(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
चातुर्मास समाप्ति के बाद आचार्यश्री बाराबंकी से विहार कर लखनऊ आ गये और डालीगंज में ठहर गये। वहाँ से श्रीमहावीर जी यात्रा का प्रोग्राम बना। संघ व्यवस्था में सीमंधरदासजी चारबाग वाले और श्री जुग्गामल जी आगे हुए। संघ का विहार हुआ। मार्ग में सोनागिरि आदि की यात्रा करते हुये आचार्यदेव श्रीमहावीर जी आ गये। फाल्गुन की अष्टाह्निका महावीर जी क्षेत्र पर हुई। मैं कभी-कभी अवसर पाकर आचार्यश्री से दीक्षा के लिए प्रार्थना किया करती थी।
महावीर जी में मैंने आचार्यश्री के समक्ष पुनः दीक्षा की प्रार्थना करके यह नियम ही कर लिया कि- ‘‘अब मैं महावीर जी में ही दीक्षा लूँगी।’’ आचार्यश्री ने विचार व्यक्त किया कि यदि इनके परिवार को सूचना दी जाती है तो पुनः माता-पिता, ताऊ-चाचा आदि आकर दीक्षा रोक सकते हैं। ‘‘इस कन्या की वैराग्य भावना, मार्ग में कष्टसहिष्णुता, भयंकर माघ-पौष की ठंड में भी मात्र एक साड़ी में रहना, न दिन में चादर ओढ़ना, न रात्रि में ओढ़ना, मात्र रात्रि में चावल की घास पर ऐसे ही एक करवट से सो जाना, दिन में एक बार भोजन करना, अपराह्न में जल भी नहीं पीना’’ आदि
अभ्यास से तो दीक्षित क्षुल्लिका के सदृश ही चर्या पाली है अतः यह दीक्षा के लिए पात्र है। महाराज जी ने एकांत में जुग्गामल से चर्चा की और यही निर्णय किया कि इसके परिवार में सूचना न देकर इसकी दीक्षा के लिए अच्छी तैयारी की जाये और यहीं पर दीक्षा विधि होवे। पुनः आचार्यश्री ने चैत्र कृष्ण एकम को प्रातः १० बजे का मुहूर्त निकाल दिया। मैंने भगवान महावीर की आराधना की और पूजन किया पुनः सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा मंगलस्नान विधि सम्पन्न होने के बाद मैं पंडाल में आचार्यश्री के सन्मुख आ गई और श्रीफल चढ़ाकर दीक्षा के लिए प्रार्थना की।
आचार्यश्री ने प्रार्थना स्वीकार कर मुझे स्वस्तिक बने हुए चावल के चौक पर बैठने का आदेश दिया, पुनः आचार्यश्री ने अपना वरदहस्त मेरे मस्तक पर रखकर क्षुल्लिका दीक्षा के सारे संस्कार किये और मेरा ‘वीरमती’ यह नाम सभा में घोषित कर दिया पुनः उपदेश में बोले कि- ‘‘मैंने प्रारंभ से ही इसमें जितनी वीरता देखी है, आज के युग में वह अन्यत्र किसी में नहीं देखी है अतः मैं इसके गुणों के अनुरूप ही इसका ‘‘वीरमती’’ यह नाम प्रसिद्ध कर रहा हूँ।
उपदेश के अनन्तर मैंने गुरुदेव को बार-बार नमस्कार किया। अब मुझे अपने जीवन का सर्वस्व मिल गया था। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं दीक्षा को पाकर कृतार्थ हो गई थी। वहाँ से उठकर गुरुदेव की आज्ञा से मैं मंदिर में गई और भगवान महावीर के दर्शन कर मैंने कहा- ‘‘भगवन् ! आपकी मूर्ति का जो चमत्कार आज तक मैंने सुना था सो मैंने प्रत्यक्ष में देख लिया है। हे नाथ! आप में सच्चा अतिशय है, जो कि आज मुझे दीक्षा मिल गई है।’’
