सब द्वीपों के मध्य है, उत्तम जंबूद्वीप।
उसके भरत सुक्षेत्र में, तीर्थंकर चौबीस।।१।।
चौदह सो उनसठ प्रमित, उनके गणधर देव।
लक्ष अठाइस औ सहस, अड़तालिस मुनिसर्व।।२।।
जिनवर गणधर मुनिवरा, ऋद्धि सिद्धि भंडार।
विधिवत् मैं पूजा करूँ, करो भवोदधि पार।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहित-चतुर्विंशतितीर्थंकर-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहित-चतुर्विंशतितीर्थंकर-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहित-चतुर्विंशतितीर्थंकर-समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
मिष्ट सुगंधित प्रासुक जल से, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
जन्म जन्म के पाप मैल को, क्षण में दूर हटाऊँ।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर और कर्पूर मिलाकर, चंदन घिसकर लाऊँ।
भव संताप निवारण कारण, जिनवर चरण चढ़ाऊँं।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ताफल सम उज्ज्वल अक्षत, धोय, थाल भर लाऊँ।
अतुल अखंडित शिवपद हेतू, सुंदर पुुंज रचाऊँ।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही चमेली कमल केवड़ा, पुष्प सुगंधित लाऊँ।
भाव भक्ति से जिनवर चरणों, अर्पण कर सुख पाऊँ।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू पेड़ा फेनी घेवर, बहु नैवेद्य बनाऊँ।
क्षुधा रोग के नाशन हेतू, नित नैवेद्य चढ़ाऊँ।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णपात्र में घृत भर करके, बाती को प्रजलाऊँ।
आरत शोक मोह अंधियारी, क्षण में दूर भगाऊँ।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर से मिश्रित सुरभित, धूप अग्नि में खेवूँ।
दुष्ट कर्म प्रज्वालन करके, चहुँदिश धूम्र उड़ावूँ।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम जंभीरी जामुन केला, अनन्नास फल लाऊँ।
उत्तम सरस मोक्ष फल हेतू, जिनपद निकट चढ़ाऊँ।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमादिक, लेकर अर्घ्य बनाऊँ।
जन्म मरण भय नाशन हेतू, नितप्रति अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
गणधर मुनिगण सहित जिनेश्वर, चौबीसों को ध्याऊँ।
विघ्न निवारक चरणकमल को, पूजूँ शिवपद पाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश राष्ट्र राजा प्रजा, सबकी शांती हेतु।
कनक झारि से धार दूँ, विधिवत् भक्ति समेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बकुल मालती केवड़ा, पुष्प सुगंधित लाय।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, सब दुख जाय पलाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
वृषभदेव के समवसरण में, चौरासी हैं गणधर।
ऋषिगण चौरासी हजार से, शोभित हैं श्रीजिनवर।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं चतुरशीतिगणधरचतुरशीतिसहस्रमुनिगणसहितवृषभ्नााथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ के नब्बे गणधर, एक लाख ऋषिगण हैं।
द्वादशगण से शोभित जिनवर, त्रिभुवन के नायक हैं।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं नवति गणधरैकलक्षमुनिगणसहिताजित्नााथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनके गणधर इकसौ, पाँच कहे गुणधारी।
यतिगण हैं दो लाख कहाये, रत्नत्रय निधिधारी।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पंचोत्तरशतगणधर द्वयलक्षमुनिगणसहितसंभवजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन के गणधर इक सौ, तीन सभी के नायक।
तीन लाख मुनिगण शोभित हैं, अक्षय सौख्य प्रदायक।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्र्युत्तरशतगणधरत्रयलक्षमुनिगणसहितअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ के इक सौ सोलह, गणधर ऋद्धि प्रदायक।
तीन लाख अरु बीस सहस मुनि, चारित गुण के नायक।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं षोडशोत्तरशतगणधरत्रयलक्षिंवशतिसहस्रमुनिगणसहित-सुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभ के इक सौ ग्यारह, गणधर गुणमणि भूषित।
