आश्विन सुदी चौदस को आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज का केशलोंच था। उसके लिए बाहर पंडाल बनाया गया था। विशेष आयोजन था।
आस-पास के-त्रिलोकपुर, टिकैतनगर, दरियाबाद, सुमेरगंज, बहराइच आदि गांवों से तथा लखनऊ, कानपुर शहर से बहुत से लोग आये थे। इसके पूर्व टिकैतनगर से (घर से) कई बार छोटा भाई कैलाश मुझको लेने आया किन्तु मैं कह दिया करती थी कि दशलक्षण के बाद आउँगी।
बाद में आने पर कहना शुरू किया-चातुर्मास पूर्ति तक मैं यहीं रहूंगी। केशलोंच देखने के लिए व मुझको वापस घर ले जाने के लिए टिकैतनगर से माता-पिता आये हुए थे।
मैंने अवसर अच्छा देखकर माता-पिता से कहा-‘‘चलो, आचार्यश्री के पास हमें दीक्षा दिला दो।’’ वे लोग समझाने लगे, मैं उनके साथ आचार्यश्री के पास आ गई, नमस्कार किया।
उन लोगों ने कहा-‘‘महाराज जी! इस लड़की को समझाइये, यह अभी अपने घर वापस चले। कुछ अभ्यास करेगी बाद में दीक्षा की बात सोची जायेगी।’’
इसी बीच मैंने कहा- ‘‘पूज्य गुरुदेव! अब मुझे आप संसार समुद्र से पार करने वाली ऐसी दीक्षा प्रदान कीजिए।’’
आचार्यश्री ने कहा-‘‘तुम्हें अभी तक अष्टमूलगुण भी नहीं हैं। गुरूसाक्षी से कुछ व्रत नहीं लिया है। एकदम दीक्षा कैसे?’’
मैंने कहा-‘‘महाराज जी! जैसा भी नियम व्रत आप कहेंगे, मैं पालन करूँगी, मुझे अब तो आप दीक्षा ही दे दीजिये।
मैंने एक-दो महीने में समझ लिया है। दीक्षा के सारे नियम मैं पाल सकती हूँ। इसी बीच माता-पिता घर चलने के लिए ज्यादा आग्रह करने लगे।
तभी मैंने वहीं आचार्यश्री के सामने ही अपने हाथों से अपने शिर के बालों का केशलोंच करना शुरू कर दिया। यह दृश्य देखकर पिता एकदम पागल से होकर बाहर कहीं चले गये, जिनका दो दिन तक पता नहीं लगा। माँ छोटी सी बालिका मालती को गोद में लेकर आई थींं।
वे उसी जगह मूर्छित हो गिर पड़ीं। बहुत देर तक उन्हें होश नहीं आया। कुछ महिलाएं उन्हें संभालने में लग गयीं। आचार्यश्री मेरे इतने साहस को देखकर आश्चर्य में पड़ गये।
इधर जितने भी लोग आचार्यश्री का केशलोंच देखने आये थे वे सब वहाँ इकट्ठे हो गये। कोई आश्चर्य से मेरे वैराग्य की सराहना करने लगे, कोई हल्ला-गुल्ला मचाने लगे- ‘‘रोको, रोको, अभी इस लड़की की उम्र बहुत ही छोटी है।’’
कोई कहते-‘‘पुलिस को बुलाओ, इस लड़की को ले जाये।’’ उस हंगामे को देखकर पहले तो आचार्य महाराज ने अपना दाहिना हाथ उठाकर सबको शांत किया पुनः जब मेरा केशलोंच चालू रहा तब लोग आपस में एक-दूसरे से कहने लगे- ‘‘इस लड़की का हाथ पकड़कर केशलोंच तो रोक दो।’’
लेकिन युवती कन्या को हाथ लगाने का अर्थात् मेरा हाथ पकड़ने का किसी को साहस नहीं हुआ। इसी बीच माँ के मामा, जो वहीं के निवासी थे, आ गये और उन्होंने आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया तथा केशलोंच रोक दिया और बोले- ‘‘यह मेरी भानजी-मोहिनी की पुत्री है अतः मुझे इसे रोकने का पूरा अधिकार है।’’
इसके बाद कुछ लोग जो कि पुलिस को बुलाने गये थे, कुछ धर्मात्मा बन्धुओं ने उन्हें मार्ग में ही रोक दिया और बोले- ‘‘अपनी ही कन्या को पुलिस के हाथ सौंपना कौन सी बुद्धिमानी है?’’
