के तो चार-पांच कन्यायें हैं।’’ बस पिताजी बोल उठे-‘‘भाई! तुम्हारा पेट क्यों फूल रहा है? क्या मेरी कन्यायें तुम्हारी कमाई का दहेज ले जायेंगी? अरे भाई! सभी अपने-अपने भाग्य में जो कुछ लेकर आई हैं वही तो ले जायेंगी। मेरी कमाई का भी क्या ले जायेंगी ?’’
इतना सुनकर विद्वान् पंडित जी बोल उठे-‘‘लाला छोटेलाल! तुम्हारा नाम तो ‘‘छोटे’’ है, परन्तु तुम्हारा हृदय कितना ‘‘बड़ा’’ है!…..अहो! सचमुच में तुम्हारा हृदय बहुत ही बड़ा है। तुम ‘‘छोटेलाल’’ नहीं हो बल्कि तुम ‘‘बड़ेलाल’’ हो। पिता ने घर में आकर यह चर्चा मुझे सुनाई और खूब हँसे.।
उनका यह स्वभाव था कि दुकान की या लोगों की कोई भी चर्चा या घटना घर आकर वे मुझे अवश्य ही सुनाते थे पुनः ‘‘मैंने अच्छा किया या बुरा?’’ यह सुनने को उत्सुक हो जाते थे। मैं भी अपनी बुद्धि के अनुसार पिता के अच्छे कार्य को ‘‘अच्छा’’ कहती रहती थी और ‘‘बुरा’’ तो मुझे कभी अनुभव में आया ही नहीं था।
उनकी चर्या थी प्रातः मन्दिर जाकर, घर आकर, खाना खाकर दुकान चले जाना और शाम को पुनः घर आकर, खाना खाकर, घर के बाहर चबूतरे पर लोगों की गोष्ठी में बैठ जाना या घर में छत पर बैठकर बच्चों से मनोरंजन करना। जब कभी कपड़े के व्यापार के सीजन के दिन होते तो वे प्रातः जल्दी दुकान चले जाते और मध्याह्न में जब समय मिलता घर आते, स्नान करते-करते मेरे से कहते- ‘‘बिटिया! जावो पिछवाड़े से मालिन से मंदिर की चाबी ले आओ।’’
मैं चाबी माँग लाती, पिताजी मन्दिर जाकर, दर्शन करके, आकर खाना खाते थे। ऐसे ही कभी जब कानपुर, लखनऊ आदि से देर से आते तो मैं चाबी लाकर देती तब मंदिर जाकर, दर्शन करके ही खाना खाते थे। धीरे-धीरे मैंने घर में एक शास्त्र उन्हें दे दिया और उनकी स्वाध्याय करने की आदत भी पड़ गई थी। पिताजी जब कभी कानपुर आदि जाते थे तो घर से पूड़ी साग बनवा कर ले जाते थे और यदि कई दिन के लिए जाना होता तो खिचड़ी का सामान बंधवा लेते और वहाँ अंगीठी पर अपने हाथ से बनाकर खा लेते थे। होटल का या बाजार का खाना वे प्रारंभ से ही पसंद नहीं करते थे।
सरलता
एक दिन पिताजी घर आकर खूब हँसे और सुनाने लगे- ‘‘आज दुकान पर एक व्यक्ति आये। वे बड़ा सा कम्बल ओढ़ रखे थे जबकि आजकल कम्बल के दिन नहीं हैं। वे बहुत देर तक बैठे रहे। मैं ग्राहकों में लगा रहा। यह कपड़ा निकालो यह दिखाओ, यह नापो, यह देवो यही करता रहा और देखता रहा।
उन व्यक्ति ने धीरे-धीरे पास में रक्खे हुए साटन के कई एक थान कम्बल में दबा लिए। मैंने उन्हें देख लिया था फिर भी कुछ नहीं बोला और वे व्यक्ति धीरे-धीरे उठकर चलते बने।’ इतना कहकर फिर वे हँसने लगे। जब मैंने पूछा- ‘‘आपने उन्हें ऐसे अपना माल चुराते देखकर क्यों नहीं फटकारा?’’ तब वे बोले-‘‘अरे! बेचारा गरीब है, ले जाने दो, आखिर चोरी का माल बेचकर कितने दिन खायेगा?…..भला चोरों के यहाँ भी कभी बरकत हो सकती है?’’
यह उनकी सरलता और नीति पूर्ण बात सुन मैं आश्चर्य में पड़ गई। ऐसे ही उनकी सरलता के अनेक अनुभव मुझे देखने को मिलते रहते थे। दुकान के मुनीम आदि की भी ऐसी हरकतें वे देख लेते थे किन्तु कभी कुछ भी नहीं कहते थे। घर में आकर यही कह देते- ‘‘बेचारा गरीब है खाने दो, कितना खायेगा? आखिर उसे भी तो पाप का कुछ डर होगा!’
व्यापार में कपड़े का व्यापार करते थे। एक बार आटे की चक्की का काम किया किन्तु उसमें घुन पिसते देखकर उसी दिन उसे बंद कर दिया। संतोष में ही सुख मानते थे और सट्टे को जुआ कहकर उससे दूर रहते थे। उनके हृदय में मायाचारी, कूटनीति का लेश भी नहीं दिखता था। सदा मन के स्वच्छ थे और कहा करते थे- ‘‘मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये।’’
एक बार महावीर जयन्ती के अवसर पर मेरी अत्यधिक प्रेरणा से उन्होंने इन्द्र की बोली ले ली। उस वर्ष हाथी आया था। इन्द्र इन्द्राणी भगवान को लेकर हाथी पर बैठे थे और जुलूस गाँव के बाहर (दराने में) गया था वहीं भगवान का जन्म महोत्सव संबंधी अभिषेक हुआ था। उस समय कई पंडित आए हुए थे। उनमें यह चर्चा का विषय बन गया था कि- ‘‘इन्द्राणी भगवान का अभिषेक करे या न करे?’’
