कालचक्र सदैव गतिशील रहता है । जैनागम के अनुसार काल के दो विभाग हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। प्रत्येक विभाग के छह-छह भेद हैं ।। अवसर्पिणी काल का पहिया सुख से दु:ख की ओर तथा उत्सर्पिणी का दु:ख से सुख की ओर घूमता है । वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल रहा है । इस काल में जीवों की आयु, बल, शरीर की ऊँचाई, सम्पदा, योग्यता, स्मृति, गति, मति, पद, कद आदि का निरन्तर ह्रास होता जाता है । ‘दुषमा’ नामक पंचम भेद के आते-आते यह गिरावट इतनी बढ़ जाती है कि इस काल में भरत क्षेत्र से कोई भी जीव सीधे मोक्ष नहीं जाता, विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर जा सकता है । जैनधर्म परिणामों की शुद्धि पर जोर देता है, परिणाम-विशुद्धि के लिए ‘खानपान-शुद्धि’ एवं ‘खानदान-शुद्धि’ आवश्यक है । यह चिन्तनीय है कि इस दिशा में कोई गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दे रहा है । इस मंच से खानपान की शुद्धि पर अनेक विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं ।। हम पूज्य माताजी की आज्ञानुसार‘खानदान-शुद्धि’ पर आगम, युक्ति और अनुभव के आधार पर बिन्दु रूप में अपने विचार प्रस्तुत कर रहे हैं ।।खानपान और खानदान की शुद्धि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । ये कोई शब्दमात्र नहीं है, बल्कि सिद्धान्त है । इनसे जो चिगता है, वह मोक्षमार्ग से भटकता जाता है । हमारे जीवन में इन दोनों शुद्धियों का खास महत्व है ।‘खानदान’ शब्द का अर्थ है-कुल, वंश, जाति, गोत्र, संतति, घराना, कुलीनता आदि। शब्दकोष के अनुसार खानजादा ऊँचे कुल में उत्पन्न व्यक्ति को कहते हैं और खानाबदोश कहलाता है वह व्यक्ति, जो लक्ष्य-भ्रष्ट है । ‘खाना-पीना और मौज उड़ाना’ कुलीन लोगों का लक्ष्य नहीं हो सकता, किसी खानाबदोश का हो सकता है । इसीलिए एक उर्दू-शायर ने खानजादा बनने पर जोर दिया है । खानदान-शुद्धि के लिए शास्त्रीय शब्द है-सज्जातित्व की सुरक्षा। महापुराण कार के अनुसार पितृ-वंश की शुद्धि को ‘कुल-शुद्धि’ और मातृवंश की शुद्धि को ‘जाति-शुद्धि’ तथा दोनों की शुद्धि को ‘सज्जातित्व’ कहते हैं ।। आगम में उल्लिखित सप्त परमस्थानों में प्रथम है सज्जातित्व और अंतिम है निर्वाण।एक साधन है तो दूसरा साध्य, एक नींव है तो दूसरी मंजिल । सज्जातित्व के बिना निर्वाण नहीं मिलता, इस विषय में सभी आचार्य एकमत हैं ।। कुल-जाति-व्यवस्था अनादिकालीन है । केवल नाम बदल सकते हैं, किन्तु व्यवस्था अपरिवर्तनीय है । पहले इक्ष्वाकु, सूर्य, चन्द्रवंश आदि होते थे, अब खण्डेलवाल, अग्रवाल, जैसवाल, पद्मावती पुरवाल आदि जातियाँ हैं ।। महात्मा गांधी ने सफाई-कर्मचारियों को एक नया नाम दे दिया-‘हरिजन’। नाम बदलने से जाति तो नहीं बदलती।
हमारे पूज्य आचार्यों ने सज्जातित्व की महिमा का बखान करते हुए लिखा है- विशुद्ध खानदान में ही तीर्थंकरों का जन्म होता है । हमारे सभी तीर्थंकर क्षत्रियकुलोत्पन्न थे, इसके पीछे छिपे रहस्य को समझना चाहिए। जिसका खानदान शुद्ध है, वही दीक्षा का अधिकारी है । आचार्य जिनसेन लिखते हैं-‘‘विशुद्ध कुलगोत्रस्थ सद्वृत्तस्य वपुष्मत:’’अर्थात् विशुद्ध कुल-गोत्र में उत्पन्न सदाचार-सम्पन्न और सुन्दर शरीर वाले ही जिन-दीक्षा धारण करने के पात्र हैं ।। श्री जिनेन्द्र वर्णी ने लिखा है कि पंचमकाल में भी उत्तम कुल का व्यक्ति ही दीक्षा धारण कर सकता है । (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष/प्रव्रज्या)। नीति वाक्यामृत के अनुसार जो द्विजन्मा है, वही दीक्षा का अधिकारी है । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन द्विजन्मा माने गये हैं ।। शूद्र दीक्षा का पात्र नहीं है । लोक की रीति-नीति और व्यवहार में भी सदियों से सज्जातित्व की सुरक्षा का ध्यान रखा जाता रहा है । जैसे- चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि भारत में विवाह घराना देखकर अपनी ही जाति में किया जाता है । हमारे पुरखे बताते थे कि पहले कन्या पक्ष की ओर से योग्य (सजातीय) वर ढूँढने के लिए नाई भेजे जाते थे और वे पितृकुल (पिता, बाबा, दादा आदि) तथा मातृकुल (नाना, मामा आदि) के बारे में भलीभांति पड़ताल कर संबंध निश्चित करने में सहायता करते थे। आज भी भारतीय सेना में जातियों के नाम पर जाट, सिख, गोरखा, डोंगरा आदि रेजीमेंट बने हुए हैं ।। इसका कारण यही है कि इन जातियों में उत्पन्न लोगों में कुल-परम्परा से वीरता और साहस के अंश ज्यादा हैं ।। वैज्ञानिकों ने भी अपने अनुसंधानों के आधार पर इस बात की पुष्टि की है कि पिता के शरीर से जीन्स का प्रभाव सन्तान में भी आता है । देखने में आता है कि प्राय: वैद्य का लड़का वैद्य, वकील का लड़का वकील और नेता का लड़का नेता बनता है । यह भी इसी बात का सूचक है कि पिता के संस्कार पुत्र में आते हैं ।। कहा भी है-‘जैसे जाके मात-पिता, तैसे ताके लरिका’।सोचें कि गाय का दूध हल्का और भैंस का भारी क्यों होता है ? गांधी जी सुपाच्य होने से बकरी का दूध पीते थे। बवासीर, कुष्ठ, कैंसर आदि रोग पैतृक भी होते हैं ।। जातियाँ कहाँ नहीं है! देवों में भी हैं । किल्विषिक जाति के देवों को भी उच्चगोत्रीय माना गया है, किन्तु झाड़ू-बुहारी जैसे निचले दर्जे का काम करने से वे इन्द्र की सभा में नहीं बैठते। शास्त्रों में उनको प्रजा-बाह्य कहा गया है । उच्च गोत्र और प्रजा-बाह्य होने में कोई विरोधाभास भी नहीं है । निंद्य कार्य करने वाले यदि प्रतिष्ठित भी हों, तो भी उनकी निंदा की जाती है और नीच कुल का आदमी भी भले या अच्छे कार्य करता है तो कहा जाता है कि यह तो देवता है । उच्च कुल-गोत्र होने पर भी रजस्वला स्त्री पिण्ड अशुद्ध होने से पूजा नहीं कर सकती और न किसी को छू सकती है । कहा जाता है कि रजस्वला स्त्री की परछाई भी पड़ जाये, तो पापड़ बिगड़ जाते हैं ।। गर्भवती स्त्री की दृष्टि पड़ने से साँप अंधा हो जाता है । हमारे आचार्यों ने जाति-कुल को बुरा नहीं कहा। जाति-मद और कुल-मद न करने की सीख दी है । मद हमेशा अच्छी वस्तु का होता है, बुरी वस्तु का नहीं । लोग गर्व करते हैं हीरे-जवाहरात पर, धूल-मिट्टी-कंकड़ों पर नहीं । कुल-जाति (घराना या खानदान) एक ऊँची चीज है । उसकी सुरक्षा की जानी चाहिए। सच तो यह है कि देश को आजादी मिलने से पहले तक सजातीय विवाहों का ही प्रचलन था, किन्तु उसके बाद पाश्चात्य शिक्षा और बाहरी हवा के प्रभाव से सुधार के पक्षधरों ने पहले सद्धर्म विवाह को उचित करार दिया, जिसका विस्तार अब विजातीय और विधर्मियों के साथ संबंध जोड़ने तक हो चुका है । इसी को कहते हैं उंगली पकड़कर पहुँचा पकड़ना। कुलगोत्र-शुद्धि और पिण्ड-शुद्धि के प्रकरण की आचार्य समन्तभद्र ने ‘भस्म से ढके अंगारे’ का उदाहरण देकर आइने में पड़े प्रतिबिम्ब की तरह स्पष्ट कर दिया है । हम यहाँ एक लघु दृष्टान्त प्रस्तुत कर अपने लेख को विराम दे रहे हैं ।। एक प्रसंग है कि शेरनी ने दो बच्चे पाले-एक अपना और दूसरा सियार का। जब वे बड़े हुए तो एक दिन दोनों जंगल में घूमने गये। वहाँ उनका सामना एक हाथी से हो गया। शेरनी का बच्चा उस पर झपटने को तैयार हुआ ही था कि स्यार-सुत ने उसे टोका और कहा पागल हो गये हो क्या तुम ? देखते नहीं कि इसका डील-डौल कितना बड़ा है । चलो भागो, नहीं तो यह हमें मार डालेगा। घर लौटने पर जब शेरनी के बच्चे ने पूरी घटना बताते हुए कहा कि यह हमारा भाई तो कायर है, हाथी को देखकर दुम दबाकर भाग आया, तब शेरनी ने सियार-सुत से कहा-शूरोसि कृतविद्योसि दर्शनीयोसि पुत्रक!यस्मिन कुले त्वमुत्पन्न: गजस्तत्र न हन्यते।।हे पुत्र! तुम बहादुर हो, विद्या-निपुण हो और देखने में भी शेर के बालक-सदृश हो, किन्तु जिस कुल में तुम पैदा हुए हो, वहाँ हाथी नहीं मारे जाते। (इसलिए तुम वापिस अपने घर जाओ, अब यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है ।) कहने का तात्पर्य यही है कि जाति-कुल का प्रभाव कभी जाता नहीं है । ।।इत्यलम्।।