कुछ सुधारक तत्त्वों ने कहा- ‘‘यदि आचार्य महाराज इस अवसर पर इस लड़की को दीक्षा दे देते हैं तो हम आचार्यश्री पर ही पुलिस का हमला कर देंगे।’’ इस विषय को भी कुछ समझदार वृद्धों ने, जिन्होंने दो माह तक बाराबंकी में मेरे जीवन को देखा था, उन्होंने ऐेसे लोगों को रोक दिया। उसी समय आचार्य महाराज तो पंडाल में पहुँच गये। केशलोंच शुरू कर दिया। सारी जनता उधर ही चली गई पुनः मैंने अपने बचे हुए शेष केशों का लोच शुरू कर दिया।
फिर भी माँ के मामा बाबूराम ने आकर मेरा हाथ पकड़कर मुझे रोक दिया। तब मैं वहाँ से उठकर जिन मन्दिर में चली गई। भगवान की वेदी में जाकर जिन प्रतिमा के सम्मुख नियम ले लिया कि ‘‘जब तक मुझे व्रत नहीं मिलेंगे तब तक मेरे चतुराहार का त्याग है एवं घर जाने का भी त्याग है।’’ मैंने इतना नियम लेकर दृढ़ता से भगवान की शरण ले ली और ‘‘इस उपसर्ग से रक्षा होने तक मैं यहाँ से नहीं उठूूँगी’’ ऐसा दृढ़ संकल्प करके मैं वहीं बैठ गई।
उधर आचार्यश्री का केशलोंच पूर्ण हुआ, बाद में उपदेश हुआ। अनन्तर बहुत से लोग तो अपने-अपने गाँव चले गये। वातावरण शान्त हो गया। उसके बाद रात्रि के ९-१० बजे माँ आकर मुझे बहुत कुछ आश्वासन देकर जैसे-तैसे वहाँ से उठाकर अपने साथ जहाँ पर ठहरी थीं वहाँ पर ले आयीं। वहाँ सोने के बजाय रात्रि भर माँ-बेटी में चर्चा चलती रही। माँ का हृदय भी उस रात्रि वैराग्यरस से पूर्ण प्लावित हो गया। माता और मेरा वार्तालाप चल रहा था।
माँ ने कहा- ‘‘बेटी मैना! देखो, उस समय शोक और दुःख में पागल हो पता नहीं, तुम्हारे पिता कहाँ चले गये हैं अब क्या होगा?’’ मैंने कहा-‘‘ यह मोह कर्म ही तो अनादि काल से जीव को संसार में घुमा रहा है। सभी जीव प्रायः इसके आश्रित हैं, क्या किया जाये?