एक पंडित निषेध कर रहे थे तो एक विधान कर रहे थे। जो विधान कर रहे थे वे बोले-‘‘देखो! भगवान के जन्म समय भी इन्द्राणी ही सबसे पहले बालक को प्रसूतिगृह से लाकर इन्द्र को सौंपती हैं। अतः जब इन्द्राणी भगवान का स्पर्श कर सकती है तो भला अभिषेक क्यों नहीं कर सकती है ?
दूसरी बात, भगवान को जन्म भी महिला ने ही तो दिया है कोई वे आकाश से थोड़े ही टपके हैं?…..।’’ इस चर्चा को मैं बहुत ही मनोयोग से सुनती रही थी और मैं भी इसी प्रयत्न में थी कि मेरी माँ अभिषेक कर ले। अन्त में सभी लोेगों में इन्द्र इन्द्राणी दोनों के द्वारा अभिषेक करने का निर्णय हो जाने पर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई।
उस समय भी एक पंडित जी यही बोले थे कि- ‘‘छोटेलाल जी! तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा नाम छोटेलाल क्यों रख दिया था! भाई! तुम तो ‘‘बड़ेलाल’’ हो।’’ तब पिता ने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुये यही कहा था कि-‘‘नहीं, मेरे माता-पिता ने मेरा नाम सोचकर ही रखा है मैं ‘बड़ा’ न होकर ‘‘छोटा’’ ही हूँ।
पंडित जी! बड़ा तो कढ़ाई में तला जाता है, तब बड़ा बनता है इसलिए मैं तो ‘‘छोटा’’ ही हूँ। जब मेरी क्षुल्लिका दीक्षा के बाद पहला चातुर्मास टिकैतनगर में हुआ था और पिता जी आकर आचार्य देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में बैठते थे तब कई बार आचार्यश्री भी कहा करते थे- ‘‘लाला छोटेलाल! तुम ‘‘छोटे’’ नहीं हो, बहुत ‘‘बड़े हो’’। तुमने यह अनुपम ‘‘कन्यारत्न’’ जन्म दिया है कि जिससे भारतवर्ष में बहुत ही धर्मप्रभावना होवेगी ।’’ यह आचार्यदेव की भविष्यवाणी पिता के हृदय को गद्गद कर दिया करती थी।
त्याग की दृढ़ता
एक दिन रविवार को तराई से ग्वालिन घी की मटकी लेकर आई। सदा की तरह घी ले लिया गया और कारणवश उस दिन नहीं छाना गया। दो-तीन दिन बाद जब मैं घी छानकर अपनी मटकी में भरने के लिए तैयार हुई और चूल्हे में आग सिलगा दी। कढ़ाई में घी निकालने के लिए जैसे ही मटकी का कपड़ा खोला कि देखा, उसमें अगणित लाल चीटियाँ भरी हुई हैं जो कि प्रायः सभी मर चुकी थीं। घी की मटकी वैसे ही बाँध कर माँ को सारी बात बता दी।
अगली बार जब वही ग्वालिन अपनी मटकी लेने आई तब माँ ने उसे ज्यों की त्यों घी से भरी मटकी देते हुए चींटियों का हाल बता दिया। उसी क्षण उसने माथा ठोककर कहा- ‘‘अरे! बहूरानी! यदि मैं स्वयं घी गरम करके छानकर लाती तो मेरा सारा घी बेकार क्यों जाता?’’ मैं यह शब्द सुनकर दंग रह गई। ‘‘अरे! क्या तुम मरी चीटियों सहित घी को गरम कर छान कर ले आतीं?’’ पहले तो वह कुछ नहीं बोली पुनः कुछ देर बाद कहने लगी-‘‘तो क्या बिटिया! हम लोग ऐसा घी फैक देंगे?’’
मैं समझ गई कि बाजार के घी आदि वस्तुओं का यही हाल होता होगा। वह बात तो समाप्त हो गई और मैंने उसी दिन बाजार के घी का त्याग कर दिया। उस समय टिकैतनगर में जैनों के यहाँ दही जमाकर घी बिलोने की प्रथा ही नहीं मालूम थी। अतः घर में हंगामा मच गया। सभी बड़े-बूढ़े हल्ला मचाने लगे।
माँ ने कहा- ‘‘तुम्हें पता है कि घी के बिना क्या बनेगा? तुम कैसे खावोगी?’’ बात बढ़ती गई। बार-बार माँ ने समझाया-‘‘देखो! एक दिन का काम नहीं है कितने दिन बिना घी के रूखी रोटी खाओगी? आखिर पराये घर में यह सब कैसे निभेगा?’’ अन्त में मेरी दृढ़ता के आगे सब शांत हो गये। क्या करते! तब माँ ताजी-ताजी रोटी को दूध में भिगो दिया करती थी और मुझे खिलाया करती थी। इस दृढ़ता से और त्यागभावना से भी वे समझ चुकी थीं कि ‘‘यह लड़की विवाह नहीं करेगी।’’