इत्यादि रूप से भगवान् की स्तुति कर मैं अपने स्थान पर आ गई। इससे पूर्व यहाँ एक ब्राह्मीमती क्षुल्लिका जी थीं। आचार्यश्री की आज्ञा से वे मेरे पास आ चुकी थीं। अब हम दोनों क्षुल्लिकायें अपनी आवश्यक क्रियाओं को एक साथ मिलकर करने लगीं और बहुत ही धर्म-प्रेम से रहने लगीं। आठ-दस दिन बाद अकस्मात् माँ मोहिनी यात्रा करते हुए वहाँ आर्इं और दीक्षा के समाचार सुनते ही हर्ष-विषाद से मिश्रित मुद्रा में मेरे दर्शन करने मेरे पास आई।
उन्होंने- ‘‘माताजी! इच्छामि’’ कहकर मुझे नमस्कार किया और मैंने भी-‘‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’’ ऐसा आशीर्वाद दिया। पुनः उन्होंने पूछा-‘‘हम लोगों को दीक्षा के समय का समाचार क्यों नहीं दिया गया?’’ मैं कुछ नहीं बोली। तब वे आचार्यश्री के पास जाकर नमस्कार करके पूछने लगीं। आचार्यश्री ने कहा-‘‘शायद तुम लोग मोह में दीक्षा न होने देते, अतएव मैंने सूचना नहीं दिलाई’ क्योंकि इसकी भावना और योग्यता को देखकर मैंने अब इसे दीक्षा देना ही उचित समझा।’’
इसके बाद महाराज जी ने उन्हें बहुत कुछ सान्त्वना दी। माँ शांत हुई कुछ दिन वहाँ ठहरीं, मेरी दैनिक चर्या देखती रहीं और स्वयं यह भावना भाती रहीं कि ‘‘हे भगवान्! मेरे जीवन में भी ऐसा दिन कब आयेगा?’’ वे कुछ दिन आहार दान आदि देकर क्षुल्लिका वीरमती के (मेरे) आदर्श जीवन को हृदय में लिए हुए अपनी शेष तीर्थयात्रा पूर्णकर घर आ गयीं।
घर में पिता व भाई-बहनों को मेरी क्षुल्लिका दीक्षा का समाचार सुनकर मोह के निमित्त धक्का सा लगा किन्तु होनहार अटल समझकर सभी लोग अपने-अपने कार्यों में लग गये और मेरी याद को कुछ न कुछ भुलाने की कोशिश करते रहे। महावीर जी में आचार्यकल्प श्री वीरसागर जी महाराज का संघ चैत्र मास में आ गया। इतने बड़े संघ का दर्शन कर मन पुलकित हो उठा। आहार के समय जब सभी मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका आचार्यकल्प श्रीगुरुदेव वीरसागर जी के पीछे क्रम से पंक्तिबद्ध हो कर निकलते थे तब वह दृश्य देखते ही बनता था।
मैंने भी समयोचित आकर संघ की प्रमुख आर्यिका वीरमती माताजी से बहुत कुछ शंका समाधान किये थे। पंडाल में जब देशभूषण जी महाराज और आचार्यकल्प वीरसागर जी महाराज विराजे थे और श्रावकों को धर्मोपदेश सुना रहे थे उस समय जनता भी भाव-विभोर थी। चैत्रशुक्ला १५ का महावीर जी का बड़ा मेला देखकर आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज ने वापस लखनऊ की ओर प्रस्थान कर दिया। संघ में क्षुल्लिका ब्राह्मीमती जी और मैं थी।
आचार्यश्री मार्ग में २०-२० मील (३०-३० किमी.) चल लेते थे। मैंने बहुत ही साहस किया किन्तु कई बार स्वास्थ्य बिगड़ गया व मार्ग में ही मूर्छित हो गई। जैसे-तैसे कुछ दिनों तक चलती रही, क्योंकि मेरी इच्छा दीक्षा लेने के बाद रेल-मोटर आदि वाहन में बैठने की कतई भी नहीं थी। अंततोगत्वा आचार्यश्री की आज्ञा से मुझे मोटर में बैठना पड़ा किन्तु मानसिक शान्ति नहीं रही। मन में प्रतिकूलता होने से मन पर उसका असर बहुत ही पड़ा। अस्तु, संघ सकुशल लखनऊ आ गया।
