(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. तीर्थयात्रा का महत्त्व।
२. तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान।
३. पद्मपुरी-महावीर-मथुरा-जम्बूस्वामी की स्मृति।
४. आगरा-फिरोजाबाद-रत्नपुरी-अयोध्या यात्रा।
५. अयोध्या तीर्थंकरों की जन्मस्थली से टिकैतनगर।
६. टिकैतनगर में धर्म प्रभावना।
७. माता-पिता द्वारा परिषहजय श्रवण करना।
८. संघ बनारस-पटना-राजगृही-पावापुरी-गुणावां-चम्पापुर-कुण्डलपुर होकर सम्मेदशिखर पहुँचा।
९. नगर-नगर और शहर-शहर में धर्मप्रभावना।
१०. सम्मेदशिखर की यात्रा-पूरे मार्ग में मंत्र जप।
११. प्रभु चरणों में प्रार्थना।
१२. तीर्थों की वंदना का महत्त्व।
१३. ईसरी में आगमन-प्रवचनसार का स्वाध्याय।
सब तीर्थों में महातीर्थ है, सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर।
मोक्ष गये सब, सदा जायेंगे, इसी क्षेत्र से तीर्थंकर।।
अनंतानंत अन्य मुनिवर भी, इसी क्षेत्र पाया निर्वाण।
शाश्वत-पावन तीर्थक्षेत्र को, सादर बारम्बार प्रणाम।।४२०।।
जिनने किये न जिनवर दर्शन, ऐसे नेत्रों से क्या काम।
जिनने सुनी नहीं जिनवाणी, नहीं सुशोभित हों वे कान।।
तीर्थवंदना करी न जिनने, वे पग क्या पाएँ शिवधाम।
ऐसी रसना में रस-ना है, जिसने लिया न प्रभु का नाम।।४२१।।
यह विचार कर श्री माताजी, तीर्थवंदना किया प्रयाण।
साथ रहीं आर्यिका जिनमति, पद्मावती, आदिमति नाम।।
क्षुल्लिका श्री श्रेयांसमती जी, सुगनचंद जी ब्रह्मचारी।
ब्रह्मचारिणी गल्कू-मूली, मनोवती, भँवरी बाई।।४२२।।
पद्मपुरी-श्रीमहावीरजी, होकर मथुरा पहुँचा संघ।
जम्बूस्वामी के जीवन के, मुखर हो गये सकल प्रसंग।।
बाल्यकाल में पढ़ा था मैना, जम्बूस्वामी चरित महान्।
उससे ही मैना ने पाया, ब्रह्मचर्यव्रत-शीलनिधान।।४२३।।
पद्मनंदिपंचविंशतिका, पढ़ मन उपजा भाव विराग।
जम्बूस्वामी चरित ने उसको, बना दिया शोले की आग।।
फलस्वरूप मैनादेवी ने, गृहकारागृह छोड़ दिया।
वीरमती फिर ज्ञानमती मन, मोक्षमार्ग से जोड़ दिया।।४२४।।
मथुरा से संघ चला आगरा, तदा फिरोजाबाद नगर।
किये सुदर्शन बाहुबली के, बिम्ब तुंग, मनहर-सुंदर।।
मैनपुरी-कन्नौज-कानपुर, फिर संघ पहुँचा रत्नपुरी।
तीर्थंकर श्री धर्मनाथ जिन, जन्मभूमि शोभा बिखरी।।४२५।।
रतनपुरी को वंदन करके, नगर अयोध्या पहुँचा संघ।
अनादिनिधन यह तीर्थ महत्तम, आगम वर्णित सकल प्रसंग।।
सभी तीर्थंकर यहीं जनमते, सम्मेदशिखर पाते निर्वाण।
वर्तमान में आया अंतर, इसे भूल हुण्डा की मान।।४२६।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती का, जानो जन्म अयोध्या ही।