तीन लाख त्रय सहस यतीगण, ऋद्धि सिद्धि गुणपूरित।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं एकादशोत्तरैकशतगणधरत्रयलक्षिंत्रशतसहस्रमुनिगण-सहितपद्मप्रभ्नााथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व के पंचानवे थे, गणधर पापविघातक।
तीन लाख मुनिगण गुण मंडित, भव भय दु:खविदारक।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पंचनवतिगणधरत्रिलक्षमुनिगणसहितसुपार्श्व्नााथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रप्रभ के तिरानवे थे, गणधर धर्म प्रचारक।
दोय लाख पच्चास सहस मुनि, धर्म शुक्ल के धारक।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्रिनवतिगणधरद्विलक्षपंचाशत्सहस्रमुनिगणसहिचन्द्रप्रभ्नााथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत के अठ्यासी श्री, गणधर अंतर्यामी।
मुनिगण थे दो लाख कहाये, सब त्रिभुवन के स्वामी।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अष्टाशीतिगणधरद्वयलक्षमुनिगणसहितपुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल जिनके सत्यासी थे, गणधर शीतलकारी।
एक लाख मुनिगण भविजन के, पाप ताप दु:खहारी।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्ताशीतिगणधरैकलक्षमुनिगणसहितशीतल्नााथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर श्री श्रेयांसनाथ के, सत्तत्तर थे गणधर।
मुनिगण चौरासी हजार थे, रोग शोक संकट हर।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तसप्ततिगणधरचतुरशीतिसहस्रमुनिगणसहितश्रेयांसनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य के गणधर छ्यासठ, मुक्तिरमा के भर्ता।
मुनिगण सब थे सहस बहत्तर, भविजन के दु:खहर्ता।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्षष्टिगणधरद्वासप्ततिसहस्रमुनिगणसहितवासुपूज्यनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विमल जिनेश्वर गणधर पचपन, द्विविध कर्ममल धोया।
अड़सठ सहस यतीगण सबने, भव भय संकट खोया।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं पंचपंचाशत्गणधरअष्टषष्टिसहस्रमुनिगणसहितविमल्नााथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनंत के पचास गणधर, परमानंद विधाता।
छ्यासठ सहस साधुगण जग को, धर्मामृत के दाता।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं पंचाशत्गणधरषट्षष्टिसहस्रमुनिगणसहितअनंत्नााथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मनाथ के तेंतालिस थे, गणधर धर्मप्रवर्तक।
चौंसठ सहस मुनीगण शोभें, धर्मतीर्थ संवर्धक।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्रिचत्वािंरशत्गणधरचतु:षष्टिसहस्रमुनिगणसहितधर्मनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ के छत्तिस गणधर, अक्षय शांतिविधाता।
बासठ सहस मुनीगण गुणमणि, अतिशय सौख्यप्रदाता।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं षट्त्रशत्गणधरद्विषष्टिसहस्रमुनिगणसहितशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथुनाथ के पैंतिस गणपति, शिवलक्ष्मी अधिनायक।
साठ सहस मुनिगण व्रत संयम, शील गुणों के धारक।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं पंचिंत्रशत्गणधरषष्टिसहस्रमुनिगणसहितकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर जिनवर के तीस गणाधिप, त्रिभुवन सिद्धि वधूवर।
मुनिगण सहस पचास कहाये, ऋद्धि सिद्धि संपति कर।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं त्रशत्गणधरपंचाशत्सहस्रमुनिगणसहितअर्नााथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ के अट्ठाईस हैं, गणधर त्रिभुवन नेता।
चालिस हजार मुनिगण गुणधर, मोह मल्ल के जेता।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अष्टािंवशतिगणधरचत्वािंरशत्सहस्रमुनिगणसहितमल्लिनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत के कहे अठारह, गणपतिव्रत के नायक।
