वीर हिमाचल तैं निकरी, गुरू गौतम के मुख—कुण्ड ढरी है।
मोह—महाचल भेद चली, जग की जड़तातप दूर करी है।।
ज्ञान पयोनिधिमांहि रली, बहुभंग तरंगनिसों उछरी है।
ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलि कर शीश धरी है।।
या जगमन्दिर में अनिवार अज्ञान, अन्धेर छयो अति भारी।
श्री जिनकी धुनि दीप—शिखासम, जो निंह होत प्रकाशन—हारी।।
तो किस भाँति पदारथ—पांति, कहां लहते रहते अविचारी।
या विधि सन्त कहैं धनि हैं, धनि हैं जिन—वैन बड़े उपकारी।।