बारह योजन, मील छ्यानवै, सीमा आगम में वरनी।।
टिकैतनगर संघ गया यहाँ से, तोरण द्वारे बने कई।
गया सजाया जैसे दुल्हन, सजती कोई नई-नई।।४२७।।
जैनाजैन हुए लाभान्वित, सप्तदिवस तक रहा प्रवास।
प्रवचन-चर्चा-चर्या द्वारा, धर्म प्रभावना किया प्रयास।।
संघ आर्यिका मध्य शोभती, माताजी श्री ज्ञानमती।
यथा देवियों बीच शोभती, मात शारदा सरस्वती।।४२८।।
साधू होते पवन स्वभावी, रुकते नहीं सदा गतिमान।
आज यहाँ अमृत बरसाते, कल वहाँ देते जीवनदान।।
नीच-ऊँच का भेद न करते, सबको स्वस्थ बनाते हैं।
जो रहते गतिमान सर्वदा, वे पावन हो जाते हैं।।४२९।।
श्री प्रकाश से मात-पिता, सब सुनते चर्चा काल विहार।
करुणा दृश्य उपस्थित होते, बह पड़ती असुंअन की धार।।
यहाँ शयन करतीं गद्दों पर, रखा न धरती पैर कभी।
वे अब करतीं पद विहार हैं, कांटे-पत्थर की धरती।।४३०।।
हाड़ वँपाने वाली सर्दी, दाँत करें वीणा का काम।
कोमल तन पर रहें झेलती, समता से वर्षा औ घाम।।
उभय काल चलता विहार है, दुपहर बाद करें आहार।
नीरस, स्वल्प, पाणिपुट बैठे, संयम धारण असि की धार।।४३१।।
संघ साथ चलने वाले भी, करते थे नीरस आहार।
किन्तु भूख में ऐसा लगता, जैसे हो अमृत का सार।।
घर के छप्पन भोजन में वह, स्वाद कहाँ जो इसमें है।
सन्तों के आशीर्वाद से, सबका जीवन सुख में है।।४३२।।
टिकैतनगर से गमन हो गया, सकल संघ आरा आया।।
वहाँ से चलकर क्रमश: क्रमश:, नगर बनारस पधराया।।
सुपार्श्वनाथ, श्री पार्श्र्वनाथ का, नगर बनारस जन्मस्थान।
भक्तिभाव से करी वंदना, पढ़ी स्तुति सहित प्रणाम।४३३।।
पटना के गुलजार बाग से, सेठ सुदर्शन मोक्ष गये।
पंचपहाड़ी राजगृही के, सकल संघ ने दर्श किए।।
सिद्धक्षेत्र श्री पावापुर से, वीरप्रभू पाया निर्वाण।
माताजी ने भाव सहित, श्रीसिद्धक्षेत्र को किया प्रणाम।।४३४।।
श्री गुणावां सिद्धक्षेत्र है, गौतम स्वामी मोक्ष गये।
चम्पापुर में वासुपूज्यप्रभु, सभी कल्याणक पूर्ण हुए।।
महावीर की जन्मभूमि है, नालंदा का कुण्डलपुर।
क्रम-क्रम सबको वंदन करते, संघ पहुँचा सम्मेदशिखर।।४३५।।
सुकरणीय आत्महित पहले, बने तो करना पर उपकार।
आचार्यों ने बतलाया है, यही रहा आगम का सार।।
दीक्षा लेकर माताजी ने, आतम हित प्राधान्य दिया।
किन्तु साथ में समय-समय पर, सर्वभूत उपकार किया।।४३६।।
नगर-गाँव जो मिले मार्ग में, सबको धर्मोपदेश दिया।
दया-अहिंसा पाठ पढ़ाया, वत्सल-व्रत आचार दिया।।
साध्वी वेष-मधुर वचनावलि, हिताचरण-मंगल उपदेश।
सुनकर जन-जन हुये प्रभावित, त्याग किये सामान्य-विशेष।।४३७।।
सातों व्यसन किसी ने त्यागे, किसी ने त्यागे तीन मकार।