जिसकी जो होनहार होगी सो होगा, अब मुझे किसी की तरफ भी लक्ष्य नहीं है।’’ ‘‘बेटी! तुम्हें ऐसी स्थिति में एक बार घर चलना चाहिए। हम लोग जबरदस्ती शादी नहीं करेंगे। तुम अलग कमरे में रहते हुए अपना धर्मध्यान करना पुनः कुछ दिन बाद संघ में भेज देंगे।’’
‘माँ! इस जीवन का कुछ भी भरोसा नहीं है। ‘कल करना सो आज कर, आज करे सो अब’। अतः अब मैं घर कतई नहीं जाऊँगी, मैंने भगवान के श्रीचरणों में नियम ले लिया है।’’
माता बहुत ही रो रही थीं और प्यार से समझा रही थीं, किन्तु मैंने कहा- ‘‘देखो, अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव के साथ किसका क्या संबंध नहीं हुआ है? अरे! संसार में कौन सा ऐसा जीव है जिसे हमने माता नहीं बनाया और जिसे रोते हुए नहीं छोड़ा है। विधि के आश्रित हुआ यह जीव भव-भव में पता नहीं किस-किस को रोता छोड़कर आता है और पुनः दूसरी पर्याय में आकर उन रोने वाले अपने कुटुम्बियों को याद भी नहीं करता है।
देखो! संसार में कदाचित् किसी का जवान बेटा मर जाता है तो माता-पिता उसके वियोग में रो-रो कर पागल हो जाते हैं। कितने तो अपघात तक कर डालते हैं, लेकिन इससे किसी का हित नहीं होता है। ओह! इस अनादि अनन्त संसार में हमने पता नहीं कितनी माताओं का दूध पिया है और पता नहीं कितने पिता बनाये हैं। इस असार संसार में भला कौन किसका है? ये सब झूठे नाते-रिश्ते हैं। अतः अब हमें किसी से मोह नहीं है।’’
रवीन्द्र कुमार बालक जो लगभग दो-ढाई वर्ष का था, वह केशलोंच के समय खड़ा-खड़ा रो रहा था और ‘‘जीजी घर चलो, घर चलो,’’ कह रहा था। माँ बार-बार इन भाई-बहनों के स्नेह का स्मरण करा रही थीं किन्तु मेरा हृदय पत्थर से भी अधिक कठोर बन चुका था। तब माँ ने कहा- ‘‘देखो बेटी!
आचार्य महाराज ने भी सब के बीच में यही कह दिया है कि मैं इस मैना को कुछ भी व्रत नहीं दे सकता। यह एक बार अपने घर जाये, कुछ दिन दृढ़ता से ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करे तत्पश्चात् माता-पिता व समाज की सन्तुष्टि, अनुमति से ही दीक्षा दी जायेगी।’’
तब मैंने कहा-‘‘माँ! यदि तुम मेरी सच्ची माता हो तो मेरा एक काम कर दो, मैं तुम्हारा उपकार जीवन भर नहीं भूलूंगी।’’ ‘‘वह क्या!’’ ‘‘वह यह कि तुम आचार्यश्री को मुझे व्रत देने के लिए आज्ञा दे दो!’’ माँ काँप उठीं और बोलीं-‘बेटी! इसका फल क्या होगा?
तुम्हारे पिताजी कहीं सुरक्षित होंगे और पुनः घर आयेंगे तो क्या मुझे घर में रहने देंगे?’’ ‘‘अरे! जब तुमने धर्म के पालन के लिए कई बार पिता का कठोर व्यवहार सहन किया है तो मेरे निमित्त से एक बार और भी जो कुछ होगा सहन कर लेना, किन्तु मेरा उद्धार तो हो जायेगा।’’
माँ कुछ देर तक सोचती रहीं। वैसे रात्रि भर की वैराग्यप्रद चर्चा से उनका हृदय तो भीगा हुआ ही था, अतः उन्होंने मेरी यह बात मान ली। तभी मैंने एक कागज और पेंसिल लाकर हाथ में दिया। तब ब्रह्ममुहूर्त की मंगलमय बेला थी। माँ ने मेरे कहे अनुसार लिखना शुरू किया। आँखों में आँसू थे और हाथ काँप रहा था।
