(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. माताजी संग्रहणी रोग से ग्रस्त हुई।
२. माताजी ने समता भाव से सहन किया।
३. रोग ग्रस्त-कमजोर अवस्था में भी, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों को पढ़ाया।
४. गृहस्थ जीवन के माता-पिता दर्शनार्थ आये।
५. मोहिनी को मोहनीय ने जकड़ा।
६. संगति का प्रभाव।
यह शरीर व्याधि का मंदिर, रोम-रोम में रोग भरे।
बड़े-बड़े चक्री-मुनि देखे, वे भी इसके फैर परे।।
सनतकुमार, वादिराज मुनि, के मिलते पढ़ने आख्यान।
अत: न तन से मोह बढ़ाते, स्व-पर ज्ञान वाले मतिमान।।३६६।।
रोग बहुत हैं किन्तु सभी का, मूल एक है उदर विकार।
इसीलिए पेट को पकड़ा, मानतुंग आद्यंत विचार।।
मुनि-आर्यिका बड़भागी हैं, उन्हें न कर्म सताते हैं।
किन्तु असाता के आने पर, वे भी बच न पाते हैं।।३६७।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती का, कर्म असाता आया जब।
संग्रहणी इक रोग ने आकर, अपना पैर जमाया तब।।
किन्तु नहीं माताजी विचलित, हुई असाता कर्मों से।
क्योंकि वे है पूर्ण सुपरिचित, जैनागम के मर्मों से।।३६८।।
जो आया है वह जायेगा, समय के सब पाबंद हैं।
कर्मचक्र के चरण न रुकते, चलते तीव्र या मंद हैं।।
साता गया, असाता आया, इक दिन यह भी जायेगा।
लेकिन मेरे साम्य भाव को, कोई डिगा न पायेगा।।३६९।।
जो कुछ कर्म किये पूरब में, वे ही उदय में आते हैं।
कर्ज अदा करने में विज्ञजन, लेश नहीं घबराते हैं।।
जो बोते हैं वही काटते, यह दुनिया की रीति अटल।
किया कर्म भोगना पड़ता, निश्चित आज नहीं तो कल।।३७१।।
ऐसे अवसर पर ज्ञानी जन, खेद न मन में लाते हैं।
लेकिन सतत धर्मचर्या में, अपना समय बिताते हैं।।
दुहराते रहते हैं मन में, कथित पुराणों के आख्यान।
उनसे समताभाव सीखते, तथा नशाते कर्म महान्।।३७१।।
जिनवचनौषधि मान मातुश्री, नहीं रोग पर ध्यान दिया।
अन्तराय के जलाभाव से, रोग रूप विकराल लिया।।
अब तक छूटा पिण्ड न उससे, स्थिति बनती सल्लेखन।
किन्तु पूर्ववत् चर्या रखकर, करती रहीं पठन-पाठन।।३७२।।
पंचाध्यायी ग्रंथ महत्तम, पूज्याश्री स्वाध्याय किया।
पात्रकेसरी नाम स्तोत्र का, अन्यों को भी ज्ञान दिया।।
ब्रह्मचारिणी विद्याजी को, सर्वार्थसिद्धि पढ़ाई है।
बाई अंगूरी (आदिमती) को, पढ़ा साथ ही लाई हैं।।३७३।।
घर जीवन के मात-पिताजी, मोहिनी देवी-छोटेलाल।
प्रथमबार दर्शन को आये, बुरा हुआ दोनों का हाल।।
ज्ञानमती से चिपट मोहिनी, फूट-फूट कर रुदन किया।
पर, माताजी समझ न पाई, कर्म मोहनी जकड़ लिया।।३७४।।
कर्म मोहनी महाप्रबल है, भव-भव में भटकाता है।
जिससे कुछ संबंध न उसको, अपना सगा बताता है।।
कौन यहाँ किसकी माँ-बेटी, कौन पिता, भगिनी, दारा।
पर, ठगिया इस मोह के कारण, जीव फिरे मारा-मारा।।३७५।।
सात वर्ष पश्चात् मिलन था, गहरे थे वियोग के व्रण।
था उफान, बन अश्रु बह गया, विनत भाव से किया नमन।।
कुशल-क्षेम पूछी रत्नत्रय, माताजी भी प्रश्न किया।
मनोवती को नहिं लाये हैं, निष्ठुरता का काम किया।।३७६।।
माता-पिता, प्रकाश, माधुरी, रहे यहाँ सन्तुष्ट हुये।
आचार्य संघ के दर्शन पाकर, हर्षित-मुदित-प्रसन्न हुए।।
गुरु उपदेश सुने मन लाकर, आहार-दान भी लाभ लिया।
चुम्बकीय व्यक्तित्व ने यहाँ, श्री प्रकाश को रोक लिया।।३७७।।
अतिप्रभाव पड़ता संगति का, कीट प्राप्त कर संग सुमन।
महज्जनों के शिर ऊपर भी, कर जाता है आरोहण।।
उससे भी बढ़कर, सत्संगति, कर लेती है आप समान।
रत्नत्रय के दृढ़ाचरण से, भव्य पुरुष बनते भगवान।।३७८।।
एक-एक बिन्दु के रिसते, हो जाता है रिक्त घड़ा।
एक-एक क्षण घटते-घटते, घट जाता है वर्ष बड़ा।।
चतुर्मास भी पूर्ण हो गया, हुआ पिच्छिका परिवर्तन।
नगर लाडनूं लक्ष्य बना, आचार्य संघ ने किया गमन।।३७९।।
श्री सेठ भागचंद सोनी, तीन लोक का किया विधान।
श्रीफल चढ़े माड़ने ऊपर, रहा राज वैभव उपमान।।
हुई समापन पर रथ यात्रा, रजत उपकरण निकले सब।
अति प्रभावना हुई धर्म की, मुनि संघ की सन्निधि तब।।३८०।।