तीस सहस मुनिगण शोभित थे, रत्नत्रय प्रतिपालक।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं अष्टादशगणधरिंत्रशत्सहस्रमुनिगणसहितमुनिसुव्रतनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमि जिनवर के सत्रह गणधर, भव भय संकट चूरण।
बीस सहस मुनिगण जगनायक, त्रिभुवन गुणगणपूरण।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तदशगणधरिंवशतिसहस्रमुनिगणसहितनम्निााथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ के ग्यारह गणधर, स्वात्म सुधारस पीते।
सहस अठारह मुनिगण सबने, क्रोध मोह रिपु जीते।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं एकादशगणधरअष्टादशसहस्रमुनिगणसहितनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ के दश गणधर थे, अक्षय गुणभंडारी।
सोलह हजार मुनिगण जग में, भव भव के अघटारी।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं दशगणधर-षोडशसहस्रमुनिगणसहितपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावीर के ग्यारह गणधर, भविजन संकट चूरें।
चौदह हजार मुनिगण जन की, रत्नत्रय निधि पूरें।।
नीरादिक ले अर्घ्य बनाकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
मोहध्वांत को शीघ्र भगाकर, चिन्मय ज्योति जगाऊँ।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं एकादशगणधरचतुदर्शसहस्रमुनिगणसहितमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीस जिनके गणनायक हैं, चौदह सौ उनसठ परिमाण।
लक्ष अठाइस सहस सुअड़तालिस मुनिगण हैं कृपानिधान।।
जल चंदन अक्षत आदिक ले अर्घ्य चढ़ाकर गुण गाऊँ।
भव भय दु:ख को शीघ्र नाशकर, फेर न भव वन में आवूँ।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं एकोनषष्टिअधिकचतुर्दशशतगणधरसहितअष्टािंवशतिलक्षअष्ट-चत्वािंरशत्सहस्रमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं सर्वगणधरमुनिगणसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
स्वर्ग मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराजवर।
गाँऊ गुणमणिमाल, करूँ सफल नरभव सही।।१।।
जय जय वृषभ अजित संभव जिन, अभिनंदन आनंद भरो।
जय जय सुमतिनाथ पद्मप्रभ, श्रीसुपार्श्व भव पाश हरो।।
जय जय चंद्रप्रभ चंद्रानन, पुष्पदंत शीतल श्रेयांस।
जय जय वासुपूज्य विमलप्रभु, जय अनंत जय धर्म जिहाज।।२।।
जय जय शांतिनाथ शांतिप्रद, कुंथु अरहजिन मल्लिजिनेश।
जय जय मुनिसुव्रत व्रतदाता, नमि नेमिश्वर पार्श्व महेश।।
जय जय वीरनाथ परमेश्वर जय, भुवनेश्वर दया करो।
जय जय परमानंद परमपद, देकर मुझको तृप्त करो।।३।।
जय जय वृषभसेन आदिक सब, चौदह सौ उनसठ गणनाथ।
जय जय पूर्वधरादि मुनिगण, सात संघ जग में विख्यात।।
छत्तिस हजार नव सौ चालिस, कहे पूर्वधर मुनि पुंगव।
बीसलाख औ पाँच सौ पचपन, शिक्षक मुनि हैं विगत विभव।।४।।
एक लाख औ सहस सत्ताइस, छह सौ अवधीज्ञानी हैं।
एक लाख औ सहसपचासी, आठ सौ केवलज्ञानी हैं।।
विक्रिय ऋद्धिधारक मुनि दो लाख पचीस सहस नवशत।
विपुलमती मुनि एक लाख औ, चौवन सहस सु नव सौ पाँच।।५।।
वादकुशल मुनि एक लाख औ, सोलह सहस तीन सौ जान।
चौबिस तीर्थंकर के ये सब, सात संघ के मुनी महान्।।
सब मुनि लक्ष अठाइस जानो, सहस सु अड़तालीस प्रमाण।
लाख पचास औ हजार छप्पन, द्विशत पचास आर्यिका मान।।६।।
श्रावक अड़तालिस लक्षावधि, कही श्राविका छ्यानवे लाख।
असंख्यात सुरअसुरेन्द्रादि, नर तिर्यंच कहे संख्यात।।
द्वादशगण से वेष्टित जिनवर, त्रिभुवनपति से वंदित हैं।
समवसरण के अतुलित वैभव, प्रातिहार्य से मंडित हैं।।७।।
अंत: वैभव अनंत दर्शन, ज्ञानवीर्य सुख चार महान्।
छयालिस गुणयुत दोष अठारह, रहित जिनेश्वर गुण की खान।।
जय जय मुक्तिरमा परमेश्वर, जय जग शंकर विष्णु जिनेश।
जय जय शिवसुखकर्ता ब्रह्मा, जय जग तारक जिष्णु महेश।।८।।
जय जय गुणसागर, धर्मसुखाकर, तीर्थ उजागर जिनदेवा।
जय तुम पद ध्याऊँ, पाप नशाऊँ, शिवपद पाऊँ भव छेवा।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वगणधरमुनिगणादिद्वादशगणवंदितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।