साहस करके मैंने माँ से लिखवाया- ‘‘पूज्य महाराज जी! मेरी पुत्री मैना को, यह जो भी व्रत चाहती है आप दे दीजिए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह दृढ़ता से व्रतों को निभायेगी।’’
पत्र लिखकर माँ मुझसे कहती हैं-‘‘बिटिया मैना! जैसे आज मैं तुम्हें संसार से निकाल रही हूँ वैसे ही तुम भी मुझे घर से-संसार समुद्र से निकाल कर एक दिन मोक्ष मार्ग में लगा देना।’’
मैंने खुशी-खुशी माँ को वचन दिया, ‘‘हाँ! मैं भी तुम्हें एक दिन दीक्षा लेने में सहयोग दूँगी।’’ माँ ने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि अब यह मैना न घर चल सकती है और न अन्न-जल ही ग्रहण कर सकती है। यह दिन उगते ही पुनः भगवान की शरण में जाकर बैठ जायेगी। अतः अब इसे व्रत दिला देने में ही सार है अन्यथा जनता का वातावरण केवल दूषित होगा। कुछ लोग मोह का पक्ष लेंगे तो कुछ लोग वैराग्य का पक्ष लेंगे।
चूूंकि यही स्थिति आज दिन भर देखने में आई थी। माँ पत्र लिखकर स्नान, सामायिक आदि से निवृत्त होकर मेरे साथ महाराज जी के पास आ जाती हैं। अभी कुछ अंधेरा सा ही है। आचार्यश्री सामायिक पूर्ण कर चुके हैं।
गुरु को नमस्कार करने के पश्चात् मेरी प्रेरणा से वे महाराजश्री के हाथ में वह छोटा सा कागज देते हुए कहती हैं- ‘‘हे महाराज जी! यह हमारा पत्र सर्वथा सदैव गुप्त ही रखा जाये। इसका भेद कभी किसी को नहीं देना। आप गुरु हैं, आप पर हमें पूर्ण विश्वास है।’’
महाराज जी पत्र खोलकर पढ़ते हैं तभी प्रसन्न होकर माँ के चेहरे को देखते हैं। माँ अश्रुओं को अपने आंचल से पोंछते हुए कहती हैं- ‘‘महाराज जी! इस लड़की की दृढ़ता बचपन से ही बहुत रही है।
यह सभी नियमों को पालने में समर्थ है, यह मेरा पूर्ण विश्वास है, समाज का विरोध व्यर्थ है। यद्यपि माता मोहिनी की आँखों में मोह के अश्रु थे फिर भी वे अपने हृदय को निर्मोही बनाकर अब मोहिनी से निर्मोहिनी बन चुकी थीं पुनः कोई मुझे स्वीकृति देते हुए देख न ले, इस डर से वे गुरु को नमस्कार कर जल्दी ही वहाँ से निकलकर मन्दिर चली गई और भगवान की पूजा में तन्मय हो गई । इधर एक महिला जो कि मेरा पूर्णतया साथ दे रही थीं, वह आ गई ।
महाराज जी ने कहा- ‘‘जाओ, तुम इन्हें शीघ्र ही स्नान कराकर नई साड़ी पहनाकर ले आओ।’’ यह काम मिनटों में हो गया। मैं महाराज जी के पास हाथ में श्रीफल लेकर आ गई। इसी बीच छोटे मामा भगवानदास जी वहाँ आ पहुँचे। उनके सामने ही महाराज जी ने मुझे जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत और सप्तम प्रतिमा के व्रत दे दिये।
मैंने उसी समय घर का त्याग कर दिया। मामा भगवानदास समझ ही नहीं सके कि यह क्या हो रहा है? जब उनकी समझ में आया कि इस लड़की को आचार्य महाराज ने ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया है तब वे दौड़े-दौड़े अपनी जीजी के पास गये और रोने लग गये। माँ भगवान की पूजा पूर्ण कर वहाँ आयीं। देखा, अब मेरी पुत्री मैना सप्तम प्रतिमा लेकर ब्रह्मचारिणी बन गई है और घर का तथा अपने लोगों का संबंध त्याग कर दिया है।