इससे पूर्व सन् १९५२ के चातुर्मास को टिकैतनगर में कराने के लिए टिकैतनगर के भाक्तिक श्रावक आचार्यश्री से अतीव अनुरोध करके हार चुके थे और आचार्यश्री ने वह चातुर्मास बाराबंकी में कर लिया था। सो अब समय नजदीक देखकर टिकैतनगर में चातुर्मास करने के लिए बहुत श्रावक प्रार्थना करने लगे किन्तु आचार्यश्री ने आश्वासन भी नहीं दिया, प्रत्युत ‘‘ना’’ कर दिया। संघ टिकैतनगर के निकट दरियाबाद में ठहरा हुआ था किन्तु आचार्यदेव टिकैतनगर जाने के लिए तैयार नहीं थे।
शायद टिकैतनगर में मेरे ताऊ, चाचा और पिता के विरोध के कारण ही वे टाल रहे थे। तब टिकैतनगर के लोगों ने पिता से कहा कि- ‘‘आपको आचार्यश्री के चातुर्मास हेतु प्रार्थना करने के लिए चलना पड़ेगा अन्यथा आचार्यश्री टिकैतनगर नहीं आयेंगे।’’ इनता सुनकर वे स्वयं अकेले आचार्यश्री के पास दौड़े चले आये। मोह में कहे गये कटु शब्दों के लिए क्षमायाचना की और बार-बार टिकैतनगर चातुर्मास के लिए प्रार्थना करने लगे। आचार्यश्री का मन एकदम प्रसन्न हो उठा।
उन्होंने बड़े प्रेम से उनकी प्रार्थना सुनी और आश्वासन दिया पुनः पिताजी उठकर मेरे पास आये, विनय से हाथ जोड़कर ‘‘इच्छामि’’ किया और कहने लगे- ‘‘माताजी! आचार्यश्री से निवेदन करो, यह चातुर्मास अपने गाँव टिकैतनगर में ही होना चाहिए।’’ इसी संदर्भ में पुनः सर्व भाक्तिकगण आ गये। आचार्य श्री ने टिकैतनगर में ही यह चातुर्मास करने की स्वीकृति दे दी। कतिपय दिनों बाद आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को टिकैतनगर में आचार्य श्री ने चातुर्मास स्थापना कर ली।
गाँव का वातावरण धर्ममय बन गया। मैं इस प्रथम चातुर्मास में प्रायः मौन रहती थी और आचार्य श्री ने रत्नकरण्ऽश्रावकाचार के २०-२५ श्लोक पढ़ाकर यह कह दिया कि तुम स्वतः ही पढ़कर याद कर लो। तुम्हें सभी अर्थ समझ में आ जाता है। यद्यपि मुझे इस तरह संतोष नहीं था, फिर भी गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य होने से मैं कुछ भी नहीं कह सकी।
एक बार आचार्य देव ने मुझे ‘‘हिन्दी-इंग्लिश टीचर’’ नाम की एक पुस्तक दी और कहा कि तुम इस पुस्तक से इंग्लिश लिखना-पढ़ना स्वयं ही सीख लो। मैंने एक सप्ताह के अभ्यास से ही छोटे-छोटे इंग्लिश वाक्य बनाना शुरू कर दिया और एक दिन आचार्यश्री मेरे इस ज्ञान के क्षयोपशम से बहुत ही प्रसन्न थे, अतः उन्होंंने प्रसन्नता व्यक्त की। इसी बीच टिकैतनगर गाँव के एक धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी जो कि वयोवृद्ध थे, उन्होंने कहा कि तुम्हें इंग्लिश पढ़कर क्या करना है? तुम तो अपनी संस्कृत भाषा में ही योग्यता प्राप्त करो और अपने गोम्मटसार आदि ऊँचे-ऊँचे ग्रन्थों का गहरा अध्ययन करो।
इतना सुनकर मेरा मन इंग्लिश भाषा से उपरत हो गया, मैंने पुनः उस पुस्तक को हाथ में भी नहीं उठाया, फलस्वरूप जो अक्षर-ज्ञान हुआ था वह भी चला गया। इस चातुर्मास में मैंने भगवती आराधना व परमात्मप्रकाश का कई बार स्वाध्याय किया। गोम्मटसार जीवकाण्ड की करीब ७०० गाथायें रट लीं और अमरकोष को भी कंठाग्र कर लिया। आचार्यश्री की आज्ञा से सिद्धांतकौमुदी व्याकरण भी संघ में रहने वाले त्रिपाठी पंडित ने थोड़ा सा पढ़ाया था, इससे आगे वे स्वयं नहीं पढ़े होने से नहीं पढ़ा सके। इस सन् १९५३ के चातुर्मास के बाद दक्षिण से एक ‘‘विशालमती’’ नाम की क्षुल्लिका यहाँ पर आ गई।
