(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. अजमेर से संघ लाडनूं पधराया।
२. पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न।
३. संघ का सुजानगढ़ आगमन।
४. मुनि एवं आर्यिका दीक्षाएँ।
५. आर्यिका ज्ञानमती सभी को संयम-तप पर बढ़ने की प्रेरणा देतीं।
६. माताजी ने संघ को पढ़ाया। ७. संघ का सीकर को विहार।
आचार्य संघ अजमेर से चला, नगर लाडनूं पधराया।
श्री मज्जिनेन्द्र पंचकल्याणक, का उत्तम अवसर आया।।
महावीर स्वामी की प्रतिमा, चन्द्र भवन में पधराई।
शांति-वीर-चंद्र प्रतिमाओं, ने भी प्रतिष्ठा थी पायी।।३८१।।
मानस्तम्भ निर्माण के लिए, शिलान्यास सम्पन्न हुआ।
कर प्रभावना विविध रूप से, संघ सुजानगढ़ गमन हुआ।।
परम पूज्य श्री माताजी ने, संघ साथ ही गमन किया।
जहाँ चरण रखतीं माताजी, वहाँ-वहाँ पर चमन किया।।३८२।।
बृहद् संघ से हुआ प्रभावित, गढ़ सुजान की जैन समाज।
हाथ जोड़ कर बोली मुनिवर, अतिशय पुण्य फला है आज।।
चातुर्मास हमें मिल जाये, परमपूज्य आचार्यश्री।
मुनिभक्त, धार्मिक समाज की, पुन: पुन: हार्दिक विनती।।३८३।।
करुणाधन आचार्यश्री ने, सब पूर्वापर किया विचार।
द्रव्य-क्षेत्र अनुकूल जानकर, चातुर्मास किया स्वीकार।।
आबाल वृद्ध, नर-नारी मन में, लहर हर्ष की दौड़ गई।
चर्या-चर्चा-उपदेशों से, धर्म प्रभावना बहुत हुई।।३८४।।
चौके लगते पूर्ण शहर में, धार्मिक चर्चा गली-गली।
साधुसंघ के पड़गाहन को, भक्तजनों की होड़ लगी।।
जगह-जगह सतरंगी शोभा, श्रीफल-कलश सुहाते थे।
जिस घर हो जाते अहार, नर धन्य-धन्य हो जाते थे।।३८५।।
कुल का प्रमुख चाहता जैसे, मेरे कुल की वृद्धि हो।
ज्ञानमती जी सतत चाहतीं, साधु-सुकुल अभिवृद्धि हो।।
सबको सदा प्रेरणा देतीं, भव-तन-भोग विरक्त बनो।
प्रतिमा धारो, बनो आर्यिका, शक्ति सम्हालो मुनि बनो।।३८६।।
सर्व परिग्रह पाप मूल है, सुकरणीय ही उसका त्याग।
जो कर देते त्याग परिग्रह, वो जन होते हैं बड़भाग।।
सुनकर कुछ बड़भागी जन ने, त्याग परिग्रह की इच्छा।
उन्हें पूज्य आचार्यश्री ने, दी आर्यिका-मुनि दीक्षा।।३८७।।
किया अध्यापित माताजी ने, जैनेन्द्र व्याकरण, मूलाचार।
श्री क्षुल्लिका जिनमती का, विविध रूप कीना उपकार।।
ऐसे नाम अनेक न जिनका, किया गया उल्लेख यहाँ।
पर बहुतों को माताजी ने, दिया ज्ञान का दान यहाँ।।३८८।।
आचार्य श्री के प्रतिदिन प्रवचन, माताजी के समय-समय।
पर्व-महोत्सव जो भी आये, गये मनाये यथासमय।।
बहुप्रकार से कर प्रभावना, आचार्य संघ का गमन हुआ।
शेखावटी के प्रवेश द्वार-सम, सीकर में आगमन हुआ।।३८९।।