टिकैतनगर चातुर्मास के बाद आचार्यश्री का विहार बाराबंकी, लखनऊ होते हुए पुनः श्रीमहावीर जी की ओर हुआ। कुछ ही दिनों में महावीर जी आकर भगवान् महावीर की सातिशय मूर्ति के दर्शन किये। क्षुल्लिका विशालमती माताजी साथ में ही थींं। यहाँ पर जयपुर के प्रमुख लोगों के आग्रह से आचार्यश्री ने जयपुर की ओर विहार किया। क्षुल्लिका ब्राह्मीमती माताजी ज्वर के निमित्त से अस्वस्थ रहती थीं अतः वे यहीं महावीरजी में रह गयीं।
जयपुर में पहुँचकर सर्वप्रथम भट्टारकजी की नशिया के दर्शन किये। वहाँ पर जयपुर के जैन समाज की भीड़ उमड़ पड़ी। हजारों की जनता ने आचार्यश्री का भव्य स्वागत किया और उनके दर्शन कर अपने को धन्य माना। यहीं पर पंडित इन्द्रलाल जी शास़्त्री का परिचय हुआ। संघ शहर में आ गया।
यहाँ छोटे दीवानजी के मंदिर में आचार्यश्री ठहरे और उसके निकट ही पाटोदी मंदिर में हम दोनों क्षुल्लिकाओं को ठहराया गया। यहाँ धर्म की प्रभावना देखते ही बनती थी। कुछ दिन यहाँ रहकर आचार्य श्री का विहार निवाई गाँव की तरफ हुआ। यहाँ निवाई के सेठ हीरालाल जी पाटनी आदि अच्छे धर्मात्मा श्रावक थे। पण्डित राजकुमार जी शास्त्री भी आचार्यश्री की भक्ति में तत्पर थे।
हम दोनों क्षुल्लिकायें यहाँ मंदिर के पास एक धर्मशाला में ठहरी हुई थीं। गर्मी के दिन थे, हमारे पास में एक ब्रह्मचारिणी चन्द्रावती थीं जो कि बाराबंकी की महिला थीं। एक दिन लगभग २ बजे इन्होंने एक लड़के को कुछ रुपये देकर कहा- ‘‘जाओ, मेरे लिए छुहारा (खारिक) ले आओ।’’ वह लड़का बाहर निकला कि पास के ही एक श्रावक ने पूछ लिया- ‘‘तू कहाँ जा रहा है?’’ उसने कहा-‘‘मुझे माताजी ने रुपये दिये हैं, बाजार से छुआरा लेने जा रहा हूँ।’’ इतना सुनकर वह श्रावक धर्मशाला में आकर बैठ गया। न वह लड़का ४ बजे तक आया और न ये महानुभाव वहाँ से उठे। क्षुल्लिका विशालमती जी मेरे से कहने लगीं- ‘‘अम्मा!भला यह कौन श्रावक है? यहाँ क्यों दो बजे से बैठा है?’’ मैंने कहा-‘‘अम्मा! मुझे कुछ पता नहीं।’’ उन्होंने कहा-‘‘इससे कुछ पूछना तो चाहिए।
छोड़ो, अपने को क्या करना? बैठा रहने दो। जब उसकी इच्छा होगी चला जायेगा।’’ इतनी ही देर में वह लड़का आया और चन्द्रावती के कमरे की ओर जाकर छुहारे की पुड़िया तथा शेष पैसे संभलवा दिये। ब्रह्मचारिणी जी कुछ चिढ़ कर बोलीं-‘‘अरे! तूने ५ बजा दिये। मुझे तो आज कब से प्यास लगी थी।’’ वह श्रावक सब देखता रहा। पुनः क्षुल्लिका विशालमती के निकट आकर बोला- ‘‘माताजी! आपके संघ में इन ब्रह्मचारिणी बाई को ‘‘माताजी’’ क्यों कहते हैं?’’
