सिद्धांत सिद्ध अनादि अनिधन, द्वीप नंदीश्वर कहा।
मुनि वंद्य सुरनर पूज्य अष्टम द्वीप अतिशययुत महा।।
वहाँ पर चतुर्दिक शाश्वते बावन जिनालय शोभते।
प्रत्येक में जिनबिंब इक सौ आठ सुर मन मोहते।।१।।
जिन प्रतिमा के जिनभवन, परमशांति के धाम।
आह्वानन कर पूजते, मिले आत्मविश्राम।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिंबसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिंबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिंबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
क्षीरोदधि का उज्ज्वल जल ले, कंचन झारी भर लाया हूँ।
जिनवर प्रतिमा के चरणों में, त्रयधारा देने आया हूँ।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयज चंदन कर्पूर मिला, भर कनक कटोरी लाया हूँ।
जिनवर प्रतिमा के चरणों में, चर्चन करके हर्षाया हूँ।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल शालि पुंज, ले पुंज चढ़ाने आया हूँ।
निज का अक्षय पद शीघ्र मिले, बस ये ही इच्छा लाया हूँ।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मचकुंद कमल बेला गुलाब, बहु सुरभित पुष्पों को लाया।
निजगुण सुगंधि पैâले जग में, चरणों में रखकर हर्षाया।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली पेड़ा बरफी, पकवान बनाकर लाया हूँ।
सब उदर व्याधि के नाश हेतु, तव अर्पण कर सुख पाया हूँ।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योती के जलते ही, सब अंधकार नश जाता है।
दीपक से तव पूजा करके, सज्ज्ञान उजेला आता है।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध धूप धूपायन में, खेवूं मैं कर्म जला डालूँ।
यश सौरभ से दशदिश महके, निजआत्म गुणों को मैं पालूँ।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
लीची अंगूर अनार आम, बहु सरस फलों को लाया हूँ।
तव चरणों में अर्पण करके, शिवफल के हित ललचाया हूँ।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरू, वर दीप धूप फल लाया हूँ।
तव चरणों में यह अर्घ, समर्पण करके अति हर्षाया हूँ।।
कंचन थाली में चंदन से, बावन जिनमंदिर की रचना।
बावन पुंजों को धर कर मैं, पूजूँ प्रभु लेकर तव शरणा।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमल वापिका नीर, जिनपद धारा मैं करूँ।
शांति करो जिनराज, मेरे को सबको सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कमल केतकी फूल, हर्षित मन से लायके।
जिनवर चरण चढ़ाय, सर्वसौख्य संपति बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपस्थद्वापंचाशत्जिनालयस्थजिनबिंबेभ्यो नम:।
नंदीश्वरवरद्वीप में, अकृत्रिम जिन सद्म।
उनमें जिनप्रतिमा अमल, नमूँ नमूँ पदपद्म।।१।।
जय जय नंदीश्वर पर्व, जगत् में महापर्व कहलाता है।
जय जय बावन जिनमंदिर से, इंद्रों के मन को भाता है।।
जय जय जय रत्नमयी प्रतिमा, शाश्वत हैं आदि अंत विरहित।
जय जय प्रत्येक मंदिरों में, इक सौ अठ इकसौ आठ प्रमित।।२।।
चारों दिश में एकेक कहे, अंजनगिरि अतिशय ऊँचे हैं।
इनके चारों जिनमंदिर को, पूजत ही दु:ख से छूटे हैं।।
अंजनगिरि के चारों दिश में, बावड़ियाँ एक एक सोहें।
इन सोलह बावड़ियों के मधि, दधिमुख पर्वत सुरमन मोहें।।३।।
इनके सोलह जिनमंदिर की, हम नित्य वंदना करते हैं।
जिनप्रतिमाओं की अर्चाकर, निज आत्म संपदा भरते हैं।।
सोलह बावड़ियों के बाहर, दो कोणों पर दो रतिकर हैं।
इन बत्तिस रतिकर पर्वत पर, शाश्वत जिनमंदिर रुचिकर हैं।।४।।
इन बत्तिस रतिकर मंदिर के, जिनबिंबों को मैं नित पूजूँ।
चउ सोलह बत्तिस के मिलकर, बावन जिनगृह सबको पूजूँ।।
अंजनगिरि नीलमणी सम हैं, दधिमुख नग दाfधसम श्वेत कहे।
रतिकर नग स्वर्णिम वर्ण धरें, ये शाश्वत पर्वत शोभ रहे।।५।।
प्रत्येक वर्ष में तीन बार, आष्टान्हिक पर्व मनाते हैं।
सुरगण नंदीश्वर में जाकर, पूजा अतिशायि रचाते हैं।।
हम वहाँ नहीं जा सकते हैं, अतएव यहीं से नमते हैं।
अर्चन परोक्ष से ही करके, भव भव के पातक हरते हैं।।६।।
चारणऋद्धी धर ऋषिगण भी, इन प्रतिमाओं को ध्याते हैं।
जिनवर के गुणमणि नित गाते, फिर भी नहिं तृप्ती पाते हैं।।
यद्यपि इनका परोक्ष वंदन, पूजन है तो भी फल देता।
भावों से भक्ती की महिमा, परिणाम विशुद्धी कर देता।।७।।
मुनिराज भाव से शुक्लध्यान, ध्याते शिवपुरश्री पा जाते।
तब भला परोक्ष भक्ति करके, क्यों नहीं महान पुण्य पाते।।
जिनप्रतिमा चिन्तामणि पारस, जिनप्रतिमा कल्पवृक्ष सम हैं।
ये केवल ‘‘ज्ञानमती’’ देने, में भी तो अतिशय सक्षम हैं।।८।।
नंदीश्वरवर द्वीप की, महिमा अपरंपार।
जो श्रद्धा से नित जजें, पावें सौख्य अपार।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपसंबंधिद्वापंचाशत्-जिनालयजिनबिम्बेभ्यो जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य आष्टान्हिक परब में, आठ दिन पूजा करें।
वरद्वीप नंदीश्वर जिनालय, बिम्ब के गुण उच्चरें।।
वे सर्वसुखसंपत्ति ऋद्धी, सिद्धि को भी पाएंगे।
सज्ज्ञानमति की गुणसुरभि को, विश्व में फैलाएंगे।।१०।।
।।इत्याशीर्वाद:।।