वैराग्य और तत्त्वज्ञान का अंकुर माता मोहिनी के उनके हृदय में भी उग चुका था परन्तु वे पति, पुत्र और पुत्रियों के दायित्व को लिए हुए थीं अतः वे स्वयं कुछ नहीं कर सकती थीं। उस समय उनकी भावना स्वयं ही घर त्याग करने की हो चुकी थी किन्तु कर्मोदय की पराधीनता अथवा यों कहिये कि उस समय उनकी काललब्धि नहीं आई थी। वे उसी समय बोल उठीं- ‘‘आज ही इसका जन्म दिवस है। आज १८ वर्ष की हुई है।
पुनः आज इसका इस आश्विन सुदी पूर्णिमा को पुनर्जन्म हुआ है।’’ मेरे सप्तम प्रतिमा व्रत को लेने की चर्चा सारे बाराबंकी शहर में फैल गई तथा दिन भर मेें ही यत्र-तत्र आस-पास के गाँवों में भी फैल गई। माँ ने देखा अब मुझे अपने घर को, नन्हें-नन्हें बालकों को संभालने के लिए जाना ही पड़ेगा। तब उन्होंने मुझे स्वयं अपने हाथ से दो सफेद साड़ियाँ लाकर दे दीं और पूजन का प्रेम विशेष होने से एक डिब्बे में पूजन के लिए बढ़िया चावल, शुद्ध काश्मीरी केशर आदि सामग्री रख दी। उसी में एक छोटे से डिब्बे में पूजन सामग्री हेतु कुछ रुपये रख दिये। उसे मुझे संभलवा दिया।
तब तक बहुत खोज-बीन के बाद पिता कहीं जंगल में एकांत में रोते हुए बैठे थे सो ताऊ जी (बब्बूमल जी) उन्हें लिवा आये। आकर मुझ से मिले।
कुछ शांत हुए पुनः बहुत कुछ समझाया कि- ‘‘बिटिया! अब तो तुमने जीवन भर का ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है, विवाह की कोई बात नहीं रही है अतः अब टिकैतनगर चलो, मन्दिर में एक कमरे में रहना। मैं तुम्हारे पढ़ने की सारी व्यवस्था कर दूँगा।
अच्छे पण्डित विद्वान् तुम्हें पढ़ायेंगे। तुम चाहो तो मेरे घर भोजन करना, चाहे तो जो तुम्हें बुलायें वहाँ भोजन कर लेना। मैं कुछ भी एतराज नहीं करूँगा।’’
किन्तु मैंने यही कहा कि-‘‘अब आप मोह छोड़ो। मैं तो दीक्षा लेने के बाद ही टिकैतनगर में पैर रखूँगी, उसके पहले किसी हालत में नहीं आ सकती हूँ।’’
पिता बहुत नाराज हुए, बोले-‘‘अब मैं तुम्हारे जीवन में कभी भी तुमसे नहीं मिलूंगा।’’ ये लोग मन में दुःख, शोक और मोह को लिए हुए अपने घर जाने की सोच रहे हैं। जिस समय मैं बाराबंकी में सप्तम प्रतिमा लेकर सफेद साड़ी पहनकर महाराजश्री के सामने बैठी थी, उस समय सभी छोटे भाई-बहन वहीं खड़े-खड़े कैसे रो रहे थे।
बहन शांतिदेवी, कैलाशचन्द्र, श्रीमती, मनोवती, प्रकाशचन्द्र, सुभाषचन्द्र, कुमुदनी और रवीन्द्र कुमार किस तरह मेरी धोती पकड़-पकड़ कर कह रहे थे- ‘‘जीजी! घर चलो, घर चलो, घर चलो! तुम्हें क्या हो गया है?’’ वह करुणामयी दृश्य देखकर उस समय बाराबंकी में भला कौन ऐसा था कि जिसकी आँखों से आँसू नहीं बरसे थे! किन्तु मेरी आँखें बिल्कुल सूखी थीं। मैं सोच रही थी- ‘‘अहो! मैंने इस संसार में पता नहीं कितने भाई-बहनों को प्यार किया है?
कितनों को गोद में खिलाया है और पता नहीं कितनों को ऐसे ही रोते-बिलखते छोड़ा है? यह सब झूठा नाता है। भला इस अनन्त संसार में कौन किसका? अरे! जब यह अपना शरीर ही अपने साथ नहीं जाने वाला है तब इसके आश्रित इन कुटुम्बीजनों से मोह कैसा? अपनापन कैसा?
