जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता-
वमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ,
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता: परस्परवैरिण:,
विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु:।।१।।
अर्हत्सिद्धाचार्यो-पाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्य:।
सर्वजगद्वंद्येभ्यो, नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्य:।।२।।
मोहादिसर्वदोषारि-घातकेभ्य: सदाहतरजोभ्य:।
विरहितरहस्कृतेभ्य:, पूजार्हेभ्यो नमोऽर्हद्भ्य:।।३।।
क्षान्त्यार्जवादिगुणगण-सुसाधनं सकललोकहितहेतुम्।
शुभधामनि धातारं, वंदे धर्मं जिनेन्द्रोक्तम्।।४।।
मिथ्याज्ञानतमोवृत-लोवैक-ज्योतिरमितगमयोगि।
सांगोपांगमजेयं, जैनं वचनं सदा वंदे।।५।।
भवनविमानज्योति, र्व्यंतरनरलोकविश्वचैत्यानि।
त्रिजगदभिवंदितानां, वंदे त्रेधा जिनेन्द्राणाम्।।६।।
भुवनत्रयेपि भुवन-त्रयाधिपाभ्यर्च्यतीर्थकतर्¸णाम्।
वंदे भवाग्निशान्त्यै, विभवानामालयालीस्ता:।।७।।
इति पंचमहापुरुषा:, प्रणुता जिनधर्मवचनचैत्यानि।
चैत्यालयाश्च विमलां, दिशंतु बोधिं बुधजनेष्टाम्।।८।।
अकृतानि कृतानि चाप्रमेय-द्युतिमन्ति द्युतिमत्सु मंदिरेषु।
मनुजामरपूजितानि वंदे, प्रतिबिंबानि जगत्त्रये जिनानाम्।।९।।
चेइयभत्तिकाओसग्गो कओ तस्सालोचेउं, अहलोयतिरियलोयउड्ढलोयम्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तिसुवि लोएसु भवणवासियवाणविंतरजोइसियकप्पवासियत्ति चउव्विहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण, णिच्चकालं अंचंति, पुज्जंति, वंदंति, णमंसंति, अहमवि इह संतो तत्थ संताइं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि,वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
इति मंडपान्त: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
जय हे भगवन्! चरणकमल तव, कनककमल पर करें विहार।
इंद्रमुकुट की कांतिप्रभा से, चुंबित शोभें अतिसुखकार।।
जातविरोधी कलुषमना क्रुध, मान सहित जंतू गण भी।
ऐसे तव पद का आश्रय ले, प्रेमभाव को धरें सभी।।१।।
अर्हत् सिद्धाचार्य उपाध्याय, सर्वसाधुगण सुरवंदित।
त्रिभुवन वंदित पंचपरमगुरु, नमोस्तु तुमको मम संतत।।२।।
मोहारी के घातक द्वयरज, आवरणों से रहित जिनेश।
विघ्न रहस विरहित पूजा के, योग्य अर्हत् को नमूँ हमेश।।३।।
क्षमादि उत्तम गुणगणसाधक, सकल लोक हित हेतु महान्।
शुभ शिवधाम धरे ले जाकर, जिनवर धर्म नमूँ सुखखान।।४।।
मिथ्याज्ञान तमोवृत जग में, ज्योतिर्मय अनुपम भास्कर।
अंगपूर्वमय विजयशील, जिनवचन नमूँ मैं शिरनतकर।।५।।
भवनवासी व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक में नरलोक में ये।
जिनभवनों की त्रिभुवन वंदित, जिनप्रतिमा को वंदूँ मैं।।६।।
भुवनत्रय में जितने जिनगृह, भवविरहित तीर्थंकर के।
भवाग्निशांती हेतु नमूँ मैं, त्रिभुवनपति से अर्चित ये।।७।।
इसविध प्रणुत पंचपरमेष्ठी, श्रीजिनधर्म जिनागम को।
विमल चैत्य-चैत्यालय वंदूँ, बुधजन इष्ट बोधि मम दो।।८।।
द्युतिकर जिनगृह में अकृत्रिम-कृत्रिम अप्रमेय द्युतिमान।
नरसुर पूजित भुवनत्रय के, सब जिनबिंब नमूँ गुणखान।।९।।
भगवन्! चैत्यभक्ति अरु, कायोत्सर्ग किया उसमें जो दोष।
उनकी आलोचन करने को, इच्छुक हूँ धर मन संतोष।।१।।
अधो मध्य अरु ऊर्ध्वलोक में, कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्य।
जितने भी हैं त्रिभुवन के, चउविध सुर करें भक्ति से सेव।।२।।
भवनवासि व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक सुर परिवार सहित।
दिव्य गंध सुम धूप चूर्ण से, दिव्य न्हवन से अर्चें नित।।३।।
अर्चें पूजें वंदन करते , नमस्कार वे करें सतत।
मैं भी उन्हें यहीं पर अर्चूं, पूजूँ वंदूँ नमूूँ सतत।।४।।
दुक्खों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपत्ति होवे।।५।।
इति मंडपान्त: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।