इनका वात्सल्य पाकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई। इससे पूर्व क्षुल्लिका ब्राह्मीमती को पूरे चातुर्मास मलेरिया ज्वर का प्रकोप रहा था। हर तीसरे दिन उन्हें बहुत ही जोर से ठंडी लगकर बुखार आ जाता था जिससे उनकी परिचर्या में भी मेरा बहुत सा समय व्यतीत हो जाता था। मैं अधिकतर पढ़ती ही रहती थी अतः आँख में और सिर में दर्द बनी रहती थी।
ब्राह्मीमती जी ने माँ मोहिनी से कहा कि तुम इनकी आँखों पर अपने दूध का फाहा (दूध से भिगी रुई) रख दिया करो। तब वे प्रतिदिन रात्रि में ९-१० बजे के लगभग आतीं और बैठी रहतीं। जब मैं सो जाती तब चुपचाप अपने दूध से रुई को भिगोकर मेरी दोनों आँख पर रखकर चली जाती थीं। ऐसे ही बहुत दिनों तक प्रायः वे उपचार करती रहती थीं और अपनी मातृ भावना के स्नेहस्वरूप दूध के फाहे को आँखों पर रखती रहती थीं।
पिताजी जब-तब आकर बैठ जाते थे और कुछ बात करने की अपेक्षा रखते थे किन्तु मैं जब कुछ नहीं बोलती थी तब वे उठकर चले जाते, किन्तु प्रातः से सायं की चर्या का बारीकी से अवलोकन करते हुए मन में बहुत ही प्रसन्न होते थे। एक बार दादी आर्इं और वे चाँदी के २०-२५ रुपये ले आर्इं। चुपचाप हाथ में देना चाहती थीं, बोलीं- ‘‘‘ माताजी! ये रुपये लेकर चुपचाप पास में रख लो, किसी भी कार्य में लगा देना, अथवा कभी किसी समय तुम्हारे काम आयेंगे।’’
मैंने कहा- ‘‘हमने सब कुछ त्याग कर दिया है, दो धोती, दो दुपट्टा मात्र परिग्रह है। सो भी श्रावकों से मिल जाता है और एक बार शुद्ध भोजन, वह भी श्रावकों के घर में पड़गाहन विधि से जाकर करना होता है। अतः हमें रुपयों की क्या आवश्यकता है?’’ जब मैंने नहीं लिया तब वे बहुत दुःखी हुर्इं और भोलेपन से बोलीं-‘‘कोई किताब मँगा लेना।’’
मैंने कहा-‘‘सो भी आचार्य महाराज देते हैं, अतः इन रुपयों को ले जाओ मंदिर जी में दे देना।’’ वे बेचारी निराश होकर मन मारकर चली गयीं। वे सोचा करती थीं और प्रायः महिलाओं से अपना दुःख व्यक्त किया करती थीं कि-‘‘देखो! इतनी छोटी बालिका, अभी खेलने-खाने की, गहना जेवर पहनने की इसकी उमर, किन्तु इसने सब कुछ छोड़ दिया है ।’’
तब मैं सोचती-‘‘मोह कर्म का वैâसा प्रभाव है कि यह जीव केवल खाने-पहनने में, संसार के विषय भोगों में ही सुख मान रहा है किन्तु मुझे तो जो अनुपम निधि, जो अनुपम सुख-आध्यात्मिक सुख है वह मिल चुका है। अरे! अनादिकाल से इस संसार में मैंने क्या तो नहीं खाया है? और क्या तो नहीं पहना है? इस खाने-पहनने में ही तो अनन्तकाल बिता दिया है किन्तु सच्चा सुख नहीं मिला है। अतः अब सच्चा सुख -शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए यह त्याग मार्ग ही साधन है। इसी त्याग के बल से आत्मा को परमात्मा बनाया जा सकता है। इत्यादि ।’’ ऐसे ही धर्मध्यानपूर्वक टिकैतनगर का चातुर्मास सम्पन्न हो गया।