-शंभु छंद-
सिद्धों का वंदन भव्यों को, जग में सब सिद्धिप्रदाता है।
अर्हंतदेव आचार्य उपाध्याय, सर्वसाधु सुखदाता हैं।।
जिनधर्म जिनागम जिनप्रतिमा, जिनमंदिर भविजन हितकारी।
इनकी भक्ती सब भव्यों को, संसार जलधि तारणहारी।।१।।
श्री शांतिनाथ हैं सोलहवें, तीर्थंकर शांति विधाता हैं।
पंचम चक्रेश्वर षट्खंडाधिप-सार्वभौम जग त्राता हैं।।
बारहवें कामदेव सुंदर, त्रिभुवन में अद्भुत कामजयी।
मैं नमूँ अनन्तों बार इन्हें, पा जाऊँ शाश्वत शांत मही।।२।।
श्री कुंथुनाथ हैं सत्रहवें, तीर्थंकर करुणा सागर हैं।
ये छठे चक्रवर्ती चौदह-रत्नों नवनिधि के ईश्वर हैं।।
तेरहवें कामदेव सौंदर्य – खान शत इंद्रों से वंदित।
इन प्रभु का वन्दन करते ही, मिल जाय अपूर्व सौख्य संपत।।३।।
अरनाथ अठारहवें जिनवर, भवदुख से त्रिभुवन के त्राता।
सप्तम चक्री निज चक्ररत्न से, दिग्विजयी सब सुखदाता।।
चौदहवें कामदेव निरखत, सुरपति ने नेत्र हजार किये।
फिर भी नहिं तृप्त हुआ तुम लख, मैं वंदूँ भक्ति अपार लिये।।४।।
इस मध्यलोक में असंख्यात भी, द्वीप-समुद्र बखाने हैं।
इनमें तेरहद्वीपों तक ही, शाश्वत जिनमंदिर माने हैं।।
ये चार शतक अट्ठावन हैं, इनमें जिनप्रतिमा रत्नमयी।
प्रतिमंदिर इक सौ आठ कहीं, इन वंदत आत्मा सौख्यमयी।।५।।
उनचास हजार चार सौ चौंसठ, प्रतिमाएँ इन मंदिर में।
इन अकृत्रिम रत्नों निर्मित, प्रतिमाओं को वंदूँ नित मैं।।
ये स्वयंसिद्ध जिनप्रतिमाएँ, यद्यपी अचेतन हैं सच में।
फिर भी भक्तों को तीर्थंकर, चेतन सम ही फल दें जग में।।६।।
ढाईद्वीपों में पाँच मेरु, जिनगृह अट्ठानवे तीन शतक।
इक सौ सत्तर हैं कर्मभूमि, इनमें हैं आर्यखण्ड सुखप्रद।।
हैं इक सौ साठ विदेहक्षेत्र, सब शाश्वत कर्मभूमि उनमें।
भरतैरावत हैं पाँच-पाँच, नहिं शाश्वत कर्मभूमि इनमें।।७।।
यदि एक साथ तीर्थंकर हों, या चक्रवर्ति आदिक होवें।
तो इक सौ सत्तर हो सकते, उनका वंदन अघमल धोवे।।
हैं बने यहाँ सब समवसरण, इक सौ सत्तर को कोटि नमन।
भरतैरावत व विदेहों के, तीर्थंकर को भी कोटि नमन।।८।।
इन समवसरण में चार-चार, जिनप्रतिमाएँ उनको वंदन।
प्रभु भक्ती से प्रभु समवसरण का, हो साक्षात् मुझे दर्शन।।
इन ढाईद्वीप में तीर्थंकर, आदिक नवदेव हुए होते।
होवेंगे उन सबको वंदन, ये भविगण मोक्ष हेतु होते।।९।।
तेरहद्वीपों में देवभवन, अगणित माने हैं शास्त्रों में।
हैं आठ शतक इक्कीस भवन, इस रचना में प्रतिमा उनमें।।
यहाँ तेरहद्वीप जिनालय में, इक्किस सौ सत्ताइस प्रतिमा।
इन तीर्थंकर भगवन्तों की, सिद्धों की प्रतिमा की महिमा।।१०।।
तेरहद्वीपों में अकृत्रिम, जिनमंदिर उन सबको वंदन।
ढाईद्वीपों में कृत्रिम भी, जिनमंदिर उनको कोटि नमन।।
तीर्थंकर समवसरण अर्हंत, आदिक नव देवों को वंदन।
जिन पंचकल्याणक भू निर्वाण-क्षेत्र अतिशय तीर्थों को नमन।।११।।
श्री ऋषभसेन आदिक गणधर, चौदह सौ बावन को वंदन।
सब नग्न दिगम्बर मुनी तीन कम, नव करोड़ को शत वंदन।।
श्री ब्राह्मी गणिनी आदि आर्यिका, माताओं का करूँ स्तवन।
सज्ज्ञानमती सिद्धी हेतू, सब सिद्धों को है कोटि नमन।।१२।।
-दोहा-
तेरहद्वीप विधान यह, करो कराओ भव्य।
रत्नत्रय निधि प्राप्त कर, सुख पावो नित नव्य।।१३।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।