किसी ने त्यागा बिना छना जल, किसी ने त्यागा निशि आहार।।
किसी ने धारे पाँच अणुव्रत, कोई नियम लिया पूजन।
करी प्रतिज्ञा स्वाध्याय की, प्रतिदिन करें देव दर्शन।।४३८।।
जैसे गंगा जहँ-जहँ बहती, करती जाती जीवन दान।
वैसे माता ज्ञानमती जी, करती गर्इं जगत् कल्याण।।
जैसे बादल भेद न करता, सब पै करता जल की वृष्टि।
वैसे माता ज्ञानमती की, रही सभी पर समता दृष्टि।।४३९।।
जल को यथा यंत्र मिल जाये, ऊपर को चढ़ जाता है।
मन को तथा मंत्र मिल जाये, ऊर्ध्व गमन कर जाता है।।
सकल मार्ग में माताजी ने, किया महामंत्र का जाप।
पूंछ दबाकर भाग गये सब, विघ्न-अमंगल अपने आप।।४४०।।
परिषहजयी श्रीमाताजी,नहीं देह प्रति लेश ममत्व।
पथ की विकट विषमताओं में, रखतीं मन में सदा समत्व।।
छाले-काँटे कुछ न कर सके, रही खेलती मधुमुस्कान।
सुख-दुख हर्ष-विषाद न करतीं, इन्हें वसुन्धरा बन्धु समान।।४४१।।
कृष्णा ज्येष्ठ सप्तमी प्रात:, कर अहार संघ चढ़ा पहार।
सीता नाले पर सामायिक, फिर आगे बढ़ना स्वीकार।।
पूरे मार्ग मंत्र जप करके, संघ ने पा ली कुंथु शरण।
मस्तक टेका प्रभु चरणों में, मेटो भगवन्! जन्म मरण।।४४२।।
माताजी के कमल नयन से, हर्ष की धारा बह निकली।
हुआ सुनिश्चित भव्य हम सभी, भव की सीमा अल्प रही।।
भाव सहित जो करे वंदना, नहीं नरक-पशु गति पाता।
है अचिन्त्य माहात्म्य क्षेत्र का, महातीर्थ है कहलाता।।४४३।।
जीवन्त तीर्थ ने, महातीर्थ की, संघ सहित वंदना किया।
टोंक-टोंक पर स्तुति-वंदन, भावों से अर्चना किया।।
शिखर-शिखर की रज शिर धारी, अद्भुत भक्ति व्यंजना की।
किया समर्पण, तन-मन-कण-कण, पल-पल कर्म भंजना की।।४४४।।
जीवन है श्वांसों की यात्रा, मुक्ति पूर्व तक परिभ्रम
नियति जीव की बनी हुई है, तन परिवर्तन, जनम-मरण।।
अनादिकाल से रोग लगा यह, दु:ख भोगता है प्राणी।
भव सागर से पार उतारो, हे प्रभु!पार्श्वनाथ स्वामी।।४४५।।
जगज्जाल छिन्न करने की, जिसने मन में ठानी है।
घर-आँगन को त्याग साधना, को अर्पित जिन्दगानी है।।
विषयों से मुख मोड़ लिया है, अब नहीं घूमना चतुर्गति।
माताजी से यहाँ प्राप्त की, सप्तम प्रतिमा मनोवती।।४४६।।
मधुबन में कुछ दिन प्रवासकर, संघईसरी में आया।
प्रवचनसार ग्रंथ आध्यात्मिक, स्वाध्याय सभी को करवाया।।
एक माह रुक कर माताजी, सरलमार्ग श्रम शमन किया।
तीर्थराज की कर परिक्रमा, कलकत्ता को गमन किया।।४४७।।
तीर्थराज सम्मेदशिखर का, है महत्त्व अचिन्त्यकारी।
अरबों-खरबों उपवासों का, फल पाता वंदनकारी।।
नरक-पशूगति टल ही जाती, उनचास भवों में हो भव पार।
ऐसे पावन तीर्थक्षेत्र को, नमन हमारा बारम्बार।।४४८।।