यह मोह ही तो संसार परिभ्रमण का मूल कारण है अतः अब मेरा किसी से कुछ भी संबंध नहीं है।’’ आचार्य देशभूषण जी महाराज मेरी इतनी दृढ़ विरक्ति को, इतनी निर्ममता को देखकर मन ही मन सोच रहे थे- ‘‘सचमुच में यह कोई निकट संसारी जीव है। इसके संसार का अब बिल्कुल अन्त आ चुका है ऐसा दिख रहा है।
इसके नन्हें-नन्हें भाई-बहन इस तरह बिलख रहे हैं, माता-पिता इस तरह रो रहे हैं, पिता तो पागल जैसे हो रहे हैं किन्तु इसे कुछ भी परवाह नहीं है। निश्चित ही यह भव्य जीव है और दीक्षा के लिए उत्तम पात्र है।’’ पुनः अपने ये विचार गुरुदेव मेरे सामने व खास भक्तों से कह भी दिया करते थे। इस प्रकार मोह से व्यथित माँ मोहिनी मेरे वचनों से प्रभावित होकर निर्मोहिनी बनकर मुझे आचार्यश्री से व्रत दिलाकर ‘सच्ची माता’ बन गयीं।
मैं सोच रही थी- ‘‘देखो, यदि मेरी माँ इस समय महाराज जी को एकांत में व्रत देने की स्वीकृति नहीं देतीं तो शायद ही आज मुझे व्रत मिलते अतः यह मेरी जन्मदात्री माँ सचमुच में ‘सच्ची माता’ है। संसार समुद्र से पार होने में भी मेरी सहयोगिनी बनी है। इसलिए इन्होंने मेरा सच्चा उपकार किया है।
मैं भी एक न एक दिन अवश्य ही इस उपकार के बदले इनको घर से निकालने का पूरा-पूरा प्रयत्न करूँगी।’’ यह घटना सन् १९५२ की थी। अब मेरा ब्रह्मचारिणी अवस्था का जीवन एक नया जीवन बन चुका था।
मैं दिन भर मंदिर जी में बैठी रहती थी। स्वाध्याय करती थी, अमर कोश के बीस-बीस श्लोक एक दिन में कंठाग्र कर लेती थी, तीनों काल सामायिक करती, आचार्य महाराज जी के पास दर्शन के समय और उपदेश के समय आती, रात्रि में जिसके यहाँ प्रारम्भ में आकर रुकी थी वह घर था पिता की बुआ का।
कपूरचन्द्र जी उनके सुपुत्र थे। उनकी धर्मपत्नी बहुत ही धर्मपरायणा थीं जो कि मुझे अपने पास सुलाती थीं। मेरी हर सुख-सुविधा का बहुत ही ध्यान रखती थीं। इसी बीच लखनऊ की एक महिला, जो चौक में मन्दिर के पास रहती थीं, उनके जवान पुत्र का मरण हो जाने से वह विरक्त हो चुकी थीं।
पति के बार-बार विरोध करने के बावजूद भी वह महाराज जी की शरण में आ गई थीं। महाराजश्री ने उन्हें सात प्रतिमा के व्रत दे दिये और वह भी मेरे साथ में रहने लगीं। इससे मैं अकेली नहीं रही। इसके पूर्व बाराबंकी में श्यामाबाई, ताराबाई, मोहनलाल जी की धर्मपत्नी और एक महिला थीं। ये चारों महिलाएं मेरे पास प्रारंभ से ही बहुत आती रहती थीं, मेरी त्याग भावना से प्रभावित थीं तथा हमेशा ही हर किसी के सामने मेरी प्रशंसा करतीं व पक्ष रखती रहती थीं।
अतः आचार्य महाराज इन चारों महिलाओं को ‘‘लौकांतिक देव’’ कहकर ही पुकारा करते थे। इनके पति भी मेरे अनुकूल ही धर्म का पक्ष रखते थे। जब चतुर्दशी को मैंने केशलोंच करना प्रारंभ किया था, महमूदाबाद से बड़े मामा महिपालदास भी आ गये थे। उन्होंने मोहावेश में आकर बहुत ही हल्ला-गुल्ला मचाया था, बल्कि पुलिस को बुलाकर इस वातावरण को शांत कराने की धमकी उन्होंने ही दी थी।
पुनः आवेश में आकर महावीर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, मोहनलाल आदि से भी लड़ने लगे थे। जब शाम को कुछ उपाय नहीं दिखा व मुझे सत्याग्रहपूर्वक मंदिर में बैठी देखा तब समझाने भी आये थे, किन्तु कुछ परिणाम न निकलने से अपनी जीजी को यद्वा-तद्वा सुनाकर वापस चले गये थे।