माताजी ने पूछा-‘‘क्यों! माताजी कहना अच्छा ही होता है।’’ उसने कहा-‘‘नहीं, इससे बहुत कुछ अनर्थ हो सकता है। यह ‘उत्तर है, ‘दक्षिण’ नहीं है। देखो, मेरे ही मन में आज गहरी शंका हो गई थी तभी तो २ बजे से मैं यहाँ बैठा था। यदि आज मैं यहाँ न बैठता तो बाहर यही चर्चा कर देता कि ये क्षुल्लिकायें शाम को छुहारा खाकर पानी पीती हैं।’’ इतना सुनते ही मेरा हृदय एकदम कांप उठा।
मैं घबराई हुई विशालमती माताजी का मुख ताकने लगी। विशालमती जी को भी आश्चर्य हुआ तथा इस बात की खुशी भी हुई कि इस श्रावक ने बहुत ही विवेक से काम लिया है जो अपनी शंका का समाधान आप स्वयं अपनी आँखों से ही देखकर कर लिया है। यह सच्चा श्रावक है, सच्चा गुरुभक्त है, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। पुनः माताजी ने कहा- ‘‘भाई! तुम सच कहते हो।
ब्रह्मचारिणी को माताजी न कहकर ‘‘बाई जी’’ ही कहना चाहिए। अब मैं इन्हें माताजी नहीं कहने दूंगी तथा तुमने आज बहुत ही अच्छा किया जो कि हमारी चर्या भी परख ली है और हमें शिक्षा भी दी है।’’ इनता सुनकर वह श्रावक तो पुनः पुनः हम दोनों को ‘‘इच्छामि’’ कहकर नमस्कार करके चला गया और हम दोनों ने सायंकाल में महाराजश्री के पास जाकर इस घटना को कह सुनाया। आचार्य महाराज हँसे और बोले- ‘‘वह श्रावक गुरुभक्त था तभी उसने ऐसा किया अन्यथा इसी तरह से तो साधुओं की निंदा शुरू हो जाती है।
अज्ञानी लोग ऐसे ही तो मुनियों पर दोषारोपण करने लग जाते हैं। निवाई के बाद यहाँ से विहार कर संघ ‘‘टोंक’’ पहुँचा। वहाँ पर चौबीस जिन प्रतिमाएं भूमि से निकली हुई थीं। उन्हें गाँव के बाहर नशिया जी में विराजमान किया गया था। उनके दर्शन करके मन प्रसन्न हुआ। इस प्रांत मेंं महिलाएं मिट्टी के घड़े सिर पर रखकर पानी भर-भर कर लाती थीं। ऐसा देखने का हमें पहला अवसर था।
चूँकि उस समय तक लखनऊ की तरफ गाँवों में जैन घराने की महिलाएं पानी आदि भरने के लिए घर के बाहर नहीं निकलती थीं। मंदिर जाने में तथा विवाह कार्य आदि में अन्य किसी के घर आने-जाने में महिलाएं चादर ओढ़कर ही बाहर निकलती थीं। अब तो उधर भी वह चादर ओढ़ने की प्रथा प्रायः समाप्त हो चुकी है और सर्वत्र मुनि, आर्यिका आदि संघों के विहार करने से महिलाएँ स्वयं पानी भरने के लिए भी बाहर निकलने लगी हैं।
इस तरह सर्वत्र प्रभावना करते हुये आचार्यश्री पुनः जयपुर आ गये और यहाँ अतीव धार्मिक उत्साह के वातावरण में चातुर्मास की स्थापना हो गई। यहाँ पर इस सन् १९५४ के चातुर्मास में लगभग सौ चौके लग रहे थे। आहार के समय दीवान जी के मंदिर से मील, दो मील तक चौके लग रहे थे। श्रावकों की भक्ति बहुत ही विशेष थी। इसी संदर्भ में एक दिन किसी मंदिर में एक मीटिंग हुई जिसमें ऐसी चर्चा चली कि- ‘‘ यहाँ आचार्य देशभूषण जी महाराज का चातुर्मास होने से लगभग १०० चौके लग रहे हैं।
संघ में साधु तो चार ही हैं एक आचार्य महाराज, एक क्षुल्लक जी और दो क्षुल्लिकाएं। ये चार घर में ही पहुंचते हैं। शेष लोगों के यहाँ फिजूल खर्च हो रहा है। यदि एक चौके का कम से कम एक रुपया भी अधिक खर्च माना जाये तो प्रतिदिन सौ रुपये व्यर्थ ही खर्च हो रहा है। पूरे चातुर्मास में इस तरह यह व्यर्थ का खर्च हो जायेगा। अतः यदि सभी चौके बंद करा दिये जायें और तीन चार ही चौके लगें तो क्या बाधा है? यह फिजूलखर्ची के पैसे बचाकर किसी अन्य कार्य में क्यों न लगा दिये जायें? इत्यादि।’’ यह चर्चा मुनिभक्त विद्वानों के समक्ष आई।
तब उन्होंने भी आपस में मीटिंग कर यह जवाब दिया कि-‘‘हम लोग आहार दान की भावना से शुद्ध चौका बनाते हैं। १० बजे अपने-अपने घर के बाहर खड़े होकर महाराज का पड़गाहन करने से तो हमें आहारदान का पुण्य मिल ही जाता है जो कि एक रुपया के हिसाब से व्यर्थ खर्च नहीं है। प्रत्युत् महान पुण्य बंध का कारण है तथा प्रतिदिन हम लोगों का पता नहीं कितने रुपये का फिजूल खर्च गृहस्थाश्रम में होता ही रहता है-इत्यादि।’
’ ऐसी बात सुनकर ये सुधारक विचारवादी विद्वान् लोेग चुप रह गये। यह चर्चा किसी विशेष श्रावक ने आकर हम दोनों क्षुल्लिकाओं को सुनाई थी। यहाँ चातुर्मास में विरधीचंद गंगवाल, गुलाबचंद सेठी, रामचंद जी कोठारी, हरिश्चंद जी अग्रवाल जैन आदि श्रावक प्रमुख रूप से आचार्यश्री की भक्ति में तत्पर थे।
विद्वानों में पंडित इन्द्रलाल जी शास्त्री, पंडित कन्हैयालाल शास्त्री, पंडित सीमंधर जी आदि आहार दान तथा उपदेश आदि का लाभ ले रहे थे।